सामूहिक संसाधन प्रबन्धन परियोजना : सामुदायिक संगठन सहभागिता और महिलाओं के बढ़ते कदम की कहानी

ऊँची भूमि हेतु पूर्वोत्तर क्षेत्र सामुदायिक संसाधन प्रबन्धन परियोजना (एनईआरसीओ आरएमपी) की शुरुआत वर्ष 1999 में अन्तरराष्ट्रीय कृषि विकास कोष (आईएफएडी) के आर्थिक सहयोग से की गई थी। इसका उद्देश्य वंचित समूहों के लिए प्राकृतिक संसाधन के प्रबन्धन में सुधार कर स्थायी रूप से उनकी आजीविका में सुधार करना था। इससे पर्यावरण के संरक्षण में भी मदद मिलेगी।

परियोजना क्षेत्र


परियोजना के पहले चरण (जिसे अब 11वीं योजना के अन्त तक बढ़ा दिया गया है) में मेघालय, मणिपुर और असम के 6 समीपस्थ जिलों (पश्चिमी गारो पर्वतीय, पश्चिमी खासी पर्वतीय, उखरुल, सेनापति, उत्तरी कहार पर्वतीय और करबी आंग्लोंग) के 862 गाँव शामिल किए गए हैं। क्रियान्वयन में भारत सरकार और मेघालय, मणिपुर और असम की राज्य सरकारें सहयोग करेंगी। भारत सरकार अपनी पूर्वोत्तर परिषद (एनईसी) के माध्यम से भागीदारी निभाएगी जबकि तीनों राज्य सरकारें ऊपर वर्णित लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा करने के लिए परियोजना द्वारा गठित क्षेत्रीय और जिला परिषदों के जरिये काम करेंगी।

परियोजना का औचित्य


एनईआरसीओआरएमपी—ऊँची भूमि हेतु पूर्वोत्तर क्षेत्र सामुदायिक संसाधन प्रबन्धन परियोजना की रूपरेखा वर्ष 1994 और 1997 के बीच तैयार की गई थी। विकास के पूर्व प्रयासों की सीमित सफलता को देखते हुए इस परियोजना की आवश्यकता महसूस की गई। पहले जो योजनाएँ तैयार की जाती थीं वे बनती तो ऊपर थी परन्तु उनमें अमल नीचे की ओर होता था। विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग-अलग और विकास के प्रति रूढ़िगत दृष्टिकोण के कारण जनजातीय लोगों की सामाजिक-आर्थिक जटिलताओं और उनके अन्तर्सम्बन्धों को प्रायः नजरअन्दाज कर दिया जाता था।

कामकाजी साक्षर विशेषकर महिला एसएचजी सदस्यों में अच्छा-खासा सुधार हुआ है। आमदनी और उत्पाद में वृद्धि से बड़ों और बच्चों के पोषाहार में भी सुधार आया है। स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि हो रही है। लड़कियाँ भी उत्साह के साथ विद्या अध्ययन कर रही हैं।ग्रामीण अर्थव्यवस्था की जड़ता और उसके कारण पैदा होने वाली निर्धनता, कृषि की पारम्परिक झूम प्रणाली का बढ़ती जनसंख्या के दबाव का सामना करने में असमर्थता और लघु परती अवधि के कारण उर्वरता का ह्रास और इन सब कारणों के फलस्वरूप पर्यावरण और जैव विविधता को होने वाली हानि आदि कुछ अन्य कारण हैं जिनकी वजह से एनईआरसीओएमपी की आवश्यकता महसूस की गई। यह अनुभव किया गया कि पूर्वोत्तर क्षेत्र, विशेषकर छठी अनुसूची वाले क्षेत्रों की रूढ़ियों और परम्पराओं से जकड़ा संस्थागत और प्रशासकीय ढाँचा, स्वभाव से लोकतान्त्रिक होने के बावजूद स्थानीय समुदायों के उचित प्रतिनिधित्व और प्रभावी विकास के मामले में कमतर साबित होता था।

एनईआरसीओआरएमपी का उद्देश्य सामुदायिक संस्थाओं के माध्यम से जनोन्मुखी ग्रामीण विकास करना है। समुदाय आधारित ये संस्थाएँ सहभागिता निभाती हैं तथा सम्पोषणीय और व्यावहारिक होती है। जमीनी स्तर पर इन सामुदायिक संस्थाओं को प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन समूह और स्वयं-सहायता समूह कहा जाता है।

लक्ष्य और उद्देश्य


इस परियोजना का उद्देश्य मुख्य रूप से पर्यावरण के संरक्षण और नष्ट हुए पर्यावरण की बहाली है जिसके लिए वंचित वर्ग की आजीविका के प्राकृतिक संसाधनों का स्थायी रूप से बेहतर प्रबन्धन करना होगा। इस व्यापक लक्ष्य के साथ-साथ निम्नलिखित विशिष्ट उद्देश्य भी हैं :

1. और अधिक संवेदनशील विकास को प्रोत्साहित करना।
2. स्थानीय लोगों की भागीदारी और क्षमताओं में वृद्धि।
3. पर्यावरणीय ज्ञान और जागरुकता पैदा करना तथा उनको बढ़ावा देना।
4. इनपुट डिलीवरी और परिसम्पत्तियों के प्रबन्धन की प्रभावी प्रणालियाँ स्थापित करना।
5. स्थानीय संस्थाओं और सामुदायिक निर्णय-प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना।
6. बचत क्षमता में विस्तार और मितव्ययिता को प्रोत्साहन।
7. बुनियादी सेवाओं और सामाजिक अवस्थापना को सुलभ बनाना।

परियोजना के अवयव


परियोजना के निम्नलिखित उद्देश्यों को पूरा कर हासिल किया जा रहा है :
— समुदायों और भागीदार एजेंसियों की क्षमता का विकास
— आर्थिक आजीविका गतिविधियाँ
— समुदाय आधारित जैव विविधता संरक्षण
— सामाजिक क्षेत्र की गतिविधियाँ
— ग्रामीण सड़कें और ग्रामीण विद्युतीकरण

परियोजना के मूल्यांकन से निम्नलिखित प्रगति का पता चला


परियोजना से समग्र मूल्यांकन से स्पष्ट हुआ है कि तमाम चुनौतियों और भौगोलिक विषय-वस्तु के आकार के कारण अति महत्वाकांक्षी होने के बावजूद एनईआरसीओआरएमपी पर्याप्त रूप से एक सफल वैकल्पिक प्रयास सिद्ध हुआ है। ग्रामीण निर्धनता प्रभाव इस परियोजना की सफलता को मापने का मुख्य पैमाना है। यह सक्रिय रूप से शामिल परिवारों और लोगों की संख्या और आजीविका तथा उनकी भलाई में सुधार की सीमा का कार्य है। मूल्यांकन से जो सीधे लाभ और परिवर्तन आए हैं उनका सार निम्नानुसार है :

परियोजना में मूल्यांकन के प्रारम्भिक स्तर पर 460 गाँवों के 23,000 परिवार और 1,31,000 लोग शामिल थे परन्तु अब तक इसमें 862 गाँव और उनके 39,203 परिवारों के 2,23,450 लोग शामिल हो चुके हैं।

मूल्यांकन मिशन का निष्कर्ष है कि अब तक कम-से-कम 25,000 लोग लाभान्वित हो चुके हैं और उन्होंने एक या अधिक परियोजना गतिविधियों से अच्छा-खासा लाभ उठाया है। कुल कमाई के आँकड़ों से निर्धनता में आई कमी का पता चलता है। आँकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 1999 से 2004 के बीच जिन 18,390 परिवारों का मूल्यांकन किया गया उनमें से सबसे निर्धन लोगों की संख्या 9,742 से घटकर 6,455 रह गई और जो कुछ बेहतर स्थिति में थे उनकी संख्या 172 से बढ़कर 625 हो गई। इस प्रकार सम्बन्धित परियोजना के 18 प्रतिशत सबसे निर्धन श्रेणी से बाहर निकल चुके हैं, और 2 प्रतिशत लोग सम्पन्न वर्ग में ऊपर उठ चुके हैं।

मुख्य क्रियान्वयन परिणाम


निर्धनता पर प्रभाव के मुख्य और सर्वाधिक प्रत्यक्ष स्रोत कृषि पर निर्भर आजीविका, फसल विविधीकरण, सिंचाई और झूम का मैदान, गैर- कृषि आजीविका (कुछ कम सीमा तक) और आय सृजन जैसी उत्पादन और आयोन्मुखी गतिविधियाँ रही हैं।

1. कृषि, भूमि उपयोग और जैव विविधता संरक्षण


यद्यपि अभी भी झूम की खेती बड़े पैमाने पर हो रही है, तथापि समीक्षावधि के दौरान इसमें उल्लेखनीय कमी आई है।

परियोजना के तहत 23 हजार हेक्टेयर के लक्ष्य के विरुद्ध अब तक 10 हजार 211 हेक्टेयर झूम खेतों को परियोजना समुदाय में बदला जा चुका है। कम-से-कम समूह (क्लस्टर) स्तर पर, अधिकतर समुदायों ने पूर्ववर्ती झूम भूमि पर सामुदायिक वन तैयार कर लिए हैं। खेती के लिए नयी भूमि तैयार करने के काम में प्रगति हुई है। छोटे-छोटे खेत तैयार करने में सफलता मिली है। सभी जिलों के कई स्थानों में लघु सिंचाई के साधन सुलभ हुए हैं। 370 हेक्टेयर के लक्ष्य के विरुद्ध 492 हेक्टेयर में सिंचाई की नयी सुविधाएँ मुहैया कराई गई हैं और 1, 370 हेक्टेयर के लक्ष्य के विपरीत 1, 530 हेक्टेयर में मौजूदा सिंचाई सुविधाओं की मरम्मत की गई है।

परियोजना ग्रामों में पशुपालन में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। सुअर-पालन और मुर्गी-पालन (बत्तख-पालन सहित) को क्रमशः 8,162 और 12,334 परिवारों ने अपनाया है और यह उनके लिए काफी लाभप्रद सिद्ध हो रहा है। मछली तालाबों की संख्या भी पर्याप्त रूप से बढ़कर 176 हेक्टेयर तक पहुँच गई है, जबकि लक्ष्य केवल 50 हेक्टेयर का ही था। जहाँ-जहाँ मधुमक्खी के छत्ते और सामग्रियाँ मुहैया कराई गई हैं, वहाँ मधुमक्खी-पालन और शहद-उत्पादन में भी काफी बढ़ोत्तरी हुई है।

2. ग्रामीण अवस्थापना और ग्रामीण विद्युतीकरण


ग्रामीण सड़क और ग्रामीण विद्युतीकरण घटक का निहित उद्देश्य गाँवों की सम्पर्क सुविधाओं में सुधार लाना था ताकि लोगों, कृषि के काम आने वाली सामग्री और उत्पादों, घरेलू आपूर्तियों और सामाजिक सेवाओं एवं सुविधाओं को परिवहन सुगम बनाया जा सके और गैर-कृषि वाणिज्यिक तथा लघु उद्योग गतिविधियों के विकास के लिए आवश्यक विद्युत शक्ति पहुँचाई जा सके। योजना थी कि करीब 170 कि.मी. सड़कों को सुधारा जाएगा और 20 कि.मी. तारकोल वाली पक्की सड़कें बनाई जाएँगी। समीक्षा अवधि के दौरान 126 कि.मी. सड़कों को सुधारा गया और 181 कि.मी. लम्बी नयी गिट्टी/मुरम की सड़कें तैयार की गईं।

ग्रामीण विद्युतीकरण के तहत प्रगति सन्तोषप्रद नहीं रही। ग्रिड से 115 गाँवों को जोड़ने के लक्ष्य के विपरीत कुल 80 गाँवों को ही ग्रिड से जोड़ा जा सका। इसी प्रकार 20 सूक्ष्म पनबिजली योजनाओं के स्थान पर केवल एक ही सूक्ष्म पनबिजली योजना का निर्माण हो सका।

3. गैर-कृषि आजीविका


इसके कोई खास लक्ष्य नहीं तय किए गए थे। अनेक गैर-कृषि आजीविका परियोजनाएँ पहले से ही परियोजना के तहत चल रही हैं। ये परियोजनाएँ स्वयं-सहायता समूहों और क्लस्टरों के माध्यम से चल रही हैं। इनमें छोटी खुदरा दुकानें 238, हस्तशिल्प इकाइयाँ 80, फार्मेसी 66, बुनाई उद्यम 592, कुम्हार 484, चावल मिल 29 और अन्य अनेक इकाइयाँ शामिल हैं।

4. सामाजिक क्षेत्र की गतिविधियाँ


इनमें तीन उप-घटक शामिल हैं— पेयजल आपूर्ति, सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल और विद्यालयीन कृषि कार्य। परियोजना के तहत 40 खुदाई वाले कुओं, 100 नलकूप और हैण्डपम्प और 160 गुरुत्वाकर्षण बल के द्वारा काम करने वाली पाइप प्रणालियों के लिए पैसा देना तय किया गया था। जो उपलब्धियाँ हासिल हुईं वे इस प्रकार हैं— 347 सुरक्षित पेयजल आपूर्ति प्रणालियाँ; 134 जलाशय; 34 तालाब सुधार और 30 रिंग वेल।

इसी प्रकार 594 गाँवों में 22,120 कम लागत वाले शौचालय बनाने में सफलता मिली। इसे स्वच्छता और व्यक्तिगत साफ-सफाई के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना जा रहा है जिससे संक्रामक बीमारियों की रोकथाम और उन्नत स्वास्थ्य के लिए मदद मिली है। विद्यालयीन कृषि कार्यक्रम को उच्च प्राथमिकता नहीं दी गई। कुछ स्कूलों के प्रदर्शन भू-खण्ड और कृषि प्रक्षेत्रों को एनएआरएमजी ने इस परियोजना के अन्तर्गत शामिल किया है।

सामुदायिक विकास और सहभागिता का संस्थाओं और महिलाओं पर प्रभाव


सामुदायिक संगठन और सहभागिता; सम्भाव्य और सम्पोषणीय स्वयं-सहायता समूहों का गठन; निर्भरता की मनोवृत्ति और स्वप्रबन्धन की शक्ति का अहसास; निर्धन और निर्धनता समर्थक लक्षित दृष्टिकोण और सम्पोषणीय आजीविकाओं के विस्तार क्षेत्र में एनईआरसीओआरएमपी की उपलब्धियों को व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है।

संस्थाओं के मोर्चे पर परियोजना का प्रभाव मुख्य रूप से जमीनी स्तर पर, गाँवों और स्थानीय स्तर पर, परियोजना समूहों और क्लस्टर संगठनों और संघों तथा उनके गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) भागीदारों पर पड़ते अधिक देखा गया है। कुछ जिलों विशेषकर मेघालय में परियोजना का प्रभाव उन विभागों पर भी पड़ा है जिनका सहयोग स्वयं-सहायता समूहों, प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन समूहों, (एनएआरएमजी) और परियोजना कर्मियों को नियोजन, अभिकल्पन और निवेशों एवं उद्यमों के परिचालन के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करने में ली जा रही है।

परियोजना के दायरे में अनेक ऐसे जनजातीय समुदाय शामिल थे जिनकी प्रजातीय भाषायी पहचान और सामाजिक-आर्थिक विशेषताएँ तो अलग-अलग होती हैं परन्तु वे साझे तौर पर एक ही ग्राम परिषद के सदस्य होते हैं। हालाँकि जनजातीय समाजों में महिलाओं की स्थिति गैर-जनजातीय समाजों की तुलना में बेहतर है। वे कभी भी ग्राम परिषदों का हिस्सा नहीं रहीं और न ही कभी महत्त्वपूर्ण सामुदायिक अथवा इलाकाई निर्णय प्रक्रिया में भागीदार रहीं। परियोजना का एक और उद्देश्य महिलाओं को सामुदायिक निर्णय प्रक्रिया में शामिल करने पर केन्द्रित था।

प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन समूह सामुदायिक विकास की नियोजन एवं क्रियान्वयन संस्थाएँ बन गई हैं। उनमें महिलाओं और पुरुषों की समान भागीदारी (50-50 प्रतिशत सदस्यता) से लिंगानुपात में सन्तुलन बनाए रखा गया है। स्त्री-पुरुषों के बीच सन्तुलन और समानता परियोजना की प्रायः सभी गतिविधियों में परिलक्षित होती हैं।स्वप्रबन्धित बचत समूहों और ऋण एवं अन्य स्वयं-सहायता समूहों और प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन समूहों के गठन के जरिये निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने का विचार था। इसका उद्देश्य उनका वीडीसी (ग्राम विकास परिषद) के विकल्प के रूप में तैयार करना था। प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन समूह सामुदायिक विकास की नियोजन एवं क्रियान्वयन संस्थाएँ बन गई हैं। उनमें महिलाओं और पुरुषों की समान भागीदारी (50-50 प्रतिशत सदस्यता) से लिंगानुपात में सन्तुलन बनाए रखा गया है। स्त्री-पुरुषों के बीच सन्तुलन और समानता परियोजना की प्रायः सभी गतिविधियों में परिलक्षित होती हैं। इस समय परियोजना प्रक्षेत्र में 996 प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन समूह हैं।

परियोजना की सम्भवतः सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि, महिला सदस्यों की प्रधानता वाले स्वयं-सहायता समूहों का गठन है। इस समय 2,071 स्वयं-सहायता समूह हैं जबकि प्रारम्भिक लक्ष्य केवल 920 समूहों का ही था; यह वृद्धि 125 प्रतिशत की है। महिला सदस्यों की कुल संख्या 33,056 तक पहुँच जाने से न केवल इस बात का पता चलता है कि गाँवों के कितने लोग इस प्रक्रिया में शामिल हैं बल्कि उनके उत्साह का भी परिचय मिलता है।

स्वयं-सहायता समूह आन्दोलन से महिलाओं की सोच, व्यवहार और विश्वास में व्यापक, प्रबल और सुस्पष्ट परिवर्तन आया है। प्रशिक्षण के दौरान उन्हें लिखने-पढ़ने का अवसर मिला और इसी एक बात ने उनको सशक्त बना दिया। हिसाब-किताब रखने के लिए बुक-कीपिंग और लेखाकर्म का जो प्रशिक्षण मिला उससे उनमें आत्मविश्वास पैदा हुआ और बचत एवं मितव्ययिता का महत्त्व पैदा हुआ। इन सबका आभास घरेलू स्तर पर लिए जाने वाले फैसलों में उनकी बढ़ती हुई भूमिका और उनके वित्तीय प्रबन्धन क्षमता में हुई वृद्धि को देखकर सहज ही हो जाता है। विशिष्ट प्रशिक्षण कार्यक्रमों में 680 पुरुषों और 630 महिलाओं से भी अधिक लोगों के लिए 206 तकनीकी प्रशिक्षण सत्र; समूह सक्रियता और प्रबन्धन पर एसएचजी 2,388 प्रशिक्षण सत्र; बचत एवं ऋण प्रबन्धन के 4,309 प्रशिक्षण सत्र; लेखाकर्म और बही-खाता पद्धति के 436 सत्र; सम्प्रेषण कौशल के 2,339; और समूह नियमों एवं कानून के 416 सत्र शामिल थे।

एसएचजी आन्दोलन से प्रतिदिन के जीवन में महिलाएँ एक-दूसरे के और पास आई हैं और उनकी पारस्परिक समझ भी बढ़ी है। इससे उनकी सामाजिक और राजनीतिक स्थिति तथा प्रभाव में भी वृद्धि हुई है। आय के साधन सृजित करने वाली 11 गतिविधियों से समय की बचत करने, पैसा कमाने और बेहतर खाद्य उपलब्धता के मामले में महिलाओं को अच्छा-खासा लाभ हुआ है। वन प्रबन्धन, जल संरक्षण और आपूर्ति के कार्य में भाग लेने से उनको और समुदाय को लाभ पहुँचा है। झंझट कम हुआ है और स्वास्थ्य में सुधार हुआ है।

समुदायों ने पहली बार जलापूर्ति योजनाओं का प्रचालन और प्रबन्धन का दायित्व लेना शुरू किया है। सुरक्षित पेयजल, किफायती शौचालयों और जागरुकता अभियानों से बीमारियों की घटनाओं में काफी कमी आई है और महिलाओं एवं लड़कियों के काम का बोझ कम हुआ है।

अतिरिक्त पानी का उपयोग बागवानी और वन लगाने के लिए भी किया जा रहा है। कामकाजी साक्षर विशेषकर महिला एसएचजी सदस्यों में अच्छा-खासा सुधार हुआ है। आमदनी और उत्पाद में वृद्धि से बड़ों और बच्चों के पोषाहार में भी सुधार आया है। स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि हो रही है। लड़कियाँ भी उत्साह के साथ विद्या अध्ययन कर रही हैं।

निष्कर्ष


अन्तरिम मूल्यांकन में दिखाई गई उपलब्धियों को देखते हुए अरुणाचल और मणिपुर के तीन-तीन जिलों में परियोजना के विस्तार का प्रस्ताव विचारार्थ योजना आयोग को भेजा गया है।

(लेखिका पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मन्त्रालय में आर्थिक सलाहकार हैं)
ई-मेल: kirti.saxena@nic.in

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