मध्यप्रदेश के देवास शहर की पहचान पूरे देश में भयावह जल संकट वाले शहर के रूप में रही है। अस्सी के दशक से लेकर अब तक बीते चालीस सालों में यहाँ हर साल पानी की जबर्दस्त किल्लत बनी रहती है। कभी ट्रेन से तो कभी सवा सौ किमी दूर नर्मदा नदी से और कभी 65 किमी दूर गंभीर नदी से यहाँ के लोगों की प्यास बुझाने की कोशिशें की जाती रही है। जल संकट से परेशान हो चुके यहाँ के लोगों को अब बूँद-बूँद पानी की कीमत समझ आने लगी है। शहर में एक मोहल्ला के लोगों ने इस हफ़्ते करीब ढाई सौ साल पुरानी एक बावड़ी को पुनर्जीवित कर दिया। बीते पचास-साठ सालों से इस बावड़ी में पूरे मोहल्ले का कचरा फेंका जाता रहा और इसके आसपास इतने झाड-झंखाड़ उग आए थे कि बावड़ी की पहचान ही खत्म हो गई थी।
अपनी कॉलोनी की बावड़ी को बचाने के लिए यहाँ के रहवासी एकजुट हुए और उन्होंने श्रमदान कर इसकी गंदगी साफ़ की और अब इसे सहेजकर संवारा जा रहा है। इस काम में स्थानीय नगर निगम ने भी संसाधन उपलब्ध कराने में मदद की। नगर निगम आयुक्त ने खुद आगे बढ़कर अपने अमले के साथ श्रमदान भी किया तथा लोगों को अपने पारम्परिक जल स्रोत को सहेजने के काम की तारीफ़ करते हुए इसे अनुकरणीय बताया। जहाँ कुछ दिनों पहले तक नाक पर रुमाल रखकर आना पड़ता था, आज वहाँ बदले हुए हालात में कालोनी ही नहीं शहर के दूसरे हिस्सों से भी लोग शाम के समय घूमने आ रहे हैं। बावड़ी को साफ़ सुथरा कर अब लोग बारिश का इंतज़ार कर रहे हैं। उन्होंने नगर निगम के सहयोग से बावड़ी के आसपास एक बगीचा भी बनाया है और अब इसमें पौधरोपण किया जा रहा है। शाम के समय रंग-बिरंगी रोशनी से यह जगह रौनक हो उठती है। बावड़ी की दीवारों पर सुंदर कला-कृतियाँ बनाई जा रही हैं। शाम के समय बिजली की चमक दमक में इसे देखना अपनी तरह का एक अलग अनुभव है।
1734 ई. में देवास की रियासत ने राजखर्चे पर इस बावड़ी का निर्माण किया था!
देवास शहर की एक कॉलोनी गायत्री विहार में एक ऐसी ही रियासतकालीन बावड़ी कभी खेतों के साथ लोगों की प्यास बुझाया करती थी। इतिहास के जानकार दिलीप सिंह जाधव के मुताबिक बावड़ी में मौजूद मोडी लिपि के शिलालेख के मुताबिक सन 1734 में तत्कालीन देवास जूनियर रियासत के समय राजखर्च से इसका निर्माण किया गया था। यह ऐतिहासिक महत्त्व की है और करीब ढाई सौ सालों तक यह बावड़ी लोगों के लिए पानी सहेजती रही।
1970 के दशक में देवास शहर के विस्तार के साथ परम्परागत जल स्रोतों की जगह घर-घर पाइपलाइन के जरिये नल-जल योजना शुरू की गई. जब लोगों को घर के दरवाज़े पर ही पानी मिलने लगा तो उन्होंने पानी का मोल समझा ही नहीं, पुराने जल स्रोत लगातार उपेक्षित होते चले गए. धीरे-धीरे ये इतने हाशिए पर चले गए कि समाज ने इन्हें भूला दिया और इनमें पानी की नीली लहरों की जगह गंदगी और कूड़ा करकट समाने लगा। इस बावड़ी के साथ भी ऐसा ही हुआ।
देवास की पहचान कभी रियासतकालीन बावड़ियों से होती थी
बुजुर्ग बताते हैं कि कभी देवास की पहचान यहाँ की रियासतकालीन समृद्ध बावडियों से होती थी। यहाँ करीब सौ से ज़्यादा बावड़ियाँ हुआ करती थी और सब एक से बढ़कर एक। इनमें पूरे साल पानी भरा रहता था और लोग इनका उपयोग पेयजल तथा खेती के काम में किया करते थे। पुराने पीढ़ी की आँखों में आज भी उन वैभवशाली बावडियों का पानी हिलोरें मारता है। देवास रियासत के रिकार्ड के मुताबिक दो से तीन सौ साल पहले माता टेकरी से बहकर आने वाले बरसाती पानी के उपयोग के लिए कुछ बड़े तालाब और बड़ी संख्या में कुँए-बावड़ियाँ तत्कालीन रियासतदारों ने बनवाए थे। यही वजह थी कि उन दिनों बुरे से बुरे हालात में भी लोगों को पीने के पानी की कभी कमी महसूस नहीं हुई. दो-ढाई सौ सालों तक इन कुँओं-बावडियों का खूब सम्मान रहा और इन्होने भी पानी के खजाने को दिल खोलकर लोगों में बाँटा।
अरबों रूपये की योजनाओं से भी देवास के जल संकट का कोई स्थाई समाधान नहीं हो सका
शहर में बीते तीस सालों में स्थिति बद से बदतर हुई है। अस्सी के दशक में लोगों की प्यास बुझाने के लिए प्रदेश की सरकार ने ट्रेन की बोगियों में पानी लाकर वितरित करवाया। यहाँ के उद्योगों के लिए बीओटी योजना में सवा सौ किमी दूर नेमावर के तट से नर्मदा नदी का पानी देवास लाना पड़ा। इसी तरह शाजापुर जिले के गंभीर डैम से 65 किमी पाइपलाइन डालकर शहर के पूर्वी भाग की प्यास बुझाई गई। क्षिप्रा जल आवर्धन योजना से भी क्षिप्रा नदी का पानी कई दिनों तक लाना पड़ा। क्षिप्रा नदी के सूखने के साथ नर्मदा-क्षिप्रा लिंक योजना से नर्मदा का बेशकीमती पानी भी फिलहाल देवास शहर को पेयजल के लिए दिया जा रहा है। इसी दौरान इंदौर में नर्मदा के तृतीय चरण से मिलने वाले पानी का भी एक बड़ा हिस्सा पाइपलाइन से देवास पहुँचाया जाता रहा है। अरबों रूपये की इन योजनाओं से भी देवास के जल संकट का कोई स्थाई समाधान नहीं हो सका। इन तमाम प्रयासों का कोई बड़ा फायदा लोगों को नहीं मिला और आज भी स्थिति वही ढांक के तीन पात की तरह बनी हुई है। इस साल जनवरी महीने से ही शहर में पानी की किल्लत की गूँज सुनाई देने लगी है।
हैरत की बात यह है कि इन तमाम श्रमसाध्य और खर्चीले उपायों पर तो सरकारों ने बहुत ध्यान दिया लेकिन कभी किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया कि शहर के परम्परागत जल स्रोतों की भी सुध ली जाए। पानी की कमी से उबरने का एक मात्र सहारा नर्मदा या दूसरी नदियों को मान लिया गया, जबकि शहर के कई कुँए और दर्जनों बावड़ियाँ अपनी दुर्दशा पर आँसू बहाती रही। बाद के सालों में लोगों ने अपने पानी की चिंता सरकार के भरोसे छोड़ दी और सरकारों ने सिर्फ़ जमीनी पानी के अधिक से अधिक उलीचने और नदियों से पाइपलाइन में भरकर लाने की रिवायत को बढ़ावा दिया। जल संकट से निबटने की ये तकनीक सरल थी लेकिन इसके दूरगामी परिणामों की अनदेखी की गई। इससे एक तरफ हमारे परम्परागत जल स्रोत पिछड़ कर समाज से करीब-करीब उपेक्षित हो गए, वहीं हजारों सालों से धरती की नसों में धीरे-धीरे इकट्ठा हुआ पानी का संग्रह तेज़ी से खत्म होने लगा तथा जल स्तर लगातार कम होता चला गया। इसी कारण नदियाँ भी सिकुड़ गई और पहले की तरह वे सदानीरा नहीं रह पाई। और हमारा समाज भी नलों से आने वाले पानी पर ही निर्भर हो गया।
गायत्री विहार रहवासी संघ के सूर्या राजचंदानी के चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक है। उनकी ख़ुशी छुपाए नहीं छुप रही। वे हमें बताते हैं, "शहर के लोगों को एक-एक बाल्टी पानी के लिए सुबह से शाम तक जद्दोजहद करते हुए मैं कई सालों से देखता रहा हूँ। दूसरी तरफ पुराने जल स्रोत उपेक्षा का शिकार हैं। जिन स्रोतों से कई सालों तक हजारों लोगों की प्यास बुझाई जाती रही और जो आज भी पानी सहेजने के काबिल हैं लेकिन उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। हम भी इस बावड़ी को पिछले पाँच सालों से बदतर हालात में देख रहे थे। एक दिन जब कालोनी के लोग समस्याओं पर बात कर रहे थे तो अचानक इसकी ओर बात की दिशा मुड़ गई और हम सब रहवासियों ने तय किया कि पानी सहेजने की इस अनमोल विरासत को फिर से पुनर्जीवित करेंगे। उसी दिन श्रमदान की योजना बनी और देखते ही देखते कई हाथ जुट गए."
रहवासी पंकज दुबे बताते हैं, "श्रमदान में करीब सौ से ज़्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। सबसे पहले कूड़े-कचरे को साफ़ कर झाड-झंखाड़ हटाए गए। उसके बाद धीरे-धीरे आगे का रास्ता बनता गया। फिर नगर निगम से कुछ दमकल बुलवाकर इसकी सफाई करवाई गई। चित्रकार राजेश परमार ने इसकी दीवारों पर सुंदर चित्रकारी की। इसे रंगीन बल्बों से सजाया गया। इसके आसपास नगर निगम ने पौधे लगाकर इसका सौन्दर्यीकरण किया। अब धीरे-धीरे यह जल स्रोत एक बार फिर सजीव आकार ले चुका है। रियासत काल में करीब तीन सौ साल पहले इस बावड़ी का निर्माण करने वाले लोगों ने जिस मंशा से इसे बनाया, उसी मंशा के अनुरूप अब यह बावड़ी कई सालों के अंतराल से एक बार फिर पानी के खजाने को सहेजने को तैयार है। इस साल बारिश में जब इसमें पानीं भरेगा तो इसका सौन्दर्य और भी खिल उठेगा। गायत्री विहार कालोनी के लोग गर्व से बताते हैं कि इस पानी का उपयोग उनके मोहल्ले के साथ आसपास के लोगों के उपयोग में भी आएगा। उसके बाद भी बावड़ी में पानी बचा रहा तो उसे देवास के उन मोहल्लों बस्तियों में पहुँचाने की कोशिश रहेगी, जहाँ के लोग हर साल गर्मियों में जल संकट का सामना करते हैं। नगर निगम के अधिकारीयों से भी लोगों ने इस सम्बन्ध में बात की है। इससे शहर का जल स्तर भी बढेगा।"
बावड़ी के समीप रहने वाले अजय तलरेजा बताते हैं, "दरअसल हमें कई दिनों तक तो बावड़ी के अस्तित्व का पता ही नहीं था। आसपास इतना अधिक झाड झंखाड़ रहता था कि कोई इधर आना ही पसंद नहीं करते थे। कॉलोनी के लोग यहाँ कूड़ा कचरा डालते रहते थे। इतनी गंदगी में कभी कोई इधर आने तक का नहीं सोचता था और कभी मज़बूरी में आना भी पड़े तो नाक पर रुमाल रखकर ही आना पड़ता। अब शहर के दूसरे हिस्सों से भी लोग यहाँ आ रहे हैं और बावड़ी को देखकर खुश होते हैं। कई लोगों ने अपने क्षेत्र में भी इस प्रयोग को करने का संकल्प लिया है। इस शहर में रियासतकाल के दौरान बारिश के पानी को सहेजने के लिए कई कुँए और बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ बनाई गई थी। इनमें से कई अब भी बहुत अच्छी स्थिति में है या मामूली मरम्मत से ये फिर पानी का अच्छा स्रोत बन सकते हैं।"
रहवासियों का प्रयास व श्रम देख नगर निगम ने भी की मदद
नगर निगम के आयुक्त विशाल सिंह चौहान बताते हैं- "बावड़ी को साफ़ सुथरा बनाने में गायत्री विहार और आसपास के लोगों ने सामूहिक प्रयास की मिसाल कायम की है। हमने इस प्रयास की सराहना करते हुए नगर निगम की ओर से भी इसे सजाने-संवारने पर 36 हजार रूपये खर्च किए हैं। शहर के लोगों ने इस बावड़ी पर आकर जो बदलाव देखा है, उससे कई लोगों को प्रेरणा मिली है। शहर में रियासतकालीन ऐसे कई जल स्रोत और बावड़ियाँ हैं, जिन्हें यत्नपूर्वक सहेजा जाए तो शहर के जल संकट को काफी हद तक कम किया जा सकता है। हमने ऐसे ही कई स्थानों के आसपास रहने वाले लोगों से आग्रह किया है कि वे भी यहाँ आकर देखें और इस तरह अपने निकट के जल स्रोत को पुनर्जीवित करें ताकि उन्हें गर्मियों के दौरान जल संकट का सामना नहीं करना पड़े। कई जगह रहवासी सामने आ रहे हैं। हम ऐसी जगहों पर संसाधनों की मदद करेंगे और स्थानीय लोगों को इसकी सतत रूप से सामाजिक निगरानी का दायित्व सौंपेंगे। अब लोग इस बात का महत्त्व समझने लगे हैं कि पानी के लिए सिर्फ़ सरकारी प्रयास ही काफी नहीं है, समाज को भी इसमें आगे बढ़कर अपना योगदान देना होगा। इससे पानी में आत्मनिर्भरता और जल स्तर बढ़ने के साथ स्वच्छता का उद्देश्य भी पूरा होगा।"
इतना ही नहीं इस मोहल्ले के लोगों ने कुछ सालों पहले कालोनी की सडक पर पंक्तिबद्ध पौधरोपण भी किया था। अब ये गुलमोहर के पौधे अच्छे खासे पेड़ बन चुके हैं। इससे गर्मियों में भी यहाँ बहुत अच्छी छाया हो जाती है। इसके साथ ही कालोनी के बगीचे को भी जन सहयोग से हरा-भरा बनाया गया है। कचरे को एक जगह इकट्ठा कर नगर निगम के वाहन से बाहर भेजा जाता है। पूरी कालोनी साफ-सुथरी बनी रहती है। स्थानीय लोग इस पर पूरी निगरानी रखते हैं। रहवासियों ने अपने आँगन में भी पेड़-पौधे लगाए हैं। इसके पास से बहने वाले बरसाती नाले को पाटने की जगह व्यवस्थित किया गया है। इस नाले के कारण यहाँ का जल स्तर काफी अच्छा है।
जल संकट का लगातार कई सालों से सामना कर रहे देवास शहर के लोगों की यह पहल भले ही छोटी हो लेकिन समस्या के स्थाई निदान की दिशा में ऐसे छोटे-छोटे कदम बड़े साबित हो सकते हैं। एक मोहल्ले के लोगों की जल चेतना को पूरे समाज को अंगीकार करने की ज़रूरत है। प्राकृतिक और परम्परागत जल स्रोतों की उपेक्षा ने हमारे आसपास पानी की किल्लत को बढ़ा दिया है। यदि हम इनका सम्मान करना सीख जाएँगे तो काफी हद तक बारिश के पानी को इनमें सहेज सकेंगे। यह बाकी समाज के लिए एक बड़ी प्रेरणा भी हो सकती है।
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