विस्थापन-पुनर्वास का मुद्दा भी संवेदनशील है, इसे मानवीय तरीके से सुलझाया जा सकता है। लोगों के अन्दर विश्वास पैदा करना होगा, इसके बाद हम सब खुद-ब-खुद एक सामूहिक निर्णय बनाने में सफल होंगे, जहाँ से झारखंड की तरक्की के शिखर पर पहुँचने की यात्रा शुरू होगी। अगर माइंस हैं तो उनका उपयोग अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिये करना ही होगा। यह तो झारखंड की खुशकिस्मती है कि यहाँ हीरा छोड़ तमाम खनिजों का उपहार प्रकृति ने दिया है। राज्य अर्थव्यवस्था के बेसिक सेक्टर में माइनिंग शामिल है। इसलिये यह सीधे तौर पर आर्थिक विकास से जुड़ा सवाल है। पक्ष-विपक्ष की तमाम दलीलों के बावजूद खनिजों को बेहतर और प्रभावी तरीके से राजस्व के बड़े साधनों के तौर पर विकसित किया जा सकता है। खनिजों में कैसे वैल्यू एडिशन हो, इस पर हम सबको एक साथ मिलकर विचार करना होगा। भविष्य की रणनीति बनानी होगी।
हर इलाके की अपनी भौगोलिक खासियत होती है और उसी अनुरूप उसकी अर्थव्यवस्था भी अपने-आप रूप ले लेती है। झारखंड में अगर खनिज संसाधन हैं, तो इसे ही इकोनॉमी का मुख्य आधार बनाना होगा। जो लोग खनन के विपक्ष में खड़े हैं, उनके पास पर्यावरणीय क्षति, सामाजिक टूटन और सांस्कृतिक विनाश की दलीलें हो सकती हैं, पर यह भी स्वीकार करना होगा कि इससे कितने परिवारों की रोजी-रोटी चल रही है। अगर हम यूँ ही अलग-अलग खेमे में बँटे रहें तो ग्लोबल इकोनॉमी से हम टक्कर कैसे ले सकते हैं? बीते समय में कुछ कमियाँ रह गईं होंगी, जिनके आधार पर इस सेक्टर को सिर्फ और सिर्फ विनाश का पर्याय नहीं माना जा सकता।
खनन के कई आयाम हैं और इसका प्रभाव भी भूगोल और स्थानीय समाज पर पड़ता है। इसमें सबसे जरूरी है कि हम कैसे अपनी प्राथमिकताएँ तय करते हैं। सारे उद्योग-धंधे समाज को विकसित करने के लिये होते हैं। इसलिये नीति बनाते समय सबसे पहले लोकहित का ध्यान रखना होगा। प्रकृति की सहनशक्ति (कैरिंग कैपेसिटी) और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण भी जरूरी है, जिन्हें दूसरे और तीसरे स्थान पर रखा जा सकता है। इसके बाद ही हम खनन के सस्टेनेबल प्रोसेस की बात कर सकते हैं। बीते समय में हुई गलतियों को हम सुधार सकते हैं और एक सस्टेनेबल इकोनॉमिक मॉडल के तहत विकास कर सकते हैं।
अतीत के सबूत पेश कर अगर लोग जमीन न देने पर अड़े हैं, तो उनमें हमें विश्वास जगाना होगा कि यह आपके विकास के लिये ही है। एक स्थान पर खनन कार्य बीस साल से अधिक समय तक नहीं हो सकता। ऐसे में स्थाई रूप से जमीन लेने के बदले ग्रामीणों के साथ 20-30 साल के लिये गठबंधन या हिस्सेदारी की जा सकती है। प्रोजेक्ट शुरू होने से पहले ही अगर विस्थापितों को आवास, नौकरी, सुविधायुक्त कॉलोनी दे दी जाए तो लोग जमीन देने का विरोध क्यों करेंगे? राजमहल माइनिंग (इसीएल) का उदाहरण देना चाहूँगा कि किस तरह वहाँ साइट से महज तीन किमी की दूरी पर सुविधा सम्पन्न कॉलोनी बनाई गई।
ग्रामीणों की सामूहिकता भंग किए बगैर संस्कृति का आदर करते हुए उन्हें वहाँ शिफ्ट किया गया। लोगों ने खुशी-खुशी इसे स्वीकार किया। ऐसी प्रक्रिया हर जगह अपनाई जाए तो संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल भी होगा और लोगों का नजरिया भी बदलेगा। इसमें खनन कम्पनियों के साथ-साथ सरकार और वहाँ की जनता की भी अहम भूमिका है। दुख इस बात का है कि राज्य के विकास को लेकर हम एक सामूहिक निर्णय पर नहीं पहुँच पाए हैं। कई खेमों में बँटे होने के कारण ही हम पर रिच लैंड-पुअर पीपुल का तमगा लगा है। खनन की बात करते ही कई आयाम अपने-आप सामने आ जाते हैं, जिन पर इसका प्रभाव पड़ना निश्चित होता है। उदाहरण के लिये पर्यावरण, वन, जल संसाधनों आदि पर तो असर पड़ेगा ही, मगर इसके प्रभाव को हम कई उपायों से कम कर सकते हैं।
अंडरग्राउंड माइनिंग में अगर नियमों का सही-सही पालन हो तो ऊपरी सतह बिल्कुल ही सुरक्षित रह सकती है। झरिया धनबाद इलाके को देख लें, वहाँ सौ सालों से भी अधिक समय से कोयला निकाला जाता रहा है। खदानों को खुला छोड़ देने से कोयला हवा के सम्पर्क में आ गया, हीटिंग की प्रक्रिया शुरू हुई और आग लगने का सिलसिला शुरू हो गया। आज यह आग एक बड़े इलाके में फैल चुकी है। 1975 में कोल इंडिया ने खदानों को अपने अधीन लिया, तब तक तो यह आग व्यापक पैमाने पर फैल चुकी थी। इस वजह से कितनी बड़ी मात्रा में कोयला जलकर खाक हो गया, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। ओपन कास्ट माइनिंग को अब अधिक तरजीह दी जा रही है। यह अंडरग्राउंड माइनिंग के मुकाबले अधिक सुरक्षित है। कहने का मतलब यह कि अगर नियमों, गाइडलाइनों की अनदेखी होगी तो प्राकृतिक संसाधनों का लोकहित में बेहतर इस्तेमाल नहीं हो सकता। झारखंड की खदानों को केवल खनन के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा जा सकता। माइनिंग सेक्टर को टूरिज्म इंडस्ट्री से भी जोड़ा जा सकता है। जहाँ धरती के नीचे दुनिया की सबसे बड़ी आग धधक रही है, उसे दिखाने के लिये या माइनिंग की पूरी मैकेनिज्म को समझाने के लिये पर्यटकों को आमंत्रित कर सकते हैं। लेकिन, इसके लिये हमें खुद को तैयार करना होगा, खनन के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा। यह राजस्व के दोहरे द्वार खोलेगा। साथ ही रोजगार का सृजन भी होगा। इसके अलावा अभी हम खनिज तो निकालते जरूर हैं, लेकिन दूसरे राज्य हमारे संसाधनों को महज कच्चे माल के रूप में खरीदते हैं। अधिकतम लाभ के लिये जरूरी है कि खनिजों पर आधारित उद्योग भी यहीं लगाए जाएँ, ताकि हम महज कच्चे माल के सप्लायर से ऊपर उठ सकें।
आयरन ओर (लौह अयस्क) का ही उदाहरण लें। हमारे यहाँ अगर आयरन ओर हैं तो आयरन एंड स्टील प्रोडक्शन प्लांट भी लगाने होंगे, जिससे लौह अयस्क में वैल्यू एडीशन हो और हम मार्केट को डायरेक्ट प्रोडक्ट की सप्लाई करें। इसी तरह कोयला है, तो उसे वाश कर बाहर भेजें। इन अहम बिन्दुओं पर गहराई से सोचना होगा। इसमें माइनिंग कम्पनियों और सरकार की जितनी जिम्मेदारी है, उतना ही स्थानीय लोगों और संस्थाओं का भी सहयोग वांछित है। दूसरी बात कि संसाधनों का अगर इस्तेमाल कर रहे हैं तो उसके री-जेनरेशन (भरपाई) के उपाय भी तलाशने होंगे। लोग इन्हीं का विरोध करते हैं। कई एमओयू हमने माइनिंग सेक्टर में किए हैं, लेकिन अधिकतर प्रोजेक्ट लोगों के विरोध के कारण आगे नहीं बढ़ पा रही हैं। विस्थापन-पुनर्वास का मुद्दा भी संवेदनशील है, इसे मानवीय तरीके से सुलझाया जा सकता है। लोगों के अन्दर विश्वास पैदा करना होगा, इसके बाद हम सब खुद-ब-खुद एक सामूहिक निर्णय बनाने में सफल होंगे, जहाँ से झारखंड की तरक्की के शिखर पर पहुँचने की यात्रा शुरू होगी।
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