नदी एवं जंगल जैसी प्राकृतिक संपदाओं से प्रचुर होने के बाद भी उबड़-खाबड़ भूमि होने के कारण लोग सिंचाई साधनों की अनुपलब्धता से खेती कर पाने में कठिनाई का अनुभव करते थे। ऐसे में बरसाती पानी रोकने का समुदाय स्तर पर किया गया प्रयास सफल व अनुकरणीय रहा।
मौसमी परिवर्तन के कारण आपदाओं की मार तो सभी पर पड़ती है और नुकसान भी सभी का होता है। परंतु पहले स ही विकास कार्यों से अछूते गाँवों, विकासखंडों के लिए यह स्थिति “करेला नीम चढ़ा” वाली हो जाती है। कुछ ऐसी ही स्थिति विंध्य क्षेत्र की है। कभी प्राकृतिक वन संपदा से भरपूर यह क्षेत्र आज विसंगतियों एवं उपेक्षा का शिकार होकर अपनी निजता को खोता जा रहा है और ख़ामियाज़ा वहां रहने वाले को भुगतना पड़ रहा है।
जनपद चंदौली के विकास खंड नौगढ़ के 27 ग्राम पंचायतों में से 6 ग्राम पंचायत कर्मनाशा नदी के उस पार जंगल से घिरे हुए हैं। जंगली क्षेत्र होने के कारण इन ग्राम पंचायतों की भूमि उबड़-खाबड़ है। इन क्षेत्रों में विकास के कोई भी कार्य कभी संचालित नहीं किये गये। सरकारी विभाग यहां पर जाने से भी डरते हैं। विडम्बना ही है कि गांव के लोगों के पास खेती योग्य भूमि होने के बावजूद सिंचाई साधनों की प्रचुरता न होने के कारण उनके साल भर खाने के लिए अन्न नहीं हो पाता था।
ऐसे में इनकी निर्भरता वन उत्पादों पर थी। एक तरह से कहा जाये कि वन उत्पाद ही इनकी आय का मुख्य स्रोत थे, तो अतिश्योक्ति न होगी। जंगल पर ही पूर्णतया आश्रित होने का परिणाम यह हुआ कि जंगलों का दोहन बड़े पैमाने पर किया जाने लगा। जिसका सीधा प्रभाव वर्षा के पानी एवं मिट्टी पर पड़ा और कृषि योग्य भूमि पथरीली भूमि में तब्दील होने लगी तब यहां के लोगों ने इस समस्या को गंभीरता से लिया और इसके समाधान की दिशा में प्रयास करना शुरू किया।
समूह गठन एवं नाले पर बंधी निर्माण
इन्हीं 6 ग्राम पंचायतों में से एक ग्राम पंचायत गंगापुर के गांव झरियवां में 45 आदिवासी परिवार निवास करते हैं। गांव चारों तरफ से जंगल से घिरा हुआ है तथा उत्तर में 2 किमी. की दूरी पर कर्मनाशा नदी बहती है। गांव में खेती योग्य भूमि का रकबा 200 एकड़ होने के बावजूद मुख्यतः वर्षा आधारित खेती होने के कारण यहां के लोग सिर्फ खरीफ की खेती कर पाते थे। जिससे इनके सामने वर्ष के 4 महीने खाने का संकट उत्पन्न रहता था। इसके विकल्प के तौर पर लोग बगल के गांव से ब्याज पर रुपया व अनाज लाते थे और 10 प्रतिशत अथवा डेढ़ा अनाज ब्याज के तौर पर अदा करते थे। सरकार द्वारा गांव के दक्षिण व पश्चिम दिशा में सिंचाई विभाग द्वारा दो छोटी-छोटी बंधियां बनाई गयी हैं, परंतु सिंचाई की दृष्टि से अपर्याप्त साबित होती हैं।
इन सारी समस्याओं को झेलते गांव वासियों को आशा की एक किरण दिखाई दी, जब सामाजिक संस्था पेपुस इनके गांव में आयी और इनकी समस्याओं पर बात-चीत करना प्रारम्भ किया।
दिनांक 20.4.2001 में गांव की एक खुली बैठक की गयी। बैठक के दौरान श्री गिरिजा प्रसाद ने वस्तुस्थिति पर चर्चा करते हुए कहा कि ऐसा नहीं हैं कि हमारे यहां पानी की कमी है। पानी तो प्रचुर मात्रा में है परंतु उबड़-खाबड़ ज़मीन होने के कारण पानी का एकत्रीकरण नहीं हो पाता है। सारा पानी नाले के रास्ते कर्मनाशा नदी में चला जाता है। विकल्प के तौर पर उन्होंने सुझाया कि यदि इसको बांध दिया जाये तो पानी एकत्र होगा, जिसका उपयोग हम सिंचाई के लिए कर सकते हैं। यदि पानी अधिक होगा तो ऊपर से निकल जायेगा। सर्वसम्मति से इस बार सहमति जताई गयी और तब श्रीमती रामसखी देवी के नेतृत्व में लोगों ने बंदी निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ की। मुख्य विषय यह था कि इस निर्माण कार्य हेतु कहीं से भी कोई पैसा अनुदान के तौर पर नहीं था। अतः यह तय हुआ कि जंगल से ढोका, बालू लिया जाये, श्रमदान सभी लोग करेंगे तथा सीमेंट, छड़, मिस्त्री की मजदूरी हेतु बंधी बनने से लाभान्वित होने वाले किसानों से चंदा लिया जायेगा। सभी ने इस नियम को माना और प्रति एकड़ रु. 500.00 की दर से 20 एकड़ ज़मीन का रु. 10,000.00 एकत्र हुआ। मानसिक सम्बल प्रदान करने के साथ ही संस्था ने भी 10,000.00 रु. की लागत लगाई तत्पश्चात् बंधी निर्माण हुआ।
नाले के बांधे गये क्षेत्रफल की लम्बाई 12 मीटर,ऊंचाई 1.5 मीटर तथा चौड़ाई 3 मीटर है। बंधान का यह क्षेत्रफल पक्का है। जबकि पूरब व पश्चिम दिशा में 15-15 मीटर लंबा, 4.5 मीटर चौड़ा व 2.5 मीटर ऊंचाई तक कच्चा बंधान बांधा गया।
नाले को बांधने से लाभान्वित कुल 15 परिवारों द्वारा इसकी देख-रेख एवं रख-रखाव किया जाता है।
इस पूरी प्रक्रिया में लागत के तौर पर जंगल से 30 ट्राली ढोका व 8 ट्राली बालू लगा। इस कार्य में 36 दिनों तक बारी-बारी से 5 लोगों ने प्रतिदिन श्रमदान किया, जिसका मूल्य 36x5x60 रु. = 10800.00 हुआ। रु. 20,000.00 सीमेंट, छड़, मिस्त्री मजदूरी में खर्च हुआ। मानव श्रम का आकलन करते हुए कुल लागत रु. 30,800.00 लगी।
ग्रामीणों एवं पशुओं को एक वर्ष तक खाने के लिए अनाज एवं चारा उपलब्ध होने लगा।
बंधी में एकत्र पानी से खरीफ में धान, रबी में आलू, गेहूं, प्याज की खेती होने लगी है।
वर्षा कम होने पर भी बंधी में एकत्र पानी से सिंचाई की समस्या हल होती है।
20 एकड़ ज़मीन के मालिक 15 किसान सिंचाई सुविधा से लाभान्वित हुए हैं।
बागवानी एवं सब्जी उत्पादन जैसे आजीविका के प्रयास संभव हो सके।
अगर यह प्रयास आज से 20 वर्ष पहले हुआ होता तो हम गरीब न रहते - कपिल देव
संदर्भ
मौसमी परिवर्तन के कारण आपदाओं की मार तो सभी पर पड़ती है और नुकसान भी सभी का होता है। परंतु पहले स ही विकास कार्यों से अछूते गाँवों, विकासखंडों के लिए यह स्थिति “करेला नीम चढ़ा” वाली हो जाती है। कुछ ऐसी ही स्थिति विंध्य क्षेत्र की है। कभी प्राकृतिक वन संपदा से भरपूर यह क्षेत्र आज विसंगतियों एवं उपेक्षा का शिकार होकर अपनी निजता को खोता जा रहा है और ख़ामियाज़ा वहां रहने वाले को भुगतना पड़ रहा है।
जनपद चंदौली के विकास खंड नौगढ़ के 27 ग्राम पंचायतों में से 6 ग्राम पंचायत कर्मनाशा नदी के उस पार जंगल से घिरे हुए हैं। जंगली क्षेत्र होने के कारण इन ग्राम पंचायतों की भूमि उबड़-खाबड़ है। इन क्षेत्रों में विकास के कोई भी कार्य कभी संचालित नहीं किये गये। सरकारी विभाग यहां पर जाने से भी डरते हैं। विडम्बना ही है कि गांव के लोगों के पास खेती योग्य भूमि होने के बावजूद सिंचाई साधनों की प्रचुरता न होने के कारण उनके साल भर खाने के लिए अन्न नहीं हो पाता था।
ऐसे में इनकी निर्भरता वन उत्पादों पर थी। एक तरह से कहा जाये कि वन उत्पाद ही इनकी आय का मुख्य स्रोत थे, तो अतिश्योक्ति न होगी। जंगल पर ही पूर्णतया आश्रित होने का परिणाम यह हुआ कि जंगलों का दोहन बड़े पैमाने पर किया जाने लगा। जिसका सीधा प्रभाव वर्षा के पानी एवं मिट्टी पर पड़ा और कृषि योग्य भूमि पथरीली भूमि में तब्दील होने लगी तब यहां के लोगों ने इस समस्या को गंभीरता से लिया और इसके समाधान की दिशा में प्रयास करना शुरू किया।
प्रक्रिया
समूह गठन एवं नाले पर बंधी निर्माण
इन्हीं 6 ग्राम पंचायतों में से एक ग्राम पंचायत गंगापुर के गांव झरियवां में 45 आदिवासी परिवार निवास करते हैं। गांव चारों तरफ से जंगल से घिरा हुआ है तथा उत्तर में 2 किमी. की दूरी पर कर्मनाशा नदी बहती है। गांव में खेती योग्य भूमि का रकबा 200 एकड़ होने के बावजूद मुख्यतः वर्षा आधारित खेती होने के कारण यहां के लोग सिर्फ खरीफ की खेती कर पाते थे। जिससे इनके सामने वर्ष के 4 महीने खाने का संकट उत्पन्न रहता था। इसके विकल्प के तौर पर लोग बगल के गांव से ब्याज पर रुपया व अनाज लाते थे और 10 प्रतिशत अथवा डेढ़ा अनाज ब्याज के तौर पर अदा करते थे। सरकार द्वारा गांव के दक्षिण व पश्चिम दिशा में सिंचाई विभाग द्वारा दो छोटी-छोटी बंधियां बनाई गयी हैं, परंतु सिंचाई की दृष्टि से अपर्याप्त साबित होती हैं।
इन सारी समस्याओं को झेलते गांव वासियों को आशा की एक किरण दिखाई दी, जब सामाजिक संस्था पेपुस इनके गांव में आयी और इनकी समस्याओं पर बात-चीत करना प्रारम्भ किया।
दिनांक 20.4.2001 में गांव की एक खुली बैठक की गयी। बैठक के दौरान श्री गिरिजा प्रसाद ने वस्तुस्थिति पर चर्चा करते हुए कहा कि ऐसा नहीं हैं कि हमारे यहां पानी की कमी है। पानी तो प्रचुर मात्रा में है परंतु उबड़-खाबड़ ज़मीन होने के कारण पानी का एकत्रीकरण नहीं हो पाता है। सारा पानी नाले के रास्ते कर्मनाशा नदी में चला जाता है। विकल्प के तौर पर उन्होंने सुझाया कि यदि इसको बांध दिया जाये तो पानी एकत्र होगा, जिसका उपयोग हम सिंचाई के लिए कर सकते हैं। यदि पानी अधिक होगा तो ऊपर से निकल जायेगा। सर्वसम्मति से इस बार सहमति जताई गयी और तब श्रीमती रामसखी देवी के नेतृत्व में लोगों ने बंदी निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ की। मुख्य विषय यह था कि इस निर्माण कार्य हेतु कहीं से भी कोई पैसा अनुदान के तौर पर नहीं था। अतः यह तय हुआ कि जंगल से ढोका, बालू लिया जाये, श्रमदान सभी लोग करेंगे तथा सीमेंट, छड़, मिस्त्री की मजदूरी हेतु बंधी बनने से लाभान्वित होने वाले किसानों से चंदा लिया जायेगा। सभी ने इस नियम को माना और प्रति एकड़ रु. 500.00 की दर से 20 एकड़ ज़मीन का रु. 10,000.00 एकत्र हुआ। मानसिक सम्बल प्रदान करने के साथ ही संस्था ने भी 10,000.00 रु. की लागत लगाई तत्पश्चात् बंधी निर्माण हुआ।
बंधे नाले का क्षेत्रफल
नाले के बांधे गये क्षेत्रफल की लम्बाई 12 मीटर,ऊंचाई 1.5 मीटर तथा चौड़ाई 3 मीटर है। बंधान का यह क्षेत्रफल पक्का है। जबकि पूरब व पश्चिम दिशा में 15-15 मीटर लंबा, 4.5 मीटर चौड़ा व 2.5 मीटर ऊंचाई तक कच्चा बंधान बांधा गया।
रख-रखाव
नाले को बांधने से लाभान्वित कुल 15 परिवारों द्वारा इसकी देख-रेख एवं रख-रखाव किया जाता है।
नाला बांधने में आई लागत
इस पूरी प्रक्रिया में लागत के तौर पर जंगल से 30 ट्राली ढोका व 8 ट्राली बालू लगा। इस कार्य में 36 दिनों तक बारी-बारी से 5 लोगों ने प्रतिदिन श्रमदान किया, जिसका मूल्य 36x5x60 रु. = 10800.00 हुआ। रु. 20,000.00 सीमेंट, छड़, मिस्त्री मजदूरी में खर्च हुआ। मानव श्रम का आकलन करते हुए कुल लागत रु. 30,800.00 लगी।
परिणाम
ग्रामीणों एवं पशुओं को एक वर्ष तक खाने के लिए अनाज एवं चारा उपलब्ध होने लगा।
बंधी में एकत्र पानी से खरीफ में धान, रबी में आलू, गेहूं, प्याज की खेती होने लगी है।
मिट्टी का कटाव रुक गया है।
वर्षा कम होने पर भी बंधी में एकत्र पानी से सिंचाई की समस्या हल होती है।
20 एकड़ ज़मीन के मालिक 15 किसान सिंचाई सुविधा से लाभान्वित हुए हैं।
बागवानी एवं सब्जी उत्पादन जैसे आजीविका के प्रयास संभव हो सके।
अगर यह प्रयास आज से 20 वर्ष पहले हुआ होता तो हम गरीब न रहते - कपिल देव
Path Alias
/articles/saamaudaayaika-sahayaoga-sae-raokaa-barasaata-kaa-paanai
Post By: Hindi