जलाशयों का रख-रखाव मरम्मत, साफ-सफाई के कार्य गाँव के लोग मिलकर करते थे परन्तु अब उपेक्षित है। गाँव की सामाजिक व्यवस्था में आये बिखराव के साथ ही जलाशय भी बिखरे। दुर्भाग्यवश आधुनिक पीढ़ी के मानसिक दिवालियापन प्राचीन काल की श्रेष्ठ मान्यताओं को दरकिनार कर दिया। स्वार्थ प्रवृत्ति के चलते अवसरवादी तिकड़मबाजी का सहारा लेकर आजीविका एवं उत्तरजीविका से जुड़ी इस परम्परा को गहरा झटका लगा।
ग्रीष्म ऋतु के संकेतों के साथ ही हाड़ौती सम्भाग के विभिन्न गाँवों, कस्बों में भूमि का जलस्तर गिरने से पेयजल संकट के स्वर गुंजायमान होने लग जाते हैं। सम्भाग के कोटा जिले में ही छोटे-बड़े तालाबों और पोखरों की संख्या एक हजार से अधिक है।पूर्व नरेशों की मदद से कई बार स्वयं ही ग्रामवासियों द्वारा अपने लोकज्ञान का उपयोग कर बनाए गए जलाशयों की परम्परा अपने आप में अद्वितीय रही। गाँव-गाँव में लोग निजी जमीन पर मेड़ व बंधा बनाते थे। सामलाती जमीन पर कांकड़, पोखर, तलाई और झील विकसित किये जाने के साथ ही कुंड व बावड़ी की परम्परा भी यहाँ पर विद्यमान है।
लेखक द्वारा सैंकड़ों तालाबों में उतरकर देखने पर बड़ा ही विचित्र दृश्य दिखाई देता है। कोटा के आसपास के तालाबों में अब भू-खण्ड कट गए, मेढ़ के पत्थर चोरी चले गए तथा कुछ तालाब तो खेल का मैदान बन गए हैं। कुन्हाड़ी में नांता का तालाब तो ताप बिजली परियोजना (थर्मल) की राख से पूरा भर गया। 1996 की वर्षा में लखावा तालाब की पाल में दरार आ गई थी जिससे कोटा शहर के लिये बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो गया। प्रशासनिक अधिकारियों ने काफी भाग-दौड़कर उसे दुरुस्त कराया।
तालाबों की मरम्मत का कार्य नीति निर्धारकों की कार्ययोजना का अंग नहीं रहा है। निकटवर्ती मोरुखुर्द सीमल्या ढानी, आलोद तरकस्या, सालेड़ा खुर्द, किशनपुरा, लोधाहेड़ा गुजारिया हेड़ी, खीमच, गोपालपुरा, काल्याकुंई, अलनिया, शंकरपुरा, रानपुर, लखावा, बपावर, खानेपुरिया, बड़ोदिया मवासा, कसार कौलाना, महेन्द्रगढ़, सकरपुरिया, डडवाड़ा, पीतामपुरा, नालोदी दांता तथा झालावाड़ जिले में खंडिया, मंडावर, नौलाऊ गामड़ी आदि के गाँवों में बातचीत करने में लोग यह स्वीकार करने में देर नहीं करते कि पुरखों से विरासत में मिली जल प्रबन्ध की अद्वितीय व्यवस्था के प्रति उनकी उपेक्षा दुखद है।
पहले इन जलाशयों का रख-रखाव मरम्मत, साफ-सफाई के कार्य गाँव के लोग मिलकर करते थे परन्तु अब उपेक्षित है। गाँव की सामाजिक व्यवस्था में आये बिखराव के साथ ही जलाशय भी बिखरे। दुर्भाग्यवश आधुनिक पीढ़ी के मानसिक दिवालियापन प्राचीन काल की श्रेष्ठ मान्यताओं को दरकिनार कर दिया। स्वार्थ प्रवृत्ति के चलते अवसरवादी तिकड़मबाजी का सहारा लेकर आजीविका एवं उत्तरजीविका से जुड़ी इस परम्परा को गहरा झटका लगा।
कोटा के उत्तर पठार में पानी के बहाव को रोकने के लिये अनेक तालाब लोगों ने बनाए थी। दीप नारायण पाण्डेय लिखते हैं कि ऐसा करना तीन कारणों से जरूरी रहा होगा। प्रथम यह कि पठार का पानी वर्षा ऋतु में इतनी तेज गति से बहकर आता कि कोटा शहर के दक्षिण में उपजाऊ खेतों में मृदाक्षरण को रोकना असम्भव होता अन्यथा बड़े-बड़े बीहड़ से क्षेत्र में बन जाते। द्वितीय कारण पठार में गिरने वाले वर्षा के पानी का एक हिस्सा छोटे तालाबों में रोकने से बाढ़ से बचा जा सकता था और इस जल से पठार की छोटी जोत की सिंचाई होती थी।
पूरे पठार के शेष पानी अन्ततोगत्वा रोकने के लिये कोटा शहर के समीप से दक्षिण पूर्व दिशा में एक शृंखलाबद्ध तरीके से किशोर सागर, कोटड़ी, सूर सागर रामपुरिया व उम्मेदगंज के तालाब बनाए गए। इसका मूल उद्देश्य दोहरा था एक तो अकेलगढ़, आँवली रोझड़ी व डाढ़देवी क्षेत्रों के तालाबों के पानी से भरने के बाद भी शेष बचे जल या पठारी पानी को खेतों के पहले रोकना ताकि नीचे के उत्पादक खेत में मिट्टी न कटे। तीसरा कारण यह रहा कि लम्बे-चौड़े पठारी पनढाल के जल का ऊपरी क्षेत्र में संचय करना ताकि शेष वर्ष भर सिंचाई के काम में लिया जाये। यह भी गौरतलब है कि बड़े तालाब, उत्पादक खेतों के ठीक ऊपरी ढाल पर व पठार के नीचे बनाए गए हैं ताकि खेतों की मिट्टी को बचाने के साथ ही सिंचाई भी आसानी से हो सके।
पठारी तालाबों की शृंखला का महत्त्व कोटा को बाढ़ से कैसे बचाता था। इसका बहुत ही रोचक व शोधपरक अध्ययन भारतीय वन सेवा के अधिकारी दीप नारायण पाण्डेय ने किया है। हाड़ौती के पठारी भाग में बड़े बाँध बनाना कठिन काम रहा होगा क्योंकि विस्तृत पठारी भाग में पाल बनाने के लिये बहुत बड़ा भू-भाग चाहिए। बिना जलाशयों के जल के कोटा कभी प्रगति की राह पर एक डग भी नहीं रख सकता था। कोटा के आर्थिक इतिहास पर दृष्टिपात करें तो विकास के शुरुआती दौर से लेकर आज तक मूलतः यह क्षेत्र कृषि प्रधान रहा है।
आधुनिक काल में यहा पिछले कुछ वर्षों में हुए कथित औद्योगिक विकास की नींव वस्तुतः खेतिहर अर्थव्यवस्था पर ही टीकी है। घुमन्तु पशुपालन इसे भी पहले प्रारम्भ हुआ लेकिन दोनों व्यवस्थाओं से जुड़े जन समूह अलग-अलग होने के कारण एक रोचक आर्थिक तंत्र विकसित हुआ।
पारम्परिक जल प्रबन्ध से जुड़े जलाशयों का जाल घुमन्तु पशुपालकों व ग्वालों के लिये बहुत काम का है ये जलाशयों का जाल भूजल स्तर को बढ़ाता है जिससे गाँव के कुओं में पानी की आवक बढ़ने से सिंचाई की समस्या का समाधान होता है। अकाल व सूखे से प्रभावी रूप से निपटने में मिली अभूतपूर्व एवं टिकाऊ सफलता की मूल वजह उत्तरोत्तर सरकारों द्वारा ग्रामवासियों के स्थानीय लोकज्ञान के उपयोग से बड़े पैमाने पर अपनाई गई साधारण तकनीक, वन भूमि की बाड़बन्दी में निहित है। जलाशयों के पनढाल में बाड़बन्दी आजीविका व खाद्य सुरक्षा से जुड़ा तथ्य है।
जमीनी वास्तविकता
कोटा के समीप रानपुर, जगपुरा, लखावा, बंदा धर्मपुरा, रथा कांकरा, अभेड़ा आदि के पास अनेक जलाशय थे जो मानव द्वारा अनियंत्रित विकास के कारण नष्ट होने के कगार पर पहुँच गए। या तो सूख गए या बहुत कम समय के लिये नाममात्र का वर्षा जल एकत्र होता है।
अभेड़ा तालाब आज भी वर्ष भर पानी से भरा रहता है जिसमें फरवरी माह में प्रवासी पक्षी डेरा जमाते हैं। इसी के निकट नांता का जवाहर सागर तालाब जो कि 1790 ईस्वी का है थर्मल की राख से पूरा भर गया। इसमें पानी के भराव से आसपास की जमीन भी खेती लायक नहीं रही। यहाँ प्राचीन काली माँ का मन्दिर है जो जलाशय नहीं रहने से बेनूर हो गया। थर्मल जो 186 हेक्टेयर की जमीन राख संग्रहण क्षेत्र के लिये ली उससे पूरा पारिस्थितिकी की सन्तुलन बिगड़ गया।
कोटा के आसपास नलकूप सूखने का यही कारण प्रमुख है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे.सी. कुमारप्पा ने 1956 में मदुरै जिले की ग्राम विकास पर प्रस्तुत एक रिपोर्ट में लिखा है कि जिन तालाबों में सिंचाई की जाती है वे मिट्टी (गाद) से भर गए यदि इनसे चार-पाँच फुट गाद निकाल दी जाये तो भूजल स्तर में काफी सुधार हो सकता है एवं किसान प्रतिवर्ष दो या तीन फसलें बो सकेंगे जबकि अभी एक फसल लेना भी जुआ खेलने के समान है।यदि गाँव वालों को ढंग से सलाह दी जाये व मार्गदर्शन किया जाये तो मुझे विश्वास है कि वे ऐसी योजनाओं में आपको सहयोग देंगे यह एक ऐसा कार्यक्रम है जिसमें अन्न उत्पादन कई गुना बढ़ जाएगा तथा गाँव के हालात भी काफी समय में बेहतर हो जाएँगे। यह वास्तव में पूरे देश के लिये जमीनी वास्तविकता है।
अनियोजित शहरी विकास ने ऐतिहासिक तालाबों को अवशेष कह सकने वाली स्थिति में भी नहीं छोड़ा और यह सब जल प्रबन्धन के बड़े-बड़े दावे करने वाले अधिकारियों व नगर नियोजकों ने बेरोकटोक किया। कोटा शहर का कोटड़ी तालाब जिसमें दाईं मुख्य नहर से रिसने वाले पानी के कारण कीचड़ भरा रहता है। कुछ वर्षों पूर्व तक इस तालाब में लोग स्नान किया करते थे।
अब लोगों के मलमूत्र के काम आ रहा है। पूरी तरह कचरे व मिट्टी से भर गया है। जहाँ अब स्वच्छ हवा नसीब नहीं है। इसी प्रकार छत्र विलास उद्यान के निकट किशोर सागर तालाब पर नगर विकास न्यास ने कपड़ा बाजार बना दिया। कंसुवा, रायपुरा, उम्मेदगंज के तालाब भी नष्ट प्राय हैं। स्टेशन क्षेत्र का काला तालाब पूरी तरह मिट्टी से भर गया। अभेड़ा नांता के तालाब में सिंघाड़े की खेती होती थी लोगों की अजीविका का साधन रहे हैं।
अभेड़ा तालाब आज भी वर्ष भर पानी से भरा रहता है जिसमें फरवरी माह में प्रवासी पक्षी डेरा जमाते हैं। इसी के निकट नांता का जवाहर सागर तालाब जो कि 1790 ईस्वी का है थर्मल की राख से पूरा भर गया। इसमें पानी के भराव से आसपास की जमीन भी खेती लायक नहीं रही। यहाँ प्राचीन काली माँ का मन्दिर है जो जलाशय नहीं रहने से बेनूर हो गया। थर्मल जो 186 हेक्टेयर की जमीन राख संग्रहण क्षेत्र के लिये ली उससे पूरा पारिस्थितिकी की सन्तुलन बिगड़ गया।
दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि जनवरी माह में ही रानपुर का तालाब सूख जाता है। जानकार लोग बताते हैं कि लखावा, रामपुर अनन्तपुरा, दौलतगंज के तालाब वर्ष भर लबालब भरे रहते थे। देश के मौजूदा ढाँचे में अनुमोदन व अनुपालन की संस्कृति इस कदर हावी है कि जल प्रबन्धन में विलक्षण देशी ज्ञान व समझ की घोर उपेक्षा को कोई गम्भीरता से नहीं लेता। उम्मीदों की जगह चुनौतियाँ ज्यादा हों तो दृढ़ निश्चयी बनने के अलावा कोई और चारा नहीं। बड़ी-बड़ी सिंचाई योजनाएँ व हरित क्रान्ति की तकनीक प्रारम्भिक दौर में उत्पादक व प्रभावी थी परन्तु यह टिकाऊ नहीं है।
सम्भाग के प्रायः सभी तालाब व बाँध (लघु) मृदा जमाव की समस्या से ग्रसित हैं। वर्षा ऋतु में जिन बाँधों व तालाबों में चादर चलती है वे फरवरी के अन्त तक सूख जाते हैं। सूखी मिट्टी के ढेले इनमें दिखाई देते हैं। तत्कालीन कोटा जिले के अन्ता (अब बारां) में बारां मार्ग पर सड़क के किनारे सरदार वल्लभ भाई पटेल स्टेडियम से सटे तालाब को पाट कर वहाँ बस स्टैंड बना दिया गया।
स्टेशन रोड पर छोटे तालाब को कचरे से भरकर दुकानें खड़ी कर दी गई। तत्कालीन नगरपालिका व तहसीलदार ने इन तालाबों के नष्ट होने पर गौर नहीं किया। इसी प्रकार बारां नया जिला बना तो प्रसिद्ध मनिहारा तालाब के किनारे सिंचाई विभाग का दफ्तर एवं कलेक्टर व पुलिस अधीक्षक के बंगले खड़े कर दिये गए। मनिहारा तालाब साल भर जल से भरा रहता था। अब बेनूर हो गया है बारां की भौगोलिक स्थिति चारों ओर नदियाँ परवन, पार्वती, कालीसिंध बाणगंगा आदि हैं उसके बावजूद सर्वाधिक पेयजल संकट बारां नगर भोगता है।
बंगलौर के पर्यावरणविद माधव गाडगिल के अध्ययन के अनुसार देश के कर्नाटक उत्तर-पूर्वी राजस्थान मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ तथा गुजरात के कुछ हिस्सों में जल प्रबन्धन के लिये तालाबों की व्यवस्था महाभारतकाल में भी रही है। हाड़ौती के प्रायः सभी प्रमुख नगरों में तड़ाग संस्कृति (Tank Culture) विकसित अवस्था में थी। यहाँ के रियासत कालीन जल क्षेत्रों के आलनिया और वर्धा बाँध में छह से आठ फुट तक मिट्टी का जमाव हो चुका है जिसके परिणामस्वरूप इनकी कुल भराव क्षमता का भयंकर ह्रास हुआ जिससे वर्षा जल व्यर्थ बह जाता है। बाँधों के किनारों पर खेती तथा जनवरी-मार्च के बीच सूखते जल संग्रहण क्षेत्र में खेती इन बाँधों को और भी अधिक हानि पहुँचाती है।
खेती के लिये तैयार की गई भूमि पर ढीली मिट्टी गर्मियों में सूख कर क्षरण योग्य हो जाती है। यह उपजाऊ मिट्टी वर्षा जल के साथ खेती के लिये भी खो देते हैं व मृदा जमाव के रूप में जल क्षेत्रों को भी यह हानि पहुँचाती है। दूसरे कृषक उस समय जल्दी उगने वाली फसलों में अधिक रासायनिक खाद का प्रयोग करते हैं।
कीटनाशकों का भी बेतहाशा प्रयोग होता है जो कि वर्षा के साथ जल क्षेत्र में इकट्ठे हो जाते हैं। इस प्रकार अधिक रासायनिक खादों व कीटनाशकों, जल सान्द्रता जलीय जीव जन्तुओं के लिये हानिकारक या यूट्रोफिकेशनजनक होती है। ये सारे तत्व मिलकर जल क्षेत्रों को अनुपयोगी बनाते हैं।
हाड़ौती नेचुरलिस्ट सोसायटी के सचिव राकेश व्यास के अनुसार कोटा के आसपास के तालाबों की समस्या और भी विकराल है। नांता के पास जवाहर सागर जो 200 वर्ष पुराना ऐतिहासिक तालाब सिंचाई विभाग की सम्पत्ति है या वन विभाग और नगर निगम या राजस्व क्षेत्र किसका है पता नहीं चल पाया। अभेड़ा के तालाब की स्थिति वन विभाग तथा भारतीय कला एवं संस्कृति निधि (इंटेक) द्वारा ध्यान दिये जाने के कारण ठीक-ठीक मानी जा सकती है क्योंकि संयुक्त प्रयास से इस तालाब की पूर्वी दीवार पक्की करा दी गई। अभेड़ा की समस्या मानव जनित कूड़े एवं अव्यवस्थित पिकनिक गोठ करने वालों के कारण भी उत्पन्न हुई।
अभिशाप बना रानी का ख्वाब
1850 ईस्वी में ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया जिस जलकुम्भी (आइशे निर्मम केसियस) को एक सजावटी पौधे के रूप में हिन्दुस्तान लाई थी वही जलकुम्भी देश भर के तालाबों के लिये भयंकर समस्या बन गई। जिसका ज्वलन्त दृश्य कोटा शहर के मध्य स्थित ऐतिहासिक छत्र विलाश (किशोर सागर) तालाब में देखा जा रहा है। तालाब में गिर रहे गन्दे नाले व अवशिष्ट इस जलकुम्भी के प्रमुख जनक हैं।
गणेश तालाब जैसे अनेकों जल संग्रहण क्षेत्रों में कानूनी और गैर-कानूनी रिहायशी बस्तियाँ खड़ी कर दी गईं। तत्कालीन नगर नियोजकों की मजबूरी कहें या लाचारी या भूल इन बस्तियों के ऐसे बनाए कि इनमें बसे लोगों के लिये बाढ़ जैसी विभीषिका की जीवन भर की मुसीबतें खड़ी कर दी। जलस्रोतों की ऐसी सोची समझी हत्या शायद ही विश्व के किसी अन्य देश में देखने को मिले। गैर-कानूनी और कानूनी तरीके से बसे इन लोगों को प्रत्येक वर्षा के मौसम में लाखों रुपए बाढ़ से बचाने के नाम पर बर्बाद करने पड़ रहे हैं।
यह जलकुम्भी चम्बल की दाईं नहर के पानी के बहाव को अवरुद्ध करने के साथ ही अपने बीच खेतों में पहुँचा देती है। इसे तालाब से हटाने के लिये सिंचाई विभाग प्रतिवर्ष लाखों रुपए का ठेका देता है फिर भी समस्या बढ़ती जाती है। दाईं मुख्य नहर के पानी के छत्रविलास तालाब के साथ कोटड़ी व उम्मेदगंज के तालाबों को भी निगल लिया। ये जल क्षेत्र अब अपने पानी के लिये भी मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है। जबकि तालाब तो स्वयं ही जलस्रोत होते हैं। स्थिति यह है कि कोटा बैराज से पानी छूटे या सीएडी (चम्बल कमांड एरिया) सिंचाई विभाग की कृपा हो तो तालाब भरे अन्यथा सूख रहे हैं। जानकार लोग बताते हैं कि सिंघाड़े कमल की खेती मछली पालन आदि आजीविका साधनों के अलावा ये तालाब रोजमर्रा के पानी के स्रोत थे।गणेश तालाब जैसे अनेकों जल संग्रहण क्षेत्रों में कानूनी और गैर-कानूनी रिहायशी बस्तियाँ खड़ी कर दी गईं। तत्कालीन नगर नियोजकों की मजबूरी कहें या लाचारी या भूल इन बस्तियों के ऐसे बनाए कि इनमें बसे लोगों के लिये बाढ़ जैसी विभीषिका की जीवन भर की मुसीबतें खड़ी कर दी। जलस्रोतों की ऐसी सोची समझी हत्या शायद ही विश्व के किसी अन्य देश में देखने को मिले। गैर-कानूनी और कानूनी तरीके से बसे इन लोगों को प्रत्येक वर्षा के मौसम में लाखों रुपए बाढ़ से बचाने के नाम पर बर्बाद करने पड़ रहे हैं।
बूंदी जिले में दही खेड़ा के तालाब को देखने से स्पष्ट है कि नहर के धोरे का पानी इसमें भरा है जब गर्मी में नहर बन्द हो जाती है तो यह तालाब भी सूख जाता है। फरवरी माह में तो यहाँ प्रवासी पक्षी भी आ जाते हैं। लेखक को आसपास के ग्रामीण नहाते दिखे एक किसान बाबूलाल से पूछने पर उसने बताया कि यदि दही खेड़ा तालाब के लिये सीएडी विभाग वाले सुरक्षा दीवार बना दें तो तालाब के निकट प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र को भी नहर के पानी से नुकसान नहीं होगा। सम्भागीय आयुक्त को भी लिखकर दे रखा है लेकिन बजट का अभाव बताकर हमेशा काम टाला जाता है।
हाड़ौती सम्भाग के अनेकों तालाबों को देखने से जाहिर है कि गाँवों के तालाबों में दो तरफ पालें (मेढ़) बनी हुई हैं ढलान पर बनी भूमि पर स्वार्थी किसानों ने खेती कर ली पालें नष्ट होती रही सरकार के किसी भी महकमें ने ध्यान नहीं दिया। कोटा के चारचोमा, बोराबास खाती हेड़ा में पानी तालाबों की पालों से पानी रिसाव किसान की गम्भीर समस्या है। बूंदी जिले के कापरेन के तालाब में कुछ वर्षों पूर्व तक कमल खिला करते थे अब गाद भरने से यह तालाब उजाड़ हो गया। इसी जिले में तलवास गाँव के पास अरावली पर्वत मालाओं की सुरम्य शृंखला के बीच तालाब मौजूदा हालत में श्रेष्ठ कहा जा सकता है जिसमें खिले कमल के फूलों को देखकर मन मयूर नाच उठता है।
सम्भाग में जलाशयों का जाल होने के कारण प्रवासी पक्षी प्रति वर्ष आते हैं प्रवासी परिन्दों का यह शीतकालीन जमावड़ा बहुत रोचक हैं। जाड़ों में सर्दी से सुरक्षा व जमीन बर्फ से ढँकने से भोजन की कमी के कारण अपने प्रजनन क्षेत्र छोड़कर यहाँ आते हैं। इन पक्षियों का प्रजनन क्षेत्र उत्तरी गोलार्ध के अार्कटिक या समशीतोष्ण कटिबन्ध के पास और शीत प्रवास में भूमध्य रेखा के आसपास होता है।
कोटा में अभेड़ा, आलनिया, लखावा, रानपुर, किशोर सागर, कोटड़ी, सूर सागर, गिरधरपुरा, रांवठा जावरा के प्रवासी पक्षियों में बड़ी संख्या में सीख पर है। इसके साथ ही कामनटील या छोटी मुर्गावी, काटन टीन या गुड़गुड़ा शेवलर या तिदारी स्पाटबिल डक या गुगराल, मेलार्ड या नील सिर, रेड क्रेस्टेड पोचार्ड या लाल सिर, विजन या छोटा लाल सिर, विजन या छोटा लाल सिर, टफ्टेंड पोचार्ड या अबलक के साथ ही सुर्खाव या जिसे चकवा चकवी कहा जाता है देखे जाते हैं।
कोटा के मसालपुरा वनखण्ड में धुलेट दांता रोड से हट कर कच्चे में दांता तालाब है जहाँ हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी पाये गए हैं। इसी वन खण्ड में नालोदी का तालाब है। झालावाड़ में गांवड़ी, खंडिया, मंडावर, बाँस खेड़ी, झालरापाटन, रैन बसेरा आदि तालाबों में भी प्रवासी पक्षी बहुतायत में आते हैं। हाड़ौती के तालाबों में पानी का छिछला स्तर होने से वनस्पति व खाद्य पदार्थ आसानी से मिल जाते हैं। ये मेहमान पक्ष गर्मी की मामूली से शुरुआत होते ही विदा ले लेते हैं। प्रवासकाल में इनके शिकार की आशंकाओं को देखते हुए जलाशयों की गश्त धरपकड़ ग्रामवासियों तथा ग्राम वन प्रबन्ध सुरक्षा समितियों के माध्यम से प्रभावी नियंत्रण सुनिश्चित करने के प्रयास कोटा वन मण्डल में किये गए।
झालावाड़ जिले में कालीसिंध नदी की नाल के बिल्कुल ऊपरी हिस्से में स्थित धनवाड़ा का तालाब प्राचीन काल में वर्षा के अमूल्य जल को प्रकृति का अनूठा वरदान मान कर संग्रहित करने के लिये बनाया होगा जो वर्षा जल प्रलय फैला सकता है उसे रोक कर कालीसिंध में बहाकर तबाही रोकने का बहु उपयोगी साधन रहा होगा। जिला भू अभिलेखागार के प्रभारी के अनुसार इस तालाब का क्षेत्रफल 71 बीघा 7 बिस्वा है। तालाब के तीनों ओर खेती की जमीन है।
इस तालाब में पानी भरे रहने की स्थिति में आसपास की जमीन में जलस्तर काफी ऊपर रहता था और हजारों बीघा काश्त की जमीन में फसल अच्छी होती थी। तालाब के एक बड़े हिस्से पर अतिक्रमण कर खेत मालिकों ने खेती करना प्रारम्भ कर दिया। गर्मियों में जब तालाब का पानी सूख जाता है इसी समय निर्बाध अतिक्रमण शुरू हो जाता है। जानकार लोग बताते हैं कि झालावाड़ नगर पालिका सिंघाड़े की खेती के लिये ठेका देती थी जिससे पालिका को आय होती थी। परन्तु तालाब पानी नहीं होने से ठेकेदार ठेका लेने को राजी नहीं हुआ जिससे पालिका को सीधा आर्थिक नुकसान हुआ। नगरपालिका ने अपने आय के स्रोत से ही मुँह मोड़ लिया तो इस स्थिति का लाभ उठाते हुए लोगों ने तालाब की मुंडेर ही तोड़ डाली।
हरिश्चन्द्र का सत्य झुठलाया
झालावाड़ के पूर्व नरेश स्वर्गीय हरिश्चन्द्र सिंह ने झालरापाटन जल संकट त्रासदी के समाधान के लिये तालाब बावड़ियों व कुओं का निर्माण कराया। गोमती सागर एवं चामड़िया तालाब अपनी ऐतिहासिक विरासत को सम्भाले हुए हैं। अच्छी वर्षा होने पर दोनों तालाब एक मिलकर ‘सागर’ का रूप ले लेते हैं। तब नगर सेठ पूरी शान-शौकत से तालाबों की पूजा करवाते थे।
आज दुर्भाग्यपूर्ण हालात यह हो गए कि तालाबों का पानी मनुष्य तो क्या जानवरों के पीने लायक भी नहीं रहा। तालाब में नहाने वाले को खुजली होती है। जानकार लोग बताते हैं कि तालाब के पश्चिम की पाल सास की एवं पूर्व दिशा की बहू की कहलाती थी। गोमती सागर के पश्चिम में चामड़िया तालाब 150 बीघा क्षेत्रफल का है। गोमती सागर में पानी की आवक अधिक होने पर चामड़िया तालाब में मिलकर चन्दभागा नदी में गिर जाता था।
1953 में गाँधी बोर्ड योजना के अन्तर्गत सरकार ने गाँवों कस्बों ढाणियों शहर में जल एकत्र करने के स्रोत पर विशेष ध्यान देकर जल संकट से निकालने का प्रयास किया था। आज स्थानीय प्रशासन की मूक सहमति से तालाब के किनारों पर अवैध निर्माण, चूने भट्टे पत्थरों के स्टाक खड़े किये गए। झालावाड़ तहसील के कस्बों ढाणियों में यह दोनों तालाब हरिश्चन्द्र काल के बने पैतृक सम्पत्ति है।पिछले कुछ वर्षों से इन तालाबों में गाद भरने पर चिन्ता व्यक्त होती रही है। क्षेत्रीय राजनीतिज्ञों का संरक्षण मिल जाने के बाद तालाब में सिंघाड़े के दो लाख के लगभग पौधे लगा दिये गए। सिंघाड़े की बेलें लगाकर मछलियाँ पकड़ने के जाल बिछाकर तालाब की 40 बीघा जमीन में ककड़ी, करेला, खरबूजे आदि की खेती की जा रही है। जानकार लोग बताते हैं कि पूर्व में इन तालाबों का क्षेत्र 200 बीघा था। तब इनमें इतना पानी होता था कि धरातल तक हाथी डूब जाये। राजा महाराजाओं के जमाने में यह सैर-सपाटे व मौजमस्ती का भी स्थान था। आज वहाँ मलमूत्र त्यागा जा रहा है। एक बड़ी नाव लक्ष्मी निवास में आज भी पड़ी है।
कहार जाति के लोगों की नावें अब भी तालाब के किनारों पर पड़ी हैं। गोमती सागर एवं चामड़िया तालाब के लिये राज्य सरकार से बजट पास होता रहा है। विगत कुछ वर्षों से बन्द है। ईंट भट्टे मालिकों द्वारा हजारों ट्राली मलबा निर्बाधरूप से तालाब में छोड़ा गया। साथ ही ग्राम रलायता से झालरापाटन तक भवानीमंडी रोड पर सैंकड़ों पत्थर पॉलिश फैक्टरियों का मलबा तालाब में फेंका जा रहा है जिसे न वन विभाग आपत्तिजनक मानता है और न ही सिंचाई विभाग।
आज दुर्भाग्यपूर्ण हालात यह हो गए कि तालाबों का पानी मनुष्य तो क्या जानवरों के पीने लायक भी नहीं रहा। तालाब में नहाने वाले को खुजली होती है। जानकार लोग बताते हैं कि तालाब के पश्चिम की पाल सास की एवं पूर्व दिशा की बहू की कहलाती थी। गोमती सागर के पश्चिम में चामड़िया तालाब 150 बीघा क्षेत्रफल का है। गोमती सागर में पानी की आवक अधिक होने पर चामड़िया तालाब में मिलकर चन्दभागा नदी में गिर जाता था।
उपेक्षा की आँधी
बूंदी जिले में लाखेरी कस्बे का प्रसिद्ध तालाब जो कि अब झिकझिक डैम के नाम से जाना जाता है, एक दर्शनीय स्थल रहा है। पक्षियों के संरक्षण एवं नागरिकों के स्नान के लिये प्रसिद्ध यह झिकझिक डैम हिलोले खाता हुआ एक विभाग से दूसेर विभाग में जाता रहा। 400 बीघा का डैम पहले एसीसी सीमेंट फैक्टरी के अनुग्रहीत था। फैक्टरी व इसका कालोनी में पेयजल आपूर्ति इसी से होती थी। परन्तु एक तरफ की दीवार गिरने से इसे जीर्ण-शीर्ण स्थिति में 1990 में तत्कालीन एसीसी प्रबन्धक एम.पी. गोविल ने इसे जिला कलेक्टर के सुपुर्द कर दिया अब सिंचाई विभाग के पास है।
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं ने समय-समय पर जिला कलेक्टर से इस प्राकृतिक जलस्रोत को बचाने की गुहार की। वर्षों पुराने इस तालाब पर शिव मन्दिर, लोक देवता तेजाजी का स्थान है। जब तक इसमें पानी भरा रहा लोग यहाँ पर पिकनिक गोठ के लिये आते रहे। इस तालाब के सूखने से लाखेरी नगर तथा आसपास के खेतों में कुआँ का जलस्तर गिर गया और खेतीहर किसानों के सामने बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई। जलाशय की भूमि पर कई लोगों ने अतिक्रमण कर लिया। नगर पालिका शहर का कचरा इस तालाब के स्थान पर डालती है जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं रहा। लाखेरी में एक ओर बड़ा तालाब पुरोहितों की जागीरी रहा नष्ट प्राय है।
कोटा जिले के पीपल्दा कस्बे में जहाँ राजकीय माध्यमिक विद्यालय का खेल मैदान है। तालाब को पाटकर बनाया गया। स्वर्गीय जुगल किशोर बोहरा ने मौखिक रूप से विद्यालय का स्वतंत्रता दिवस समारोह आयोजित करने के लिये मैदान के रूप में दिया था। यह जमीन 15 बीघा तालाब के नाम से थी। बाद के सरपंचों ने इसे मैदान ही मान लेने की भूल की। करवाड़ रोड पर पंचायत ने पट्टे काट दिये जबकि यह भूमि राज्य सरकार की थी। विद्यालय को जो नक्शा 1992 में दिया गया उसमें सहकारी गोदाम से करवाड़ रोड पर कोई आबादी नहीं है। अतिक्रमणों से घिरा यह खेत का मैदान अपनी दास्तां तो नहीं कह सकता लेकिन उसके चारों ओर ऊँची-ऊँची मेढ़ें (दीवारें) अपनी कथा स्वयं बताते हैं कि यहाँ कभी समृद्ध तालाब रहा है।
बारां जिले के अटरू तहसील के कंवाई ग्राम मे दो तालाब हैं जिनमें गन्दगी डालकर पाट दिये गए। बड़े तालाब के किनारे पंचायत भवन स्थित है जो तालाब की दुर्दशा के प्रति अनजान है। जिला मुख्यालय के निकट अटरू मार्ग पर स्थित अरड़ान गाँव कभी कोटा रियासत का ठिकाना हुआ करता था। गाँव का तालाब गहरा नहीं होने के कारण गर्मियों में सूख जाता है जिससे कुओं व हैण्डपम्पों का जलस्तर भी समाप्त हो जाता है। ग्रामवासी कहते हैं कि पंचायतों के माध्यम से तालाबों को गहरा कराया जाना चाहिए, जिससे लोगों को रोजगार भी मुहैया होगा और पानी भी।
बारां नगर के मांगरोल रोड पर स्थित डोल तालाब जिसके किनारे आज भी एक पखवाड़े का प्रसिद्ध मेला भरता है। किनारे के घने वृक्ष कटते जा रहे हैं सैकड़ों बीघा जमीन के तालाब पर अब खेती हो रही है। पाल पर अतिक्रमण हो गए। अब वर्षा के मौसम में भी पानी नहीं भरता। आसपास आबादी खड़ी हो गई और नगर पालिका प्रशासन लाचार बना रहा। सांस्कृतिक पर्व डोल ग्यारस पर मन्दिरों के विमान को स्पर्श कराने लायक पवित्र जल नहीं बचा क्योंकि यहाँ मलमूत्र त्यागा जा रहा है।
कोटा के दीगोद कस्बे में बड़ा व छोटा दो तालाब हैं जो ग्रामवासियों द्वारा अतिक्रमण और स्थानीय पंचायतों की अनदेखी से बड़ा तालाब छोटा और छोटा अधिक छोटा हो गया। बस स्टैंड की तलैया के तो अवशेष भी नहीं बचे। दोनों तालाबों की पालों के किनारे के वृक्ष बेरहमी से काट दिये गए। रियासत काल के बड़े तालाब की जमीन 500 बीघा थी जो अब 300 बीघा रह गई। इस तालाब के काफी हिस्से पर खेती होने लगी है।
धरनाबद गाँव का तालाब जून 1997 में तब चर्चा में आया जब तालाब की खुदाई के बहाने छह लाख रुपया खर्च हो गया। इस गाँव मे दो तालाब हैं एक गाँव समीप ही है इस पर आठ लाख रुपए विगत वर्ष सिंचाई विभाग के माध्यम से करवाए गए कार्य पर व्यय हो चुके हैं। इस तालाब में सिंचाई विभाग के कार्य से पूर्व बारहमास पानी भरा रहता था लेकिन तालाब सूखा पड़ा रहा। गाँव वालों का कहना है कि सिंचाई विभाग ने तालाब के निर्माण में एक तरफ की पाल को खुला छोड़ दिया जिससे पूरे तालाब का पानी बहकर निकल गया। अब पूरे गाँव को पानी के संकट का सामना करना पड़ता है।
पाल पर आबादी खड़ी हो गई। आबादी के दबाव एवं सरकारी तंत्र की लाचारी के चलते इस विशाल जलाशय में वर्षा जल संग्रहित नहीं हो रहा। कमल की खेती की चलाए रखने के लिये चम्बल की दांई नगर का पानी छोड़ा जाता है। नहर के पानी पर जीवित यह तालाब आज ग्रामवासियों के पशुओं के पीने तथा लोगों के नहाने के काम आता है। दीगोद के नवोदित पत्रकार सन्दीप नंदवाना के अनुसार जलझूलनी एकादशी पर मन्दिरों के विमान गन्दे पानी में लाना लोगों की मजबूरी बन गई है।बालाजी की बावड़ी पर विमान रखे जाते हैं लेकिन इसका भी पानी साफ-सफाई के अभाव में सड़ रहा है। स्थानीय लोगों ने अपनी जरूरत की लकड़ी के लिये तालाब की पाल से बबूल के हरे वृक्ष जड़ समेत काट लिये। खींची महाराज की छतरी के पास ऐसा ही दृश्य छोटे तालाब पर भी देखा गया। दोनों तालाबों के किनारे की ऐतिहासिक व कलात्मक छतरियाँ अब नष्ट होती जा रही हैं। कभी कोटा दरबार यहाँ पक्षियों के शिकार के लिये आते थे। तालाबों के छोर पर नमी के कारण जंगली घास फूस उग आता है। किनारों पर जहाँ भी हरियाली ठंडक रहती थी वहाँ अब लोग शौच करते दिखाई देते हैं।
स्थानीय सरपंच सुरेन्द्र सामरिया बताते हैं कि कमल की खेती का ठेका देकर उसकी धरोहर राशि से गाँव में अन्य विकास कार्य कराए जाते हैं। पंचायत समिति सदस्या श्रीमती नैनगी बाई कहती हैं कि तालाब को नष्ट होने से बचाने के लिये कमल की खेती से प्राप्त आय तालाब के संरक्षण पर खर्च होनी चाहिए। सरपंच सामरिया बताते हैं कि तालाब की खुदाई का प्रस्ताव जिला विकास अभिकरण (डीआरडीए) को भेजा हुआ है डीआरडीए वाले सिंचित क्षेत्र के तालाबों पर कुछ कार्य नहीं करना अपनी नीति बताते हैं कि क्योंकि इसे नहरी इलाका माना गया है। पंचायत या प्रशासन कुछ करे या न करें सच यह है कि तालाब नष्ट होने की ओर अग्रसर है। अब ये जल संग्रहण के केन्द्र नहीं रहे जिससे आसपास की भूजल स्तर गिर गया है।
सुल्तानपुर के अलावा दीगोद से 7 किमी दूर उत्तर-पश्चिम में उदयपुरिया गाँव में रियासतकालीन तालाब स्थानीय जनता की सूझबूझ से सुरक्षित बचा हुआ है। इस तालाब में भी प्रवासी पक्षी प्रति वर्ष आते हैं परन्तु नहर के धोरे के रिसाव से जलकुम्भी के कारण इसे भी खतरा हो गया है। पक्षीविज्ञ राकेश व्यास ने इस तालाब को राजस्थान में भरतपुर के बाद सबसे बड़ा पक्षी प्रजनन स्थल के रूप में माना है।
इस गाँव के निवासी डॉ. एल एन. शर्मा बताते हैं कि गाँव के लोगों ने संगठित होकर शिकार प्रतिबन्ध लगाया हुआ है। फिर भी आबादी के विस्तार से तालाब की पाल पर अतिक्रमण दिखाई देने लगे हैं। दीगोद से उत्तर-पूर्व में कंवरपुरा मेंहदी परसाल्या, उकल्दा, दरबीजी, बमोरी, कालीरेखा आदि तालाब हैं। दीगोद के ही पूर्व मे कासिमपुरा धगारिया पदालिया, पोलाई खुर्द, डाहरा मोरपा गोल्याहेड़ी वरगू बृजपुरा, कुराड़ी, राजपुरा किशनपुरा, भाण्डाहेड़ा, हनोतिया व सुवाना गाँवों के वृत्त में जिसकी लम्बाई 20 किलोमीटर एवं चौड़ाई 18 किलोमीटर लगभग 25 बारामासी व 65 बरसाती तालाब हैं। दुर्भाग्यवश 20-25 वर्षों में दशा इतनी बदली कि यह ढूँढना मुश्किल है कि कभी यहाँ तालाबों व पोखरों की शृंखला रही है।
बूंदी जिले में इन्द्रगढ़ के पत्रकार दुर्गाशंकर शर्मा बताते हैं कि ठिकाना इन्द्रगढ़ रजवाड़े के शासनकाल में अरावली पर्वत शृंखला में बना तालाब अब नष्ट प्राय है। इसकी कलात्मक सीढ़ियाँ व छतरियाँ अब टूट गई। इस तालाब के चारों ओर नहाने के लिये घाट बने हुए थे जहाँ पर आज भी जलझूलनी एकदशी पर मन्दिरों के विमान जाते हैं। श्रावण मास में महिला, सुखिया सोमवार करने यहीं जाती थीं। रियासतकाल में राज व रानी टहलने के लिय यहाँ आते थे। आज यहाँ वीरानी है। तालाब का पानी पशुओं को भी पीने लायक नहीं रहा।
रामगंजमंडी तहसील के धरनाबद गाँव का तालाब जून 1997 में तब चर्चा में आया जब तालाब की खुदाई के बहाने छह लाख रुपया खर्च हो गया। इस गाँव मे दो तालाब हैं एक गाँव समीप ही है इस पर आठ लाख रुपए विगत वर्ष सिंचाई विभाग के माध्यम से करवाए गए कार्य पर व्यय हो चुके हैं। इस तालाब में सिंचाई विभाग के कार्य से पूर्व बारहमास पानी भरा रहता था लेकिन तालाब सूखा पड़ा रहा। गाँव वालों का कहना है कि सिंचाई विभाग ने तालाब के निर्माण में एक तरफ की पाल को खुला छोड़ दिया जिससे पूरे तालाब का पानी बहकर निकल गया। अब पूरे गाँव को पानी के संकट का सामना करना पड़ता है। सरकारी महकमा काम में लीपापोती कर सारा धन पूरा कर देता है। फर्जी मस्टररोल भरकर बरसात का इन्तजार किया गया ताकि तालाब में पानी भरने से उनके कारनामों की पोल नहीं खुले।
जाहिर है पानी के मामले में भी शासन और समाज इतनी योग्यता और धन उपलब्ध होने पर भी इस कार्य को प्राथमिकता नहीं देते। अपने तालाबों की उम्दा सार-सम्भाल की परम्परा डालने वालों को शायद इसका अन्दाजा नहीं था कि कभी उपेक्षा की आँधी भी रेगिस्तान की आँधियों की तरह चलेगी।
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