सामाजिक वानिकी और पंचायत

वन सम्पदा देश की ऐसी निधि है जो पुनरोपयोगी संसाधन उपलब्ध कराकर देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। हमारे देश में कुल भौगोलिक क्षेत्र के 20.84 प्रतिशत भू-भाग पर वन हैं, जिसमें 12 प्रतिशत घने वन, 7.96 प्रतिशत खुले वन, 0.15 प्रतिशत मैनग्रोव वन तथा मात्र 0.53 प्रतिशत मानव निर्मित वन हैं। भारत के लगभग 413 जिलों में से 105 में ही 33 प्रतिशत वन क्षेत्र हैं जबकि 52 जिलों में 25 प्रतिशत तथा शेष 217 जिलों में 0.1 प्रतिशत से लेकर 19 प्रतिशत तक वनाच्छित क्षेत्र हैं। उपग्रह से प्राप्त चित्रों के विश्लेषण से पता चला है कि भारत में मात्र 10 प्रतिशत ही अच्छे वन हैं। इस परिस्थिति में 33 प्रतिशत वनों की आवश्यकता स्वरूप मानव निर्मित वनों का विस्तार करना ही अधिक उपयुक्त जान पड़ता है।

सामाजिक वानिकी एक ऐसा यन्त्र है, जिससे एक साथ कई समस्याओं से मुक्ति पाई जा सकती है। पंचायत के द्वारा अगर इन कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से लागू कर दिया जाए, तो ग्रामीणों की मूलभूत जरूरतों की पूर्ति तो होगी ही साथ ही वातावरणीय प्रदूषण, आँधी-तूफान, बाढ़, सूखा तथा मृदा अपरदन से भी निजात पाई जा सकती है तथा वन्य जीवों की सुरक्षा हेतु प्राकृतिक आवास भी उपलब्ध हो सकते हैं। वस्तुतः औद्योगिक एवं सूचना प्रौद्योगिकी के विस्तार के बावजूद आम नागरिकों की समस्याएँ कम नहीं हुई हैं। ग्रामीणों की कृषि सम्बन्धी विपदाओं की सूची लम्बी है। कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ की समस्याएँ पहले से अधिक विकराल रूप धारण करने लगी है। मौसम चक्र में परिवर्तन के कारण बढ़ती गर्मी, कम बरसात, अलनीनों प्रभाव, प्रदूषित पर्यावरण, धरती के तापमान में वृद्धि, अम्लीय वर्षा, ओजोन परत में बढ़ता छिद्र तथा बिजली-पानी के संकट ने देश के सामने विकट चुनौतियाँ उत्पन्न की है। प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से पारिस्थितिकीय सन्तुलन बिगड़ गया है। इस परिस्थिति में इन समस्त समस्याओं के समाधान स्वरूप सामाजिक वानिकी एक महत्वपूर्ण विकल्प साबित हो सकती है, जिसे प्रोत्साहित कर सरकार स्थानीय स्तर से पारिस्थितिकीय सन्तुलन की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है।

सामाजिक वानिकी समाज, पंचायत एवं वन विभाग का ऐसा समन्वय है, जो रक्षित वनों पर समाज के भार को कम करता है तथा मानव शक्ति को वनोत्पादन की ओर प्रोत्साहित करता है। इस परिप्रेक्ष्य में अब जबकि समाज के सर्वांगीण विकास की महती जिम्मेदारी पंचायती राज व्यवस्था के मजबूत कन्धों पर दे दी गई है, पंचायत अपने क्षेत्र के लोगों को जागरूक कर सामाजिक वानिकी को प्रोत्साहित कर सकती है।

भारत में सामाजिक वानिकी को सर्वप्रथम छठी पंचवर्षीय योजना के दौरान नये बीस सूत्रीय कार्यक्रम के सूत्र संख्या-12 के तहत अपनाया गया। इसके अन्तर्गत तीन प्रमुख कार्यक्रम हैं— बंजर भूमि में मिश्रित बागान लगाना, विनष्ट वनों में पुनः वनारोपण करना तथा सुरक्षा पेटियाँ बनाना। सामाजिक वानिकी का प्रमुख उद्देश्य है कि नवीकरण द्वारा ईन्धन प्राप्त कर गोबर का प्रयोग ईन्धन के बजाय खाद के रूप में करना, साथ ही रक्षित वनों में पशुचारण न हो इसके लिए वैसी वनस्पतियों का विकास करना जिनका पशुओं के चारा के रूप में उपयोग किया जा सके।

भारत में इमारती लकड़ियों को प्राप्त करने के उद्देश्य से वनों की अन्धाधुन्ध कटाई की गई है, जिससे पर्यावरण पर खतरा उत्पन्न हुआ है। अतः सामाजिक वानिकी के द्वारा ऐसे पौधों का विकास करना है जिससे कीमती एवं उपयोगी लकड़ियाँ प्राप्त की जाएँ तथा पारिस्थितिकी तन्त्र का जैव-विविधता द्वारा संरक्षण प्रदान किया जाए। देश के खाद्य संसाधनों में वृद्धि हो सके इसके लिए भूमि संरक्षण तथा खेतों की उर्वरता को बढ़ाकर भोज्य सामग्री उपलब्ध करना भी इसका उद्देश्य है। चूँकि हरियाली का जीवन से गहरा सम्बन्ध है इसलिए सार्वजनिक स्थलों पर सजावटी एवं छायादार वृक्ष को विकसित करना भी इसके प्रमुख उद्देश्यों में शामिल है। स्पष्ट है कि सामाजिक वानिकी ऐसी योजना है जिससे चौतरफा पर्यावरण की सुरक्षा हो सकती है। एक ओर तो इससे ईन्धन, चारा एवं उपयोगी लकड़ियाँ प्राप्त होंगी दूसरी ओर बढ़ती जनसंख्या का पर्यावरण पर भार भी कम हो सकेगा।

वस्तुतः प्रत्येक वर्ष लगभग 23.5 करोड़ घन मीटर ईन्धन की लकड़ी वनों से काटी जाती है जबकि वनों की स्थाई क्षमता करीब 4.8 करोड़ घन मीटर लकड़ी देने की है। औद्योगिक लकड़ी की वार्षिक माँग करीब 2.6 करोड़ घन मीटर है जबकि उत्पादन क्षमता 1.2 करोड़ घन मीटर है। अतः अब समय आ गया है कि सामाजिक वानिकी को थोड़ा और परिमार्जित कर सरकार बेकार की पड़ी भूमि पर इसे प्रतिबद्ध होकर विकसित करे। अन्यथा पर्यावरण के संकट भयावह परिणाम दे सकते हैं।

सामाजिक वानिकी और पंचायत 1
गाँवों में ईन्धन के लिए वनों से लकड़ी काटने पर प्रतिबन्ध हो

सरकारी आँकड़े बताते हैं कि अंग्रेजों के आने से पूर्व यहाँ लगभग 40 प्रतिशत भूमि पर जंगल थे, जबकि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद यह आधे (19 प्रतिशत) से भी कम के आँकड़े पर आ गए। वर्ष 1989-2003 के बीच भारत में कुल भूमि पर लगभग 20 प्रतिशत ही वन के आँकड़े प्राप्त होते हैं, जबकि इन वर्षों में भी सरकारी एवं गैर-सरकारी प्रयास वनों की सुरक्षा हेतु किये गए।

देश में 2012 तक कुल भूमि का 33 प्रतिशत भाग वनाच्छादित करने का लक्ष्य है, इस स्थिति में सामाजिक वानिकी ही इन उद्देश्यों को पूरा कर सकती है। हमारे देश में पंचायती राज को सामाजिक कल्याण हेतु प्रतिस्थापित किया गया है। समाज के सर्वांगीण विकास की महती जिम्मेदारी अब नवीन पंचायत राज व्यवस्था के ही सुपुर्द की गई है अर्थात पर्यावरण को स्वच्छ एवं हरियाली युक्त रखने में पंचायती राज महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती है। चूँकि विश्व की आबादी का छठा भाग भारत में होने और जनसंख्या में हर वर्ष 1.6 करोड़ की बढ़ोत्तरी को देखते हुए भारत को बड़े दायित्व को निर्वाह करने की आवश्यकता है।

जहाँ एक ओर विकसित राष्ट्र अत्यधिक उपयोग और पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाली जीवन शैलियों के लिए दोषी हैं, वहीं हम भारतवासी प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन करने से पीछे नहीं हटते। इस परिस्थिति में समाज, पंचायत एवं वन विभाग का काम आपसी गठबन्धन, सामाजिक वानिकी को प्रोत्साहित कर बड़ी मात्रा में इन समस्याओं से निजाज दिला सकते हैं। वस्तुतः सामाजिक वानिकी एक ऐसी बहुद्देशीय योजना है, जिसके सम्पूर्ण क्रियान्वयन से आर्थिक विकास को तो बढ़ावा मिलेगा ही साथ ही साथ समाज के वातावरण को भी प्रदूषण रहित एवं अनुकूल बनाया जा सकता है। कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा सामाजिक वानिकी को मुख्यतया तीन वर्गों में विभक्त किया गया है— कृषि वानिकी, शहरी वानिकी तथा ग्रामीण वानिकी।

कृषि वानिकी


कृषि वानिकी के अन्तर्गत फसल उत्पादन के साथ-साथ वृक्षारोपण का भी प्रावधान है। इसमें फलदार वृक्ष, आयुर्वेद पौधे तथा सब्जियों को प्राथमिकता दी जाती है। फसलों तथा वृक्षों की परस्पर सफलता के लिए जरूरी है कि कृषि फसलों के अनुरूप वृक्ष प्रजातियों का चुनाव किया जाए। इस चुनाव में स्थान विशेष की मिट्टी, वर्षा, तापमान, आर्द्रता आदि की प्रमुख भूमिका होती है। इस तरह कृषि वानिकी खेतों का सामान्य पैदावार व गुणवत्ता को प्रभावित किये बिना ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाती है। चूँकि ग्रामीण समाज परम्परागत कृषि को ही अपनाने पर जोर देता है और जोखिमपूर्ण तथा लम्बी अवधि वाली खेती को अपनाने में उदासीन होता है। अतः पंचायत का यह दायित्व बनता है कि वे अपने क्षेत्र के किसानों को प्रोत्साहित करे तथा इस तरह की कृषि हेतु सम्मान योजना का सूत्रण व क्रियान्वयन कर अपने क्षेत्र में सामाजिक वानिकी को विकसित करें। इसमें सरकारी अनुदान को छोटे किसानों तक पहुँचाकर पंचायत अपने इस दायित्व का निर्वहन कर सकती है।

शहरी वानिकी


शहरी वानिकी का लक्ष्य शहर के लोगों के घरों के दरवाजे तक वृक्षों को पहुँचाना है। अतः विभिन्न मौसमों के हिसाब से शहरों, कस्बों, पार्कों, घरों, सार्वजनिक मार्गों व खाली पड़ी भूमि पर सजावटी, सुन्दर व आकर्षक किस्म के फलदार व फूलदार पौधे लगाये जाते हैं। यह पेड़-पौधे शहर की सुन्दरता तो बढ़ाते ही हैं, वहाँ के प्रदूषित वातावरण को स्वच्छ भी करते हैं।

ग्रामीण वानिकी


ग्रामीण वानिकी को दूसरे शब्दों में विस्तार वानिकी भी कहते हैं। ग्रामीण वानिकी के अन्तर्गत सामुदायिक भूमि, पंचायत भूमि, बंजर भूमि तथा सड़कों, रेलवे लाईनों, नहरों आदि के किनारे वृक्षारोपण किया जाता है। इसके अन्तर्गत उत्खनन से विकृत क्षेंत्रों को पुनः उपयोगी बनाना, ग्रामीण सड़क निर्माण तथा अन्य कुटीर व लघु उद्योग के लिए कच्चे माल की आपूर्ति हेतु वृक्षों का विकास करना शामिल है। कृषि वानिकी के विपरित इस वानिकी में प्रस्तुत भूमि पर स्वामित्व सामुदायिक होता है। अतः पंचायत अपने विकास कार्यक्रमों में ग्रामीण वानिकी को शामिल कर पारिस्थितिकीय सन्तुलन की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है। इससे वातावरण में हरियाली और नमी का समावेश होगा तथा एक निश्चित समय के बाद पंचायत को वृक्ष के रूप में एक बड़ी निधि भी हाथ आएगी।

73वें संविधान संशोधन के फलस्वरूप संविधान के अनुच्छेद-243-जी में पंचायत के सामाजिक व विकासात्मक कार्यों की सूची उपबन्धित की गयी है। भारत के सभी राज्यों में ग्रामीण वानिकी को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पंचायत राज अधिनियम में ऐसी व्यवस्था की गई है, जिससे पंचायत वानिकी कार्यक्रमों को पर्याप्त संरक्षण व प्रोत्साहन दे। उदाहरण स्वरूप बिहार पंचायत राज अधिनियम-2006 की धारा-22 एवं 45 में कहा गया है कि पंचायत, कृषि एवं बागवानी के विकास हेतु उपयुक्त योजना तैयार करे तथा बंजर भूमि के विकास हेतु पंचायत की विकास राशि से सहयोग प्रदान करे। इसी तरह धारा-73 में जिला परिषद के सन्दर्भ में यह प्रावधान किया गया है कि बागवानी को प्रोत्साहित करने हेतु वह किसानों को आवश्यक प्रशिक्षण प्रदान करे तथा कृषि उत्पादन को बढ़ाने हेतु संसाधनों का विकास करे।

सचमुच सामाजिक वानिकी को बढ़ावा देने हेतु सरकारी स्तर पर पंचायत से अधिक उपयुक्त कोई और दूसरा अभिकरण नहीं हो सकता। कारण यह है कि पंचायत समाज के मध्य में स्थित है और वह किसानों की आवश्यकता एवं उनकी समस्याओं से पूर्व परिचित है। अतः समेकित योजना एवं चरणबद्ध तरीकों से पंचायत, सामाजिक वानिकी को पूर्ण विकसति कर सकती है। चूँकि राष्ट्रीय बागवानी मिशन योजना सम्पूर्ण देश में लागू है जिसमें पंचायत को भी उत्तरदायी बनाया गया है। पंचायत, स्थानीय नागरिकों की सहभागिता से तथा सरकारी निर्देशों के अनुरूप कार्य करके सचमुच पर्यावरण के अनुकूल वानिकी को विकसति कर सकती है।

सामाजिक वानिकी और पंचायत—ग्राफ

वस्तुतः संविधान के 73वें संशोधन के अनुसरण में अधिनियमित पंचायत राज अधिनियम में प्रदत्त ग्राम पंचायतों, पंचायत समितियों तथा जिला परिषदों के वानिकी कार्यों एवं अधिकारों के सन्दर्भ में यह निर्णय लिया गया है कि वन विभाग द्वारा किये जाने वाले सामाजिक एवं फॉर्म वानिकी के नये कार्य अब जिला परिषद द्वारा सम्पादित किये जाएँगे। इन कार्यों के सम्पादन में वन प्रमण्डल, जिला परिषद को आवश्यक सहयोग प्रदान करेंगे। इसके साथ ही पंचायत समिति एवं ग्राम पंचायत को आवश्यक सहयोग प्रदान करेंगे। वानिकी को बढ़ावा देने हेतु पंचायतें अपने संसाधन का स्वयं उपयोग कर सकती हैं। पंचायत अपने क्षेत्र में गैर वन भूमि की पहचान कर इन भूमियों का उपयोग वृक्षारोपण हेतु कर सकती है। इस उद्देश्य से पंचायत आवश्यकतानुसार प्रशिक्षण कार्यक्रमों को आयोजित कर अपने क्षेत्र के नागरिकों को जागरूक कर सकती है तथा सरकार द्वारा प्राप्त निधियों को अधिकाधिक ग्रामीण वानिकी में खर्च कर वृक्षों का पुनरुत्थान कर सकती है।

किन्तु यह भारतीय समाज में वानिकी कार्यक्रमों की विडम्बना ही है कि पंचायत अपनी इस शक्ति और दायित्व का प्रयोग वृक्षारोपण हेतु नहीं कर अन्य अनुपयोगी योजनाओं में कर रही है। भारत में वृक्षों के रूपान्तरण एवं पुनरुत्थान की असीम सम्भावनाएँ हैं। चूँकि सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत किसी क्षेत्र विशेष में पौधों को लगाने हेतु प्रजातियों का चुनाव लोगों की उपयोगिता तथा जलवायु कारकों यथा — तापमान, आर्द्रता, वर्षा, मिट्टी आदि को ध्यान में रखकर किया जाता है। अतः पंचायत जो एक लोकतान्त्रिक संस्था है, इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती है। वह स्थानीय कृषि तकनीकों को विकसित कर सकती है तथा जरूरत पड़ने पर प्रयोग के लिए सामुदायिक भूमि पर नयी कृषि को आमन्त्रित कर सकती है।

यूँ तो भारत में सर्वत्र नाइट्रोजन की कमी को देखते हुए नाइट्रोजन पौधों का ही चुनाव किया जाना बेहतर है फिर भी सामाजिक वानिकी के तहत चुनी हुई अधिकतर प्रजातियाँ प्रायः जल्दी तैयार होने वाली, अधिक उपजाऊ, सूखे को सहन करने वाली तथा बहुद्देशीय होती हैं। यानी उनसे इन्धन, चारा, फल, खाद आदि एक साथ प्राप्त किये जा सकते हैं। साथ ही साथ ये लघु एवं कुटीर उद्योगों के स्रोत भी हो सकते हैं। जैसे- रेशमकीट पालन, मधुमक्खी पालन, टसर एवं जट्रोफा की खेती, फल उत्पादन, मेन्था की खेती, फूल की खेती तथा लाख निर्माण आदि जैसे कुछ उपयोगी वनोत्पाद।

इस प्रकार सामाजिक वानिकी पर्यावरण की जरूरतों के अनुकूल रोजगार सृजन की असीम सम्भावनाएँ भी रखता है। आज सामाजिक वानिकी को पारिस्थितिक प्रणाली तथा पर्यावरण के पर्याय के रूप में मान लिया गया है जबकि पंचायत ग्रामीण विकास की प्रमुख संस्था है। यदि इन दोनों के घनिष्ट सम्बन्धों को अंगीकार कर लिया जाए तो इससे बहुत सारे रचनात्मक प्रभाव सामने आएँगे। जैसे- जलीय सन्तुलन में सुधार, मृदा उर्वरता में सुधार, वायु के आर्द्रता धारण में वृद्धि, पेड़-पौधों के लगने से मृदा अपरदन में कमी, चारागाहों का विकास, मरूस्थलीय क्षेत्रों में वृक्षारोपण से वन विस्तार आदि।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि सामाजिक वानिकी एक ऐसा यन्त्र है, जिससे एक साथ कई समस्याओं से मुक्ति पाई जा सकती है। पंचायत के द्वारा अगर इन कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से लागू कर दिया जाए, तो ग्रामीणों की मूलभूत जरूरतों की पूर्ति तो होगी ही साथ ही वातावरणीय प्रदूषण, आँधी-तूफान, बाढ़, सूखा तथा मृदा अपरदन से भी निजात पाई जा सकती है तथा वन्य जीवों की सुरक्षा हेतु प्राकृतिक आवास भी उपलब्ध हो सकते हैं। हमें इस दिशा में आवश्यक सामाजिक लामबन्दी के लिए पंचायतों एवं ग्राम सभाओं सरीखी जमीनी स्तर की लोकतान्त्रिक संस्थाओं से लाभ उठाने की आवश्यकता है।

(लेखक काबले सच समाचारपत्र के चीफ रिपोर्टर हैं)
ई-मेल : nirmalanand12@sofy.com

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