संखिया (आर्सेनिक), धातु एवं अधातु के बीच का तत्व है, जो प्रकृति में स्वतंत्र रूप में पृथ्वी की सतह एवं संखिया प्रधान चट्टानों में पाया जाता है। इसकी खोज सन 1250 में अल्बर्ट मैगनस द्वारा की गई और बताया कि यह विषधातुओं की श्रेणी में तैंतीसवें स्थान पर आता है। इसका अणुभार 74.9, परमाणु क्रमांक 33 एवं विशेष द्रव्यमान 5.73 हैं। संखिया प्रायः चट्टानों से होता हुआ नदी तथा वर्षा जल में घुलकर हमारे शरीर में पहुँचकर धीरे-धीरे त्वचा पर, तलवों, उंगलियों, हथेली पर काले चकत्तों के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है और इसकी ज्यादा मात्रा कैंसर जैसे घातक रोग का भी कारण बन जाती है। वर्तमान में वायु में भी आर्सेनिक का संकेन्द्रण बढ़ता चला जा रहा है जिसके लिये मुख्यतः कोयला जनित विद्युत उत्पादन संयंत्र, जंगलों के जलने, ज्वालामुखी के फटने, जीवाश्म ईंधन के अन्धाधुन्ध प्रयोग से एवं कृषि में कीटनाशकों, फास्फेट उर्वरकों का प्रयोग ही मूल रूप से जिम्मेदार हैं।
दूषित वातावरण में आर्सेनिक के दो रूप पाए जाते हैं, (1) अकार्बनिक (उदाहरण-आर्सिनाइट As III (H3AsO3) जिसे आर्सिनस अम्ल भी कहते हैं, जो कि ज्यादा विषैला होता है एवं आर्सिनेट As V (H3AsO3) जिसे आर्सिनिक अम्ल भी कहते हैं, यह आर्सिनाइट की तुलना में कम विषैला होता है। (2) कार्बनिक (उदाहरण- आर्सिनोबीटाइन AsB(CH3)3As+CH2COOH इसे मानोमिथिल आर्सिनेट कहते हैं एवं अर्सिनोकोलीन AsC(CH3)3As+CH2CH2OH यह डाइमिथिल आर्सिनाइट भी कहलाता है।) अकार्बनिक रूप का आर्सेनिक, कार्बनिक की तुलना में ज्यादा विषैला होता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की सूचना के अनुसार आर्सेनिक विषाक्तता में भारत का विश्व में छठवां स्थान है (अर्जेन्टीना> बांग्लादेश> चिली> चीन> हंगरी> भारत> मैक्सिको> नेपाल> पाकिस्तान> अमेरिका >वियतनाम) आदि। भारत में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के कुछ भाग इससे अत्यधिक प्रभावित हैं। मुख्यतः आर्सेनिक का जल में घुला होना एवं जल के द्वारा हमारे शरीर में पहुँचकर शरीर के अन्दर इसका संकेन्द्रण बढ़ना ही बीमारी का प्रमुख कारण है। वायु में आर्सेनिक का संकेन्द्रण जल एवं मिट्टी की तुलना में कम पाया जाता है, परन्तु वायु का आर्सेनिक अप्रत्यक्ष रूप से जल, वनस्पतियों, फलों, फूलों, अनाजों एवं मनुष्य के श्वसन तंत्र के रास्ते शरीर में तेजी से प्रवेश कर शरीर में हानि पहुँचाता है। पर्यावरण में इसका मापन समय-समय पर बहुत आवश्यक है जिससे कि हम इससे बचाव के उपाय निकाल सकें। पिछले कई वर्षों से वायु में प्रदूषकों का मापन उपकरणों की मदद से होता चला आ रहा है, परन्तु उपकरणों की सहायता से हम केवल एक बार में एक ही स्थान या कुछ स्थानों पर ही प्रदूषण मापन कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में अधिक समय एवं अधिक आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता होती है तथा जीवित पेड़-पौधों और मानव पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव का अध्ययन नहीं किया जा सकता। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए यूरोपियन देशों में काफी समय से वायु में प्रदूषकों का मापन कार्य जैव घटकों से किया जाता रहा है।
जब जैव घटकों के द्वारा प्रदूषण मापन की बात आती है तो शैकों का नाम प्रथम स्थान पर आता है। शैक (शैक = शैवाल+क = कवक) एक सहजीवी प्रकृति का विलक्षण पौधा है। इस तरह की शैवाल तथा कवक की सम्मिलित संरचना को शैक सूकाय कहते हैं। शैक सूकाय अनेक रासायनिक तत्वों जैसे- धातु, अधातुओं, कीटनाशकों, कार्बन आदि के उत्तम संचयी होते हैं।
भारत में शैकों के द्वारा प्रदूषण का मापन लगभग तीन दशक पूर्व से प्रारम्भ हो चुका है। इनके द्वारा वायु में उपस्थित धातुओं, अधातुओं, कीटनाशकों, उर्वरकों, बहुचक्रीय (खुश्बू (सुगन्धित) हाइड्रोकार्बन, बहुक्लोरिनेटेड बाई फिनायल की मात्रा का पता आसानी से लगाया जा रहा है। वर्तमान में भारत तथा विदेशों में पुष्पीय एवं सजावटी पौधों द्वारा आर्सेनिक संचयन पर अनेक अध्ययन उपलब्ध हैं, परन्तु शैकों पर इसका अध्ययन अभी बहुत अल्प मात्रा में उपलब्ध है। आज तक शैकों में मुख्यतः आर्सिनाइट, आर्सिनेट एवं आर्सिनोबीटाइन का संचयन ही देखा गया है।
आर्सेनिक संचयन में शैकों का उपयोग भारत में सर्वप्रथम शैक विज्ञान प्रयोगशाला (एन.बी.आर.आई.-सी.एस.आई.आर.) द्वारा किया गया था। इसके अध्ययन के लिये भारत के अनेक स्थानों से शैक जातियों के नमूने एकत्रित किए एवं उनमें संचयन का मापन एटामिक एब्जार्बसन स्पेक्ट्रोफोटोमीटर द्वारा किया गया तथा प्राप्त परिणाम अति उत्साहजनक रहे।
मध्य प्रदेश के धार जिले के माण्डव क्षेत्र में तीन जगह (मध्य शहर, सड़क के किनारे एवं शहर से लगभग 11-12 किमी दूर) से शैकों के नमूने लिये गए और पाया गया कि शहर से दूर जहाँ मानव गतिविधियाँ नहीं हैं वहाँ के शैक सूकायों में आर्सेनिक का संकेन्द्रण ज्यादा पाया गया जो दर्शाता है कि उक्त स्थल में काफी समय पूर्व खनन की गतिविधियाँ रहीं तथा उससे वायु में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ी। शैक सूकायों की आकारिकी का उसमें एकत्रित आर्सेनिक से सीधा सम्बन्ध है। चूर्णरूप एवं पत्तीनुमा शैकों में आर्सेनिक की मात्रा 51.00 माइक्रोग्राम/ग्राम शुष्क भार से भी ज्यादा पाई गई जो कि पपड़ीनुमा शैक से दस गुना अधिक थी। चूर्णरूप के शैक (लेपरारिया लोब्रीफिकेन्स) सूकाय में कवक का अत्यधिक जाल आर्सेनिक (प्रदूषकों) के संचयन में सहायक होता है, वहीं पत्तीनुमा शैकों (फियोफीशिया हिस्पीडुला एवं पिक्सिन कोकस) के सूकायों का अधिक क्षेत्रफल एवं राइजिनी का होना संकेन्द्रण में मदद करता है। इसके विपरीत पपड़ीनुमा शैक (कैलोप्लाका सब्सूलूटा) के सूकायों में न तो कवक तन्तुओं का अत्यधिक जाल होता है न ही राइजिनी पाये जाते हैं जिसकी वजह से ये प्रदूषकों को कम संकेन्द्रित करते हैं।
मध्य प्रदेश के ही पत्थर कोल्हू क्षेत्र, जहाँ पर पत्थर धूल एक बहुत बड़ा वायु प्रदूषक हैं, के आस-पास भी शैकों में आर्सेनिक का संकेन्द्रण अधिक पाया गया। इन क्षेत्रों में पत्तीनुमा शैक पिक्सिन कोकस एवं फियोफीशिया हिस्पीडुला के द्वारा क्रमशः कटनी एवं रीवां जिले के क्षेत्रों में आर्सेनिक मापन किया गया और देखा गया कि कटनी क्षेत्र में इसकी सीमा लगभग 2.3 से 33.4 माइक्रोग्राम/ग्राम थी, वहीं रीवा जिले में इसकी सीमा 1.0 से 19.6 माइक्रोग्राम/ग्राम शुष्कभार पाई गई कि कटनी क्षेत्र से 1.5 गुना कम थी। दोनों क्षेत्रों में आर्सेनिक का प्रतिशत उन क्षेत्रों से ज्यादा रहा जहाँ जीवाश्म ईंधन का अन्धाधुन्ध प्रयोग एवं पत्थर कोल्हू का उपयोग पत्थर तोड़ने के लिये किया जाता रहा है।
इसी क्रम में उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद में ऊँचाहार क्षेत्र के एक कोयला जनित विद्युत उत्पादन संयंत्र के आस-पास भी शैकों का अध्ययन किया गया। संयंत्र के चारों ओर लगभग 5,10 एवं 15 किमी की दूरियों पर शैक (पिक्सिन कोकस) के नमूने लिये गये और उनमें आर्सेनिक का संकेन्द्रण देखा गया। यहाँ पर इसका सान्द्रण उत्तर एवं दक्षिण दिशा की तुलना में पश्चिम एवं पूरब दिशाओं में ज्यादा रहा, वहीं संयंत्र से दूर जाने पर शैकों में आर्सेनिक का संकेन्द्रण कम होता गया। ज्यादा सान्द्रण 5 किमी के दायरे में संयंत्र के सबसे नजदीक की दूरी पर पाया गया जिससे यह स्पष्ट होता है कि आर्सेनिक के सान्द्रण में इसके द्रव्यमान, प्रदूषणजनित संयंत्र से दूरी, वायु की दिशा एवं गति की भी प्रमुख भूमिका होती है।
आर्सेनिक अध्ययन क्रम को जारी रखते हुए इससे प्रभावित पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में भी शैकों के नमूनों से इसके संकेन्द्रण का पता लगाया गया और देखा गया कि सतह जल में घुली आर्सेनिक से ज्यादा मात्रा शैक सूकायों में पाई गई। यहाँ पत्तीनुमा शैक (पिक्सिन कोकस) में आर्सेनिक की मात्रा 6.38-48.16 वही पर्तनुमा शैक (ग्रेफिस सिलोनिका) में 1.38-16.10 माइक्रोग्राम/ग्राम शुष्कभार पाई गई। इन क्षेत्रों में इतना ज्यादा आर्सेनिक का संकेन्द्रण यह दर्शाता है कि यहाँ की वायु बहुत जहरीली है। इस प्रदूषक की बढ़ी हुई मात्रा भविष्य के लिये एक खतरनाक संकेत हो सकती है।
विभिन्न अध्ययनों से मिले परिणामों से यह ज्ञात होता है कि शैकों की सहायता से हम अनेक विषाक्त तत्वों का मापन कर सकते हैं जो मानव के लिये हानिकारक हैं। यूँ तो शैक अधिक मात्रा में प्रदूषकों का संक्रन्द्रण करते हैं, परन्तु इनके इस गुण को पादक परिवेशोधार (फाइटोरिमीडियेशन) की तरह प्रयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि शैक सूकायों की विकास गति अत्यन्त धीमी होती है। अन्य पौधों की तुलना में शैक सूकाय एक वर्ष में सामान्य परिस्थितियों में केवल 0.5 मिमी ही बढ़ते हैं और अल्प जैवभार बनाते हैं। इन्हीं कारणों से हम इसे एक अच्छे प्रदूषक संचयक एवं सूचक के रूप में जानते हैं। शैक मापन के द्वारा प्राप्त आँकड़ों का भविष्य में उन्हीं क्षेत्रों में प्रदूषण के अध्ययन के लिये सन्दर्भ आँकड़ों के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
शैकों में आर्सेनिक के प्रकार, इसका संचयन एवं उपापचयी अध्ययन भविष्य के लिये शोध का एक नया मार्ग प्रशस्त करता है।
लेखक परिचय
आर बाजपेयी एवं डी के उप्रेती
शैक विज्ञान प्रयोगशाला, राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ-226 001
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