धरती पर इंसानियत पनपी तो प्रकृति ने उसे पुष्पित-पल्लवित करने के लिये सभी जरूरी संसाधन पर्याप्त मात्रा में मुहैया कराए। जरूरतें बढ़ीं तो इन संसाधनों पर दबाव बढ़ा। तब भी गनीमत थी, प्रकृति में ऐसी लोच है कि जरूरत पड़ने पर अगर आप उसके किसी संसाधन का अनुपात से अधिक इस्तेमाल कर लेते हो तो कुछ उपायों से आप उसे फिर सन्तुलित कर सकते हो। लोग ऐसा करते रहे, संसाधनों का सन्तुलन बरकरार रहा। फिर हुई औद्योगिक क्रान्ति और जनसंख्या विस्फोट।
अधिक आबादी वाले देश लोगों को रोटी-कपड़ा और मकान मुहैया कराने के लिये प्रकृति को विकृत करते रहे। उसी का फलाफल है कि आज पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग के चपेट में है। बूँद-बूँद पानी को लोग तरस रहे हैं। जो पानी है वो दूषित हो चुका है। शुद्ध हवा मयस्सर नहीं है।
हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि लोगों को अब पारिस्थितिकी याद आने लगी है। लेकिन भारत जैसे देश में बड़ी आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिये विकास भी जरूरी है। ऐसे में पारिस्थितिकी और आर्थिकी के बीच सन्तुलन साधना अपरिहार्य हो चला है। आज असली विकास वही है जिसमें प्रकृति को नुकसान नहीं पहुँच रहा हो। चुनौती इस बात की है कि इन दोनों के बीच रास्ता कैसे निकाला जाये। आगामी पाँच जून को विश्व पर्यावरण दिवस है। ऐसे मौके पर आर्थिकी और पारिस्थितिकी के बीच सन्तुलन साधने की पड़ताल आज हम सबके लिये बड़ा मुद्दा है।
विकासशील देश के गरीबों की हर जरूरत को पूरा करने के लिये विकास अनिवार्य शर्त है। पर्यावरण क्षरण दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है। ऐसे में विकास के साथ प्रकृति को सहेजने के रास्ते चुनने होंगे। और वे रास्ते मौजूद भी हैं।
प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के दुष्परिणामों को जब से वैज्ञानिक मान्यता मिली है, तभी से ये अन्तहीन बहस चल रही है, कि विकास और पर्यावरण संरक्षण साथ-साथ कैसे किया जा सकता है। जाहिर है, हर विषय की तरह इसके लिये भी दुनिया दोफाड़ है। एक, तबका आधुनिक विकास के तौर-तरीकों को सिरे से खारिज करता है तो सरकारों के साथ खड़ा तबका लोगों की जरूरत के लिये येन-केन-प्रकोरण विकास को अनिवार्य बताता है।
सरकारें विवश हैं। उन्हें विकास के चमत्कारी आंकड़ों की सीढ़ी से सत्ता की कुर्सी पर चढ़ना होता है। विडम्बना तो यह है कि जन-मानस भी इसी तरीके के विकास की चकाचौंध से भ्रमित होता दिख रहा है। दुनिया के किसी भी कोने के गाँव या शहर हों, लोग इसी तरीके के विकास के पक्षधर हैं।
विकास के इसी सोने के मृग के पीछे भागते-भागते हम लोग उस हालात में पहुँच चुके हें जहाँ आबो-हवा की दशा-दिशा चहुँओर से हमें घेरने लगी है। साँस लेना दूभर हो रहा है। बवंडरों और तूफानों की रफ्तार तेज होती जा रही है। पानी के लिये गली-मोहल्लों में लड़ाईयाँ शुरू हो रही हैं। नदी-पोखरों के गायब होने के किस्से बड़ी जगह बना रहें हैं। ऐसे में अब सोचने का नहीं करने का समय आ चुका है।
समाज के हर वर्ग के विकास की उस माँग को नकारा नहीं जा सकता जो हर तरह की आवश्यकताओं से आज भी वंचित हैं। इनकी सड़कें, घरों की छत, बिजली पानी के सवाल अभी तक अनुत्तरित हैं। बिजली की बढ़ती खपत को भी मना नहीं किया जा सकता क्योंकि इसके तार कहीं समृद्धि से भी जुड़े हैं। जब एक वर्ग हर तरह के ठाट-बाट में जीता हो और दूसरा पूरी तरह से वंचित हो तो फिर सामाजिक संघर्ष के सवाल भी खड़े होते ही हैं।
बड़े रूप में इसे ऐसे भी देख सकते हैं कि अमेरिका जैसे सम्पन्न देश चीन व भारत को सुझाव देते हैं कि वे अपने उद्योगों पर लगाम लगा लें जबकि वो खुद दुनिया में सबसे बड़े प्रदूषण का कारण बने हैं। अक्सर यही देखा जाता है कि हम या तो विकास के पक्ष पर पर्यावरणविदों को विकास विरोधी मानकर उनकी पैरोकारी को दरकिनार कर देते हैं। वहीं दूसरी तरफ विशुद्ध पर्यावरणविद किसी भी तरह के विकास में जहाँ पारिस्थितिकी का अहित होता हो उसके बड़े विरोध में खड़े हो जाते हैं।
अजीब सी बात है कि दोनों ही पक्ष विकल्पों पर चर्चा नहीं करते। आज तक कभी भी वैकल्पिक विकास पर इन दोनों वर्गों के लोगों ने मिल बैठकर रास्ता खोजने की कोशिश नहीं की। ये तो तय है कि दोनों ही वर्ग आने वाले समय में अपनी इस हठधर्मिता के लिये दोषी ठहराए जाएँगे। एक तरफ अंधे विकास के पक्षधर पृथ्वी और प्रकृति के प्रति उनकी नासमझी को झेलेंगे वहीं दूसरी तरफ घोर प्रकृति प्रेमी सन्तुलित विकास की पैरोकारी ना करने के लिये दोषी ठहराये जायेंगे।
इस बात को ऐसे समझा जा सकता है- आज ऊर्जा की जरूरत को खारिज नहीं किया जा सकता है। इसके लिये बड़े बाँधों की आवश्यकता ही नीतिकारों की समझ का हिस्सी रहती है। वो इससे जुड़े पर्यावरणीय व पारिस्थितिकीय नुकसानों को लाभ की तुलना में कम आंकते हैं। दूसरी तरफ पर्यावरण प्रेमी उसके बड़े विरोध में खड़े होकर अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश करते हैं। उन्हें देश की ऊर्जा खपत व आवश्यकता से कुछ भी सरोकार नहीं होता जबकि वे आत्म मंथन कर लें तो वे खुद भी कहीं ऊर्जा खपत के बड़े भागीदार हैं। ऐसे में रास्ता वैकल्पिक ऊर्जा का शेष बचता है।
छोटी-छोटी जल विद्युत परियाजनाएँ उतनी ही स्थाई और उससे भी ज्यादा ऊर्जा दे सकती हैं। इससे पारिस्थितिकी के नुकसान को रोका जा सकता है। दूसरा हवा सौर और अन्य ऊर्जा के विकल्प तैयार किये जा सकते हैं। हर क्षेत्र व देश के ऊर्जा नक्शे पर काम होना चाहिए कि किस स्थान में कहाँ से ऊर्जा ली जा सकती है।
आज सबसे ज्यादा जरूरत उन विकल्पों को तलाशने की है जो पर्यावरण या प्रकृति को सबसे ज्यादा नुकासन पहुँचा रहे हैं। उदाहरण के लिये, पहाड़ में सड़कों का विकल्प ट्रॉली बन सकती है। जिसके लिये ऊर्जा का प्रबन्ध छोटे-बड़े जल, सौर ऊर्जा के माध्यम से किया जा सकता है। अगर सड़क लम्बी-चौड़ी ही बननी हो तो पारिस्थितिकी को जोड़कर ही निर्माण की शर्तें होनी चाहिए। चीन व यूरोप में पारिस्थितिकी को साधते हुए सड़कों के निर्माण का उदाहरण है।
किसी भी तरह के बड़े निर्माणों में ऊर्जा और जल की खपत के बचाव का रास्ता सौर ऊर्जा व स्वयं के जल प्रबन्धन पर आधारित हो सकता है। इन्हें ग्रीन बिल्डिंग भी कहा जा सकता है। ऐसे ही बड़े उद्योगों को उनकी जल व ऊर्जा की व्यवस्था के लिये बाँधा जा सकता है जो वे वर्षा व सूर्य से सीधे जुटा सकते हैं गर्मियों में तपते घर का विकल्प ऐसे ही नहीं होता है। छतों को रिफ्लेक्टिव शीट व सौर पैनलों से ढककर जहाँ एक तरफ तपन कम की जा सकती है, वहीं सौर पंखों से काम चल जाएगा। छोटी दूरी के लिये साइकिल और लम्बी दूरी के लिये सार्वजनिक परिवहन पारिस्थितिकी से तारतम्य साधेंगे।
हर जरूरत की पूर्ति के लिये प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करती हुई चीजें मौजूद हैं। फ्रिज का बेहतर विकल्प सुराही और जीरो ऊर्जा चैम्बर हो सकते हैं। ये न तो बिजली की खपत करते हैं और न ही खतरनाक गैसों का उत्सर्जन करते हैं। तमाम तरीके के इलेक्ट्रॉनिक गैजेट ऊर्जा खपत की बड़ी वजह बन रहे हैं। इनके इस्तेमाल पर स्वनियंत्रण जरूरी है। छोटे-छोटे प्रयोगों से आपूर्ति का विकल्प निकल सकता है। जैसे फाइन चारकोल वाले वाटर फिल्टर की जगह परम्परागत कोयला, बजरी व रेत के फिल्टर उपयोगी हो सकते हैं।
जिस तरह से परिस्थितियाँ बदल रहीं हैं उसको देखते हुए ऊर्जा खपत के विकल्पों से समझौते करने ही पड़ेंगे। विकास बनाम पारिस्थितिकी की बहस पर विराम लगाने का भी समय है। ऐसे में हमें अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और विकास के मध्य मार्ग पर चिंतन करना चाहिए।
पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक
कभी प्रकृति की पूजा करने वाले देश में आज उसका निरादर चिंतित करता है। हमारे पौराणिक ग्रन्थों में धरती, प्रकृति, पेड़ और पौधों, जीव-जन्तुओं की पूजा और उनके संरक्षण का पाठ सिखाया गया है, लेकिन भौतिकता की आँधी में हम उन सीखों को भुला बैठे हैं। तभी तो 2018 के पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में सबसे नीचे के पाँच देशों के साथ खड़े हैं। येल और कोलम्बिया विश्वविद्यालय हर दो साल पर वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के साथ मिलकर ये सूचकांक जारी करते हैं।
भारत की रैंक
180 देशों की सूची में हम 177वें पायदान पर हैं। बांग्लादेश 179 वें स्थान पर है। इनके साथ तलहटी में बुरुंडी, कांगो और नेपाल शामिल हैं। 2016 के सूचकांक में भारत 141वें पायदान पर था। पर्यावरण की लगातार बिगड़ती सेहत ने इसे 36 अंक और नीचे धकेल दिया है।
निजी स्तर पर उठें कदम
सरकार ने पर्यावरण बचाने के लिये तमाम नियम-कानून बना रखे हैं, लेकिन विकास की अन्धी दौड़ उन्हें हमेशा ठेंगा दिखाती रही है। ऐसे में निजी स्तर पर लोग कुछ कदम उठाकर साथ-साथ पर्यावरण और विकास के सपने को हकीकत में बदल सकते हैं। इसके लिये ग्रीन इकोनॉमी यानी हरित अर्थव्यवस्था को अपनाना होगा। यही एक तरीका है जिसमें हम जरूरी विकास के साथ अपने पर्यावरण को भी संरक्षित रख सकते हैं। जनकल्याण और सामाजिक सहभागिता में सुधार करते हुए पर्यावरणीय खतरों और पारिस्थितिकीय दुर्लभता को कम करना ही ग्रीन इकोनॉमी है। इसे बढ़ावा देने वाले तरीकों और उत्पादों में निवेश करें।
भवन निर्माण
1.ऊर्जा अॉडिट द्वारा घर या अॉफिस की ऊर्जा लागतों में काफी बचत कर सकतें हैं।
2. घर में साज-सज्जा या लैंडस्केपिंग के लिये ऐसी चीजों का चयन करें जिनका पर्यावरण पर बहुत असर न हो।
वानिकी
1.कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का 20 फीसद केवल वनों के होते विनाश के चलते हैं।
2. अगर वनों का टिकाऊ प्रबन्धन किया जाय तो ये बिना पर्यावरण और जलवायु को नुकसान पहुँचाए लगातार समुदायों और पारिस्थितिकी तंत्र की मदद करते रहें।
जल
चतुराई भरे जल के इस्तेमाल के रूप में आपके छोटे से कदम से इस अनमोल संसाधन का संरक्षण सम्भव है।
ऊर्जा आपूर्ति
आप ऐसे उत्पाद या कारोबार में निवेश करें जो स्वच्छ और नवीकृत ऊर्जा के विकास को बढ़ावा देते हों।
पर्यटन
घर पर या घर से बाहर यात्रा के दौरान भी एक ही तरीके से आप ग्रीन इकोनॉमी का समर्थन कर सकते हैं। स्थानीय खरीदें, कई लोगों के साथ यात्रा करें, पानी और ऊर्जा का सीमित इस्तेमाल करें।
मत्स्य उद्योग
मछली पकड़ने की अति से इनके भविष्यय के भण्डार में कमी का खतरा खड़ा हो गया है। इसके लिये हमें मछली पकड़ने के टिकाऊ तरीकों को बढ़ावा देना होगा।
परिवहन
कार पूलिंग या सार्वजनिक यातायात के इस्तेमाल से आप पर्यावरण पर पड़ने वाले असर और आर्थिक लागत दोनों को कम कर सकते हैं।
कृषि
अपनी उपभोक्ता ताकत का इस्तेमाल स्थानीय कार्बनिक और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने में करें।
अपशिष्ट
1.किसी भी वस्तु को फेंकने का सीधा मतलब है कि उस पदार्थ के पुनर्उपयोग का मौका गवा देना और लैंडफिल से मीथेन नामक पर्यावरण के लिये खतरनाक गैस के उत्पादन को बढ़ावा देना।
2. उपयुक्त पदार्थों के रिसाइकिल और खाद्य अपशिष्ट से कम्पोस्ट खाद बनाकर हम लैंडफिल के असर को न केवल कम करते हैं बल्कि नये उत्पादों के निर्माण से अपने प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ने वाले असर को भी कम करते हैं।
मैन्युफैक्चरिंग और उद्योग
एक चतुर उपभोक्ता बनिये। उस कारोबार को बढ़ावा दें जिसके पास टिकाऊ योजनाएँ हों, इकोलेबल्स को इस्तेमाल करें, नवीकृत ऊर्जा में निवेश करें।
विकास के साइड इफेक्ट
अन्धाधुन्ध विकास के साइड इफेक्ट दिखने शुरू हो गये हैं। इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता है कि लोगों के कल्याण के लिये विकास जरूरी है, किन्तु इस कड़वे सच को भी स्वीकारना होगा कि तमाम मुश्किलों का स्रोत बन रहा कथाकथित विकास अर्थहीन है। ऐसे में सन्तुलित कदम उठाने होंगे। विकास के साथ पर्यावरण को भी बचाना होगा।
वायु प्रदूषण
हर साल 12 लाख लोग देश में जहरीली हवा से मरते हैं। विश्व बैंक के मुताबिक इसके कारण देश को 38 अरब डॉलर का नुकसान होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 15 शहरों में से 14 भारतीय हैं। दरअसल साल दर साल सड़कों पर बढ़ते वाहन, औद्योगिकीकरण, निर्माण कार्यों और कल कारखानों से वायुमण्डल में इतनी विषैली गैसें छोड़ी जा चुकी है कि साँस लेना दूभर हो रहा है। लोग बीमार हो रहे हैं। साँस की बीमारियाँ कई गुना तेजी से बढ़ रही है।
घटता भूजल स्तर
देश में सालाना 230-250 किमी घन भूजल इस्तेाल होता है। यह आंकड़ा चीन और अमेरिका में भूजल के संयुक्त इस्तेमाल से अधिक है। देश में 60 फीसद कृषि सिंचाई और 85 फीसद घरेलू कामों में भूजल का उपयोग किया जाता है। इस कारण 16 राज्यों की 1,071 (कुल का 30 फीसद) भूजल इकाइयों में जल स्तर अत्यधिक घट गया है।
जल को तरसते लोग
देश के 7.6 करोड़ लोगों (6 करोड़ आबादी) को स्वच्छ पानी नसीब नहीं है। इनमें अधिकतर लोग गरीब हैं, जो महंगे दामों पर पानी खरीदने को मजबूर हैं। जो लोग पानी नहीं खरीद पाते वे दूषित पानी पीते हैं। इसके चलते बड़ी संख्या में लोग जल जनित बीमारियों से ग्रस्त होते हैं।
घटता वन क्षेत्र
1980 से 2016 तक देश के नौ लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र को विभिन्न उपक्रमों के लिये खाली भूमि में बदला गया है। अब देश में वन क्षेत्र सिर्फ 21.34 फीसद रह गया है।
गिरती अनाज पौष्टिकता
2050 तक भारतीय आबादी 1.7 अरब होने की सम्भावना है। इससे अनाज की माँग 70 फीसद बढ़ जाएगी। भले ही अनाज की पैदावार बढ़ रही है लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण अनाज के पोषक तत्व कम हो रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में सर्वाधिक कुपोषित लोग रहते हैं ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 80 देशों में भारत का 67वाँ स्थान है।
जैव विविधता को खतरा
जीव जन्तुओं की कुल प्रजाति के आठ फीसद भारत में पाये जाते हैं। लेकिन इंसानी व मौसमी कारकों के चलते कई प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर हैं। पिछले पाँच वर्षों में भारत ने चार ऐसी प्रजातियों को खतरे से बाहर लाने के लिये सौ करोड़ रुपए का निवेश किया है।
संसाधनों को नुकसान
देश में 40 करोड़ लोग जीवनयापन के प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं। 9 हजार करोड़ रुपए का निर्यात इन संसाधनों पर आधारित है। इसके बावजूद देश मे संसाधनों का जरूरत से अधिक दोहन किया जा रहा है।
आर्थिकी बनाम पारिस्थितिकी
1. 55 करोड़ वैश्विक आबादी जिसे नहीं मिलता स्वच्छ पानी।
2. 8% 8300 ज्ञात जीव प्रजातियों में से विलुप्त प्रजातियाँ 22 फीसद पर लटकी तलवार।
3. 260 करोड़ दुनिया में प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर आबादी।
4. ⅔ 2020 तक जीव-जन्तुओं की संख्या इतनी कम होने की आशंका।
5.160 करोड़ आजीविका के लिये दुनिया में जंगलों पर आश्रित लोग।
6.23% देश जहाँ नहीं है जल शोधन संयंत्र।
7.52% दुनिया में खेती में इस्तेमाल हो रही जमीन अति क्षरण की शिकार।
8.55लाख दूषित हवा से होने वाली सालाना वैश्विक मौतें (कुल मौतों का दस फीसद)।
9.3.5 अरब दूषित हवा वाले देशों में रहने वाले लोगों की संख्या।
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