रूठे को मनाना होगा


बिना जल के हम जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। अतीत में कई बार प्राकृतिक कारणों से विषम परिस्थितियाँ आईं, लेकिन पानी ने धरती से कभी जीवन को नष्ट नहीं होने दिया। अब जब हम खुद पानी को नष्ट करने पर उतारू हैं, तो पानी भी हमसे रूठ रहा है।

पृथ्वी पर पानी की मेहरबानियों का इतिहास लगभग तेरह सौ करोड़ साल पुराना है। इस लम्बी अवधि में यदि वह कभी रूठा तो केवल तत्कालीन जीवन प्रभावित हुआ, मनुष्य नहीं। वैज्ञानिक मान्यता है कि पानी की मेहरबानियों का इतिहास, हकीकत में; प्रकृति द्वारा उसे सौंपे लक्ष्यों को पूरा करने का इतिहास है।

धरती का इतिहास बताता है कि पानी ने अपनी जिम्मेदारियों को प्राकृतिक घटकों की सहायता से पूरा किया था। यह उल्लेख प्रासंगिक होगा कि उन घटकों ने एक ओर जहाँ जीवन की निरन्तरता एवं विकास यात्रा को निरापद परिस्थितियाँ उपलब्ध कराई हैं वहीं उसने पृथ्वी का रूप संवारा, उसका भूगोल बदला।

पानी की मेहरबानियाँ, बिना किसी व्यवधान के, लगभग तेरह सौ करोड़ साल से लगातार सम्पन्न हो रही हैं। यह व्यवस्था जीवन के लिये, हर मुकाम पर, हर परिस्थिति में, निर्धारित मात्रा में जल उपलब्ध कराती है।

बदलते मौसम के बावजूद उसकी व्यवस्था करती है। प्रकृति, वर्षाजल की मदद से जलस्रोतों और धरती को हजारों तरीकों से अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिये अमृत लुटाती है, धरती को रहने योग्य बनाती है। यही पानी की प्राकृतिक भूमिका है। यही उसका अवदान है। यही उसकी मेहरबानियाँ हैं।

उसकी कृपा से ही पृथ्वी पर लगभग सत्तासी लाख प्रजातियों का जीवन सम्भव हुआ है। उसी की कृपा से समुद्र के खारे पानी में लगभग बाइस लाख प्रजातियाँ फल-फूल रही हैं। उसी की मेहरबानियों ने आग बरसाते मरुस्थलों और हड्डियों को जमा देने वाले ठण्डे ध्रुव प्रदेशों की कठोर परिस्थितियों में जीवन को सम्भव बनाया है।

वर्तमान में महाद्वीपों पर लगभग पैंसठ लाख प्रजातियाँ अस्तित्व में हैं। प्रकृति ने उन पैंसठ लाख प्रजातियों की सम्पूर्ण आबादी के योग-क्षेम के लिये मात्र ढाई प्रतिशत शुद्ध पानी ही उपलब्ध कराया है। वैज्ञानिक बताते हैं कि करोड़ों वर्षों से महाद्वीपों पर उतना ही शुद्ध पानी उपलब्ध है। बदलते समय और धरती पर जीवन के विकास के बावजूद उसमें बदलाव नहीं हुआ है।

दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि- प्राकृतिक ताकतें शुद्ध पानी के इस प्रतिशत को ही महाद्वीपीय जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों के योग-क्षेम के लिये पर्याप्त मानती हैं। इसी कारण प्रकृति की ओर से आबादी के बढ़ने या घटने के बावजूद, महाद्वीपों पर पानी की मात्रा में अन्तर नहीं आया है। यदि बदलाव हुआ है तो उसने केवल पानी के ठिकानों या स्वरूप को बदला है। इस हकीकत के आधार पर कहा जा सकता है कि धरती की लम्बी जीवनयात्रा में पानी को अगर कभी रूठना होता, तो वह अपनी मात्रा, उपलब्धता या प्राकृतिक जलचक्र के मार्ग में बदलाव करता। मौटे तौर पर यह कभी नहीं हुआ। कुदरत ने अपने कायदे-कानून लगभग यथावत रखे। धरती पर जीवन के फलने-फूलने के लिये ढाई प्रतिशत शुद्ध पानी पर्याप्त है। उसका वितरण मुफीद है।

कुछ वर्षों से मौजूदा युग, विभिन्न बदलावों तथा हस्तक्षेपों के कारण, पानी की बेरुखी का युग लग रहा है। सारी दुनिया को लग रहा है कि पानी के घटकों का व्यवहार बदल गया है। कई जगह बरसात का चरित्र बदल गया है। उसकी मात्रा तथा बरसने के पैटर्न में अन्तर आ गया है। बादल फटने की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो गई है। उनके इलाके बदल गए हैं। अब बादल फटना, मात्र ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों की त्रासदी नहीं रह गई है। बाढ़ क्षेत्र में विस्तार हो रहा है।

बारहमासी नदियों की संख्या घट रही है। पानी की निर्मलता, पुराने जमाने की कहानी लग रही है। गंगा के पानी का, कभी भी खराब नहीं होने वाला विलक्षण गुण, बदल गया है। किसी-किसी जगह तो वह खत्म हो गया है। आज देश में एक भी ऐसी नदी नहीं बची जिसके पानी और पानी की गुणवत्ता पर संकट नहीं हो। कुदरती झीलों और झरनों ने भी बेरुखी दिखाना प्रारम्भ कर दिया है। कुएँ और नलकूप भी पीछे नहीं हैं। चारों ओर पानी की बेरुखी, उसके रूठने के संकेत साफ नजर आने लगे हैं। उसकी मेहरबानियाँ घट रही हैं। वह रूठा-रूठा सा लग रहा है।

यह सही है कि खगोलीय कारणों से पृथ्वी पर जलवायु में बदलाव होता है। धरती की लम्बी जीवन-यात्रा में यह अनेक बार हुआ भी है। फिलहाल, हम इंटर-ग्लेशियर युग में हैं। इस युग का तापमान धीरे-धीरे बढ़ रहा है। वैज्ञानिक बताते हैं कि खगोलीय कारणों से होने वाला बदलाव क्रमिक तथा बहुत धीरे-धीरे होता है। उसमें बहुत लम्बा समय लगता है। इस कारण धरती पर मौजूद जीवन उससे तालमेल बिठा लेता है। जो जीव-जन्तु तालमेल नहीं बिठा पाते वे पलायन कर बच जाते हैं। कुछ जीव-जन्तु विलुप्त भी हो जाते हैं। इस कारण क्रमिक तथा बहुत धीरे-धीरे होने वाला जलवायु बदलाव असहनीय और गम्भीर संकट नहीं होता। इस आधार पर कहा जा सकता है कि जब तक पानी का प्रबन्ध प्रकृति के हाथ में था, वह रूठने की स्थिति में नहीं था। अब उस पर मानवीय हस्तक्षेपों का साया है।

जलवायु परिवर्तन और पानी के रूठने के लिये प्राकृतिक ताकतें पूरी तरह जिम्मेदार नहीं हैं। पानी का रूठना या बारहमासी जलस्रोतों का जवाब देना या उनका मौसमी हो जाना, किसी हद तक मानवीय हस्तक्षेपों और प्रकृति के नियमों की अनदेखी का भी प्रतिफल है। मौजूदा युग में पानी का रूठना दो तरीके से प्रदर्शित हो रहा है। पहला है- पर्याप्तता के बावजूद घटती उपलब्धता और दूसरा है- पानी में बढ़ती विषाक्तता।

पानी के रूठने के संकेत नदियों, कुदरती झीलों, मानव निर्मित तालाबों, बाँधों के विशाल जलाशयों, कुओं, बावड़ियों और नलकूपों में साफ दिखाई दे रहे हैं। पिछली सदी के उत्तरार्द्ध से नदियों के पानी के इस्तेमाल का सिलसिला प्रारम्भ हुआ। जहाँ प्रवाह दिखा वहाँ उसे बाँधा गया। इस रणनीति ने नदियों के कुदरती प्रवाह और गाद के सुरक्षित निपटान को बाधित किया। नदियों को जलाशयों में विभाजित किया। उनकी बायोडायवर्सिटी को संकट में डाला। रेत के अविवेकी खनन ने प्रवाह की लय बिगाड़ी।

जब उल्लेखित मानवीय हस्तक्षेपों ने नदियों की, कुदरत द्वारा तय लक्ष्मण-रेखा को पार किया, तो अनेक विसंगतियाँ पैदा हुईं। उन्हीं विसंगतियों ने पानी के रूठने की कहानी की पहली इबारत लिखी। यह कहानी बाँध पर खत्म नहीं हुई। बाँध के निर्माण ने कैचमेंट और कमांड के बीच पानी के वितरण को असन्तुलित कर, पानी के मामले में उन्हें गरीब तथा अमीर इलाकों में बदला। इसके अलावा, अनेक स्थानों पर नदी से पानी उठाया गया। पानी उठाते समय, अनेक बार, पर्यावरणी प्रवाह की अनदेखी हुई।

नदी के पानी के अतिशय दोहन ने कुदरत के नियमों की अनदेखी की। नदी की धार पतली होने लगी। उसकी सहायक नदियाँ भी प्रभावित हुईं। उनमें से अनेक मौसमी बनकर रह गईं। अनेक गन्दे नालों में बदल गईं। उनका पानी इस्तेमाल के काबिल नहीं रहा। उनके गन्दे हिस्से भूजल को प्रदूषित करने तथा बीमारियों को फैलाने के जीते-जागते केन्द्र बन गए। आधे-अधूरे प्रयासों के कारण पानी का असमान प्रबन्ध नजर आने लगा। पानी की सर्वकालिक और सार्वभौमिक उपलब्धता के लगातार कम होने के कारण, समाज और सरकार को पानी के रूठने का दंश चुभने लगा।

पानी के रूठने और उसकी गुणवत्ता के बिगड़ने की कहानी के अनेक आयाम हैं। सन 1960 के बाद पूरे देश में कुओं और नलकूपों का उपयोग बढ़ा। हरित क्रान्ति ने नहरी पानी तथा भूजल की मदद से खेती की परम्परागत तकनीक बदली। उन्नत संकर बीजों का प्रचलन बढ़ा। नकदी फसलों और अधिक पानी चाहने वाली रबी तथा गर्मी की फसलें मुख्यधारा में आईं।

रासायनिक खाद तथा कीटनाशक दवाओं के बढ़ते उपयोग के कारण उत्पादन बढ़ा। राज्य सरकारों और बैंकों ने भरपूर मदद दी। धीरे-धीरे गहरे नलकूपों का प्रचलन बढ़ा। भूजल स्तर के गिरावट की लक्ष्मण-रेखा लाँघते ही कुओं और अधिकांश नदियों का सूखना प्रारम्भ हो गया। दिसम्बर-जनवरी आते-आते अधिकांश छोटी नदियाँ सूखने लगीं। बड़ी तथा मझोली नदियों के प्रवाह पर गर्मी के मौसम की नलकूपों से होने वाली सिंचाई का असर पड़ा। उनकी धार और पतली हुई। नदियों के प्रवाह के रूठने का यह असली कारण है। उसके रूठने के संकेतों को गम्भीरता से समझने और उसके टिकाऊ इलाज की जरूरत है। हर हाल में पानी का रूठना रुकना चाहिए। वही पानी के टिकाऊ विकास का सुरक्षित मार्ग है। वही आज की आवश्यकता है। वही धरती पर जीवन की निरन्तरता का पुख्ता बीमा है।

कबीर व रहीम के पानीदार दोहे

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुष की जात।
देखत ही छिपि जाएगा, ज्यों तारा परभात।

संगति भई तो क्या भया, हिरदा भया कठोर।
नौनेजा पानी चढ़ै, तऊ न भीजै कोर।

दान किए धन ना घटै, नदी न घट्टै नीर।
अपनी आंखों देखिए, यों कथि गए ‘कबीर’।।

ऊंचै पानी न टिकै, नीचै ही ठहराय।
नीचा होय सो भरि पिवै, ऊंचा प्यासा जाय।।

कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम।
केहि की प्रभुता नहिं घटी, पर घर गए ‘रहीम’।।

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
‘रहिमन’ मछरी नीर को, तऊ न छांड़त छोह।।


(लेखक प्रसिद्ध भू विज्ञानी एवं भूजल विशेषज्ञ हैं)

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