रूपिन और सूपिन

खिली हुई चांदनी में बिखरा है किसा बचपन। किसको याद है चांदनी पेड़ों से छनकर आई या दीवार से। मैं ही नहीं ज्यादा जानता अपने बचपन के बारे में ज्यादा तो किसी से क्यों कहूं नहीं जानता मुझे कोई। जैसे नैटवाड़ की नदियों रूपिन और सूपिन को नहीं जानता कोई। इनसे बनकर ही बनी है टौंस। और इनसे बनी भागीरथी, जिसने बनाई गंगा। बहरहाल। बड़े होकर मैं दोस्तों और रिश्तों में घुलमिल नहीं सका। मैंने कहा, नदी भी जब मिलती है नदी से, तो काफी आगे तक वे अपने-अपने रंगों में चलती हैं। छोड़ती है अपना रंग टकराकर चट्टान और पहाड़ी से। मैंने रिश्तों दोस्तों में ठोकरें खाई और अपना रंग छोड़ दिया।

रूपिन से होकर एक पुल गुजरता है। सूपिन में बहता है ठंडे बांज बुरांस के पेड़ों का पानी। दोनों नदी कभी नहीं सूखी और गर्मी में तो उनमें बहा ज्यादा पानी ज्यादा ठंडा। वे जैसी-जैसी बड़ी होती गईं और टौंस बन गई, उनमें कई तरह से व्यापार बढ़ा। जैसे पेड़ों के पेड़ बहाने की वे राह बनीं। रेलवे लाइनें बिछी इस तरह। आप ऐश करते होंगे कहीं। गुर्जर का बेटा इस संगम पर बैठा है मेरे बचपन के दिनों की तरह।

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