इस बार यहां रियो में ओबामा नहीं आए। न यूरोपीय संघ की धुरी बनी जर्मनी की चांसलर, न ब्रिटेन के प्रधानमंत्री। सब कुछ ठंडे-ठंडे निपट गया। इसकी वजह यही है कि भारत-चीन जैसे विकासशील देश अब विपक्षी ताकत नहीं रहे। वे खुद विकास के उसी रास्ते पर हैं। कोई नया मॉडल उनके सामने नहीं है। विकसित देशों का ज्यादा विरोध करना एक अर्थ में खुद अपना विरोध करने जैसा ही हो सकता है। थोड़ा विरोध किया जाता है तो लोक-लाज के लिए। अलबत्ता ज्यादा पिछड़े देश अब भी उनसे रहनुमाई की आस पालते हैं।
परिवर्तन की जिस उम्मीद में रियो+20 दुनिया के लोग शामिल हुए थे, वह पूरी न हो सकी। ऐसा कोई निर्णय न हो सका कि दुनिया जंगल के कटान को रोकने की दिशा में कोई ठोस पहल कर पाती। उर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के जरिए उर्जा क्रांति की दिशा में आगे बढ़ने की बात भी अधूरी ही रह गई। समुद्र के स्वास्थ्य से लेकर मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए जरूरी उपायों की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो पायी। कोई ठोस निर्णय नहीं, कोई खास नीति नहीं और उन सबसे बढ़कर कोई पक्की नीयत नहीं कि दुनिया के नेतागण मिल बैठकर धरा के भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा की में कोई प्रस्ताव ला पाते और उसे आगे बढ़ा पाते। जो प्रस्ताव इस महासम्मेलन में लाया गया और जिस पर जमकर चर्चा भी हुई उस पर अमल का मतलब होगा कि धरती को नखलिस्तान बनाने की प्रक्रिया आगे भी जारी रहने वाली है। प्रस्ताव कह रहा है कि गरीबी हटाना ज्यादा जरूरी है। लेकिन इन प्रस्तावों को देखकर लगता नहीं है कि इन टोटकों से गरीबी की गैरत को ललकारा जा सकता है। अगर रियो+20 सम्मेलन को आज के बीस साल पहले रियो सम्मेलन से जोड़कर देखें तो बीस साल पहले का सम्मेलन ज्यादा महत्वपूर्ण और पर्यावरण बचाने के व्यावहारिक उपायों के प्रति समर्पित था।
आज से ठीक बीस साल पहले 1992 के रियो सम्मेलन में ज्यादा सकारात्मक और ठोस सोच सामने आई थी। इसी सम्मेलन में पहली बार विकास के साथ पर्यावरण के विनाश को भी जोड़कर देखा गया था। ग्रीनपीस ऐसी किसी सोच को पूरा सम्मान करती है जो पर्यावरण संरक्षण के साथ साथ गरीबी उन्मूलन और सामाजिक न्याय के सपने को पूरा करती है। लेकिन दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि रियो+20 में इस सोच को कोई सम्मान नहीं मिल सका। वे दुनिया की गैर बराबरी को दूर करने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं कर पाये और न ही पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के बीच किसी सामंजस्य को लेकर किसी ठोस नतीजे पर पहुंच पाये। हम जिस ग्रीन इकोनॉमी के मद्देनजर इस सम्मेलन को देख रहे थे, इससे कहीं अधिक कारगर उपाय 1992 के रियो सम्मेलन के एजेण्डा नंबर 21 में मौजूद था।
रियो+20 सम्मेलन में मौजूद नेताओं ने यह कहकर अपने भविष्य को अनिश्चय के हाथों में सौंप दिया कि वे समस्याओं से अनभिज्ञ नहीं हैं। लेकिन समस्या के प्रति सचेत रहना ही समस्या का समाधान नहीं होता है। ऐसी बातों का तब कोई मतलब नहीं रह जाता जब दुनिया को तत्काल ठोस उपायों की जरूरत महसूस हो रही हो। अच्छा होता कि सरकारें यह कहती कि वे विकास के ऐसे आर्थिक उपायों का परित्याग करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं जिससे धरती की सेहत बिगड़ती हो। अगर हम इसी तरह परमाणु, तेल और कोल के जरिए अपनी उर्जा जरूरतों को पूरा करते रहे, अगर हम इसी तरह जेनेटिक इंजिनियरिंग को वैज्ञानिक प्रक्रिया मानकर आगे बढ़ाते रहे, अगर हम इसी तरह जहरीले रसायनों को जमीन पर फैलाते रहे तो भला बताइये इस प्रक्रिया से कौन सी ग्रीन इकोनॉमी पैदा होगी? जिन उपायों से हमारा वर्तमान बर्बाद हो रहा है उन्हीं के जरिए हम अपना भविष्य भला कैसे सुरक्षित रख पायेंगे?
हकीकत तो यह है कि रियो+20 में हर मुद्दे पर समझौतापरस्त नीतियां अपनाई गई है। करीब डेढ़ साल की समझौता वार्ताओं के बाद भी ब्राजील द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रस्ताव में कोई दम नजर नहीं आया। डेढ़ साल में जो कुछ बातचीत हुई थी उसका कोई अंश उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रस्ताव में नहीं दिखा। शीर्ष पर शामिल लोगों ने इस बात पर तो सहमति दिखाई कि आगे बढ़ना जरूरी है लेकिन आगे बढ़ने के लिए रास्ता कौन सा होगा इस बारे में जैसे वे लोग खुद अंधेरे में हैं। सम्मेलन के शुरुआत में गैर सरकारी बिरादरी की ओर से ईको कार्नर को बोलने के लिए अधिकृत किया गया था। सम्मेलन की शुरुआत में बोलते हुए उन्होंने साफ कहा कि “अगर इसी प्रस्ताव को आप स्वीकार करने जा रहे हैं तो तय मानिए आप अपने आने वाली पीढ़ियों के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। पीढ़ियों से परे आपका अपना बच्चा ही इन प्रस्तावों से सुरक्षित नहीं रह पायेगा।”
अज्ञातवास से निकलकर एक भारतीय प्रतिनिधि ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि “ये प्रस्ताव ऐसे हैं मानों आप बिटविन द लाइन्स पढ़ रहे हों। अगर नहीं तो आप कुछ नहीं समझ सकेंगे।” यह पूरा सच शायद नहीं है। प्रस्तावों के जरिए जो झूठ बोला जा रहा है उसे पकड़ना उतना मुश्किल भी नहीं है। बंद सम्मेलन कक्ष के बाहर खुले आसमान के नीचे लिखी तहरीरें साफ बता रही थीं कि रियो+20 में हमारे भविष्य के साथ समझौता किया गया है। सम्मेलन तो समाप्त हो गया लेकिन ऐसा नहीं है कि दुनिया के पर्यावरण को बचाने के उपाय भी यहीं खत्म हो गये। भले ही सम्मेलन इस बारे में सोचता या कुछ करता दिखाई नहीं दिया लेकिन ऐसा नहीं है कि इस सम्मेलन के समझौतों के बाद भी हम संकट का समाधान नहीं खोज सकते हैं। अभी भी हमारे पास रास्ता बचता है। वह रास्ता है जनता का रास्ता। सामाजिक संगठनों का रास्ता और जन आंदोलनों का रास्ता। अगर जनता सीधे तौर पर धरती बचाने की कमान अपने हाथ में ले लेती है ऐसे सम्मेलनों की असफलता के बाद भी सफलता के रास्ते खुलते जाएंगे।
सस्टेनबल डेवलमेन्ट गोल्स (एसडीजी): पिछले डेढ़ सालों से सरकारों के साथ सलाह मशविरे के बाद इस नतीजे पर पहुंच गया है कि दुनिया के सामने विकास के इन लक्ष्यों को प्रस्तुत किया जाए। ये लक्ष्य और उन्हें पाने के उपाय भले ही वैश्विक होंगे लेकिन उन्हें पालन करने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं होगी। सिर्फ यही वह मुख्य मुद्दा है जिस पर सभी एकराय नजर आये लेकिन यह करेंगे कैसे इस बारे में कोई प्रस्ताव सामने नहीं आया।
एसडीजी की ही तरह यह खंड भी अधूरा है। प्रस्ताव पर पालन करने की पहल करने के लिए कोई खास व्यवस्था नहीं की गई है सिवाय यह कहने के कि विकसित देश गरीब देशों को धन मुहैया करायें ताकि वे उन वादों को पूरा कर सकें जिन्हें अभी तक वे पूरा नहीं कर पाये हैं।
प्रस्ताव में ऐसे उपाय पूरी तरह नदारद हैं जो स्थाई विकास को साकार करने के लिए संस्थागत स्वरूप में प्रयास कर सकें। यूरोपीयन यूनियन और अफ्रीका के पूरे समर्थन के बाद भी सरकारें संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) को सर्वमान्य एजेंसी के तौर स्वीकार नहीं कर सकीं। रियो में जो प्रस्ताव किया गया उससे ठोस परिणाम कुछ नहीं निकलेगा। हां, इतना जरूर होगा कि बातचीत करने का क्रम आगे भी जारी रहेगा।
सम्मेलन में हरित अर्थव्यवस्था (ग्रीन इकोनॉमी) की बात जरूर की गई है लेकिन बहुत ही सतही स्तर पर। देशों को इस बात के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया है कि वे अपने हिसाब से तय कर लें कि वे किसे ग्रीन इकोनॉमी कहेंगे और किसे नहीं। साफ तौर पर कहें तो दुनिया को देशों को संदेश दे दिया गया है कि उन्हें कुछ करने की ही जरूरत नहीं है। बीस साल पहले के सम्मेलन का एजेण्डा 21 में हरित अर्थव्यवस्था के लिए आज से ज्यादा उपाय किये गये थे।
ऐसा लगता हैं दुनियाभर की सरकारें खुद अपना ही आंकलन करने में असमर्थ हो रही हैं। वे भी नहीं समझ पा रही हैं कि संपन्नता का वास्तविक पैमाना क्या होना चाहिए और उसे वे कैसे पूरा कर सकेंगे। शायद इसीलिए आंकड़ेबाजी के लिए सरकारों ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र की सांख्यिकी समिति की ओर अपना रुख किया है कि वह सरकारों के लिए इस दिशा में काम करे और उनके जीडीपी गणना को ठीक करने में मदद करे।
इस सम्मेलन में जो प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया है वह आश्चर्यजनक रूप से कारपोरेट घरानों को मारक के रूप में नहीं बल्कि उद्धारक के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। रियो+20 के अनुसार कारपोरेट घराने नये धरती के नये सुपरहीरो हैं जो हमारी रक्षा करेंगे इसलिए उनको खुली छूट दे दी गई है। उनको जहां जो ठीक लगे वह करने के लिए वे पूरी तरह से आजाद हैं। कारपोरेट उत्तरदायित्व के बारे में प्रस्ताव में जो शब्दावली प्रयोग की गई है वह सख्त न होकर चापलूसी भरी है। कम से कम 2002 में कारपोरेट उत्तरादायित्व को लेकर जोहन्सबर्ग में भी इससे बेहतर प्रस्ताव सामने रखा गया था।
भोजन और कृषि के बारे में प्रस्ताव में जो कुछ लिखा गया है वह सीधे तौर पर दुनियाभर के उन छोटे किसानों का अपमान है जिन्हें अपनी खेती को चलाये रखने के लिए शहरी सहयोग की जरूरत है। आश्चर्यजनक रूप से खाद्यान्न और कृषि पर हुई समझौता वार्ताओं में बहुत कम प्राथमिकता दी गई। ब्राजील सरकार की ओर से जो ड्राफ्ट प्रस्तुत किया गया उसमें भी कृषि सबसे कम प्राथमिकता वाला विषय था।
साफ सुथरी उर्जा के बारे में रियो+20 के प्रस्ताव में कुछ खास नहीं है। जिस वक्त दुनिया के 1.4 अरब लोग उर्जा से मरहूम जिंदगी बसर कर रहे हों, उस वक्त हुए इस सम्मेलन में वैकल्पिक उर्जा स्रोतों के बारे में कोई ठोस पहल या प्रस्ताव का अभाव चौंकाने वाला है।
रियो+20 सम्मेलन में मौजूद नेताओं ने यह कहकर अपने भविष्य को अनिश्चय के हाथों में सौंप दिया कि वे समस्याओं से अनभिज्ञ नहीं हैं। लेकिन समस्या के प्रति सचेत रहना ही समस्या का समाधान नहीं होता है। ऐसी बातों का तब कोई मतलब नहीं रह जाता जब दुनिया को तत्काल ठोस उपायों की जरूरत महसूस हो रही हो। अच्छा होता कि सरकारें यह कहती कि वे विकास के ऐसे आर्थिक उपायों का परित्याग करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं जिससे धरती की सेहत बिगड़ती हो।
दुनिया के सौ से अधिक देशों के प्रमुखों की मौजूदगी के बीच रियो द जेनेरो का महासम्मेलन खत्म हो गया। अगर हम रियो+20 सम्मेलन का आंकलन करें तो हम कह सकते हैं कि स्थाई विकास के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए बुलाए गये इस तीन दिवसीय सम्मेलन से बहुत हासिल किया जा सकता था जो कि नहीं किया जा सका। हम किसी देश के नागरिक होकर नहीं बल्कि भूमंडल के वासी होकर अपनी धरती की सुरक्षा करने के लिए चिंतित हो रहे हैं तो हमारी चिंता हमारे द्वारा किये जा रहे उपायों से ही दूर होगी। वे उपाय अगर नदारद हैं तो सिर्फ चिंता करने से धरती का दुख दूर नहीं होगा। हमें जैविक समानता, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण के बारे में अलग-अलग सोचने की बजाय एक साथ सोचना होगा। दुर्भाग्य से इस सम्मेलन में ऐसी कोई साझी सोच नजर नहीं आई। रियो में पर्यावरण का वह महाभाष्य प्रकट न हो सका जिसकी उम्मीद में दुनिया भर के लोग यहां इकट्ठा हुए थे।परिवर्तन की जिस उम्मीद में रियो+20 दुनिया के लोग शामिल हुए थे, वह पूरी न हो सकी। ऐसा कोई निर्णय न हो सका कि दुनिया जंगल के कटान को रोकने की दिशा में कोई ठोस पहल कर पाती। उर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के जरिए उर्जा क्रांति की दिशा में आगे बढ़ने की बात भी अधूरी ही रह गई। समुद्र के स्वास्थ्य से लेकर मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए जरूरी उपायों की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो पायी। कोई ठोस निर्णय नहीं, कोई खास नीति नहीं और उन सबसे बढ़कर कोई पक्की नीयत नहीं कि दुनिया के नेतागण मिल बैठकर धरा के भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा की में कोई प्रस्ताव ला पाते और उसे आगे बढ़ा पाते। जो प्रस्ताव इस महासम्मेलन में लाया गया और जिस पर जमकर चर्चा भी हुई उस पर अमल का मतलब होगा कि धरती को नखलिस्तान बनाने की प्रक्रिया आगे भी जारी रहने वाली है। प्रस्ताव कह रहा है कि गरीबी हटाना ज्यादा जरूरी है। लेकिन इन प्रस्तावों को देखकर लगता नहीं है कि इन टोटकों से गरीबी की गैरत को ललकारा जा सकता है। अगर रियो+20 सम्मेलन को आज के बीस साल पहले रियो सम्मेलन से जोड़कर देखें तो बीस साल पहले का सम्मेलन ज्यादा महत्वपूर्ण और पर्यावरण बचाने के व्यावहारिक उपायों के प्रति समर्पित था।
आज से ठीक बीस साल पहले 1992 के रियो सम्मेलन में ज्यादा सकारात्मक और ठोस सोच सामने आई थी। इसी सम्मेलन में पहली बार विकास के साथ पर्यावरण के विनाश को भी जोड़कर देखा गया था। ग्रीनपीस ऐसी किसी सोच को पूरा सम्मान करती है जो पर्यावरण संरक्षण के साथ साथ गरीबी उन्मूलन और सामाजिक न्याय के सपने को पूरा करती है। लेकिन दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि रियो+20 में इस सोच को कोई सम्मान नहीं मिल सका। वे दुनिया की गैर बराबरी को दूर करने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं कर पाये और न ही पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के बीच किसी सामंजस्य को लेकर किसी ठोस नतीजे पर पहुंच पाये। हम जिस ग्रीन इकोनॉमी के मद्देनजर इस सम्मेलन को देख रहे थे, इससे कहीं अधिक कारगर उपाय 1992 के रियो सम्मेलन के एजेण्डा नंबर 21 में मौजूद था।
रियो+20 सम्मेलन में मौजूद नेताओं ने यह कहकर अपने भविष्य को अनिश्चय के हाथों में सौंप दिया कि वे समस्याओं से अनभिज्ञ नहीं हैं। लेकिन समस्या के प्रति सचेत रहना ही समस्या का समाधान नहीं होता है। ऐसी बातों का तब कोई मतलब नहीं रह जाता जब दुनिया को तत्काल ठोस उपायों की जरूरत महसूस हो रही हो। अच्छा होता कि सरकारें यह कहती कि वे विकास के ऐसे आर्थिक उपायों का परित्याग करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं जिससे धरती की सेहत बिगड़ती हो। अगर हम इसी तरह परमाणु, तेल और कोल के जरिए अपनी उर्जा जरूरतों को पूरा करते रहे, अगर हम इसी तरह जेनेटिक इंजिनियरिंग को वैज्ञानिक प्रक्रिया मानकर आगे बढ़ाते रहे, अगर हम इसी तरह जहरीले रसायनों को जमीन पर फैलाते रहे तो भला बताइये इस प्रक्रिया से कौन सी ग्रीन इकोनॉमी पैदा होगी? जिन उपायों से हमारा वर्तमान बर्बाद हो रहा है उन्हीं के जरिए हम अपना भविष्य भला कैसे सुरक्षित रख पायेंगे?
हकीकत तो यह है कि रियो+20 में हर मुद्दे पर समझौतापरस्त नीतियां अपनाई गई है। करीब डेढ़ साल की समझौता वार्ताओं के बाद भी ब्राजील द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रस्ताव में कोई दम नजर नहीं आया। डेढ़ साल में जो कुछ बातचीत हुई थी उसका कोई अंश उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रस्ताव में नहीं दिखा। शीर्ष पर शामिल लोगों ने इस बात पर तो सहमति दिखाई कि आगे बढ़ना जरूरी है लेकिन आगे बढ़ने के लिए रास्ता कौन सा होगा इस बारे में जैसे वे लोग खुद अंधेरे में हैं। सम्मेलन के शुरुआत में गैर सरकारी बिरादरी की ओर से ईको कार्नर को बोलने के लिए अधिकृत किया गया था। सम्मेलन की शुरुआत में बोलते हुए उन्होंने साफ कहा कि “अगर इसी प्रस्ताव को आप स्वीकार करने जा रहे हैं तो तय मानिए आप अपने आने वाली पीढ़ियों के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। पीढ़ियों से परे आपका अपना बच्चा ही इन प्रस्तावों से सुरक्षित नहीं रह पायेगा।”
अज्ञातवास से निकलकर एक भारतीय प्रतिनिधि ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि “ये प्रस्ताव ऐसे हैं मानों आप बिटविन द लाइन्स पढ़ रहे हों। अगर नहीं तो आप कुछ नहीं समझ सकेंगे।” यह पूरा सच शायद नहीं है। प्रस्तावों के जरिए जो झूठ बोला जा रहा है उसे पकड़ना उतना मुश्किल भी नहीं है। बंद सम्मेलन कक्ष के बाहर खुले आसमान के नीचे लिखी तहरीरें साफ बता रही थीं कि रियो+20 में हमारे भविष्य के साथ समझौता किया गया है। सम्मेलन तो समाप्त हो गया लेकिन ऐसा नहीं है कि दुनिया के पर्यावरण को बचाने के उपाय भी यहीं खत्म हो गये। भले ही सम्मेलन इस बारे में सोचता या कुछ करता दिखाई नहीं दिया लेकिन ऐसा नहीं है कि इस सम्मेलन के समझौतों के बाद भी हम संकट का समाधान नहीं खोज सकते हैं। अभी भी हमारे पास रास्ता बचता है। वह रास्ता है जनता का रास्ता। सामाजिक संगठनों का रास्ता और जन आंदोलनों का रास्ता। अगर जनता सीधे तौर पर धरती बचाने की कमान अपने हाथ में ले लेती है ऐसे सम्मेलनों की असफलता के बाद भी सफलता के रास्ते खुलते जाएंगे।
रियो+20 के प्रमुख प्रस्ताव
सस्टेनबल डेवलमेन्ट गोल्स (एसडीजी): पिछले डेढ़ सालों से सरकारों के साथ सलाह मशविरे के बाद इस नतीजे पर पहुंच गया है कि दुनिया के सामने विकास के इन लक्ष्यों को प्रस्तुत किया जाए। ये लक्ष्य और उन्हें पाने के उपाय भले ही वैश्विक होंगे लेकिन उन्हें पालन करने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं होगी। सिर्फ यही वह मुख्य मुद्दा है जिस पर सभी एकराय नजर आये लेकिन यह करेंगे कैसे इस बारे में कोई प्रस्ताव सामने नहीं आया।
प्रस्ताव पर पालन की पहल
एसडीजी की ही तरह यह खंड भी अधूरा है। प्रस्ताव पर पालन करने की पहल करने के लिए कोई खास व्यवस्था नहीं की गई है सिवाय यह कहने के कि विकसित देश गरीब देशों को धन मुहैया करायें ताकि वे उन वादों को पूरा कर सकें जिन्हें अभी तक वे पूरा नहीं कर पाये हैं।
स्थाई विकास का अंतरराष्ट्रीय मॉडल
प्रस्ताव में ऐसे उपाय पूरी तरह नदारद हैं जो स्थाई विकास को साकार करने के लिए संस्थागत स्वरूप में प्रयास कर सकें। यूरोपीयन यूनियन और अफ्रीका के पूरे समर्थन के बाद भी सरकारें संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) को सर्वमान्य एजेंसी के तौर स्वीकार नहीं कर सकीं। रियो में जो प्रस्ताव किया गया उससे ठोस परिणाम कुछ नहीं निकलेगा। हां, इतना जरूर होगा कि बातचीत करने का क्रम आगे भी जारी रहेगा।
महासागर
सम्मेलन के दूसरे दिन उच्च स्तरीय समिति के सामने बोलते हुए भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने समुद्र की पारिस्थितिकी का सवाल उठाया। उन्होंने सरकारों से आग्रह किया कि वे इस बारे में सोचे और आगामी 12 अक्टूबर को भारत के हैदराबाद में होने जा रहे जैव विविधता सम्मेलन में साथ मिलकर काम करने के लिए प्रेरित किया। हालांकि भारत सरकार रियो+20 सम्मेलन में न तो नेतृत्व की भूमिका अख्तियार कर सकी और न ही यहां उपलब्ध संभावनाओं का उपयोग कर सकी ताकि वह रियो+20 में कुछ ठोस हासिल कर सकती। प्रस्ताव के इस पैराग्राफ में अमेरिका, कनाडा और वेनेजुएला का खुलेआम बचाव किया गया है। महासमुद्रों के बारे में इस महासम्मेलन में जो रुख अख्तियार किया गया उससे तो यही लगता है कि मानों सब कुछ ठीक है। निर्णयों पर अमल के लिए अब 2014 की तारीख तय कर दी गई है।हरित अर्थव्यवस्था
सम्मेलन में हरित अर्थव्यवस्था (ग्रीन इकोनॉमी) की बात जरूर की गई है लेकिन बहुत ही सतही स्तर पर। देशों को इस बात के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया है कि वे अपने हिसाब से तय कर लें कि वे किसे ग्रीन इकोनॉमी कहेंगे और किसे नहीं। साफ तौर पर कहें तो दुनिया को देशों को संदेश दे दिया गया है कि उन्हें कुछ करने की ही जरूरत नहीं है। बीस साल पहले के सम्मेलन का एजेण्डा 21 में हरित अर्थव्यवस्था के लिए आज से ज्यादा उपाय किये गये थे।
जीडीपी से परे
ऐसा लगता हैं दुनियाभर की सरकारें खुद अपना ही आंकलन करने में असमर्थ हो रही हैं। वे भी नहीं समझ पा रही हैं कि संपन्नता का वास्तविक पैमाना क्या होना चाहिए और उसे वे कैसे पूरा कर सकेंगे। शायद इसीलिए आंकड़ेबाजी के लिए सरकारों ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र की सांख्यिकी समिति की ओर अपना रुख किया है कि वह सरकारों के लिए इस दिशा में काम करे और उनके जीडीपी गणना को ठीक करने में मदद करे।
कारपोरेट उत्तरादायित्व
इस सम्मेलन में जो प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया है वह आश्चर्यजनक रूप से कारपोरेट घरानों को मारक के रूप में नहीं बल्कि उद्धारक के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। रियो+20 के अनुसार कारपोरेट घराने नये धरती के नये सुपरहीरो हैं जो हमारी रक्षा करेंगे इसलिए उनको खुली छूट दे दी गई है। उनको जहां जो ठीक लगे वह करने के लिए वे पूरी तरह से आजाद हैं। कारपोरेट उत्तरदायित्व के बारे में प्रस्ताव में जो शब्दावली प्रयोग की गई है वह सख्त न होकर चापलूसी भरी है। कम से कम 2002 में कारपोरेट उत्तरादायित्व को लेकर जोहन्सबर्ग में भी इससे बेहतर प्रस्ताव सामने रखा गया था।
भोजन और कृषि
भोजन और कृषि के बारे में प्रस्ताव में जो कुछ लिखा गया है वह सीधे तौर पर दुनियाभर के उन छोटे किसानों का अपमान है जिन्हें अपनी खेती को चलाये रखने के लिए शहरी सहयोग की जरूरत है। आश्चर्यजनक रूप से खाद्यान्न और कृषि पर हुई समझौता वार्ताओं में बहुत कम प्राथमिकता दी गई। ब्राजील सरकार की ओर से जो ड्राफ्ट प्रस्तुत किया गया उसमें भी कृषि सबसे कम प्राथमिकता वाला विषय था।
उर्जा
साफ सुथरी उर्जा के बारे में रियो+20 के प्रस्ताव में कुछ खास नहीं है। जिस वक्त दुनिया के 1.4 अरब लोग उर्जा से मरहूम जिंदगी बसर कर रहे हों, उस वक्त हुए इस सम्मेलन में वैकल्पिक उर्जा स्रोतों के बारे में कोई ठोस पहल या प्रस्ताव का अभाव चौंकाने वाला है।
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