रियो का समापन : खानापूरी से ज्यादा कुछ नहीं

जलवायु में हो रहे विनाशकारी बदलावों के मद्देनजर टिकाऊ वैश्विक विकास के लिए हरित कार्ययोजना तैयार करने के लिए ब्राजील के ‘रियो द जेनेरो’ शहर में दुनिया के सौ से भी ज्यादा देशों के तीन दिन तक सम्मेलन का आयोजन हुआ। सम्मेलन का कोई स्पष्ट संदेश है तो वह यह कि वायुमंडल में हो रहे विनाशकारी बदलाव से समूची पृथ्वी पर मंडरा रहे संकट के बावजूद खुदगर्ज इंसान आधुनिक विकास के अंधी दौड़ छोड़ने को राजी नहीं है। रियो+20 सम्मेलन के बारे में जानकारी दे रहे हैं सत्येंद्र रंजन

रियो+ 20 सम्मेलन से विकासशील देशों के लोग खुश हो सकते हैं। चूंकि हरित अर्थव्यवस्था शब्द भी अंतिम दस्तावेज में जगह पा गया है, इसलिए धनी देश भी खुश हो सकते हैं। यानी रियो से सबके लिए खुशी की खबर है- शर्त सिर्फ यह है कि आप धरती का दूरगामी भविष्य भूल जाएं, आप अपने आसपास ज्यादा खतरनाक ढंग से जाहिर हो रहे जलवायु संकट के लक्षणों से नजर फेर लें। आखिर शांति और प्रसन्नता का एक शुतुरमुर्गी तरीका भी होता है!

अगर समूची धरती को एक इकाई न माना जाए, तो रियो द जेनेरो शिखर सम्मेलन के नतीजे पर हर पक्ष खुद को विजेता घोषित करने की स्थिति में है। भारत और अन्य विकासशील देश खुश हैं कि 1992 में ब्राजील के इस शहर में हुए धरती सम्मेलन की बीसवीं सालगिरह पर आयोजित रियो+20 शिखर सम्मेलन के बाद जारी साझा दस्तावेज में उनकी मुख्य मांगें स्वीकार कर ली गर्इं। इसमें यह मान लिया गया कि विकासशील देशों को टिकाऊ विकास के लिए अतिरिक्त संसाधनों की जरूरत है और उन देशों को आर्थिक सहायता दिए जाते वक्त उन पर कोई शर्त नहीं थोपी जानी चाहिए। चीन ने कहा कि यह अधिकतम संभव सहमति का दस्तावेज है, तो ब्राजील की राष्ट्रपति डिलमा रोसेफ ने कहा कि रियो समाधानों पर अधिकतम समझौते का सम्मेलन रहा। मगर इस समझौते से क्या हासिल होगा? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक सौ पचीस देशों के नेताओं के सामने कहा कि ‘बहुत-से देश ज्यादा कुछ कर सकते हैं, बशर्ते उन्हें अतिरिक्त धन और तकनीक मिले। लेकिन दुर्भाग्यवश औद्योगिक देशों से ऐसी सहायता मिलने के न के बराबर सबूत हैं। जारी आर्थिक संकट ने स्थिति बदतर कर दी है।’’

उनके इस बयान के साथ पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन की टिप्पणी को जोड़ कर देखें तो बात कुछ ज्यादा साफ होती है। नटराजन ने रियो में कहा- ‘‘(जलवायु परिवर्तन के उपायों पर) अमल के लिए अधिक साधन मुहैया कराने में विकसित देशों की कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण हमारी निराशा कायम है।’’ यानी रियो की चर्चाओं और उसके बाद जारी दस्तावेज- जो भविष्य हम चाहते हैं- का सारांश यह है कि वहां वास्तविक और व्यावहारिक रूप में बात कहीं आगे नहीं बढ़ी। वैसे जो लोग जलवायु परिवर्तन संबंधी वार्ताओं और उससे संबंधित पक्षों की हर साल होने वाली बैठकों पर बारीक नजर रखते हैं, उन्हें इससे कोई उम्मीद भी नहीं थी। इसलिए कि पिछले साल डरबन में हुई संबंधित पक्षों की सत्रहवीं बैठक में क्योतो प्रोटोकॉल के लक्ष्यों को बिना हासिल किए उसके आगे की वार्ता का रास्ता तय कर दिया गया था।

क्योतो प्रोटोकॉल 1992 के धरती शिखर सम्मेलन में तय हुए लक्ष्यों और स्वीकार किए गए सिद्धांतों का ही प्रतिफल था। उसका सबसे प्रमुख सिद्धांत यह था कि धरती को बचाने की जिम्मेदारी सबकी है, लेकिन इस जिम्मेदारी का बंटवारा अलग-अलग होगा। उन देशों की जिम्मेदारी अधिक है, जिन्होंने औद्योगिक क्रांति के बाद ढाई सौ वर्षों के इतिहास में धरती के वातावरण में ज्यादा कार्बन छोड़ा है। इसी कार्बन को जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण माना जाता है। क्योतो प्रोटोकॉल में धनी देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य स्वीकार किए थे। पर उन्होंने उन लक्ष्यों को पूरा नहीं किया। उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि वे विकासशील देशों को धन और पर्यावरण तकनीक उपलब्ध कराएंगे, ताकि ये देश टिकाऊ विकास की नीतियां अपना सकें।

इस वादे का क्या हाल है, यह ऊपर मनमोहन सिंह और जयंती नटराजन की टिप्पणियों से जाहिर है। तार्किक यह होता कि पहले इन देशों द्वारा स्वीकार किए गए लक्ष्यों की समीक्षा होती और फिर आगे का रास्ता तय होता। लेकिन कोपेनहेगन से कानकुन और फिर डरबन तक पहुंची संबंधित पक्षों की बैठकों में इस रास्ते की दिशा बदल दी गई। उसके बाद से एक बार फिर धनी और गरीब देशों के बीच कूटनीतिक दांवपेच का दौर है। रियो में अपनी कई बुनियादी बातों को मनवाने में विकासशील देश सफल रहे। इसलिए वे अपनी जीत का दावा कर सकते हैं। धनी देश अपनी कुछ शब्दावलियों के साथ रियो पहुंचे थे। मसलन, टिकाऊ विकास के बजाय अब वे चाहते हैं कि हरित अर्थव्यवस्था (ग्रीन इकॉनोमी) शब्द प्रचलन में आ जाए। इससे वास्तव में क्या फर्क पड़ेगा, समझना कठिन है। लेकिन ऐसे शब्दजाल से कई सम्मेलनों को उलझाया जा सकता है और बिना कुछ किए कई वर्ष निकाले जा सकते हैं।

बहरहाल, जो असली समस्या है उसे सिर्फ एक वाक्य में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश (सीनियर) ने 1992 के धरती शिखर सम्मेलन में कह दिया था- अमेरिकन जीवनशैली पर कोई समझौता नहीं हो सकता। यानी अमेरिका के लोग उपभोग के जिस स्तर पर जिंदगी जीते हैं, उसमें कोई कटौती नहीं होगी। सच्चाई यह है कि जॉर्ज बुश ने जो कहा, वह दुनिया के तमाम समृद्ध लोगों और समूहों का संकल्प (आप चाहें तो जिद कहें) है। परिणाम यह है कि जलवायु परिवर्तन रोकने या धरती बचाने की विश्व मंचों पर होने वाली तमाम बातों पर तब तक सहमति रहती है, जब तक इन्हें निराकार रूप में कहा जाता है। सिद्धांतत: इन बातों पर कोई मतभेद नहीं होता। लेकिन जब बात यह तय करने की आती है कि इसके लिए कौन कितनी कुरबानी देगा, तो जिम्मेदारी एक दूसरे के सिर पर टालने के कूटनीतिक शब्दजाल का अंबार लग जाता है।

यह बात आज तक दुनिया के शासक समूहों और उनके प्रतिनिधि नेताओं के गले नहीं उतरी कि अपने ऐसे तौर-तरीकों से वे दुनिया को सामूहिक विनाश की तरफ ले जा रहे हैं। इस संदर्भ में राजनीतिक अर्थशास्त्री रॉबर्ट स्किडेल्स्की की यह टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है- ‘‘अरस्तू यह बात जानता था कि तृप्त न होना एक व्यक्तिगत दोष है। लेकिन उसे सामूहिक और राजनीतिक रूप से पैदा की गई अतृप्तता का अंदाजा नहीं था। और ज्यादा पाने के लालच की सभ्यता उसे एक नैतिक और राजनीतिक पागलपन लगती और एक हद के बाद यह आर्थिक पागलपन भी है। इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि हम जल्द ही आर्थिक वृद्धि दर की प्राकृतिक सीमाओं तक पहुंच जाएंगे। इसका कारण यह भी है कि हम श्रम को अर्थ में बदलते हुए बहुत लंबे समय तक चल नहीं सकते, अगर हम इससे अधिक तेज गति से इसके नए उपयोग ढूंढ़ नहीं पाए।’’

जाहिर है, ऐसी समझ सिर्फ तभी बन सकती है, जब धरती को एक परिवास के रूप में देखा जाए। लेकिन जब शासक असीमित उपभोग पर आधारित अर्थव्यवस्था के कर्ता-धर्ताओं के शिकंजे में हों, तो उनसे ऐसे फैसलों की उम्मीद कैसे की जा सकती है, जिनका सीधा परिणाम उपभोग घटाना होगा? इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा, जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल, ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन और कई अन्य धनी देशों के नेताओं ने रियो जाने की जरूरत ही नहीं समझी। यहां यह गौरतलब है कि ओबामा ने 2008 के अपने राष्ट्रपति चुनाव अभियान में जलवायु परिवर्तन रोकने को एक मुद्दा बनाया था। उनके जीतने के बाद यह उम्मीद पैदा हुई कि अब अमेरिका कम से कम इस खतरनाक हकीकत को स्वीकार करेगा और अपनी नीतियों में इसे रोकने को महत्व देगा। 2009 के कोपेनहेगन सम्मेलन में जाने की घोषणा कर ओबामा ने उस बैठक का रुतबा बढ़ाया। मगर सम्मेलन से जलवायु वार्ताओं की दिशा बदलने में उन्होंने कोई योगदान नहीं किया। उनका चेहरा बचाने के लिए वहां समझौते का एक दस्तावेज तैयार किया गया। इसी कोशिश में वहां ओबामा ने जलवायु रक्षा के लिए एक सौ अरब डॉलर का हरित कोष बनाने की घोषणा कर दी।

लेकिन आज ढाई साल बाद भी यह नहीं मालूम कि इस कोष में कौन-सा देश कितना योगदान करेगा। क्या इससे संबंधित कठिन प्रश्नों का जवाब देने से बचने का बेहतर रास्ता ओबामा को यही लगा कि रियो+20 शिखर सम्मेलन से किनारा कर लिया जाए? मगर मुमकिन है कि बात इतनी भर न हो। अमेरिकी राजनीति पर नजर रखने वाले लोग जानते हैं कि ओबामा की डेमोक्रेटिक पार्टी की विरोधी रिपब्लिकन पार्टी के नेता आज तक यह मानने से इनकार करते हैं कि जलवायु परिवर्तन जैसी कोई चीज सचमुच हो रही है। इसे वे कुछ वैज्ञानिकों और सिविल सोसायटी के कार्यकर्ताओं का प्रचार भर मानते हैं। मगर उनकी यह मान्यता शायद उनके भोलेपन की वजह से नहीं है। इसके पीछे तेल, हथियार और ओटोमोबाइल जैसे उद्योगों की लॉबिंग है, जिनके स्वार्थ सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन की चर्चा को नकारने से जुड़े हैं।

गौरतलब है कि इन उद्योगों को चलाने वाली कंपनियां ही राजनीतिक दलों के चंदे का सबसे बड़ा स्रोत हैं और फिर उनके हाथ में वह प्रचारतंत्र है जो नेताओं और दलों की किस्मत बना या बिगाड़ सकता है। ऐसे में जब राष्ट्रपति चुनाव महज साढ़े चार महीने दूर है, तब ओबामा रियो जाकर अगर धरती को खतरे से बचाने की बात करते तो मुमकिन है कि उससे उनका अपना राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ जाता। बहरहाल, ऐसी चिंताओं को धरती की बड़ी चिंता पर तरजीह देने के दोषी ओबामा ही नहीं हैं। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि ऐसी तोहमत सिर्फ धनी देशों के नेताओं के माथे पर नहीं है। विकासशील देशों के अंदर भी उपभोग को नियंत्रित करने या पर्यावरण-सम्मत विकास नीतियों को अपनाने की कोई बेताबी नजर नहीं आती। जबकि यह सर्वमान्य तथ्य है कि जलवायु परिवर्तन की सबसे बड़ी मार इन देशों पर ही पड़ेगी। चूंकि जलवायु परिवर्तन कुछ यूरोपीय देशों को छोड़ कर कहीं राजनीतिक मुद्दा नहीं है, इसलिए राजनेता इसकी फिक्र नहीं करते। यूरोप गहरे आर्थिक संकट में है, इसलिए वहां के नेताओं की भी अब यह प्राथमिकता नहीं है। इस पृष्ठभूमि में रियो+20 सम्मेलन से एक अन्य दस्तावेज के अलावा और क्या हासिल हो सकता था?

इस दस्तावेज में 194 देशों के प्रतिनिधियों की सहमति से धरती माता के अधिकारों को स्वीकार किया गया है। सबको पीने का साफ पानी और शौच की सुविधा मिले, इसे माना गया है। आदिवासी समूहों के अधिकारों की पुष्टि की गई है। यह आशंका जताई गई है कि विश्व अर्थव्यवस्था के मौजूदा संकट के कारण विकासशील देशों को पर्यावरण संरक्षण की खातिर कर्ज दिलाने के लिए की गई वर्षों की कड़ी मेहनत पर पानी फिर सकता है। पर्यावरण रक्षक तकनीक तक सभी देशों की पहुंच के महत्व को स्वीकार किया गया है। वैसे आर्थिक, वित्तीय या व्यापार प्रतिबंधों का विरोध किया गया है, जो अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के खिलाफ हों और जिनसे खासकर विकासशील देशों के पूर्ण आर्थिक और सामाजिक विकास में बाधा पड़ती हो।

कहा गया है कि अपने प्राकृतिक संसाधनों पर हर देश की राष्ट्रीय संप्रभुता का सम्मान किया जाना चाहिए। यानी हर देश को अपनी परिस्थितियों, उद्देश्यों, जिम्मेदारियों, प्राथमिकताओं और नीतियों के मुताबिक अपने प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल का अधिकार माना गया है। इन सभी बातों पर विकासशील देशों के लोग खुश हो सकते हैं। चूंकि हरित अर्थव्यवस्था शब्द भी अंतिम दस्तावेज में जगह पा गया है, इसलिए धनी देश भी खुश हो सकते हैं। यानी रियो से सबके लिए खुशी की खबर है- शर्त सिर्फ यह है कि आप धरती का दूरगामी भविष्य भूल जाएं, आप अपने आसपास ज्यादा खतरनाक ढंग से जाहिर हो रहे जलवायु संकट के लक्षणों से नजर फेर लें। आखिर शांति और प्रसन्नता का एक शुतुरमुर्गी तरीका भी होता है!

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