ब्राजील के रियो द जेनेरो में शुरू होने वाला रियो+20 पृथ्वी सम्मेलन विश्व पर्यावरण के चिंताओं से जुड़ा एक महासम्मेलन है। 1992 में पहला विश्व पृथ्वी सम्मेलन ब्राजील के रियो द जेनेरो से ही शुरू हुआ था। विश्व पर्यावरण के साथ-साथ यह जन-सम्मेलन ब्राजील और भारत जैसे देशों के बहाने सरकारों के दोहरे रवैये और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में बन रही नीतियों पर सवाल खड़े कर रहा है।
इनकी चिंताएं दरअसल दुनिया भर की सरकारों के पर्यावरणीय सरोकार के छद्म से जुड़ी हुई हैं। सबसे बड़ा विरोधाभास तो ब्राजील ही है, जहां पर्यावरण कानूनों में ढील दी गई है। अमेजन नदी क्षेत्र में निजी कंपनियों को जल-जंगल के दोहन को लेकर इसकी उदारवादी नीतियां विकास की असलियत बताते हैं, जिनके कारण इस देश में बेरोजगारी बढ़ रही है, निर्माण कार्य अनियंत्रित हो चले हैं और प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है। यह जन-सम्मेलन ब्राजील और भारत जैसे देशों के बहाने सरकारों के दोहरे रवैये और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में बन रही नीतियों पर सवाल खड़े कर रहा है। पर्यावरण संरक्षण की कोशिशों में जन-भागीदारी के सवाल को दरकिनार करते हुए कैसे बाजार की साझेदारी को प्रतिष्ठित और पक्का किया जा रहा है, इस पर भी जन-सम्मेलन ने आवाज उठाई है। बाजार की भूमिका को यह सम्मेलन दखल मानता है। उसका मानना है कि यह पूंजीवादी घुसपैठ पर्यावरण और समाज को बर्बाद करेगी।
रियो की इस बहस के साये में भारत में इन दिनों चल रहे गंगा बचाओ मुहिम और बांधों के पक्ष-विपक्ष के आंदोलनों को देखना चाहिए। आस्था से जुड़ी एक भरी-पूरी और मुख्यधारा की राजनीति से प्रश्रय प्राप्त संत बिरादरी है, जो मानती है कि गंगा पर बांध उसकी शुद्धता के लिए खतरा है। लेकिन गंगा पर बांध को जरूरी मानने वाले उतने ही संगठन और आम लोग हैं, जिनका तर्क है कि पलायन रोकने और विकास को गांवों तक पहुंचाने के लिए बांध जैसी चीजें अनिवार्य हैं। एक बड़ी ठेकेदार लॉबी, जो अंतत: एक बड़े मुनाफे के लिए सक्रिय बड़े पूंजीवादी आग्रहों का ही स्थानीय रूप है, पक्ष हो या विपक्ष हर सूरत में फायदा उठाने में जुटी है। ऐसे मंब अगले महीने होने वाला रियो-डी-जनेरो सम्मेलन ग्लोबल वार्मिंग की चमकदार व बाजार केंद्रित बहस के इर्द-गिर्द सिमटकर रह जाएगा या वह जन-प्रतिरोध के उन सिलसिलों व सरोकार को भी जगह देगा, जो विभिन्न देशों के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग रूपों में सामने आ रहे हैं? स्वाभाविक रूप से इनका संबंध अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संबंधी राजनीति से है। लेकिन उनका बुनियादी आग्रह यही है कि न्यायोचित और जनपक्षीय विकास हो।
(ये लेखक के अपने विचार हैं, ये टेलीविजन पत्रकार हैं।)
रियो-डी-जनेरो सम्मेलन ग्लोबल वार्मिंग की चमकदार व बाजार केंद्रित बहस के इर्द-गिर्द सिमटकर रह जाएगा या वह जन-प्रतिरोध के उन सिलसिलों व सरोकार को भी जगह देगा, जो विभिन्न देशों के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग रूपों में सामने आ रहे हैं? स्वाभाविक रूप से इनका संबंध अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संबंधी राजनीति से है। लेकिन उनका बुनियादी आग्रह यही है कि न्यायोचित और जनपक्षीय विकास हो।
अगले महीने ब्राजील के रियो-डी-जेनेरियो में विश्व पर्यावरण की चिंताओं से जुड़ा संयुक्त राष्ट्र का महासम्मेलन शुरू हो रहा है। इसके समानांतर एक जन-सम्मेलन भी इन दिनों वहां पर चल रहा है। 23 जून तक चलने वाले इस सम्मेलन में दुनिया भर के विशेषज्ञ, जन-संगठन, पर्यावरण संगठन और आम लोग शिरकत कर रहे हैं। कुपुला दोस पोवोस यानी जनता का यह सम्मेलन सरकारी आयोजनों की सार्थकता और प्रासंगिकता पर सवाल उठाता है। 50 देशों के करीब 30 हजार लोग इस विशिष्ट प्रतिरोध आंदोलन में शामिल हैं।इनकी चिंताएं दरअसल दुनिया भर की सरकारों के पर्यावरणीय सरोकार के छद्म से जुड़ी हुई हैं। सबसे बड़ा विरोधाभास तो ब्राजील ही है, जहां पर्यावरण कानूनों में ढील दी गई है। अमेजन नदी क्षेत्र में निजी कंपनियों को जल-जंगल के दोहन को लेकर इसकी उदारवादी नीतियां विकास की असलियत बताते हैं, जिनके कारण इस देश में बेरोजगारी बढ़ रही है, निर्माण कार्य अनियंत्रित हो चले हैं और प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है। यह जन-सम्मेलन ब्राजील और भारत जैसे देशों के बहाने सरकारों के दोहरे रवैये और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में बन रही नीतियों पर सवाल खड़े कर रहा है। पर्यावरण संरक्षण की कोशिशों में जन-भागीदारी के सवाल को दरकिनार करते हुए कैसे बाजार की साझेदारी को प्रतिष्ठित और पक्का किया जा रहा है, इस पर भी जन-सम्मेलन ने आवाज उठाई है। बाजार की भूमिका को यह सम्मेलन दखल मानता है। उसका मानना है कि यह पूंजीवादी घुसपैठ पर्यावरण और समाज को बर्बाद करेगी।
रियो की इस बहस के साये में भारत में इन दिनों चल रहे गंगा बचाओ मुहिम और बांधों के पक्ष-विपक्ष के आंदोलनों को देखना चाहिए। आस्था से जुड़ी एक भरी-पूरी और मुख्यधारा की राजनीति से प्रश्रय प्राप्त संत बिरादरी है, जो मानती है कि गंगा पर बांध उसकी शुद्धता के लिए खतरा है। लेकिन गंगा पर बांध को जरूरी मानने वाले उतने ही संगठन और आम लोग हैं, जिनका तर्क है कि पलायन रोकने और विकास को गांवों तक पहुंचाने के लिए बांध जैसी चीजें अनिवार्य हैं। एक बड़ी ठेकेदार लॉबी, जो अंतत: एक बड़े मुनाफे के लिए सक्रिय बड़े पूंजीवादी आग्रहों का ही स्थानीय रूप है, पक्ष हो या विपक्ष हर सूरत में फायदा उठाने में जुटी है। ऐसे मंब अगले महीने होने वाला रियो-डी-जनेरो सम्मेलन ग्लोबल वार्मिंग की चमकदार व बाजार केंद्रित बहस के इर्द-गिर्द सिमटकर रह जाएगा या वह जन-प्रतिरोध के उन सिलसिलों व सरोकार को भी जगह देगा, जो विभिन्न देशों के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग रूपों में सामने आ रहे हैं? स्वाभाविक रूप से इनका संबंध अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संबंधी राजनीति से है। लेकिन उनका बुनियादी आग्रह यही है कि न्यायोचित और जनपक्षीय विकास हो।
(ये लेखक के अपने विचार हैं, ये टेलीविजन पत्रकार हैं।)
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