हरियाणा के यमुना नगर के धामला गांव निवासी धर्मवीर कंबोज रिक्शा-चालक से कृषि वैज्ञानिक बन गए हैं। उन्होंने एक बार औषधीय खेती क्या शुरू की, उनके पूरे इलाके में औषधीय खेती होने लगी। खेती के बाद प्रसंस्करण की समस्या दिखी तो उन्होंने एक मशीन तैयार कर दी। इस मशीन की बदौलत आज वह भारत के विभिन्न राज्यों के साथ ही विदेशों में भी नाम कमा रहे हैं।विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की दुनिया में जो लोग कुछ नया और अलग करने की सोचते हैं वे किसी न किसी रूप में सफलता जरूर हासिल करते हैं। ऐसे लोग समाज के अनुकरणीय भी होते हैं और उन्हें जीवनयापन के लिए किसी तरह की मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ता है। ऐसी नवीन सोच वाले लोग जहां भी खड़े हो जाते हैं वहीं से जीविका का साधन उनके सामने दिखता है। बस जरूरत है नई पहल करने की। जीवन में कुछ करने की दृढ़ता हो तो व्यक्ति हर मोड़ पर विजेता ही साबित होता है। कुछ ऐसा ही कर दिखाया हरियाणा राज्य के यमुना नगर के धामला गांव निवासी धर्मवीर कंबोज ने। धर्मवीर ने हर्बल खेती ही नहीं की बल्कि हर्बल उत्पादन से जूस निकालने वाली मशीन भी विकसित की। आज धर्मवीर का नाम भारत ही नहीं पूरी दुनिया में लिया जा रहा है। कुछ समय पहले जीविकोपार्जन के लिए रिक्शा चलाने वाले धर्मवीर आज कई ऐसी मशीनें विकसित कर चुके हैं, जिनका कारोबार भारत के विभिन्न राज्यों के साथ ही विदेशों में भी हो रहा है।
धर्मवीर खुद बताते हैं कि वह बचपन से ही कुछ अलग तरह की करने की सोचते रहते थे, लेकिन आर्थिक तंगी की वजह से कुछ कर नहीं पाए। कोई रास्ता नहीं दिखा तो दिल्ली चले गए और वहां रिक्शा चलाने लगे। रिक्शा चलाने से मामूली आमदनी होती। इसी से परिवार चलाते। रात को जब सवारियां नहीं मिलती तो यही सोचते रहते कि ऐसा कौन-सा काम करें, जिसमें नाम भी हो और पैसा भी मिले। वह कहते हैं कि पैसे से कहीं ज्यादा उन्हें अपने नाम की चिंता थी क्योंकि पैसा जितना भी मिले खर्च होता रहता है। पैसे के पीछे भागना ठीक नहीं होता। बस यह चाहते थे कि उनके नाम की यश पताका इस तरह लहराए कि लोग दंग रह जाए। वह चाहते थे कि कोई ऐसा काम करूं, जो लोगों के लिए नजीर बन जाए। आज उनके काम को पूरी दुनिया में ख्याति मिल रही है।
वह बताते हैं कि बचपन से ही उनकी फूलों और औषधीय खेती में रुचि थी। वह याद करते हैं कि किस तरह से होली के अवसर पर उनकी मां टेसू के फूल से रंग निकालती थी। इसलिए वह चाहते थे कि हर्बल और फूलों की खेती को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा मिले ताकि केमिकल का प्रयोग कम से कम हो। उनके पास मात्र दो एकड़ का खेत था। पैसे की कमी थी सो चाहकर भी फूलों की खेती नहीं कर पा रहे थे। लेकिन परिवार का भरण-पोषण भी जरूरी था। इसलिए वह दिल्ली चले गए। वहां रिक्शा चलाकर परिवार का भरण-पोषण करते रहे। रिक्शों पर जब कोई फूल का बोझ लादता तो उन्हें अपार खुशी होती। इस दौरान बातचीत में वह फूल लादने वाले किसान से पूरी जानकारी लेते। वह किराया कम देते तो भी मना नहीं करते। इस तरह रिक्शा चलाते हुए पैसा भी कमा रहे थे और फूलों की खेती के गुण भी सीख रहे थे।
इसी दौरान जुलाई 1987 में एक ऐसी घटना हुई, जिसने धर्मवीर के जीवन को ही बदल दिया। धर्मवीर की मानें तो वह पुरानी दिल्ली से बर्फ की सिल्लियां रिक्शे पर लादकर निकले थे। दोपहर का वक्त था। इसी दौरान किसी वाहन ने पीछे से जोरदार टक्कर मार दी। टक्कर इतनी जबर्दस्त थी कि रिक्शे पर लदी सिल्लियां उनके ऊपर आ गई। वह बेहोश हो गए। जब उन्हें होश आया तो आसपास लोग घेरे हुए थे। किसी ने अस्पताल पहुंचाया। कुछ दिन बाद अस्पताल से छुट्टी मिल गई। वह अपने गांव वापस आ गए। स्वस्थ होने के बाद आसपास के खेतों को देखते और यही सोचते कि ऐसी कौन-सी खेती करें, जो कम रकबे में की जाए और मुनाफा भरपूर दे। इस दौरान धर्मवीर गांव विकास सोसायटी में शामिल हो गए। फिर किसानों के लिए चलने वाले प्रशिक्षणों में हिस्सा लेने लगे। धर्मवीर की ललक ही थी कि वह खेती शुरू करने से पहले उसके बारे में पूरी जानकारी लेना चाहते थे। इसलिए उन्होंने कृषि विश्वविद्यालय में संपर्क किया और वहां चलने वाली जैविक खेती के बारे में भी प्रशिक्षण लिया। उन्होंने कृषि एवं उद्यान विभाग की ओर से भेजे जाने वाले भ्रमण कार्यक्रम में हिस्सा लिया। वह जबलपुर गए और फिर हरियाणा, हिमाचल प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर भ्रमण किया। करीब दो वर्ष बाद 1989 में उन्होंने एक बार फिर खेती में कदम रखा। उन्होंने दो एकड़ की जमीन को तीन हिस्सों में बांट दिया। एक हिस्से में परंपरागत खेती करते, जिससे घर में खाने-पीने की दिक्कत न हो। दूसरे हिस्से में जैविक खेती शुरू की। और तीसरे हिस्से के एक छोटे से भाग को अपनी प्रयोगशाला बनाया। पहली ही बार उनकी मेहनत रंग लाई। जैविक खेती फायदे का सौदा हुई। कृषि विभाग ने सम्मानित किया तो खेती की ललक और बढ़ने लगी। जब उन्हें कृषि विभाग की ओर से सम्मान मिला तो पूरे गांव ही नहीं आसपास के गांवों के लोगों ने भी बधाई दी। इससे उत्साह और बढ़ने लगा।
धर्मवीर बताते हैं कि सम्मान और बधाइयां मिलने से ऐसा लगा, जैसे वह बचपन में जो सोचते थे उसी दिशा में आगे जा रहे हैं। फिर क्या था खेती के प्रति अपना जीवन समर्पित कर दिया। अब वह इस प्रयोग में जुट गए थे कि छोटी क्यारियों, बोतलों में भी किस तरह से फूलों को तैयार किया जा सकता है। यानी उनका मकसद था कि कम से कम क्षेत्रफल में कैसे खेती करें। उन्होंने औषधीय खेती शुरू की। इस दौरान औषधीय बीज की समस्या सामने आई। किसी तरह दूसरे राज्यों से औषधीय फसलों के लिए बीज लाए। इसके बाद खुद ही बीज तैयार करने लगे। वह बताते हैं कि वर्ष 1994 में उन्होंने टमाटर की खेती की। टमाटर की बम्पर पैदावार हुई और उन्हें राज्य सरकार की ओर से टमाटर की खेती के लिए सम्मानित किया गया। इसके बाद मशरूम की खेती की और फिर ईसबगोल, ग्वारपाठा आदि उगाना शुरू किया।
वह बताते हैं कि वर्ष 2004 में वह बागवानी विभाग की ओर से राजस्थान भ्रमण पर गए। राजस्थान के कृषि विश्वविद्यालयों व कृषि विज्ञान केंद्रों में चलने वाले विभिन्न कार्यक्रमों को देखा। किसानों का यह दल उन स्थानों पर भी गया, जहां के किसान प्रोसेसिंग के काम में लगे थे। धर्मवीर बताते हैं कि इस दौरान किसानों ने उन्हें आंवले का लड्डू भेंट किया। उन्होंने यह भी देखा कि किसान गुलकंद बना रहे हैं। गुलाब के अर्क से बनी तमाम चीजें तैयार करके बेच रहे हैं, लेकिन उनकी पद्धति से वह काफी महंगी दिख रही हैं। इसलिए तय किया कि कोई ऐसी मशीन तैयार की जाए, जिससे सस्ती दर पर विभिन्न औषधीय पौधों और फूलों का अर्क निकाला जा सके। राजस्थान से लौटने के बाद खेती में तो जुटे रहे, लेकिन मन में यह बात हमेशा उठती रही कि अर्क निकालने की मशीन कैसे तैयार हो। क्योंकि महिलाओं को औषधीय उत्पादों की छाल को हाथ से छीलने में काफी कठिनाई होती थी। इस कार्य में महिलाओं को हाथ में चोट भी लग जाती थी और उनकी उत्पादकता भी काफी कम होती थी। इसलिए उद्यान विभाग से संपर्क किया। विभिन्न स्थानों पर अर्क निकालने की मशीनों को देखा, लेकिन मन संतुष्ट नहीं हुआ।
धर्मवीर याद करते हैं और कहते हैं कि वर्ष 2002 में उनके गांव के दूसरे तमाम किसान भी एलोवेरा की खेती में जुट गए थे। इसकी खेती पर बैंक की ओर से ऋण भी दिया जाता था। एक बैंक मैनेजर आए और हमने उनसे एलोवेरा का अर्क निकालने की मशीन के बारे में बातचीत की। उन्होंने बताया कि एलोवेरा का अर्क निकालने की मशीन करीब पांच लाख में आएगी। मैं इतनी पूंजी लगाने की स्थिति में नहीं था और बैंक से ज्यादा लोन भी नहीं लेना चाहता था। इसलिए विभिन्न स्थानों पर देखी गई मशीन के अनुरूप खुद ही मशीन बनाने की प्रक्रिया में जुट गया। इस दौरान वर्कशाप चलाने वाले विजय धीमान ने भरपूर सहयोग किया। करीब आठ माह की मेहनत के बाद मशीन तैयार हो गई। ग्राइंडर, प्रोसेसर और जूसर की मदद से एक प्रसंस्करण मशीन तैयार की। इस मशीन के उपयोग से 200 किलोग्राम औषधीय उत्पादों का प्रति घंटा प्रसंस्करण संभव होने लगा। जब उसका प्रदर्शन किया गया तो सभी को बेहद पसंद आई। कृषि मेले में भी इस मशीन को खूब वाहवाही मिली। मशीन के बारे में जानकारी देते हुए वह बताते हैं कि इस मशीन की खासियत है कि इसका वजन काफी कम है। इस मशीन की वजह से किसानों का कच्चा उत्पादन एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का खर्चा बच रहा है।
धर्मवीर ने इस मशीन का पेटेंट कराने के लिए आवेदन कर रखा है। अब तक 55 मशीनें तैयार करके उन्हें न सिर्फ भारत में बेचा है बल्कि इसकी मांग केन्या से भी आई है। केंद्र सरकार की ओर से मशीन के बारे में विस्तृत जानकारी मांगी गई है, जिसे बताते हुए वह काफी उत्साहित हैं। वह बताते हैं कि हरियाणा के अलावा पंजाब, चंडीगढ़, बिहार, झारखंड, गुजरात, उत्तर प्रदेश से भी मशीनों की डिमांड आ रही है। अभी कुछ दिन पहले वह गांधी सेवा ग्राम, वर्धा में एक मशीन लगाकर आए हैं। इसी तरह आईटीआई दिल्ली ने भी एक मशीन खरीदी है। इस मशीन को छात्रों के प्रशिक्षण के लिए रखा गया है।
धर्मवीर बताते हैं कि अब वह अपनी समूची दो एकड़ जमीन पर एलोवेरा और आंवला की खेती कर रहे हैं। खेत में तैयार फसल को बेचने के बजाय अपनी खुद की बनाई मशीन के प्रयोग से जूस, मिठाई, शैंपू और फेसक्रीम जैसे उत्पाद बनाकर देशभर में बेच रहे हैं। उनके उत्पाद को भी खूब पसंद किया जा रहा है। धर्मवीर की इच्छा है कि वह ऐसा फार्म हाउस विकसित करे, जिसमें खेती के साथ ही प्रोसेसिंग और उसके उत्पाद तैयार करने की सभी व्यवस्थाएं हो सकें।
औषधीय खेती और फिर प्रसंस्करण मशीन तैयार करने की वजह से धर्मवीर की पहचान बढ़ गई है। आज वह विभिन्न विश्वविद्यालयों में जाते हैं। छात्रों एवं किसानों को बताते हैं कि उन्होंने किस तरह से खेती शुरू की। इसके साथ ही आसपास के गांवों में होने वाली कृषि गोष्ठियों में भाग लेते हैं। गांव-गांव जाकर किसानों को यह समझाते हैं कि औषधीय खेती करते समय किस तरह की सावधानियां बरतनी चाहिए। इतना ही नहीं उनके गांव के किसान तो हमेशा उनके संपर्क में रहते हैं। आसपास के गांवों के किसान भी उन्हें बेहद प्यार देते हैं। जिस भी किसान को खेती में किसी तरह की समस्या होती है वह तुरंत धर्मवीर से संपर्क करता है। इस तरह कृषि वैज्ञानिक धर्मवीर भी डिग्री भले नहीं लिए हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से वह कृषि वैज्ञानिक बन गए हैं। धर्मवीर बताते हैं कि जब लोग उनसे खेती के बारे में पूछते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। यह खुशी तब और बढ़ जाती है, जब उनके मार्गदर्शन में खेती करने वाला किसान भरपूर मुनाफा कमाता है। क्योंकि जब भी हम किसी किसान को कोई सलाह देते हैं तो वह आंख मूंदकर विश्वास कर लेता है। ऐसे में यदि किसान को नुकसान उठाना पड़ा तो विश्वास पर भी संकट आने का डर रहता है।
धर्मवीर की मानें तो उन्होंने जो मशीन बनाई है, उसका सबसे ज्यादा फायदा महिलाओं को मिला है। क्योंकि उनकी मशीन जिस भी फार्म हाउस अथवा फार्म में लगती है, वहां कामगारों की भी जरूरत पड़ती है। जूस निकालने से लेकर उसे सुरक्षित रखने आदि की प्रक्रिया में एक मशीन पर कम से कम 35 महिलाओं की जरूरत पड़ती है। उनके फार्म में जो मशीन लगी है, उस पर भी 35 महिलाएं काम कर रही हैं। ये महिलाएं जूस निकालने से लेकर मिठाई बनाने तक का काम करती हैं। गांव में मशीन लगाने से दूसरा यह भी फायदा हुआ कि आसपास के किसान भी आंवला और एलोवेरा की खेती शुरू कर दिए हैं। वे प्रोसेसिंग के लिए खेत में तैयार फसल बेचते भी हैं। उनके द्वारा मशीन लगाए जाने के बाद लघु एवं सीमांत किसानों की भी समस्या खत्म हो गई है। लघु एवं सीमांत किसान अल्प मात्रा में भी एलोवेरा की खेती करते हैं तो भी उनकी उपज का पूरा दाम मिल जाता है।
धर्मवीर बताते हैं कि उनके इस नए प्रयोग के लिए विभिन्न स्तरों पर सम्मान मिल चुका है। ग्राम स्तर से लेकर राज्य स्तर तक के पुरस्कार मिले। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की ओर से उन्हें कृषि और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्री शरद पवार ने 2010 में सम्मानित किया। राज्य का बागवानी विभाग उनकी बनाई मशीन पर सब्सिडी दे रहा है और इसकी कीमत 1.35 लाख रुपये रह गई है। इस नवीन आविष्कार ने उसके जीवन की दशा और दिशा पूरी तरह से बदल कर रख दी है। अब उन्हें प्रतिमाह दो लाख रुपये से अधिक की आमदनी हो रही है।
धर्मवीर कहते हैं कि वह रिक्शा चलाकर शायद परिवार को पूरी तरह से खुश न रख पाते। क्योंकि आज महंगाई के इस दौर में जीवनयापन करना अलग बात है, लेकिन बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना मुश्किल है। लेकिन औषधीय पौधों की खेती की बदौलत उन्होंने बेटी को एमबीए तक की शिक्षा दिलाई। बेटी एमबीए कर चुकी है और अब उसकी शादी भी कर दी है। बेटा कम्प्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है। इस तरह उनके इस काम से पूरा परिवार खुश है। वह याद करते हैं और कहते हैं कि जब उन्होने खेती का काम शुरू किया था तो उनके पूरे परिवार ने सहयोग दिया। जब भी मैं निराश होता पत्नी हमेशा प्रेरित करती और यह समझाने की कोशिश करती कि मेहनत किसी भी कीमत पर बेकार नहीं जाती है।
धर्मवीर कंबोज का कहना है कि हर व्यक्ति को अपने आप पर भरोसा रखना चाहिए। खेती में कभी भी घाटा नहीं होता बस जरूरत इस बात की है कि खेती करने का हमारा तरीका सही होना चाहिए। खेती से जुड़कर युवा अपनी बेरोजगारी दूर कर सकते हैं। हम और हमारे जैसे कम पढ़े-लिखे लोग खेती के जरिए जीवन सुधार सकते हैं तो पढ़े-लिखे लोगों के लिए यह राह और भी आसान है। उच्च शिक्षा प्राप्त युवक बेहतर तरीके से खेती सीख सकते हैं। विभिन्न तरह की तकनीक का इस्तेमाल कर न सिर्फ उत्पादन बढ़ाया जा सकता है बल्कि अपनी जीविका के लिए पर्याप्त धन भी कमाया जा सकता है। औषधीय खेती में अपार संभावनाएं हैं। औषधीय खेती के जरिए कम लागत में अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। आज रासायनिक खादों से लोग दूर भाग रहे हैं। ऐसे में जैविक खेती अपनाने की जरूरत है। दाल, अनाज के साथ ही वैज्ञानिक खेती करके बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है।
(लेखिका शैक्षिक संस्थान से जुड़ी हैं एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)
ई-मेल : kusumalata.kathar@gmail.com
धर्मवीर खुद बताते हैं कि वह बचपन से ही कुछ अलग तरह की करने की सोचते रहते थे, लेकिन आर्थिक तंगी की वजह से कुछ कर नहीं पाए। कोई रास्ता नहीं दिखा तो दिल्ली चले गए और वहां रिक्शा चलाने लगे। रिक्शा चलाने से मामूली आमदनी होती। इसी से परिवार चलाते। रात को जब सवारियां नहीं मिलती तो यही सोचते रहते कि ऐसा कौन-सा काम करें, जिसमें नाम भी हो और पैसा भी मिले। वह कहते हैं कि पैसे से कहीं ज्यादा उन्हें अपने नाम की चिंता थी क्योंकि पैसा जितना भी मिले खर्च होता रहता है। पैसे के पीछे भागना ठीक नहीं होता। बस यह चाहते थे कि उनके नाम की यश पताका इस तरह लहराए कि लोग दंग रह जाए। वह चाहते थे कि कोई ऐसा काम करूं, जो लोगों के लिए नजीर बन जाए। आज उनके काम को पूरी दुनिया में ख्याति मिल रही है।
वह बताते हैं कि बचपन से ही उनकी फूलों और औषधीय खेती में रुचि थी। वह याद करते हैं कि किस तरह से होली के अवसर पर उनकी मां टेसू के फूल से रंग निकालती थी। इसलिए वह चाहते थे कि हर्बल और फूलों की खेती को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा मिले ताकि केमिकल का प्रयोग कम से कम हो। उनके पास मात्र दो एकड़ का खेत था। पैसे की कमी थी सो चाहकर भी फूलों की खेती नहीं कर पा रहे थे। लेकिन परिवार का भरण-पोषण भी जरूरी था। इसलिए वह दिल्ली चले गए। वहां रिक्शा चलाकर परिवार का भरण-पोषण करते रहे। रिक्शों पर जब कोई फूल का बोझ लादता तो उन्हें अपार खुशी होती। इस दौरान बातचीत में वह फूल लादने वाले किसान से पूरी जानकारी लेते। वह किराया कम देते तो भी मना नहीं करते। इस तरह रिक्शा चलाते हुए पैसा भी कमा रहे थे और फूलों की खेती के गुण भी सीख रहे थे।
इसी दौरान जुलाई 1987 में एक ऐसी घटना हुई, जिसने धर्मवीर के जीवन को ही बदल दिया। धर्मवीर की मानें तो वह पुरानी दिल्ली से बर्फ की सिल्लियां रिक्शे पर लादकर निकले थे। दोपहर का वक्त था। इसी दौरान किसी वाहन ने पीछे से जोरदार टक्कर मार दी। टक्कर इतनी जबर्दस्त थी कि रिक्शे पर लदी सिल्लियां उनके ऊपर आ गई। वह बेहोश हो गए। जब उन्हें होश आया तो आसपास लोग घेरे हुए थे। किसी ने अस्पताल पहुंचाया। कुछ दिन बाद अस्पताल से छुट्टी मिल गई। वह अपने गांव वापस आ गए। स्वस्थ होने के बाद आसपास के खेतों को देखते और यही सोचते कि ऐसी कौन-सी खेती करें, जो कम रकबे में की जाए और मुनाफा भरपूर दे। इस दौरान धर्मवीर गांव विकास सोसायटी में शामिल हो गए। फिर किसानों के लिए चलने वाले प्रशिक्षणों में हिस्सा लेने लगे। धर्मवीर की ललक ही थी कि वह खेती शुरू करने से पहले उसके बारे में पूरी जानकारी लेना चाहते थे। इसलिए उन्होंने कृषि विश्वविद्यालय में संपर्क किया और वहां चलने वाली जैविक खेती के बारे में भी प्रशिक्षण लिया। उन्होंने कृषि एवं उद्यान विभाग की ओर से भेजे जाने वाले भ्रमण कार्यक्रम में हिस्सा लिया। वह जबलपुर गए और फिर हरियाणा, हिमाचल प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर भ्रमण किया। करीब दो वर्ष बाद 1989 में उन्होंने एक बार फिर खेती में कदम रखा। उन्होंने दो एकड़ की जमीन को तीन हिस्सों में बांट दिया। एक हिस्से में परंपरागत खेती करते, जिससे घर में खाने-पीने की दिक्कत न हो। दूसरे हिस्से में जैविक खेती शुरू की। और तीसरे हिस्से के एक छोटे से भाग को अपनी प्रयोगशाला बनाया। पहली ही बार उनकी मेहनत रंग लाई। जैविक खेती फायदे का सौदा हुई। कृषि विभाग ने सम्मानित किया तो खेती की ललक और बढ़ने लगी। जब उन्हें कृषि विभाग की ओर से सम्मान मिला तो पूरे गांव ही नहीं आसपास के गांवों के लोगों ने भी बधाई दी। इससे उत्साह और बढ़ने लगा।
धर्मवीर बताते हैं कि सम्मान और बधाइयां मिलने से ऐसा लगा, जैसे वह बचपन में जो सोचते थे उसी दिशा में आगे जा रहे हैं। फिर क्या था खेती के प्रति अपना जीवन समर्पित कर दिया। अब वह इस प्रयोग में जुट गए थे कि छोटी क्यारियों, बोतलों में भी किस तरह से फूलों को तैयार किया जा सकता है। यानी उनका मकसद था कि कम से कम क्षेत्रफल में कैसे खेती करें। उन्होंने औषधीय खेती शुरू की। इस दौरान औषधीय बीज की समस्या सामने आई। किसी तरह दूसरे राज्यों से औषधीय फसलों के लिए बीज लाए। इसके बाद खुद ही बीज तैयार करने लगे। वह बताते हैं कि वर्ष 1994 में उन्होंने टमाटर की खेती की। टमाटर की बम्पर पैदावार हुई और उन्हें राज्य सरकार की ओर से टमाटर की खेती के लिए सम्मानित किया गया। इसके बाद मशरूम की खेती की और फिर ईसबगोल, ग्वारपाठा आदि उगाना शुरू किया।
वह बताते हैं कि वर्ष 2004 में वह बागवानी विभाग की ओर से राजस्थान भ्रमण पर गए। राजस्थान के कृषि विश्वविद्यालयों व कृषि विज्ञान केंद्रों में चलने वाले विभिन्न कार्यक्रमों को देखा। किसानों का यह दल उन स्थानों पर भी गया, जहां के किसान प्रोसेसिंग के काम में लगे थे। धर्मवीर बताते हैं कि इस दौरान किसानों ने उन्हें आंवले का लड्डू भेंट किया। उन्होंने यह भी देखा कि किसान गुलकंद बना रहे हैं। गुलाब के अर्क से बनी तमाम चीजें तैयार करके बेच रहे हैं, लेकिन उनकी पद्धति से वह काफी महंगी दिख रही हैं। इसलिए तय किया कि कोई ऐसी मशीन तैयार की जाए, जिससे सस्ती दर पर विभिन्न औषधीय पौधों और फूलों का अर्क निकाला जा सके। राजस्थान से लौटने के बाद खेती में तो जुटे रहे, लेकिन मन में यह बात हमेशा उठती रही कि अर्क निकालने की मशीन कैसे तैयार हो। क्योंकि महिलाओं को औषधीय उत्पादों की छाल को हाथ से छीलने में काफी कठिनाई होती थी। इस कार्य में महिलाओं को हाथ में चोट भी लग जाती थी और उनकी उत्पादकता भी काफी कम होती थी। इसलिए उद्यान विभाग से संपर्क किया। विभिन्न स्थानों पर अर्क निकालने की मशीनों को देखा, लेकिन मन संतुष्ट नहीं हुआ।
धर्मवीर याद करते हैं और कहते हैं कि वर्ष 2002 में उनके गांव के दूसरे तमाम किसान भी एलोवेरा की खेती में जुट गए थे। इसकी खेती पर बैंक की ओर से ऋण भी दिया जाता था। एक बैंक मैनेजर आए और हमने उनसे एलोवेरा का अर्क निकालने की मशीन के बारे में बातचीत की। उन्होंने बताया कि एलोवेरा का अर्क निकालने की मशीन करीब पांच लाख में आएगी। मैं इतनी पूंजी लगाने की स्थिति में नहीं था और बैंक से ज्यादा लोन भी नहीं लेना चाहता था। इसलिए विभिन्न स्थानों पर देखी गई मशीन के अनुरूप खुद ही मशीन बनाने की प्रक्रिया में जुट गया। इस दौरान वर्कशाप चलाने वाले विजय धीमान ने भरपूर सहयोग किया। करीब आठ माह की मेहनत के बाद मशीन तैयार हो गई। ग्राइंडर, प्रोसेसर और जूसर की मदद से एक प्रसंस्करण मशीन तैयार की। इस मशीन के उपयोग से 200 किलोग्राम औषधीय उत्पादों का प्रति घंटा प्रसंस्करण संभव होने लगा। जब उसका प्रदर्शन किया गया तो सभी को बेहद पसंद आई। कृषि मेले में भी इस मशीन को खूब वाहवाही मिली। मशीन के बारे में जानकारी देते हुए वह बताते हैं कि इस मशीन की खासियत है कि इसका वजन काफी कम है। इस मशीन की वजह से किसानों का कच्चा उत्पादन एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का खर्चा बच रहा है।
केन्या में बेची मशीन
धर्मवीर ने इस मशीन का पेटेंट कराने के लिए आवेदन कर रखा है। अब तक 55 मशीनें तैयार करके उन्हें न सिर्फ भारत में बेचा है बल्कि इसकी मांग केन्या से भी आई है। केंद्र सरकार की ओर से मशीन के बारे में विस्तृत जानकारी मांगी गई है, जिसे बताते हुए वह काफी उत्साहित हैं। वह बताते हैं कि हरियाणा के अलावा पंजाब, चंडीगढ़, बिहार, झारखंड, गुजरात, उत्तर प्रदेश से भी मशीनों की डिमांड आ रही है। अभी कुछ दिन पहले वह गांधी सेवा ग्राम, वर्धा में एक मशीन लगाकर आए हैं। इसी तरह आईटीआई दिल्ली ने भी एक मशीन खरीदी है। इस मशीन को छात्रों के प्रशिक्षण के लिए रखा गया है।
पूरे खेत में औषधीय खेती
धर्मवीर बताते हैं कि अब वह अपनी समूची दो एकड़ जमीन पर एलोवेरा और आंवला की खेती कर रहे हैं। खेत में तैयार फसल को बेचने के बजाय अपनी खुद की बनाई मशीन के प्रयोग से जूस, मिठाई, शैंपू और फेसक्रीम जैसे उत्पाद बनाकर देशभर में बेच रहे हैं। उनके उत्पाद को भी खूब पसंद किया जा रहा है। धर्मवीर की इच्छा है कि वह ऐसा फार्म हाउस विकसित करे, जिसमें खेती के साथ ही प्रोसेसिंग और उसके उत्पाद तैयार करने की सभी व्यवस्थाएं हो सकें।
बन गए कृषि वैज्ञानिक
औषधीय खेती और फिर प्रसंस्करण मशीन तैयार करने की वजह से धर्मवीर की पहचान बढ़ गई है। आज वह विभिन्न विश्वविद्यालयों में जाते हैं। छात्रों एवं किसानों को बताते हैं कि उन्होंने किस तरह से खेती शुरू की। इसके साथ ही आसपास के गांवों में होने वाली कृषि गोष्ठियों में भाग लेते हैं। गांव-गांव जाकर किसानों को यह समझाते हैं कि औषधीय खेती करते समय किस तरह की सावधानियां बरतनी चाहिए। इतना ही नहीं उनके गांव के किसान तो हमेशा उनके संपर्क में रहते हैं। आसपास के गांवों के किसान भी उन्हें बेहद प्यार देते हैं। जिस भी किसान को खेती में किसी तरह की समस्या होती है वह तुरंत धर्मवीर से संपर्क करता है। इस तरह कृषि वैज्ञानिक धर्मवीर भी डिग्री भले नहीं लिए हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से वह कृषि वैज्ञानिक बन गए हैं। धर्मवीर बताते हैं कि जब लोग उनसे खेती के बारे में पूछते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। यह खुशी तब और बढ़ जाती है, जब उनके मार्गदर्शन में खेती करने वाला किसान भरपूर मुनाफा कमाता है। क्योंकि जब भी हम किसी किसान को कोई सलाह देते हैं तो वह आंख मूंदकर विश्वास कर लेता है। ऐसे में यदि किसान को नुकसान उठाना पड़ा तो विश्वास पर भी संकट आने का डर रहता है।
महिलाओं को मिला रोजगार
धर्मवीर की मानें तो उन्होंने जो मशीन बनाई है, उसका सबसे ज्यादा फायदा महिलाओं को मिला है। क्योंकि उनकी मशीन जिस भी फार्म हाउस अथवा फार्म में लगती है, वहां कामगारों की भी जरूरत पड़ती है। जूस निकालने से लेकर उसे सुरक्षित रखने आदि की प्रक्रिया में एक मशीन पर कम से कम 35 महिलाओं की जरूरत पड़ती है। उनके फार्म में जो मशीन लगी है, उस पर भी 35 महिलाएं काम कर रही हैं। ये महिलाएं जूस निकालने से लेकर मिठाई बनाने तक का काम करती हैं। गांव में मशीन लगाने से दूसरा यह भी फायदा हुआ कि आसपास के किसान भी आंवला और एलोवेरा की खेती शुरू कर दिए हैं। वे प्रोसेसिंग के लिए खेत में तैयार फसल बेचते भी हैं। उनके द्वारा मशीन लगाए जाने के बाद लघु एवं सीमांत किसानों की भी समस्या खत्म हो गई है। लघु एवं सीमांत किसान अल्प मात्रा में भी एलोवेरा की खेती करते हैं तो भी उनकी उपज का पूरा दाम मिल जाता है।
मिला सम्मान
धर्मवीर बताते हैं कि उनके इस नए प्रयोग के लिए विभिन्न स्तरों पर सम्मान मिल चुका है। ग्राम स्तर से लेकर राज्य स्तर तक के पुरस्कार मिले। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की ओर से उन्हें कृषि और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्री शरद पवार ने 2010 में सम्मानित किया। राज्य का बागवानी विभाग उनकी बनाई मशीन पर सब्सिडी दे रहा है और इसकी कीमत 1.35 लाख रुपये रह गई है। इस नवीन आविष्कार ने उसके जीवन की दशा और दिशा पूरी तरह से बदल कर रख दी है। अब उन्हें प्रतिमाह दो लाख रुपये से अधिक की आमदनी हो रही है।
परिवार में आई खुशहाली
धर्मवीर कहते हैं कि वह रिक्शा चलाकर शायद परिवार को पूरी तरह से खुश न रख पाते। क्योंकि आज महंगाई के इस दौर में जीवनयापन करना अलग बात है, लेकिन बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना मुश्किल है। लेकिन औषधीय पौधों की खेती की बदौलत उन्होंने बेटी को एमबीए तक की शिक्षा दिलाई। बेटी एमबीए कर चुकी है और अब उसकी शादी भी कर दी है। बेटा कम्प्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है। इस तरह उनके इस काम से पूरा परिवार खुश है। वह याद करते हैं और कहते हैं कि जब उन्होने खेती का काम शुरू किया था तो उनके पूरे परिवार ने सहयोग दिया। जब भी मैं निराश होता पत्नी हमेशा प्रेरित करती और यह समझाने की कोशिश करती कि मेहनत किसी भी कीमत पर बेकार नहीं जाती है।
युवाओं को संदेश
धर्मवीर कंबोज का कहना है कि हर व्यक्ति को अपने आप पर भरोसा रखना चाहिए। खेती में कभी भी घाटा नहीं होता बस जरूरत इस बात की है कि खेती करने का हमारा तरीका सही होना चाहिए। खेती से जुड़कर युवा अपनी बेरोजगारी दूर कर सकते हैं। हम और हमारे जैसे कम पढ़े-लिखे लोग खेती के जरिए जीवन सुधार सकते हैं तो पढ़े-लिखे लोगों के लिए यह राह और भी आसान है। उच्च शिक्षा प्राप्त युवक बेहतर तरीके से खेती सीख सकते हैं। विभिन्न तरह की तकनीक का इस्तेमाल कर न सिर्फ उत्पादन बढ़ाया जा सकता है बल्कि अपनी जीविका के लिए पर्याप्त धन भी कमाया जा सकता है। औषधीय खेती में अपार संभावनाएं हैं। औषधीय खेती के जरिए कम लागत में अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। आज रासायनिक खादों से लोग दूर भाग रहे हैं। ऐसे में जैविक खेती अपनाने की जरूरत है। दाल, अनाज के साथ ही वैज्ञानिक खेती करके बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है।
(लेखिका शैक्षिक संस्थान से जुड़ी हैं एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)
ई-मेल : kusumalata.kathar@gmail.com
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Post By: birendrakrgupta