रिकार्ड में नहीं, खूंटों पर चाहिए

पुण्यवती तमिल मूल की हैं। कोई दो-तीन सौ बरस पहले अंग्रेज इनके पुरखों को रबड़ की खेती करने यहां तमिलनाडु से ले आए थे। फिर ये परिवार वापिस नहीं गए। पुश्तैनी जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर पुण्यवती खेती और पशुपालन साथ-साथ करती हैं। इनके तबेले में मलेशियाई नस्ल के अलावा कादाहकेलतन और ब्राह्मण जैसे देशी नस्ल भी हैं।

संयोग से पिछले साल मलेशिया जाना हुआ। सामाजिक कामों में रुचि रखने वाली एक पुरानी संस्था, ‘द कंज्यूमर एसोसिएशन ऑफ पेनांग’ ने मुझे अपनी एक बैठक में भाग लेने के लिए बुलाया था। यह संस्था चाहती थी कि मैं उसके बीच खेती और पशुपालन को आत्म निर्भर बनाने और किसानों को मशीनी खेती से बचाने के तौर-तरीके पर बातचीत करूं। बीते चालीस साल के दौरान मलेशिया में उद्योग भयानक गति से बढ़ा है। बढ़ते कल-कारखानों ने कई जगह से खेती और पशुपालन को बिल्कुल खदेड़ कर बाहर किया है।

ऐसा माना जाता है कि मलेशिया अपनी जरूरत लायक सूअर और मुर्गी पोस लेते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। यहां का स्वावलंबी-सा दिखने वाला पशुपालन बाहर से लाए चारे और बाहरी नस्ल के भरोसे है। छोटे से छोटे किसान भी अपनी जरूरतों के लिए देशी-विदेशी कंपनियों पर निर्भर हैं। ऐसे किसानों की संख्या बहुत कम है जो देशी नस्ल पालते हैं।

दुर्भाग्य से सरकारी नीतियों ने अपने यहां भी खेती और पशुपालन को इसी रास्ते पर धकेलने का काम किया है। मलेशिया यात्रा के दौरान हमें पता चला यहां गायों की एक ऐसी प्रजाति है, जिसका नाम ब्राह्मण है। कौन ब्राह्मण यहां आया होगा, किसने इस गाय की प्रजाति का नाम ब्राह्मण रखा होगा- ऐसे सवाल मन में उठने लगे।

एक मित्र की मदद से पुण्यवती के घर जाना हुआ। यहां ‘ब्राह्मण’ गाय के दर्शन हुए। पुण्यवती तमिल मूल की हैं। कोई दो-तीन सौ बरस पहले अंग्रेज इनके पुरखों को रबड़ की खेती करने यहां तमिलनाडु से ले आए थे। फिर ये परिवार वापिस नहीं गए। पुश्तैनी जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर पुण्यवती खेती और पशुपालन साथ-साथ करती हैं। इनके तबेले में मलेशियाई नस्ल के अलावा कादाहकेलतन और ब्राह्मण जैसे देशी नस्ल भी हैं।

ब्राह्मण तो एकदम से ओंगोल और गिर जैसी है। एक-सा कद-काठी। कूबड़ भी अमूमन एक-सा। यह गाय यहां कैसे आई होगी? क्या रबड़ की खेती करने लाए गए परिवार इसे अपने साथ लाए होंगे? फिर गाय की दूसरी नस्लें जैसे ‘कंगायम’ और मलैमाडु क्यों नहीं यहां आईं? ऐसे कई सवाल उठ रहे थे।

फिर मैं मलेशिया के पशुपालन विभाग के दफ्तर गई। यहां मवेशियों के नस्ल की कई तस्वीरें लगी थीं। पोस्टर के बड़े हिस्से में ब्राह्मण गाय की लाल, भूरी और नेल्लूर नस्ल की तस्वीरें एक साथ देखने को मिलीं। कमाल की बात थी यह कि फिर यहीं जमनापारी बकरी के भी दर्शन हुए। वहां बैठे मवेशी के एक डॉक्टर से मैंने जानना चाहा कि एक तरफ आंध्र के नेल्लूर और दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश की जमनापारी की तस्वीर यहां भला एक साथ कैसे? अलबत्ता वह बेचारा भी कुछ खास नहीं बता पाया।

मैंने घर लौटने के बाद इस विषय पर काफी मगजमारी की। फिर पता चला ‘ब्राह्मण’ नस्ल चार भारतीय नस्लों से तैयार की गई है। कोई डेढ़ सौ बरस पहले अमेरिका ने इसे गैरवाजिब तरीके से विकसित किया था। इसके लिए उसने कोई 226 सांड और 22 गायों को हमारे यहां से मंगाया था।

हमारे देश की कथा कहानियों में भी ब्राह्मण नस्ल को चार अन्य भारतीय नस्लों के परिवार में रखा गया है। इनमें कांकरेज, गिर और तीसरा नेल्लूर परिवार बताया गया है। चौथी नस्ल गुजरात से है। लेकिन इसका नामहमारे यहां के पशुओं की सूची में नहीं मिलता है।

इस नस्ल पर और थोड़ी जानकारी जुटाई तो पता चला कि दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया और एशिया के कुछ अन्य देशों में भी इस नस्ल की खासी पूछ है। केवल उत्पादन के हिसाब से ही नहीं बल्कि किसी भी वातावरण में सहज ही रम जाने की काबिलियत भी इसमें खूब है। यह भी जानकारी हाथ लगी कि इस नस्ल की बिक्री का सबसे बड़ा बाजार आस्ट्रेलिया है।

जो बात हमारे पुरखे कोई हजार साल पहले समझ गए, थे, कोई सौ-डेढ़ सौ साल पहले यूरोप और एशिया के लोग भी समझ गए वह बात आज भी हमारे नुमाइंदे और विशेष ज्ञान का दावा करने वाले वैज्ञानिक नहीं समझ पा रहे हैं। जो रात-दिन अपने ही नस्ल को खोटा करने में लगे हों, उनसे क्या उम्मीद करें।

दुर्भाग्य से अपने यहां ऐसी उपयोगी नस्लों को बचाने की कोई कोशिश नहीं हो रही है। दुनिया के कई देशों में सबसे उम्दा मानी जाने वाली नेल्लूर गाय हमारे देश-प्रदेश में तो लगभग खत्म ही हो चली है। हम तो हॉल्सटीन और जर्सी जैसी बिलायती नस्लों की गायों के पीछे दौड़ रहे हैं। उन्हें बाहर से लाते रहे हैं और अब तो उनको यहीं पर बढ़ावा भी दे रहे हैं।

दूध तो दूध आज दुनिया भर में हमारी नस्लों के सहारे अरबों डॉलर के मांस का कारोबार भी चल रहा है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ब्राजील जैसे देश हमारी उन्हीं नस्लों के दम पर मालामाल हो रहे हैं। जो बात हमारे पुरखे कोई हजार साल पहले समझ गए थे, कोई सौ-डेढ़ सौ साल पहले यूरोप और एशिया के लोग भी समझ गए, वह बात आज भी हमारे नुमाइंदे और विशेष ज्ञान का दावा करने वाले वैज्ञानिक नहीं समझ पा रहे हैं। जो रात-दिन अपनी ही नस्ल को खोटा करने में लगे हो, उनसे क्या उम्मीद करें। इन नस्लों पर कॉपीराईट तो दूर की बात है। आप तो इनसे इनकी हिफाजत की उम्मीद भी नहीं कर सकते आज।

पशु खरीदना हो तो किसानों को कर्ज की कुछ सुविधाएं दी जाती हैं। लेकिन वह भी सिर्फ विदेशी प्रजाति की गायों को खरीदने के लिए ही मिलती हैं। हारा-मारा किसान सदा के लिए कर्ज में डूब जाता है।

जिम्मेवार संस्थाओं का काम भी गाल बजाना रह गया है। नेशनल बायोडायवर्सिटी बोर्ड को नस्लों की विविधता खत्म होने का बहुत मलाल है लेकिन उनको बचाने के लिए एक-दो अच्छे विचार भी हों उसके पास- ऐसा बिल्कुल नहीं है। पर्यावरण विभाग का सारा समय दिशा निर्देश तय करने और बड़ी-बड़ी बैठकें करने में बर्बाद होता है। करोड़ों-अरबों के सालाना बजट का पासंग मात्रा भी यदि ईमानदारी से पशुपालन के लिए खर्च किया जाए तो तस्वीर बदल सकती है।

हॉल्सटीन, जर्सी, बोर गोट! सचमुच बहुत हो गया। अब अपने को नहीं चाहिए ये सब। अब तो इस पर रोक लगनी ही चाहिए। यह सोचना भी कितना अजीब लगता है कि हमारी अगली पीढ़ी को नेल्लूर की नस्ल अमेरिका, ब्राजील और आस्ट्रेलिया से मंगवानी पड़ेगी। कांजीवरम का रेशम खरीदने भला कोई मैनचेस्टर क्यों जाएगा!

पुनश्च! घर लौटकर इस विषय पर कुछ लिखने का मन हुआ। थोड़ा बहुत लिखा भी। फिर उसे कई जगह भेजा लेकिन वह पूरे आंध्र प्रदेश में किसी भी अखबार, पत्रिका के मतलब का नहीं निकला! कोई दो महीने पहले अखबार पलट रही थी कि एक खबर दिखी। शीर्षक था ‘आंध्र को चाहिए ब्राह्मण नस्ल की रॉयल्टी’। जो बात मन में पिछले एक बरस से चल रही थी वह आंखों के सामने थी। इसमें लिखा था, हैदराबाद के कुछ किसान ब्राह्मण नस्ल को खरीदने पनामा जा रहे हैं। कुछ सामाजिक संस्थाएं सरकार से इसकी खरीद करने के लिए अनुमति मांग रही है।

मेरी भविष्यवाणी गलत निकली। जिस बात का अंदेशा आने वाली पीढ़ी के लिए था, वह तो मेरी पीढ़ी के लिए ही लागू होता दिख रहा था। शायद लोग समझ गए थे कि सरकार जो मर्जी करे, अपन को अपना ओंगोल और गिर ही चाहिए। ओंगल, हल्लिकर देओनी, पंढरपुरी असील मुर्गी दक्खनी भेड़ और कांचू भले ही पशुपालन विभाग के रिकार्ड में न मिलें, लेकिन यदि किसान तय कर लें तो ये नस्लें उनके खूटों पर बंधी मिलेंगी।

लेखिका देसी नस्लों की अच्छी जानकार हैं। हैदराबाद में इसी विषय को लेकर काम कर रही संस्था ‘अंतरा’ की सह निदेशिका भी हैं।

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