भारत की खेती-किसानी दिनों-दिन दरिद्र बनती जा रही है। कृषि विश्वविद्यालयों की पढ़ाई के बाद छात्र खेती-किसानी के नजदीक जाने से कतरा रहे हैं। देशभर में 73 कृषि विज्ञान और उससे जुड़े विषयों की शिक्षा देने वाले विशेष विश्वविद्यालय हैं। इन कृषि विश्वविद्यालयों में किसानों के बेटे-बेटियाँ पढ़ने नहीं आते हैं। खुद को अकेला महसूस करने वाला किसान अपने काम को बोझ मानकर अपने बच्चों को गैर कृषि कार्यों के लिए प्रेरित कर रहा है। यह स्थिति छोटी जोत वाले खेतिहरों के साथ ज्यादा है। बड़ी जोत वाले किसान परिवारों से कुछ ही बेटे-बेटियाँ कृषि शिक्षा लेने विश्वविद्यालय पहुँचते हैं, लेकिन उनका मकसद खेती को प्राकृतिक तौर पर समृद्ध करने के बजाए खेत को विरासत में मिली कम्पनी मानकर उसकी मैनेजरशिप करना है।
सचिन देवरियाल ने पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय के टिहरी स्थित रानीचौरी हिल कैंपस से कृषि विज्ञान से एमएससी की है। अब वह देहरादून के डॉल्फिन इंस्टीट्यूट में कृषि और बागवानी पढ़ाते हैं। सचिन बताते हैं कि कृषि की शिक्षा खेती करने के लिए नहीं हासिल की। उनका लक्ष्य कृषि वैज्ञानिक बनना है। वह कहते हैं कि एमएससी करने वाले उनके ज्यादातर साथी नौकरी की तलाश में हैं। उनके मुताबिक इतनी पढ़ाई-लिखाई कोई खेती करने के लिए नहीं करता। हालांकि, वह मानते हैं कि खेती में अच्छी आमदनी हो सकती है। फलों की कीमत बाजार में अच्छी मिलती है, लेकिन किसानों को इसका फायदा नहीं मिलता। एक तरफ सचिन जैसे छात्र हैं जो कृषि वैज्ञानिक बनने का सपना पाले बैठे हैं, दूसरी ओर देश के कृषि विश्वविद्यालयों में शिक्षक या वैज्ञानिकों की औसतन 20 फीसदी जगह खाली है। प्रत्येक वर्ष 25 हजार से ज्यादा छात्र चार वर्षीय कृषि स्नातक बन जाते हैं जो रोजगार की एक सीढ़ी भी ऊपर नहीं चढ़ पाते। भारत सरकार कृषि शिक्षा को पेशेवर शिक्षा की श्रेणी में रख चुकी है लेकिन इसके बावजूद अवसरों की अभी जबरदस्त कमी है। हर वर्ष जिन थोड़े से छात्र-छात्राओं को कृषि सम्बन्धी विषयों की पढ़ाई का मौका मिल रहा है, वें खेती-किसानों में अंधकार देख रहे हैं। रोजगार के लिए ऊँची-से-ऊँची डिग्री हासिल करना उनकी मजबूरी बन गई है। सिर्फ स्नातक और परास्नातक से उनका काम नहीं चल रहा। न ही कृषि के मूल काम में छात्र पढ़ाई के बाद जाने के इच्छुक हैं। जब पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स एंड प्लांट ब्रीडिंग विभाग के प्रोफेसर एएस जीना से सवाल किया गया कि कृषि विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे छात्र खेती क्यों नहीं करते तो उनका जवाब था, ‘हमारी शिक्षा पद्धति ही जॉब ओरिएंटेड है। डिग्री हासिल करने के बाद कोई खेत की ओर जाना नहीं चाहता।’ देश के शीर्ष कृषि विश्वविद्यालयों में खेती-किसानी की पढ़ाई करने वाले छात्र प्लांट ब्रीडिंग, हॉर्टीकल्चर और फूड प्रोसेसिंग की निजी कम्पनियों के अलावा मेडिकल, सिविल सेवा और बैंक को अपने भविष्य का ठिकाना बना रहे हैं।
शोध और शिक्षा के लिए फंड की कमी झेलने वाले भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (आईसीएआर) के ढाँचे में ही बदलाव की कोशिशें तेज हैं। आसीएआर के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक सम्भव है कि सम्पूर्ण आईसीएआर के ढाँचे में बदलाव हो और कृषि एवं बागवानी विभाग अलग व पशुधन एवं मत्स्य विभाग को अलग कर दिया जाए। ढाँचे में यह बदलाव शोध और अनुसन्धान को कितनी रफ्तार देगा यह उत्तर भविष्य के गर्भ में है। लेकिन सच्चाई यह है कि कृषि को रीढ़ माने जाने वाले देश में कृषि शिक्षा हाशिए पर है।
किसानों की मदद करने के लिए जमीन पर वैज्ञानिकों की पहले से ही कमी है जबकि विश्वविद्यालय पेशेवर युवाओं को सीधा जोड़ने में नाकाम साबित हो रहे हैं। कृषि का मूल काम छोड़कर उससे जुड़े और निर्भर अन्य क्षेत्रों में रोजगार के कुछ मौके छात्रों को मिल रहे हैं। हिमालयी राज्यों जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखण्ड के शीर्ष कृषि विश्वविद्यालयों से पढ़कर निकलने वाले छात्रों को बागवानी का काम रास आ रहा है तो दूसरी तरफ मैदानी भागों के छात्र निजी कम्पनियों की तरफ देख रहे हैं या फिर अपना रास्ता बदल रहे हैं। यदि आंकड़ों में बात की जाए तो कुछ छात्रों की संख्या में औसत 20 से 25 फीसदी छात्रों को ही नौकरी मिल रही है। चौधरी सरवण कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि इस विश्वविद्यालय में खेती-किसानी करने वालों के बेटे-बेटियाँ बिल्कुल भी पढ़ने नहीं आते। वहीं, प्रत्येक वर्ष यदि हर बैच में दो या तीन उद्यमी किसान निकल जाएँ तो यह बहुत बड़ी बात होती है। इस विश्वविद्यालय में उच्च तकनीकी और गुणवत्ता वाली प्रयोगशाला है लेकिन यहाँ शिक्षक, वैज्ञानिक और कर्मचारियों की संख्या में करीब 30 फीसदी की कमी है। उन्होंने बताया कि यहाँ से निकलने वाले छात्र ज्यादातर निजी कम्पनियों और बागवानी विभाग व उच्च शिक्षा की तरफ रुख करते हैं। 2018 में इस विश्वविद्यालय से एक भी छात्र को पीएचडी की डिग्री नहीं मिली, जबकि 216 छात्र स्नातक, परास्नातक (पीजी) में थे। जब पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति तेज प्रताप से पूछा गया कि जो बच्चे कृषि की शिक्षा ग्रहण करने के लिए विश्वविद्यालयों में आ रहे हैं, क्या वे वापस खेती की तरफ लौट रहे हैं तो उन्होंने बताया, ‘हमारे देश में जो किसान अभी खेती कर रहे हैं, वे अपने बच्चों को इसलिए पढ़ाते हैं ताकि उन्हें नौकरी मिल जाए। बच्चे की पढ़ाई पर इतना पैसा खर्च करने के बाद छोटे या मझोले किसान का बेटा वापस खेती के लिए नहीं जा सकता। खेती में उसके पास इतने साधन नहीं हैं, इतनी आमदनी नहीं है कि वे उससे बेहतर जीवन स्तर हासिल कर सके।’
गुजरात में आनन्द कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति एनसी पटेल ने डाउन टू अर्थ को बताया कि उनके विश्वविद्यालय में 450 से अधिक स्टाफ कार्यरत हैं जबकि 20 फीसदी पद रिक्त हैं। विश्वविद्यालय में करीब 3 हजार छात्र अध्ययनरत हैं। हर वर्ष स्नातक की भर्ती के लिए 20 हजार से ज्यादा आवेदन आते हैं। पटेल ने बताया कि कृषि के लिए इस वक्त देश की सबसे बड़ी चुनौती प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा है। जमीन और पानी का क्षरण तेजी से हो रहा है। ऐसे में यदि इस क्षरण की पूर्ति नहीं की जाएगी तो खेती-किसानी अगले 10 से 15 वर्षों में बहुत जटिल हो जाएगी। जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलुपर से जुड़े वरिष्ठ कृषि प्राध्यापक और कुलपित ऑफिस में सीनियर टेक्निकल ऑफिसर एमएल भाले बताते हैं कि राज्य में होने वाले प्री एग्रीकल्चरल टेस्ट (पीएटी) काफी कठिन होते हैं और काफी प्रतिस्पर्धा के बाद छात्रों को कॉलेज में दाखिला मिलता है। मध्यप्रदेश के सरकारी कृषि कॉलेज में आने वाले छात्र बेहतरीन होते हैं। हालांकि वे मौसम में बदलाव, लागत में बढ़त और पानी सहित अन्य संसाधनों में लगातार हो रही कमी की वजह से खेती को हाथ नहीं लगाना चाहते। वहीं निजी कॉलेज में दाखिले के लिए अंधी दौड़ को देखकर कोई भी इसे कृषि शिक्षा का सुनहरा समय कह सकता है, लेकिन स्थिति बिल्कुल इसके उलट है। सरकारी कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों में से अधिकतर अलग-अलग क्षेत्रों में नौकरियों में लग जाते हैं। जबलपुर कृषि महाविद्यालय के असोसिएट प्रोफेसर अमित शर्मा बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि हर कोई नौकरी में जाता है लेकिन अधिकतर छात्रों का रुझान नौकरियों की ही तरफ है।
जम्मू कश्मीर में शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति नजीर अहमद ने डाउन टू अर्थ को बताया कि उनके विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए 80 से 90 फीसदी अंक हासिल करने वाले छात्र ही आते हैं। कड़ी प्रवेश परीक्षा के बाद प्रत्येक वर्ष करीब 1,000 छात्रों को दाखिला मिलता है। इस वक्त विश्वविद्यालय में 3,500 बच्चे अध्ययनरत हैं। इनमें रोजगार के लिए सबसे पसंदीदा विषय बागवानी है। कृषि शिक्षा के लिए कितनी माँग है? इस सवाल के जवाब में वह बताते हैं कि राज्य में स्वास्थ्य के बाद कृषि ही छात्रों का सबसे पसंदीदा विषय बन रहा है। इसके अलावा जो भी छात्र बाहर निकल रहे हैं, उनमें से नाममात्र के छात्र ही उद्यमिता कर रहे हैं। ज्यादातर छात्र बागवानी विभाग में या उच्च शिक्षा को अपना लक्ष्य बताते हैं। उन्होंने बताया कि हमें अब भी भारत को कृषि प्रधान देश ही कहना होगा क्योंकि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष 60 फीसदी से भी ज्यादा रोजगार कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। यदि लघु और सीमान्त किसानों की उन्नति के लिए उचित फैसले नहीं लिए गए तो वो कृषि में टिक नहीं पाएँगे। साथ ही कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जो इतना बड़ा रोजगार सृजन कर सके। आजादी के समय देश की सकल घरेलू उत्पाद में 50 फीसदी हिस्सेदारी कृषि की थी, अब यह घटकर 14 फीसदी रह गई है। अब जो सबसे बड़ी चुनौती है वह है खाद्य सुरक्षा। किसानों को उसकी फसल का जब तक उचित दाम नहीं मिलेगा और भंडारण की क्षमता नहीं बढ़ेगी, तब तक किसानों की हालत नहीं सुधरेगी और खाद्य सुरक्षा को स्थाई नहीं बना पाएँगे। उन्होंने बताया कि नवम्बर 2018 के दौरान बर्फबारी हुई, इससे सेब के पेड़ों को काफी नुकसान पहुँचा। आज कल प्राकृतिक आपदाओं के कारण भी किसानों का नुकसान बढ़ा है। यदि उन्हें मदद नहीं दी जाएगी तो निश्चित रूप से खेती-किसानी से वह हासिल नहीं हो पाएगा, जो हम सोच रहे हैं।
प्राइवेट बनाम सरकारी
एक तरफ देश के सरकारी रिकॉर्ड में महज 25 हजार कृषि स्नातक हर वर्ष दाखिला देते हैं, वहीं दूसरी तरफ निजी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की बाढ़ ने मोटी फीस वसूलकर डिग्री बांटने का धंधा शुरू कर दिया है। इसकी बानगी 2017-18 में उच्च शिक्षा की सर्वे रिपोर्ट में दिखाई देती है (देखें, सूबों में कृषि शिक्षा का हाल, पेज 32)। रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रतिवर्ष 1.16 लाख कृषि स्नातक दाखिला ले रहे हैं। सरकारी बनाम निजी शैक्षणिक संस्थानों का युद्ध शुरू हो गया है। मध्यप्रदेश, पंजाब, राजस्थान में सरकारी छात्र सड़कों पर हैं, वहीं निजी कॉलेजों की दलील है कि यदि वे बन्द हुए तो हजारों छात्रों का भविष्य अधर में लटक जाएगा।
निजी कॉलेजों से निकल रहे कृषि स्नातकों में न सिर्फ ज्ञान की बल्कि व्यवहारिक शिक्षा का घोर अभाव है। इसे देखते ही गुजरात और पंजाब में सख्त कदम उठाए जा रहे हैं। गुजरात उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के आदेश को संज्ञान में लेते हुए गुजरात में एक भी प्राइवेट कॉलेज को अब तक अनुमति नहीं दी गई है। गुजरात में आनन्द कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति एनसी पटेल ने बताया कि गुजरात उच्च न्यायालय का आदेश था कि आईसीएआर की ओर से जिन शर्तों और नियमों का पालन करना है, जब तक कोई संस्थान उस पर खरा नहीं उतरता, तब तक उन्हें अनुमति नहीं दी जाएगी। वहीं पंजाब में भी कृषि विज्ञान की स्नातक स्तरीय शिक्षा देने वाले निजी संस्थानों पर कार्रवाई की जा रही है। अब तक पाँच निजी कृषि शिक्षा देने वाले कॉलेजों की मान्यता रद्द कर दी गई है। वहीं उन छात्रों का भी भविष्य चौपट हो गया है। जो बीएससी (कृषि) की डिग्री ले चुके थे। अब गुजरात उच्च न्यायालय का आदेश आया है कि इन छात्रों को एमएसी में दाखिला नहीं दिया जा सकता।
मध्यप्रदेश में सरकारी कॉलेज के अलावा प्राइवेट कॉलेज की एक लम्बी कतार है जो कम संसाधनों और बिना किसी निगरानी के ही डिग्री देने में सक्षम हैं। इन दिनों मध्यप्रदेश के सरकारी कॉलेज के छात्र इसी बात का विरोधख कर प्रदेश में प्राइवेट कॉलेज की निगरानी के दायरे में लाने की माँग कर रहे हैं। आन्दोलन में शामिल छात्र शुभम पटेल बताते हैं कि वे प्राइवेट कॉलेज को भी राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद के नियमें के अन्तर्गत लाने की माँग कर रहे हैं। उनका कहना है कि हर साल तकरीबन 10 हजार स्टूडेंट्स कृषि सम्बन्धित डिग्री लेकर निकल रहे हैं लकिन प्राइवेट कॉलेज में संसाधनों की कमी और जरूरी लैब और खेती के लिए जमीन न होने की वजह है उनकी डिग्री बस नाम की होती है। ऐसे में कृषि के क्षेत्र में गम्भीरता से पढ़ाई करने वाले लोगों का नुकसान होता है। इसी कॉलेज से मास्टर डिग्री कररहे गोपी अंजना के मुताबिक सरकार कृषि सम्बन्धित पाँच हजार से अधिक खाली पदों को नहीं भर रही है जिससे इस क्षेत्र में नौकरी की सम्भावना भी लगातार कम हो रही है। हालांकि गोपी मानते हैं कि सरकारी कॉलेज में पढ़ने के बाद उनके कई सीनियर खेती कर रहे हैं और किसानों की सीधे तौर पर मदद भी कर रहे हैं। लेकिन प्राइवेट कॉलेज की गुणवत्ता पर शुभम पटेल की तरह वह भी सवाल उठाते है। गोपी कहते हैं कि अब प्राइवेट कॉलेज में कम्पनियाँ कैंपस प्लेसमेंट के लिए जाती हैं और 10 से 20 हजार वेतन पर ग्रेजुएट स्टूडेंट्स वहाँ मार्केटिंग से जुड़ा काम करने को भी तैयार हो जाते हैं। गोपी को आशंका है कि इस क्षेत्र की हालत इंजीनियरिंग जैसी न हो जाए, जहाँ भीड़ तो बढ़ती गई लेकिन गुणवत्ता कम होने की वजह से लोग नौकरी और काम के लिए भटक रहे हैं।
उदाहरण के लिए होशंगाबाद जिले के युवा किसान प्रतीक शर्मा को ही लीजिए जो पूर्व में एक राष्ट्रीय बैंक में सीनियर मैनेजर के तौर पर काम कर रहे थे। नौकरी छोड़कर खेती शुरू करने वाले प्रतीक बताते हैं कि उनका अनुभव भी कृषि शिक्षा को लेकर कुछ खराब ही रहा है। वह कहते हैं कि पिछले दिनों उन्हें अपनी खेती के काम में मदद करने के लिए कृषि सम्बन्धी जानकारों की जरूरत थी और इसके लिए उन्होंने एक प्राइवेट कृषि कॉलेज में सम्पर्क किया। वहाँ के छात्रों से मिलने के बाद उन्हें आश्चर्य हुआ कि छात्रों को खेती में कोई खास दिलचस्पी नहीं है। वे पढाई के बाद किसी खाद बनाने वाली कम्पनी में नौकरी करना चाहते हैं। खेती को लेकर उनकी कोई खास समझ भी नहीं और खेत में जाकर काम करने का भी कोई अनुभव नहीं लेना चाहते।
क्या खेती से घर चलाना सम्भव है?
35 वर्षीय मुकेश मीणा भोपाल से सटे जिले सीहोर में रहते हैं। उनके परिवार में पत्नी-बच्चे और माता-पिता को मिलाकर 6 सदस्य हैं। दो एकड़ की जमीन पर हर साल वह खेती करते हैं। मुकेश ने कृषि विज्ञान से 12वीं की पढ़ाई की है और उनका मानना है कि खेती की पढ़ाई करने के बादक इस काम को करना काफी अच्छा रहता है। उन्हें पढ़ाई का काफी लाभ हुआ। हालांकि मुकेश ने कहा कि कई साल तक खेती करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि खेती से घर नहीं चलाया जा सकता। रात के समय मुकेश हर रोज भोपाल आकर टैक्सी चलाते हैं। इससे खेती में हुए नुकसान की भरपाई होती है। मुकेश ने आमदनी का हिसाब लगाते हुए कहा कि एक एकड़ में तीन चार महीनों की कड़ी मेहनत के बाद 10 से 12 हजार की आमदनी होती है, वह भी फसल अच्छी होने के बाद। इस तरह प्रत्येक माह खर्च चलाने के लिए अधिकतर पैसा बाहर से कमाकर ही लाना होता है। अपने बच्चों को खेती के क्षेत्र में लाने के सवाल पर मुकेश ने साफ मना करते हुए कहा कि वह अपनी भूल दोहराना नहीं चाहेंगे और उनके बच्चे भूलकर भी खेती को व्यवसाय के रूप में नहीं अपनाएँगे।
भोपाल के 26 साल के युवा किसान पर्व कपूर ने मणिपाल यूनिवर्सिटी से बायोटेक्नोलॉजी से ग्रेजुएशन करने के बाद खेती करना शुरू किया। वह भोपाल के शाहपुरा के ग्रामीण इलाके में 40 एकड़ की जमीन पर खेती करते हैं। वह बताते हैं कि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि आर्थिक रूप से मजबूत है और सिर्फ इसी वजह से वह हर साल होने वाले घाटे को सह पा रहे हैं। उनका कहना है कि कृषि का काम खतरों से भरा है और एक नुकसान किसान को कर्ज के बोझ से दबाने के लिए काफी है। उन्होंने बताया कि 2017 में 15 एकड़ भूमि पर 2.5 लाख रुपए की लागत से उड़द लगाई थी, लेकिन फसल खराब हो गई। नुकसान काफी अधिक हुआ।
काम की नहीं खेती-किसानी की पढ़ाई
शोध और शिक्षा के लिए फंड की कमी झेलने वाले भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (आईसीएआर) के ढाँचे में ही बदलाव की कोशिशें तेज हैं। आसीएआर के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक सम्भव है कि सम्पूर्ण आईसीएआर के ढाँचे में बदलाव हो और कृषि एवं बागवानी विभाग अलग व पशुधन एवं मत्स्य विभाग को अलग कर दिया जाए। ढाँचे में यह बदलाव शोध और अनुसन्धान को कितनी रफ्तार देगा यह उत्तर भविष्य के गर्भ में है। लेकिन सच्चाई यह है कि कृषि को रीढ़ माने जाने वाले देश में कृषि शिक्षा हाशिए पर है।
इस वक्त देश के कृषि विश्वविद्यालयों में पढ़ाई और रोजगार का क्या हाल है? देश के शीर्ष कृषि विश्वविद्यालयों की पहले बात होनी चाहिए। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईआरएआई) यह देश का माना जाना संस्थान है। 2016 से इस संस्थान के पास अपना निदेशक नहीं है। संस्थान की सबसे महत्त्वपूर्ण विभाग भू-विज्ञान में शोध और अनुसंधान का सबसे महत्त्वपूर्ण उपकरण खराब है। मिट्टी में भारी धातु और माइक्रोब्स का पता लगाने वाला उपकरण आईसीपी-एमएस बीते दो वर्षों से काम नहीं कर रहा है। यह दावा है कि देश के शीर्ष वैज्ञानिक यहीं पर तैयार होते हैं। इस संस्थान में नाम न बताने की शर्त पर परास्नातक की पढ़ाई करने वाले एक छात्र का कहना है कि वह सिविल सेवा की तैयारी कर रहे हैं। यहाँ की पढ़ाई से वैज्ञानिक बनने से कोई लाभ नहीं है। संस्थान हमेशा बजट की कमी से ही परेशान रहता है। इसमें अनुसन्धान कैसे होंगे?
देश के शीर्ष रैंकिंग में शामिल पंजाब कृषि विश्वविद्यालय से भी इस बारे में बात की गई। वहाँ के प्लेसमेंट सेल के अधिकारी ने बताया कि यहाँ बायोटेक्नोलॉजी में युवाओं की दिलचस्पी कम हो रही है। वहीं, कृषि और बागवानी विभाग युवाओं का सबसे पसंदीदा विषय है। प्लेसमेंट अधिकारी ने बताया कि पंजाव की सबसे बड़ी समस्या यहाँ की कृषि मेधाओं का पलायन (एग्रो ब्रेन ड्रेन) है। युवा विश्वविद्यालय से निकलकर उच्च शिक्षा के लिए 10 से 15 लाख रुपए खर्च कर विदेश ले जाते हैं लेकिन वहाँ से पढ़ाई भी कामयाबी की गारंटी नहीं है। इससे हमारा काफी नुकसान हो रहा है। अभी तक हमने ऐसे छात्रों का पीछा नहीं किया है जो पढ़ाई के बाद उद्यमी बन गई। इस वर्ष से इसका भी रिकॉर्ड रखा जाएगा। यूनिवर्सिटी के प्लेसमेंट सेल ने बताया कि 2018 में विभिन्न पाठ्यक्रमों से 900 बच्चे पास हुए थे। पढ़ाई के बाद खेती में जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या भी बहुत कम ही है।
इस वक्त युवाओं को गुणवत्तापूर्ण कृषि शिक्षा के लिए मौके नहीं दिए जा रहे हैं। न ही नए तैयार किए गए मुट्ठी भर वैज्ञानिकों को किसानों के साथ तालमेल बनाने का कोई अवसर दिया जा रहा है। उच्च कृषि शिक्षा हासिल करने के लिए हर वर्ष होने अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा (एईईए) आयोजित होती है। इसमें स्नातक, (यूजी), परास्नातक (पीजी) और पीएचडी में हजारों विद्यार्थियों के आवेदन के बावजूद हर वर्ष 20 फीसदी सीटें खाली छोड़ दी जाती हैं। वहीं, छात्रों से प्रवेश परीक्षा के नाम पर वसूली जाने वाली फीस भी लौटाई नहीं जाती है। एक तरफ सरकारी सीटों के लिए मारामारी है तो दूसरी तरफ बेलगाम निजी विश्वविद्यालयों की कृषि शिक्षा सिर्फ बेहतर ग्रेड हासिल करने का साधन बनती जा रही हैं। कृषि स्नातकों में अंकों के ग्रेड का बड़ा महत्व होता है। सरकारी विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे छात्र मेहनत करते हैं लेकिन ग्रेड नहीं अर्जित कर पाते। इससे उनके प्लेसमेंट में चयन और नौकरी में भी मुश्किलें आती हैं। जहाँ भी ग्रेड आधारित चयन होता है, वहाँ निजी कॉलेजों से पढ़े हुए छात्र बाजी मार ले जाते हैं।
आईसीएआर की ओर से आयोजित होने वाली वार्षिक प्रवेश परीक्षा एआईईईए-2018 में महज 1,954 सीटें स्नातक की थीं, जिनमें से देश भर की सिर्फ 1,508 सीटों को भरा गया और 445 सीटें खाली रह गईं। वहीं, परास्नातक में कुल 2,354 सीटें थी, जिसमें से सिर्फ 1,508 सीटों को भरा गया और 352 सीटें खाली छोड़ दी गईं। इसी तरह पीएचडी में 586 सीटें थीं, जिनमें से 391 सीटों को भरा गया जबकि 195 सीटों को खाली छोड़ दिया गया। इसका मतलब हुआ की स्नातक (यूजी), परास्नातक (पीजी) और पीएचडी की कुल 4,893 सीटों में 993 सीटों से ज्यादा खाली रह गई। आईसीएआर की ओर से आयोजित होने वाली अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा (एआईईईए) के जरिए आईसीएआर का देशभर के कृषि विश्वविद्यालयों में स्नातक में 15 फीसदी, परास्नातक और शोध में 25 फीसदी सीटें रिजर्व हैं जिससे छात्रों को दाखिला दिया जात है (देखें, दाखिले का चलन, पेज 37)।
मध्यप्रदेश में नीमच की निवासी और सूचना अधिकार कार्यकर्ता चन्द्रशेखर गौर ने डाउन टू अर्थ को बताया की बीते वर्ष सूचना के अधिकार से यह जाना गया कि आखिर आईसीएआर की ओर से आयोजित होने वाली सालाना प्रवेश परीक्षा में कितने छात्र आवेदन करते हैं और उनसे प्रवेश परीक्षा के बाद कॉलेज आवंटन के लिए कितनी फीस वसूली जाती है। इसके बाद जो जवाब मिला, वह बेहद चौंकाने वाला था। मसलन 2018 की अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा में कृषि स्नातक की 1954 सीटों के लिए कुल 25,246 आवेदन किए गए। यानी प्रवेश परीक्षा में 25,246 आवेदनकर्ताओं (100 फीसदी) के लिए दहाई अंक से भी कम करीब आठ फीसदी (1954) सीटें उपलब्ध थीं। इसी तरह परास्नातक में 2,354 सीटों के लिए 9,447 आवेदन किए गए। जबकि पीएचडी की 586 सीटों के लिए 1,985 आवेदन किए गए थे। प्रवेश परीक्षा के लिए प्रत्येक आवेदनकर्ता से 2,000 रुपए लिए जाते हैं। चन्द्रशेखर गौर बताते हैं कि जो सीटें खाली रह गई, उन रिजर्व सीटों को राज्य सरकार के विश्वविद्यालयों में भरा गया या नहीं, यह राज्य सरकारों के जरिए स्पष्ट नहीं किया गया।
देश भर में निजी और सरकारी कृषि शिक्षा को लेकर विद्यार्थी आमने-सामने हैं। मध्यप्रदेश की तरह पंजाब में एक और बड़ी समस्या पैदा हो गई है। यहाँ निजी कृषि विश्वविद्यालय में बिना गुणवत्ता और आईएएआर मानकों के चल रहे 107 कृषि कॉलेजों की मान्यता पर तलवार लटक रही है। पंजाब स्टेट काउंसिल फॉर एग्रीकल्चरल एजुकेशन ने हाल ही में एक नोटिस जारी कर युवाओं को चेतानवी दी है कि वे जालंधर में इंद्र कुमार गुजराल टेक्निकल यूनिवर्सिटी के बीएससी कृषि स्नातक कोर्स में दाखिला न लें। वहीं, निजी कॉलेजों के संगठन इस चेतावनी का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि प्राइवेट कॉलेजों में करीब 15 हजार से अधिक छात्र हैं, उनका भविष्य खराब हो जाएगा। साथ ही आवेदन करने वाले तीन से चार हजार छात्र भी संदेह में हैं। इसी तरह मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी सरकारी कॉलेजों के कृषि छात्र निजी कृषि शिक्षा का विरोध कर रहे हैं। महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में निजी कृषि कॉलेजों में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हो रही है।
अखिल भारतीय कृषि छात्र संघ ने डाउन टू अर्थ से बताया कि देश में कई कृषि कॉलेज बिना आईसीएआर के नियमों के संचालित हो रहे हैं। इनका मकसद मोटी फीस वसूलकर सिर्फ छात्रों को डिग्री देना है। मेडिकल हो या फार्मा, सभी जगह शिक्षा को नियंत्रित करने के लिए काउंसिल है। जबकि कृषि शिक्षा को नियंत्रित और गुणवत्तापूर्ण बनाने के लिए कोई काउंसिल नही है। आज गुजरात में कोई निजी कॉलेज नहीं है। जबकि पंजाब की राज्य परिषद ने अब निजी कॉलेजों पर कार्रवाई शुरू की है। समूचे देश में एक-दो राज्यों को छोड़कर कहीं भी नजी कृषि शिक्षा को नियंत्रित करने के लिए राज्य स्तरीय परिषद नहीं है। इसका नतीजा है कि सामान्य विश्वविद्यालयों से कृषि शिक्षा देने के नाम पर मान्यता ली जा रही है। यह नियमों के विरुद्ध है। यहाँ तक कि आईसीएआर भी एक पंजीकृत सोसाइटी है। वह कैसे कृषि शिक्षा को संचालित कर रही है? संघ के पदाधिकारियों ने कहा कि इसके अलावा देश में कृषि शिक्षा को चलाने के लिए अफसरों को नियुक्त किया जा रहा है जबकि पहलेकृषि वैज्ञानिक इसकी कमान सम्भालते थे। कृषि शिक्षा विभाग के अध्यक्ष की जगह पहले कृषि वैज्ञानिकों को तरजीह दी जाती थी। अब यहाँ फेरबदल कर भारतीय प्रशासनिक सेवा के लोगों को बिठाया जा रहा है। 1958 में नालागर कमेटी की रिपोर्ट आई थी। इस रिपोर्ट में कृषि के तकनीकी संस्थानों के औसत प्रदर्शन को ठीक करने के लिए कृषि प्रशासनिक सेवा की बात कही गई थी। कमेटी की रिपोर्ट में राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों को कृषि विकास कार्यक्रमों से जोड़ने की भी बात कही गई थी। हालांकि, ऐसा अभी तक नहीं हो पाया है।
अखिल भारतीय कृषि छात्र संघ का कहना है कि कृषि शिक्षा को कृषि प्रशासकों को ही चलना चाहिए। आज कृषि की उच्च शिक्षा लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में जाने वाले युवाओं को अपनी मेघा का त्याग करना पड़ता है। कृषि से जुड़ी जो भी योग्यता उन्होंने अर्जित की है उसे त्यागकर वे सिविल सेवा से जुड़ते हैं। ऐसे में नालागर कमेटी की रिपोर्ट पर संज्ञान लिए जाने की जरूरत है ताकि पता चल सके कि राज्यों में कृषि छात्र हर दसवें दिन सड़क पर क्यों उतर रहे हैं। देश में दवा बिक्री करने के लिए न्यूनतम योग्यता डिप्लोमा इन फार्मा है। बिना इस डिप्लोमा के दवा विक्रेता नहीं बन सकते। इसी तरह कृषि में रसायन, उर्वरक, कीटनाशक, डाई आदि विक्रेता बिना किसी योग्यता किसानों को खेती की दवाई बेच रहे हैं। इन्हें बंद करने का भी सरकारी ऐलान हुआ था। इसके बाद दुकानदारों के संगठन ने काफी शोरगुल मचाया। सड़कों पर उतरे और सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा। रसायन बेचने के लिए कम्पनियाँ विक्रेताओं को लोक-लुभावन स्कीम भी देती है। ऐसे में यह निर्णय लिया गया था कि कृषि विज्ञान केन्द्रों के जरिए इन्हें प्रशिक्षित किया जाएगा। हालांकि, वह सिर्फ कागजी ऐलान बन कर रह गया। किसानों को अंधाधुन्ध रसायन बेचने वाले पर्यावरण के साथ भी अन्याय कर रहे हैं।
आईसीएआर से सेनानिवृत्त राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता वरिष्ठ वैज्ञानिक और मिट्टी जाँच की परियोजना में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले हैदराबाद निवासी मुरलीधरुडू डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि ‘कोई भी देश कृषि शोध पर ही निर्भर है। वैज्ञानिकों की नियुक्ति और उनका इस्तेमाल व संख्या बढ़ाना शीर्ष प्राथमिकता पर होना चाहिए। जितने भी हाइब्रिड बीजें विकसित किए जा रहे हैं, वे किसानों तक नहीं पहुँच रहे हैं, वे किसानों तक नहीं पहुँच रहे हैं। निजी कम्पनियाँ बीच में फायदा उठा रही हैं। कोई गम्भीर प्रयास नहीं हो रहा है। संस्थानों को नकारा बताकर वहाँ वैज्ञानिकों की नियुक्ति के बजाए राजनीतिक नियुक्तियाँ की जा रही हैं। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था।’ आईसीएआर की कार्यप्रणाली से कई वैज्ञानिक क्षुब्ध हैं। खासकर युवा और सेवानिवृत्त वैज्ञानिक खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। एक समय था कि वैज्ञानिक खुद खेतों में जाने को लालायित रहते थे। आईसीएआर और अन्य केन्द्रीय संस्थान फंड की कमी से परेशान हैं। मुरलीधरुडू बताते है कि ‘अब संस्थानों में युवा वैज्ञानिकों का फायदा नहीं लिया जा रहा जिसके कारण वे सिर्फ कम्प्यूटर तक सिमट गए हैं। 20 फीसदी मानव संसाधन की कमी कम नहीं होती। इसे आखिर पूरा क्यों नहीं किया जा रहा। सिर्फ युवा ही नहीं जो वैज्ञानिक बाहर निकले, उन्हें छठवे आयोग वेतन के बाद सातवां वेतन आयोग नहीं दिया गया। 30 वर्षों की सेवा के बाद भी स्वास्थ्य सुविधाएँ भी वैज्ञानिकों को नहीं दी जा रही हैं। मैंने 1978 से 2011 तक काम किया। अब इसमें कोई आकर्षण नहीं पैदा किया जा रहा है। न ही युवाओं को मौका दिया जा रहा है और न ही अपने पुराने वैज्ञानिकों का इस्तेमाल किया जा रहा है।’
मुरलीधरुडू ने 2008 से लेकर 2011 के बीच देशभर में मिट्टी के उपजाऊपन और उसमें सूक्ष्म पोषण बढ़ाने के लिए देश के 150 जिलों के मिट्टी नमूनों को जांचा था साथ ही उनका आंकड़ा भी जुटाया था। पहली बार डिजिटल मैप भी तैयार किया। यह इतनी महत्त्वपूर्ण परियोजना थी कि देश के जिन 150 जिलों को चुना गया था वहाँ अगले पाँच वर्ष में मिट्टी को उपजाऊ बनाकर पैदावार बढ़ाई जा सकती थी। इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था। लेकिन बाद में उनकी परियोजना के नतीजों और सुझावों को कूड़े में फेंक दिया गया। उस वक्त परियोजना के लिए केन्द्र ने 10 करोड़ रुपए खर्च किए थे। अब मिट्टी की जांच का काम केन्द्र के पाले से निकालकर राज्यों को दे दिया गया है। गुजरात में मिट्टी जांच का काम बढ़िया हुआ लेकिन अब विभिन्न राज्यों में प्रयोगशाला नहीं काम कर रहीं। सिर्फ कागजों पर मिट्टी जांच के आंकड़े भरे जा रहे हैं। वह बताते हैं कि प्रयोगशाला में एक भी सही आंकड़ा नहीं डाला जा रहा। किसी भी मिट्टी की जांच के लिए चार से पाँच साल लगते हैं। इस तरह मिट्टी की जांच का जो आंकड़ा पेश किया जा रहा है, वह आँखों में धूल झोंकने जैसा है। यदि केन्द्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों पर गौर करें तो इस वक्त देश के राज्यों में 7,949 प्रयोगशालाएँ मिट्टी की जांच के लिए हैं। इसमें ज्यादा कारगर नहीं है। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ 154 प्रयोगशाला गाँवों में हैं। इनमें 16 आन्ध्रप्रदेश, 47 हरियाणा, 88 प्रयोगशाला कर्नाटक में हैं। इसके अलावा 6,326 मिनी लैब हैं और 1,304 स्टेटिक व 165 मोबाइल प्रयोगशाला हैं।
मुरलीधरुडू अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं, ‘मैं 1978 से 1982 तक दिल्ली में मिट्टी सर्वे के लिए नियुक्त था। उस वक्त शादी के होने के बाद मैं यहाँ आ गया था। मन में यह था कि मुझे देश के लिए कुछ करना है। मिट्टी जांच के लिए मैं गाँव-गाँव घूमा था। यूपी में झांसी और बांदा, हिमाचल में कुल्लू, पंजाब में जालंधर जिले में खूब काम किया था। अब वैज्ञानिकों में नैतिक साहस और जिम्मेदारी का बोध भी कम हुआ है।’ इसी तरह आईसीएआर के एक वैज्ञानिक नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि अब दबी जुबान में सरकार ओर से विश्वविद्यालयों को वैज्ञानिकों को खुद से पैसा पैदा करने के लिए कहा जा रहा है। ऐसी स्थितियों में वैज्ञानिक काम बिल्कुल नहीं कर सकता है। यह वजह है कि दूरगामी परिणाम वाले शोध और अनुसन्धानों पर ब्रेक लग गया है। आईसीएआर के ही एक वैज्ञानिक नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि शोध संस्थान समेत कृषि विश्वविद्यालयों को अपना खर्च निकालने के लिए कहा जा रहा है। ऐसा लिखित आदेश तो अभी तक नहीं है लेकिन यह बैठकों में और वरिष्ठ अधिकारियों के लगातार बातों से प्रतीत होता रहता है। वैज्ञानिकों को जब तक स्वतंत्रता और फंड नही दिया जाएगा तब तक बेहतर परिणाम सामने नहीं आएँगे। हाँ, यह बात जरूर है कि आईसीएआर इसके बावजूद भी काम कर रहा है। रफ्तार भले ही धीमी है। नई प्रजातियों पर काम हो रहा है। परिणाम भी सामने आ रहे हैं। वैज्ञानिकों को कुछ नैतिक दायित्व भी निभाना होगा।
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