रायबरेली: पानी का नया डार्क जोन!

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बसहा, मथना, सावरई और कटना जैसे अन्य नदी-नालों से यह इलाका अरसे तक समृद्ध रहा है। कहीं-कहीं इलाका ऊसर है लेकिन अधिकांशतः मिट्टी उपजाऊ है: जलोढ़, बलुई, मटियार और दोमट। आम, नीम, महुआ, पीपल, बरगद जैसे पानी मित्र वृक्ष इस इलाके की शान रहे हैं। वार्षिक वर्षा औसत 100 सेंटीमीटर है। अब ये सारे तमगे इस इलाके से छिन रहे हैं। डलमऊ से बहने वाली गंगा प्रदूषित है। सई नदी को प्रदूषित करने में रायबरेली की भवानी पेपर मिल का कोई सानी नहीं है। कानपुर, फतेहपुर और रायबरेली के बाशिंदे जानते हैं कि बैसवाड़ी ठाट क्या होता है। कभी बैसवाड़ी बोली वाला यह इलाका अपने ठाट की धमक के लिए प्रसिद्ध था। 1857 की जंगे आजादी और बाबा रामचंद्र की अगुवाई में हुए किसान आंदोलन में इस ठाट ने जो धमक दिखाई, वह आज भी मिटाये नहीं मिटती। इस इलाके की स्याही से लिख दी गई गणेशशंकर विद्यार्थी की कलम को भला कौन भूल सकता है? किंतु आज यहां के पानी के साथ-साथ अब यह धमक भी मंद पड़ गई है। कभी दूसरों के लिए अपनी जान लुटाने वाला यह इलाका अब अपना पानी बचा पाने में ही असमर्थ दिखाई दे रहा है। उत्तर प्रदेश के 820 ब्लॉकों में से जिन 76 ब्लॉकों को अतिदोहित और 32 को क्रिटिकल श्रेणी में रेखांकित किया गया है, उनमें यह इलाका आगे दिखाई देता है।

तिलोई, लालगंज, डलमऊ, बछरावां....रायबरेली जिले की कोई तहसील ऐसी नहीं, जो आश्वस्त करती हो कि इलाका पानीदार है, लेकिन सबसे खतरनाक स्थिति लालगंज तहसील की है। लालगंज की स्थिति मारक स्तर तक नीचे गिर चुकी है। तहसील के लालगंज ब्लॉक के ही बेहटाकलां, जगतपुर भिचकौरा, उदयामऊ, पीरअलीपुर, पलिया बीरसिंहपुर, लालूमऊ,नरसिंहपुर, जोगापुर, सरायबैहिराखेड़ा, तेजगांव... कितने गांवों के नाम गिनाऊं, जहां जलस्तर उतरकर 80 फीट तक पहुंच गया है। सरेनी ब्लॉक की हालत तो और खराब है।

सरेनी ब्लॉक में तो जलस्तर की गिरावट एक वर्ष में 1.6 मीटर तक दर्ज की गई है। सरेनी गांव का भूगर्भ जलस्तर 4.85 मीटर, तेजगांव का 2.37 मीटर, छिवलहा का 2.81 मीटर, बेनीमाधवगंज का 0.70 मीटर और नबी गांव का पानी 1.65 मीटर नीचे चला गया है। ये आंकड़े भूगर्भ विभाग, उ. प्र. के हैं। सरेनी ब्लॉक के कितने ही गांवों के नाम गिनाये जा सकते हैं, जहां वर्ष में 8 महीने पानी के लिए त्राहि-त्राहि रहती है: लोहरामऊ, बरहा, सगरा, सागरखेड़ा, मथुरपुर, तेजगांव, रालपुर, बहादुरपुर, दुलापुर, मदाखेड़ा, उसरु, मुरारमऊ, हसनापुर, रसूलपुर,सब्जीनेवाजी खेड़ा।

डलमऊ तहसील में किए गये एक अध्ययन के मुताबिक ढाई लाख की आबादी के बीच पेय जलापूर्ति हेतु मात्र 187 हैंडपम्प, 168 कुएं, 11 ओवरहैड टैंक हैं। हैंडपम्पों की हालत ठीक रहे, यह जरूरी नहीं और ज्यादातर कुएं गर्मी आने से पहले ही टें बोल जाते हैं। भूजल स्तर में गिरावट व रासायनिक प्रदूषण... दोनों संकट से यह इलाका भी अछूता नहीं है। आश्वस्त करने वाली बात है, तो बस! इतनी कि इलाका भले ही डार्क जोन घोषित हो गया हो, पानी बचाने की बेचैनी अभी यहां मरी नहीं है। बेचैनी जिंदा है। पिछले महीने 25-26 अगस्त को लालगंज तहसील के बैसवाड़ा पी जी कॉलेज द्वारा पानी पर आयोजित संगोष्ठी के दौरान इस बेचैनी के दर्शन मिले। दिलचस्प यह है कि गंगा की एक प्रमुख सहायक नदी-लोन इसी इलाके से बहती है। बसहा, मथना, सावरई और कटना जैसे अन्य नदी-नालों से यह इलाका अरसे तक समृद्ध रहा है। कहीं-कहीं इलाका ऊसर है लेकिन अधिकांशतः मिट्टी उपजाऊ है: जलोढ़, बलुई, मटियार और दोमट। आम, नीम, महुआ, पीपल, बरगद जैसे पानी मित्र वृक्ष इस इलाके की शान रहे हैं। वार्षिक वर्षा औसत 100 सेंटीमीटर है। अब ये सारे तमगे इस इलाके से छिन रहे हैं। डलमऊ से बहने वाली गंगा प्रदूषित है। सई नदी को प्रदूषित करने में रायबरेली की भवानी पेपर मिल का कोई सानी नहीं है। गंगा एक्सप्रेसवे परियोजना के तहत किए गये जबरन भूमि अधिग्रहण ने इसी लालगंज इलाके में एक जान ली थी। कभी इस इलाके में 236 बड़े तालाब थे, अब उनमें से 36 भी मूल अवस्था में शेष नहीं है। मनरेगा के तालाबों में ट्यूबवेल से पानी भरने पर ही पानी रहता है। आदर्श तालाबों में अब चंद्रमा को अपना चेहरा दिखाई नहीं देता। शेष तालाबों के सीने गर्मी आने से पहले ही फट जाते हैं। राष्ट्रीय घोषित शारदा सहायक जैसी प्रमुख नहर परियोजना रायबरेली के इलाके में है, किंतु कुप्रबंधन के कारण लालगंज की नहरों में पानी की जगह झाड़-झंखाड़ दिखाई देते हैं। सारी आशायें जाकर इंडिया मार्का हैंडपम्प, टयूबवेल, बोरवेल और समर्सिबल पर टिक गईं हैं। इंडिया मार्का जैसे 200 फीट गहरे उतरकर पानी खींचने वाली मशीन से भी फ्लोराइड ही बाहर आ रहा है। थारु आबादी वाले डकोली जैसे गांव से सटी एक पूरी पट्टी ही फ्लोराइड का संत्रास झेल रही है। हैजा, आंत्रशोथ, टाइफाइड, विकलांगता, ऑसिटियोपोरेसिस व पेट में कीड़ो से जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं।

हालांकि मैं हमेशा से ही मानता हूं कि समाधान हमेशा ही स्थानीय व स्वावलंबी होना चाहिए। विश्व बैंक की शह पर कोई परदेश से आकर यहां के नहरी तंत्र का डिजायन बनाये, यह यहां के इंजीनियरों को ही मंजूर नहीं है। पानी के अतिदोहन का समाधान जलनिकासी के और साधन उपलब्ध करा देना नहीं हो सकता। पानी की टंकी बनाकर की गई जलापूर्ति लंबे समय का निदान नहीं है। जितना पानी निकाला है, धरती में उतना वापस लौटाकर ही जलसंकट से निजात पाई जा सकती है। फिर भी सोचने की बात है कि इस तमाम संकट की रपट यहां के शोघकर्ताओं द्वारा राजीव गांधी पेयजल मिशन को भी सौंपने के बावजूद फ्लोराइड प्रभावितों की तात्कालिक राहत के लिए अभी तक कुछ नहीं किया गया है।

यह बात और भी रेखांकित करने वाली इसलिए है, क्योंकि रायबरेली, केन्द्र में यूपीए की मुखिया सोनिया गांधी का संसदीय क्षेत्र है। जाहिर है कि उनकी दिलचस्पी पानी से ज्यादा कोच फैक्टरी के नाम पर वोट बटोरने मे ज्यादा है। वह भूल रही हैं कि फैक्टरी ही नहीं, पानी भी रोजगार देता है। पानी के जाने से जितना रोजगार छिन रहा है, कोच फैक्टरी उससे अधिक रोजगार नहीं दे सकती। मतलब यह नहीं कि फैक्टरी नहीं होनी चाहिए; मतलब यह कि विकास का दर्शन समग्रता के साथ होना चाहिए। वरना एक हाथ रोजगार देगा, दूसरा हाथ छीन लेगा। सोनिया जी! सोचिए। पानी का कोई विकल्प नहीं है। इसके लौटने से ही लौटेगा बैसवाड़ी ठाट। सरकार की ओर ताकने की बजाय समाज खुद पानी के इंतजाम में लगे। इसी उद्देश्य से बैसवाड़ा पी जी कॉलेज के छात्र व आचार्यों ने जलबिरादरी के साथ मिलकर इलाके में जलसाक्षरता की मुहिम छेड़ने का ऐलान कर दिया है। दुआ कीजिए कि पानी लौटे और साथ ही बैसवाड़ी ठाट भी।

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