रात को नदी के किनारे वाली सड़क पर

चाँदनी-(पिया-सी है!)
जैसे घटिया चीजों पर बढ़िया पालिश।
एक झुंड भूँकते कुत्तों की तरह
शहर का शोर-दक्षिण की ओर,
और चांद
जैसे खुले मैदान में एक डरा हुआ जंगली खरगोश:

बिदकते बछड़ों-सी लापरवाह हवा:
तट पर लोटतीं
अर्द्धनग्न सोनपंख परियाँ,
घास पर बिछाकर
फूलों की दरियाँ:
नदी में डूबे मछिलियों के महल,
झलकते लहरों के शिखर, इधर-उधर पानी में,
है कहीं, तो वहीं
थोड़ी-सी चहल-पहल:
तारों की लालची आँखें
(किसी आशा से चमकतीं!)
नग्न पृथ्वी पर गड़ी,
और मीलों तक अकेली प्रकृति
दम साधे पड़ी...।

‘परिवेश : हम तुम’ में संकलित

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