परंपरागत समुदायों के आजीविका के अधिकार और आंदोलनों की एकजुटता पर राष्ट्रीय परिसंवाद
स्थान- बन्जार, कुल्लु, हि0प्र0
तारीख- 24 से 26 जून 2011
प्रिय साथी,
पिछली कई सदियों से जल-जगंल-जमीन जिसे सावर्जनिक सपंदा के रूप में जाना जाता है, उस पर समुदाय और राजसत्ता का टकराव चल रहा है। यह संघर्ष एक तरफ इन संपदाओं के ऊपर समुदायों के स्वशासन और दूसरी तरफ सत्ता द्वारा इन संपदाओं को व्यापारिक माल बनाने की प्रक्रिया का संघर्ष है।
जैसे-जैसे दुनिया भर में नयी उदारवादी योजनाओं का खुलासा होता गया, यह बात अब स्पष्ट हो गयी है कि ढांचागत आर्थिक सुधार कार्यक्रम ना सिर्फ राष्ट्रीय संपदा के महत्व को नजरअंदाज कर रहे हैं बल्कि सार्वजनिक संपदा की अवधारणा का आधार ही खत्म कर रहे हैं जिसको बचाने के लिए तीसरी दुनिया के गुलाम देशों के जनसमुदायों ने अथक संघर्ष किया था। नवउदारवादी आर्थिक राजनैतिक प्रक्रिया इस कोशिश में है कि भविष्य में भी सार्वजनिक संपदाओं के अधिकार का अस्तित्व ही खत्म हो जाये। जंगल-पानी सार्वजनिक भूमि और खनिज का अधिग्रहण सरकार लगातार करती ही जा रही है और विकास के नाम पर वो सारी संपदा की पूंजीवादी मुनाफाखोरों के आगे बलि चढ़ा रही है। आज का संकट इस बात पर है कि मुट्ठी भर लोग सार्वजनिक संपदा जैसे हवा, पानी, जमीन और जंगल के अधिकार से व्यापक जन समुदाय को बेदखल कर रहे हैं।
इस नई उदारवादी प्रक्रिया के खिलाफ दुनिया भर में सार्वजनिक संपदा के ऊपर आश्रित समुदायों द्वारा अपने सशक्त प्रतिरोध आदोलनों से व्यवस्था को चुनौती दी जा रही है। आज विश्व पूंजीवाद के सामने सबसे बड़ी चुनौती इन प्रतिरोध आंदोलनों से ही है। ये सारे संघर्ष विकेंद्रित हैं, बिखरे हुए हैं और अब मध्यमवर्गीय कार्यकर्ताओं या बुद्धिजीवियों के नेतृत्व के भरोसे में भी नहीं चल रहे हैं। जमीनी स्तर पर बढ़ते हुए प्रतिरोधात्मक आंदोलनों के चलते 1980-90 के दशकों में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य और कृषि संस्थान (FAO) और बहुत सारी राष्ट्रीय सरकारों को मजबूर होकर जमीन के ऊपर सार्वजनिक संपदाओं की अवधारणा को मान्यता देनी पड़ी। इसी प्रक्रिया में कुछ देर से ही सही भारतीय संसद ने सन् 2006 में वनाधिकार कानून को मान्यता दी। पूरे भारत में समुदाय के लोग कंपनियों द्वारा जमीन और सार्वजनिक संपदाओं को हड़पने के खिलाफ प्रतिरोध आंदोलन चला रहे हैं। वनाश्रित समुदाय वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। जैसे-जैसे प्राकृतिक संपदा के ऊपर पूंजी का दबाव बढ़ रहा है, वैसे-वैसे ही इन संपदाओं को बचाने के लिए समुदायों के प्रतिरोध भी बढ़ रहे हैं। विशेषकर जंगल क्षेत्र में जहां पर व्यापक इलाकों में परंपरागत रूप से आदिवासी और अन्य वनाश्रित समुदाय वनउपज आधारित जीवन निर्वाह कर रहे हैं, ऐसे इलाकों में वनाश्रित समुदायों के संघर्ष एक ऐतिहासिक मोड़ पर है। एक तरफ वनाधिकार कानून को लागू कराने के लिए सकारात्मक आंदोलन चल रहे हैं, इसके साथ-साथ जलवायु परिवर्तन को रोकने के नाम पर विश्व भर में मुनाफा बढ़ाने की जो चाल चली जा रही है, जैसे रेड, कम्पा, ग्रीन मिशन आदि, लोग इनको भी गम्भीर चुनौती दे रहे हैं।
नंदीग्राम, सिंगूर, रायगढ़ चिंगारा और सोनभद्र के संघर्ष बढ़ती हुई जनचेतना की ऐसी नजीरें हैं, जहां पर लोग अपनी जान को हथेली पर रख कर आंदोलन को अपनी ताकत से आगे बढ़ा रहे हैं और यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि नवउदारवादी आर्थिक प्रक्रिया आगे न बढ़ पाये। इन आंदोलनों में नारी संचेतना का उद्भव विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जोकि आंदोलनों में महिला नेतृत्व की भूमिका की जरूरत को स्थापित कर रहा है। निश्चित रूप से इस तरह के संघर्ष जनआंदोलनों को उत्साहित कर रहे हैं और एक नई दिशा भी दे रहे हैं।
पिछले कुछ सालों से हिमाचल प्रदेश की वादियों में और पर्वतीय इलाकों में ऐसे अन्याय पूर्ण और जनविरोधी प्रोजेक्टों के खिलाफ जन आक्रोश बढ़ रहा है। ऐसे आंदोलनों को व्यापक मान्यता, समर्थन और प्रोत्साहन देना जरूरी है और साथ-साथ रेणुका बाँध विस्थापन विरोधी संघर्ष से लेकर स्काई विलेज प्रोजेक्ट, जे. पी. ग्रुप की सीमेंट फैक्ट्री के खिलाफ आंदोलन और थर्मल बिजली प्लांट के खिलाफ सफलता पूर्वक चल रहे आंदोलनों का उत्सव भी मनाना चाहिए। इसी संदर्भ में राष्ट्रीय परिसंवाद कार्यक्रम का स्थान हिमाचल प्रदेश में तय होना महत्वपूर्ण है।
इस परिसंवाद का मुख्य उद्देश्य जमीनी स्तर पर चल रहे प्रतिरोध आंदोलनों को साथ लाकर इन गंभीर समस्याओं का सामना करने हेतु एक सामुहिक प्रक्रिया का विकास करना होगा। इसके साथ-साथ यह भी कोशिश की जायेगी कि विभिन्न आंदोलनों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने के कार्यक्रम लिए जाएं। इस परिसंवाद में पिछले दिनों में पारित किए गए राष्ट्रीय विधेयक जैसे पेसा, वनाधिकार कानून, मनरेगा आदि के क्रियान्वयन की प्रक्रिया को मजबूत करने पर विशेष चर्चा होगी। ताकि समुदायों का विशेषकर महिला आदिवासी और दलितों का शक्तिवर्धन हो सके।
अशोक चौधरी, रोमा, मुन्नीलाल (एनएफएफपीएफडब्ल्यू); गौतम बंदोपाध्याय (नदी घाटी मोर्चा); शांताभाई (कैमूर क्षेत्र महिला मजदूर संघर्ष समिति); ममता कुजुर (आदिवासी महिला महासंघ); मधुरेश कुमार (नेशनल एलाइंस ऑफ पीपुल्स मुवमेंट्स); गुमान सिंह, कुलभूषण उपमन्यु, आर.एस. नेगी (हिमालय नीति अभियान); तरुन जोशी (वन पंचायत संघर्ष समिति); मुन्नी हंसदा (आदिवासी कल्याण परिषद दुमका); सुशोवन धार (सुंदरवन वन अधिकार संग्राम); विजयन एमजे (दिल्ली फोरम); अनिल टी वर्घेस (प्रोग्राम फॉर सोशल एक्शन)
स्थान- बन्जार, कुल्लु, हि0प्र0
तारीख- 24 से 26 जून 2011
प्रिय साथी,
पिछली कई सदियों से जल-जगंल-जमीन जिसे सावर्जनिक सपंदा के रूप में जाना जाता है, उस पर समुदाय और राजसत्ता का टकराव चल रहा है। यह संघर्ष एक तरफ इन संपदाओं के ऊपर समुदायों के स्वशासन और दूसरी तरफ सत्ता द्वारा इन संपदाओं को व्यापारिक माल बनाने की प्रक्रिया का संघर्ष है।
जैसे-जैसे दुनिया भर में नयी उदारवादी योजनाओं का खुलासा होता गया, यह बात अब स्पष्ट हो गयी है कि ढांचागत आर्थिक सुधार कार्यक्रम ना सिर्फ राष्ट्रीय संपदा के महत्व को नजरअंदाज कर रहे हैं बल्कि सार्वजनिक संपदा की अवधारणा का आधार ही खत्म कर रहे हैं जिसको बचाने के लिए तीसरी दुनिया के गुलाम देशों के जनसमुदायों ने अथक संघर्ष किया था। नवउदारवादी आर्थिक राजनैतिक प्रक्रिया इस कोशिश में है कि भविष्य में भी सार्वजनिक संपदाओं के अधिकार का अस्तित्व ही खत्म हो जाये। जंगल-पानी सार्वजनिक भूमि और खनिज का अधिग्रहण सरकार लगातार करती ही जा रही है और विकास के नाम पर वो सारी संपदा की पूंजीवादी मुनाफाखोरों के आगे बलि चढ़ा रही है। आज का संकट इस बात पर है कि मुट्ठी भर लोग सार्वजनिक संपदा जैसे हवा, पानी, जमीन और जंगल के अधिकार से व्यापक जन समुदाय को बेदखल कर रहे हैं।
इस नई उदारवादी प्रक्रिया के खिलाफ दुनिया भर में सार्वजनिक संपदा के ऊपर आश्रित समुदायों द्वारा अपने सशक्त प्रतिरोध आदोलनों से व्यवस्था को चुनौती दी जा रही है। आज विश्व पूंजीवाद के सामने सबसे बड़ी चुनौती इन प्रतिरोध आंदोलनों से ही है। ये सारे संघर्ष विकेंद्रित हैं, बिखरे हुए हैं और अब मध्यमवर्गीय कार्यकर्ताओं या बुद्धिजीवियों के नेतृत्व के भरोसे में भी नहीं चल रहे हैं। जमीनी स्तर पर बढ़ते हुए प्रतिरोधात्मक आंदोलनों के चलते 1980-90 के दशकों में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य और कृषि संस्थान (FAO) और बहुत सारी राष्ट्रीय सरकारों को मजबूर होकर जमीन के ऊपर सार्वजनिक संपदाओं की अवधारणा को मान्यता देनी पड़ी। इसी प्रक्रिया में कुछ देर से ही सही भारतीय संसद ने सन् 2006 में वनाधिकार कानून को मान्यता दी। पूरे भारत में समुदाय के लोग कंपनियों द्वारा जमीन और सार्वजनिक संपदाओं को हड़पने के खिलाफ प्रतिरोध आंदोलन चला रहे हैं। वनाश्रित समुदाय वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। जैसे-जैसे प्राकृतिक संपदा के ऊपर पूंजी का दबाव बढ़ रहा है, वैसे-वैसे ही इन संपदाओं को बचाने के लिए समुदायों के प्रतिरोध भी बढ़ रहे हैं। विशेषकर जंगल क्षेत्र में जहां पर व्यापक इलाकों में परंपरागत रूप से आदिवासी और अन्य वनाश्रित समुदाय वनउपज आधारित जीवन निर्वाह कर रहे हैं, ऐसे इलाकों में वनाश्रित समुदायों के संघर्ष एक ऐतिहासिक मोड़ पर है। एक तरफ वनाधिकार कानून को लागू कराने के लिए सकारात्मक आंदोलन चल रहे हैं, इसके साथ-साथ जलवायु परिवर्तन को रोकने के नाम पर विश्व भर में मुनाफा बढ़ाने की जो चाल चली जा रही है, जैसे रेड, कम्पा, ग्रीन मिशन आदि, लोग इनको भी गम्भीर चुनौती दे रहे हैं।
नंदीग्राम, सिंगूर, रायगढ़ चिंगारा और सोनभद्र के संघर्ष बढ़ती हुई जनचेतना की ऐसी नजीरें हैं, जहां पर लोग अपनी जान को हथेली पर रख कर आंदोलन को अपनी ताकत से आगे बढ़ा रहे हैं और यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि नवउदारवादी आर्थिक प्रक्रिया आगे न बढ़ पाये। इन आंदोलनों में नारी संचेतना का उद्भव विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जोकि आंदोलनों में महिला नेतृत्व की भूमिका की जरूरत को स्थापित कर रहा है। निश्चित रूप से इस तरह के संघर्ष जनआंदोलनों को उत्साहित कर रहे हैं और एक नई दिशा भी दे रहे हैं।
पिछले कुछ सालों से हिमाचल प्रदेश की वादियों में और पर्वतीय इलाकों में ऐसे अन्याय पूर्ण और जनविरोधी प्रोजेक्टों के खिलाफ जन आक्रोश बढ़ रहा है। ऐसे आंदोलनों को व्यापक मान्यता, समर्थन और प्रोत्साहन देना जरूरी है और साथ-साथ रेणुका बाँध विस्थापन विरोधी संघर्ष से लेकर स्काई विलेज प्रोजेक्ट, जे. पी. ग्रुप की सीमेंट फैक्ट्री के खिलाफ आंदोलन और थर्मल बिजली प्लांट के खिलाफ सफलता पूर्वक चल रहे आंदोलनों का उत्सव भी मनाना चाहिए। इसी संदर्भ में राष्ट्रीय परिसंवाद कार्यक्रम का स्थान हिमाचल प्रदेश में तय होना महत्वपूर्ण है।
इस परिसंवाद का मुख्य उद्देश्य जमीनी स्तर पर चल रहे प्रतिरोध आंदोलनों को साथ लाकर इन गंभीर समस्याओं का सामना करने हेतु एक सामुहिक प्रक्रिया का विकास करना होगा। इसके साथ-साथ यह भी कोशिश की जायेगी कि विभिन्न आंदोलनों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने के कार्यक्रम लिए जाएं। इस परिसंवाद में पिछले दिनों में पारित किए गए राष्ट्रीय विधेयक जैसे पेसा, वनाधिकार कानून, मनरेगा आदि के क्रियान्वयन की प्रक्रिया को मजबूत करने पर विशेष चर्चा होगी। ताकि समुदायों का विशेषकर महिला आदिवासी और दलितों का शक्तिवर्धन हो सके।
क्रांतिकारी अभिवादन के साथ
अशोक चौधरी, रोमा, मुन्नीलाल (एनएफएफपीएफडब्ल्यू); गौतम बंदोपाध्याय (नदी घाटी मोर्चा); शांताभाई (कैमूर क्षेत्र महिला मजदूर संघर्ष समिति); ममता कुजुर (आदिवासी महिला महासंघ); मधुरेश कुमार (नेशनल एलाइंस ऑफ पीपुल्स मुवमेंट्स); गुमान सिंह, कुलभूषण उपमन्यु, आर.एस. नेगी (हिमालय नीति अभियान); तरुन जोशी (वन पंचायत संघर्ष समिति); मुन्नी हंसदा (आदिवासी कल्याण परिषद दुमका); सुशोवन धार (सुंदरवन वन अधिकार संग्राम); विजयन एमजे (दिल्ली फोरम); अनिल टी वर्घेस (प्रोग्राम फॉर सोशल एक्शन)
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