राष्ट्रीय जलनीति-2012: लोकतंत्र पर तानाशाही की जीत

नए संशोधित मसौदे में पहले की तरह साफ शब्दों में तो नहीं लेकिन दबे स्वरों में और अप्रत्यक्ष रूप से निजीकरण की बात कही गई है। हालांकि यह कदम इस बात की राहत तो देता है कि अंधाधुंध अंतर्बेसिन हस्तांतरण नहीं होगा लेकिन दूसरी ओर यह विष भरा कनक घट ही साबित होगा क्योंकि यह उसी रिवर लिंकिंग परियोजना में एक पेबंद है जो लोगों को जड़ों से उखाड़ने पर आमादा है।

इंतजार खत्म हुआ और संशोधित राष्ट्रीय जलनीति - 2012 का सुधरा हुआ प्रारूप जारी हो गया है। इसी वर्ष जनवरी में जलनीति - 2012 का मसौदा आया था, जिसकी कई बातों पर विरोध जताया गया था। समाज के विभिन्न लोगों और संस्थाओं की ओर से आए करीब 600 सुझाव आए, जिन पर चालाकीपूर्वक विचार करने के बाद जल संसाधन मंत्रालय ने नए संशोधित मसौदे का प्रारूप तैयार किया है। राष्ट्रीय जलनीति का मुख्य उद्देश्य जल उपभोक्ताओं का निर्धारण और तद्नुरूप जल का वितरण करना है। मसौदे के अंतर्गत मुख्य रूप से दो क्षेत्रों पर कड़ा विरोध था, निजीकरण और जल प्रयोग की प्राथमिकता। हालांकि जुलाई में आए संशोधित मसौदे में सुधार के प्रयासों ने कुछ हद तक विरोध के स्वरों को शांत करने का प्रयास किया है फिर भी जो प्रयास हुए हैं वे नाकाफी हैं। यह कहना भी कोई अतिश्योक्ति न होगा कि पुरानी शराब को नई बोतल में पेश किया गया है।

जनवरी माह में राष्ट्रीय जल नीति का जो मसौदा आया था उसमें जल-सेवाओं में सरकारी भूमिका को सीमित कर दिया गया था। जल-सेवाएं सरकारी क्षेत्र से छीनकर कंपनियों के हाथों में सौंपी जा रही थीं। इसमें पानी को ‘इकॉनमिक गुड्स‘कहा गया था, गोया कि यह कोई वस्तु है जिसका व्यवसाय किया जा सकता है। गैर सरकारी संगठन, किसान और आम आदमी जो भी मसौदे की लच्छेदार भाषा को समझ पाए, सभी ने एक स्वर से मसौदे को नकार दिया और निजीकरण का जामा पहनने से इंकार कर दिया।

नए संशोधित मसौदे में पहले की तरह साफ शब्दों में तो नहीं लेकिन दबे स्वरों में और अप्रत्यक्ष रूप से निजीकरण की बात कही गई है। पूर्व मसौदे में सरकार जलापूर्ति की जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ रही थी और यह काम बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और वित्तीय संस्थाओं को सौंपना चाहती थी। लेकिन नए संशोधित मसौदे के पैरा 12.3 के मुताबिक जल संसाधनों और जल परियोजनाओं एवं सेवाओं का प्रबंधन सामुदायिक सहभागिता से किया जाना चाहिए। जहां भी राज्य सरकार अथवा स्थानीय शासी निकाय ऐसा निर्णय लें वहां निजी क्षेत्र की असफलता के लिये जुर्माने सहित सेवा प्रदान करने की सहमत शर्तों को पूरा करने हेतु सार्वजनिक निजी सहभागिता में एक सेवा प्रदाता को प्रोत्साहित किया जा सकता है।

यानी अब यह राज्य सरकारों या स्थानीय शासी निकायों की इच्छा पर होगा कि वें जल सेवाओं में निजी भागीदारी को सुनिश्चित करना चाहती हैं या नहीं। लेकिन प्राथमिकता सामुदायिक सहभागिता को देना होगा। एक बात जो पहली बार इस मसौदे में उभर कर सामने आई है वो है समझौता और शर्तें। निजी क्षेत्र की भागीदारी एक लिखित समझौता पत्र के तहत सेवा प्रदान करने संबंधी शर्तों पर सुनिश्चित होगी। शर्तों को पूरा न करने पर जुर्माने का भी प्रावधान किया गया है। पहले ऐसा नहीं था। जाहिर है कंपनियां जो भी सेवाएं देती हैं लाभ के लिये देती हैं। नए संशोधित मसौदे में इस प्रावधान के चलते निजी क्षेत्र की मनमानी को कुछ हद तक रोका जा सकता है।

बड़े बांध ही हमारी नदियों के मरने या मरणासन्न होने के जिम्मेदार हैं, राष्ट्रीय जलनीति -2012 में बड़े-बड़े बांधों की पुरजोर वकालत की गई है। लोगों को पानी, बिजली मुहैया कराने के नाम पर बहुउद्देश्यीय बांध परियोजनाओं की आड़ में धंधाखोरी और पर्यावरण की विनाशलीला का जो खेल खेला जाता है वो जग-जाहिर है। छोटी परियोजना की बजाए बड़ी परियोजनाओं की वकालत क्यों होती है, इसे कौन नहीं जानता।

नए संशोधित मसौदे का यह कदम स्वागत योग्य है। अब सवाल उठता है कि क्या इतना ही काफी है? नए प्रारूप में निजीकरण का स्वर कमजोर जरूर हुआ है परंतु शान्त नहीं। जब बात निजी और सामुदायिक भागीदारी की हो तो पैसे के बल पर जीत कंपनी की ही होती है। फिर नया संशोधित मसौदा इस बात पर चुप है कि अगर स्थानीय शासन निजी भागीदारी को सुनिश्चित करना चाहे तो उसमें समुदाय की भूमिका क्या होगी? जहां जल सेवाओं में सामुदायिक भागीदारी को ऊपर रखने की बात की गई है वहीं निजी भागीदारी की सुनिश्चितता के समय सामुदायिक मंजूरी पर नया संशोधित मसौदा मौन है। यानी स्थानीय लोगों की मंजूरी की कोई जरूरत ही नहीं है। कुल मिलाकर देखा जाए तो ऐसा नहीं लगता कि हमारी सरकार ने निजीकरण की नीतियों से इतने सालों में कोई सबक लिया हो वरना दबे स्वरों में ही सही, निजीकरण की बात नहीं होती। यानी निजी क्षेत्र के लिये जल सेवा परियोजनाओं के दरवाजे अभी भी खुले हैं।

दूसरा विरोध प्राथमिकताओं को लेकर था। मूल प्रारूप में खेती को दरकिनार कर उद्योगों को वरीयता दी गई थी। विरोध का असर दिखा और अब प्राथमिकताओं में भी सुधार हुआ है। राष्ट्रीय जल नीति 1987 और 2002 में पेयजल को प्राथमिक आवश्यकता सुनिश्चित किया गया था एवं उसके बाद कृषि, जल विद्युत, पारिस्थितिकी, उद्योग आदि....लेकिन जनवरी 2012 के जलनीति मसौदे ने इन प्राथमिकताओं को दरकिनार कर उद्योगों को वरीयता दी थी। संशोधित मसौदे के मुताबिक गरीबों की खाद्य सुरक्षा और जीविका के लिये पानी के प्रयोग को उच्च प्राथमिकता दी जाएगी और इस हेतु पानी के उपभोग को उतना ही जरूरी माना गया है जितना की जिंदा रहने और पारिस्थितिकी के लिये। जानवरों की पानी की जरूरतों के मद्देनजर भी सराहनीय कदम उठाए गए हैं।

जनवरी मसौदे में जहां नदी जोड़ परियोजना की वकालत की गई थी और उसी को बढ़ाने की दिशा में अंतर्बेसिन हस्तांतरण की बात की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य था कम पानी वाले क्षेत्रों को पानीदार बनाकर समानता और सामाजिक न्याय की स्थापना करना। संशोधित मसौदा भी कुछ शर्तों के साथ इसी बात की वकालत करता है कि परियोजना को लागू करने से पहले सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों के पक्ष और विपक्ष का अध्ययन करना जरूरी होगा। स्थान विशेष की परिस्थितियों और अध्ययनों को ध्यान में रखते हुए ही इस तरह का कोई कदम उठाया जाएगा। हालांकि यह कदम इस बात की राहत तो देता है कि अंधाधुंध अंतर्बेसिन हस्तांतरण नहीं होगा लेकिन दूसरी ओर यह विष भरा कनक घट ही साबित होगा क्योंकि यह उसी रिवर लिंकिंग परियोजना में एक पेबंद है जो लोगों को जड़ों से उखाड़ने पर आमादा है।

चिंताजनक बात यह है कि नए संशोधित मसौदे ने पेयजल को मानवाधिकार के रूप में मंजूरी नहीं दी है। 2012 से पूर्व के मसौदों में साफ तौर पर कहा गया था कि साफ, सुरक्षित पेयजल और सेनिटेशन को अन्य मानवाधिकारों की तरह जीवन के अधिकार के रूप में समझा जाना चाहिये। जबकि नए संशोधित मसौदे से तो ये शब्द ही नदारद हैं। इस सच को जाने बिना कि बड़े बांध ही हमारी नदियों के मरने या मरणासन्न होने के जिम्मेदार हैं, बड़े-बड़े बांधों की पुरजोर वकालत की गई है। लोगों को पानी, बिजली मुहैया कराने के नाम पर बहुउद्देश्यीय बांध परियोजनाओं की आड़ में धंधाखोरी और पर्यावरण की विनाशलीला का जो खेल खेला जाता है वो जग-जाहिर है। छोटी परियोजना की बजाए बड़ी परियोजनाओं की वकालत क्यों होती है, इसे कौन नहीं जानता।

सरकार ने राष्ट्रीय जलनीति के इस संशोधित स्वरूप को ही अंतिम मान लिया है। इस पर अब जनता की राय नहीं ली जाएगी। इसके क्रियान्वयन के लिये अब मात्र दो महकमों की मंजूरी चाहिये अतएव जनता की राय अब कोई मायने नहीं रखती। राष्ट्रीय जल बोर्ड के अनुमोदन के बाद ‘वाटर रिसोर्स काउंसिल‘की मोहर लगते ही सब दस्तावेज पक्के हो जाएंगे। यानी अब इस पूरे खेल को समझने के लिये न तो हमें अपने दिमागों पर जोर देने की जरूरत है न ही किसी को सुझाव देने की। फिर भले ही इसमें कई ऐसी खामियां हों जो आम आदमी से पानी तक पीने का अधिकार छीनकर कंपनियों को दे दे या हो सकता है बांध परियोजनाओं, नदी-जोड़ जैसी नीतियों के चलते पानी का संकट बढ़ता गहराता जाए।

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