राजस्थान : सूखती धरती

जल प्रकृति प्रदत्त अमूल्य संसाधन है क्योंकि यह मानव एवं वनस्पति का आधार एवं ऊर्जा का कभी न समाप्त होने वाला स्रोत है। राजस्थान जैसे शुष्क एवं अर्द्धशुष्क दशाओं वाले राज्य में जल का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। राजस्थान में देश का 1 प्रतिशत पानी है जबकि जनसंख्या करीब पाँच प्रतिशत है।जल प्रकृति प्रदत्त अमूल्य संसाधन है क्योंकि यह मानव एवं वनस्पति का आधार एवं ऊर्जा का कभी न समाप्त होने वाला स्रोत है। राजस्थान जैसे शुष्क एवं अर्द्धशुष्क दशाओं वाले राज्य में जल का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। राजस्थान में देश का 1 प्रतिशत पानी है जबकि जनसंख्या करीब पाँच प्रतिशत है। राज्य में सतही एवं भूमिगत जलस्रोतों का समान रूप से महत्त्व है। सतही जल का स्रोत राज्य में होने वाली वर्षा है। राज्य की औसत वर्षा लगभग 57.51 से.मी. तक है जिसका वितरण 10 से.मी. से 100 से.मी. तक है। सतही जल का अधिकांश भाग नदियों के रूप में प्रवाहित होता है। राजस्थान में चम्बल ही एकमात्र ऐसी नदी है जो मौसमी नहीं है, उसके अलावा सभी नदियों (कान्तली, दोहन, साहिबी एवं सोता, मेन्धा एवं रूपनगढ़, बार, लूनी, बनास, बाणगंगा एवं गम्भीर, सुकैल, बनास (पश्चिमी), साबरमती (वाकल), माही में वर्षा काल के पश्चात कुछ समय तक जल प्रवाहित होता है और बाद में नदी सूख जाती है। राजस्थान की अवस्थिति कुछ इस प्रकार की है कि देश में होने वाली वर्षा के सम्पूर्ण जल का केवल 1 प्रतिशत जल ही इसे प्राप्त पाता है। जबकि इसका क्षेत्रफल देश के क्षेत्रफल का 10.40 प्रतिशत है। फलतः राज्य में सतही जल संसाधनों की कमी है।

राज्य में भूमिगत जलस्रोतों का अधिक उपयोग होता है। पिछले 15 साल में अत्यधिक दोहन से राजस्थान का भूजल समाप्त-सा हो गया है। कम बरसात और सतही पानी के अभाव में 237 में से 232 ब्लॉकों में जमीन में पानी इतना नीचे चला गया है कि पीने लायक ही नहीं रहा है। 2006 में राजस्थान सरकार द्वारा कराए गए आकलन के अनुसार दस हजार गाँवों एवं राज्य की राजधाना समेत 72 शहरों व कस्बों में टैंकरों से पेयजल पहुँचाना पड़ेगा। अनावृष्टि के कारण राजस्थान को अकाल की विभीषिका का सामना बार-बार करना पड़ता है। विभिन्न वर्षों में अकाल से प्रभावित होने वाले जिलों की संख्या एक-सी नहीं है, फिर भी दक्षिणी राजस्थान अक्सर अकाल की चपेट में आ जाता है।

राष्ट्रीय कृषि आयोग ने राजस्थान के ग्यारह जिलों- जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर, श्रीगंगानगर, नागौर, चुरू, पाली, जालौर, सीकर व झुनझुनू को मरुस्थलीय जिले माना है। इनमें राज्य के क्षेत्रफल का 61 प्रतिशत तथा जनसंख्या का 40 प्रतिशत भाग शामिल है। राज्य के कुल व्यर्थ भूमि का लगभग 2/3 अंश इन्हीं ग्यारह जिलों में पाया जाता है। आयोग द्वारा बाद में हनुमानगढ़ को मरुस्थलीय जिलों में शामिल कर लिया गया। राजस्थान में प्रतिवर्ष किसी न किसी जगह अकाल व अभाव की स्थिति अवश्य पाई जाती है। यही नहीं बल्कि 1968-69 से 1999-2000 तक के कुल 32 वर्षों में से 12 वर्षों में राज्य में अकाल व अभाव की दशाएँ 26 व अधिक जिलों में पाई गई थीं।

राजस्थान में अकाल के कई कारण हैं परन्तु जो सबसे महत्त्वपूर्ण कारण दृष्टिगोचर होता है वह है प्राकृतिक कारण। राजस्थान के मरुस्थलीय जिलों में सर्वत्र बालू के टीले पाए जाते हैं और धरती के नीचे व इसकी सतह पर जल का नितान्त अभाव होता है। इन क्षेत्रों में हवा से मिट्टी का कटाव निरन्तर होता रहता है जिससे रेगिस्तान सुनिश्चित गति से आगे बढ़ता जा रहा है। राज्य के मरु जिलों में सामान्यतया वर्षा 50 से.मी. से अधिक नहीं होती। पिछले 100 वर्षों में जैसलमेर जिले में 25 वर्ष ही बारिश हुई है। स्पष्ट है वर्षा का आवश्यकतानुसार न होना या बिल्कुल न होना अकाल की स्थिति को बार-बार उत्पन्न करता है।

अकाल का परोक्ष कारण निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या है। बढ़ती जनसंख्या से आर्थिक साधनों पर स्वाभाविक तौर पर दबाव बढ़ा है। सिंचाई के साधनों के अभाव के कारण उन्नत कृषि कर पाना सम्भव नहीं है। 1951 में कुल 154 लाख हेक्टेयर भूमि में से केवल 11.5 लाख हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र था जो कुल का लगभग 12 प्रतिशत भाग था। 1998-99 में कुल सिंचित क्षेत्र 72 लाख हेक्टेयर हो गया जो कि कुल कृषि योग्य क्षेत्र का लगभग 30 प्रतिशत भाग ही है।

राज्य सरकार द्वारा अकाल से निपटने के लिए स्थाई उपायों का प्रभावशाली ढंग से निर्वाहन न कर पाना भी अकाल का एक प्रमुख कारण है। विभिन्न योजनाओं की अवधि में सरकार ने स्थायी व उत्पादक राहत कार्यों की बजाय अस्थायी राहत कार्यों पर ध्यान केन्द्रित किया जिससे उत्पादक सामुदायिक परिसम्पत्तियों का जिस तेजी से निर्माण होना चाहिए था वह नहीं हो पाया है।

राज्य के मरु जिलों में सामान्यतया वर्षा 50 से.मी. से अधिक नहीं होती। पिछले 100 वर्षों में जैसलमेर जिले में 25 वर्ष ही बारिश हुई है। स्पष्ट है वर्षा का आवश्यकतानुसार न होना या बिल्कुल न होना अकाल की स्थिति को बार-बार उत्पन्न करता है।स्वतन्त्रता के पश्चात सन 1985-86 में राजस्थान को अकाल की भीषण मार का सामना करना पड़ा, जिसने 27 जिलों में से 26 जिलों को प्रभावित किया था। इससे राज्य के 26,859 गाँवों की 2 करोड़, 20 लाख जनसंख्या व 3 करोड़ से अधिक पशु प्रभावित हुए थे। 1986-87 के भीषण अकाल का दुष्प्रभाव 31,936 गाँवों, 2.53 करोड़ लोगों व 3.27 करोड़ पशुओं पर पड़ा था। 1987-88 में 27 जिलों को अकालग्रस्त घोषित किया गया जिनमें से 3.17 करोड़ जनसंख्या अकाल की चपेट में आ गई। जहाँ 1985-86 में अकाल राहत पर कुल व्यय 88.9 करोड़ रुपयों का हुआ था तथा भू-राजस्व की वसूली 5.6 करोड़ रुपयों तक की रोक दी गई थी। वहीं 1987-88 में अकाल राहत कार्य में 622 करोड़ रुपए व्यय हुए, जो वार्षिक योजना के सार्वजिनक परिव्यय की राशि से अधिक थे। वर्ष 1999-2000 का अकाल अधिक कष्टदायक था। राज्य के 32 जिलों में से 26 जिलों के लगभग 23,406 गाँवों में लगभग 2.6 करोड़ लोग व लगभग 3.5 करोड़ पशु बुरी तरह प्रभावित हुए थे। 2000-2001 की अवधि में 31 जिलों की 3.30 करोड़ आबादी व 30,583 गाँव प्रभावित हुए थे। 2003-2004 में अकाल से 3 जिले प्रभावित हुए थे।

अकाल की स्थिति से निबटने के लिए राज्य सरकार द्वारा समय-समय पर उपाय किए गए। 1995-96 में प्रारम्भ किए गए राहत कार्य जुलाई 1996 तक जारी रखे गए। 1996-97 में रोजगार, पेयजल व चारे की व्यवस्था के लिए सम्बद्ध विभागों को 10 करोड़ रुपए की राशि आवण्टित की गई। 1999-2000 के अकाल की स्थिति में राज्य सरकार ने केन्द्र से राहत सहायता के रूप में नवम्बर 1999 में 115 करोड़ रुपयों की माँग की थी, जिसमें से केन्द्र के द्वारा 103 करोड़ रुपए राष्ट्रीय आपदा सहायता कोष से 31 मार्च, 2000 को स्वीकृत किए गए थे। 2004-2005 में अकाल के कारण राज्य की 50 प्रतिशत खरीफ की फसल नष्ट हो गई। सरकार ने राहत कार्यों पर फरवरी 2005 तक लगभग 2.5 करोड़ मानव दिवसों के रोजगार का सृजन किया।

तालिका-1: 1990-91 के बाद के वर्षों में अकाल व अभाव की स्थिति

वर्ष

प्रभावित जिले

प्रभावित गाँवों की संख्या

प्रभावित जनसंख्या (लाख में)

भू-राजस्व की वसूली रोकी गई (लाख रु.)

1991-92

30

30041

289.0

325.9

1992-93

12

4376

34.7

29.1

1993-94

25

22586

246.8

491.4

1994-95

-

-

-

-

1995-96

29

25478

272.8

209.1

1996-97

21

5905

55.3

28.9

1997-98

24

4633

14.9

2.8

1998-99

20

20069

215.1

168.5

1999-2000

26

23406

261.8

228.0

2000-01

31

30583

330.4

310.5

2001-02

18

7964

69.7

45.8

2002-03

32

40990

447.8

429.9

2003-04

03

649

5.8

8.80

2004-05

25

18613

227.7

167.8

स्रोत : आर्थिक सर्वेक्षण, राजस्थान सरकार


दसवें वित्त आयोग ने 1995-2000 की अवधि में आपदा राहत कोष के तहत राजस्थान को 706.89 करोड़ रुपए प्रदान किए थे। राज्य के लिए कुल कोष 945.52 करोड़ रुपए का रखा गया जिसका 75 प्रतिशत केन्द्र द्वारा तथा 25 प्रतिशत राज्य सरकार द्वारा दिया गया। बारहवें वित्त आयोग ने आपदा राहत के अन्तर्गत 2005-2010 के लिए आपदा राहत कोष में कुल 16 हजार करोड़ रुपए की व्यवस्था की है जिसमें राजस्थान का हिस्सा 1,722.50 करोड़ रुपए रखा गया है जो कुल प्रस्तावित आपदा राहत का 10.8 प्रतिशत है।

सूखा सम्भाव्य क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम


सन 1974-75 में सूखा सम्भाव्य क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया था। प्रारम्भ में यह कार्यक्रम पश्चिमी राजस्थान के 8 जिलों तथा बांसवाड़ा व डूंगरपुर क्षेत्र में लागू किया था। बाद में इस कार्यक्रम को 13 जिलों के 79 खण्डों तक विस्तारित कर दिया गया। 1982-83 में 61 खण्डों में इस कार्यक्रम को केन्द्रीय सरकार के एक दल की सिफारिश पर समाप्त कर दिया गया था। सातवीं योजना में 8 जिलों के कुल 30 विकास खण्डों में यह (डीपीएपी) कार्यक्रम संचालित किया गया और इस पर 23.78 करोड़ रुपए व्यय किए गए। 2004-05 में डीपीएपी के अन्तर्गत 11.66 करोड़ रुपए प्राप्त किए गए, जिसके तहत 20.53 करोड़ रुपए का व्यय दिसम्बर 2004 तक किया गया। वर्तमान में डीपीएपी कार्यक्रम 11 जिलों में क्रियान्वित किया जा रहा है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य भू-संरक्षण, सिंचाई, वृक्षारोपण एवं चरागाह का विकास करना है।

मरुस्थलीय विकास कार्यक्रम


1977-78 में मरु विकास कार्यक्रम केन्द्र सरकार की शत-प्रतिशत सहायता से आरम्भ किया गया था। यह कार्यक्रम 16 मरुस्थलीय जिलों के 85 विकास खण्डों में क्रियान्वित किया जा रहा है। इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन हेतु सातवीं योजना में 17 करोड़ रुपए का प्रावधान था। 2004-05 में इस कार्यक्रम के लिए लगभग 63.43 करोड़ रुपए प्राप्त हुए जबकि व्यय की राशि दिसम्बर 2004 के अन्त तक 7.17 करोड़ रुपए रही।

केन्द्र सरकार द्वारा 'स्वजलधारा' नामक एक अन्य योजना आरम्भ की गई जिसका उद्देश्य सूखा प्रभावित क्षेत्रों में सीमान्त कृषकों को सिंचाई के विकास हेतु नाममात्र के किरायेपट्टे पर पम्पसेट प्रदान करना है।

राष्ट्रीय पेयजल मिशन कार्यक्रम के अन्तर्गत त्वरित जलप्रदाय योजनाओं से बाड़मेर, नागौर एवं चुरू में जलापूर्ति के प्रयास किए जा रहे हैं। राजस्थान सरकार द्वारा पेयजल आपूर्ति योजना कार्यक्रम को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है।

अनेक गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा भी अकाल की समस्या से निबटने हेतु प्रयास किए जा रहे हैं। यूरोपीयन कमीशन ह्यूमेनिटेरियन ऑर्गेनाइजेशन (ईसीएचओ) एवं एचसीएफ (सेव द चाइल्ड) द्वारा प्रदत्त वित्तीय सहायता से बाडमेर जिले में अकाल के कारणों एवं प्रभावों को कम करने के उपाय किए जा रहे हैं। ईसीएचओ द्वारा प्रदत्त वित्तीय सहायता के कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य जल संसाधनों की उपलब्धता एवं स्वच्छता, नवीन रोजगारों का सृजन साथ ही पशुओं की देखभाल विशेषकर टीकाकरण अभियान द्वारा विभिन्न बीमारियों से सुरक्षा एवं चारे की उपलब्धता है।

अकाल से निपटने के लिए राजस्थान में गैर-सरकारी संस्थाएँ एवं स्वैच्छिक संस्थाएँ अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। जयपुर जिले में ही गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा लगभग 2 करोड़ रुपए की राशि अकाल सहायता में लगाई जा रही है।

राजस्थान को अकाल के प्रकोप से बचाने हेतु दीर्घकालीन नीति की आवश्यकता है और इस दृष्टि से सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि राज्य में कृषिगत उत्पादन की अस्थिरता को कम किया जाए और सिंचाई के विस्तार पर जोर दिया जाए। माँग और उपलब्धता के पैमाने की नये सिरे से व्याख्या करनी चाहिए। इन्दिरा गाँधी नहर परियोजना सिंचाई के विस्तार की दिशा में सहायता अवश्य प्रदान कर रही है परन्तु उतनी नहीं जितनी कि आवश्यकता है। इसलिए आवश्यकता है कि इस परियोजना के कमाण्ड क्षेत्र विकास कार्यक्रम को व्यवस्थित तरह से लागू किया जाए। प्रशासन की सुदृढ़ता वांछनीय है।

लूनी मरु प्रदेश की मुख्य नदी है। लूनी जलग्रहण क्षेत्र के विकास हेतु अलग से एक योजना की आवश्यकता है। मरुक्षेत्र के विस्तार पर रोक लगाने हेतु प्रयास किए जाने चाहिए और इस दिशा में राजस्थान के कल्पतरु के नाम से प्रसिद्ध वृक्ष खेजड़े के वृक्षारोपण द्वारा मरुक्षेत्र को कम किया जा सकता है। साथ ही पेड़ों एवं चरागाहों का विकास भी किया जा सकता है।

वर्तमान में राज्य की ग्रामीण जनसंख्या पूर्णरूप से कृषि पर निर्भर है परन्तु यहाँ की जलवायु एवं प्रकृति इसके अनुकूल नहीं है। राजस्थान के लोगों की विपरीत परिस्थितियों में भी स्थिति सुदृढ़ रहे इसके लिए आवश्यक है कि वे कृषि पर पूर्णरूप से निर्भरता न रहें। बल्कि जीविकोपार्जन के नये साधनों को खोजें। लघु पैमाने पर हथकरघा, दस्तकारी जैसे उद्योग इस दिशा में सहायक हो सकते हैं। जिस सीमा तक ग्रामीण क्षेत्रों में गैरकृषि कार्यकलापों का विस्तार होगा, उस सीमा तक लोगों की अकाल व सूखे की दशाओं का सामना करने की आर्थिक एवं वित्तीय क्षमता बढ़ेगी।

जल संग्रहण, जल संरक्षण एवं जल प्रबन्धन से ही अकालों से संघर्ष करने में मदद मिल सकती है। जनसंख्या वृद्धि के अलावा विकास और शहरीकरण से जल संसाधनों के प्रबन्धन की पारम्परिक व्यवस्थाएँ छिन्न-भिन्न हो गईं हैं। बारिश के पानी के संचय के जरिये भूमिगत जल का स्तर बराबर करने की कोशिश की जाए। कुँई या बेरी राजस्थान में जल संरक्षण की पुरातन व्यवस्थाएँ हैं। राजस्थान में वर्षा जल को संग्रहीत करने की परम्परागत विधि 'कुण्डी' है। राजस्थान की इन पारम्परिक जल संग्रहण एवं संरक्षण व्यवस्था को बड़े स्तर पर अपनाए जाने की आवश्यकता है।

यह कटु सत्य है कि हम प्रकृति पर विजय नहीं पा सकते परन्तु उसके द्वारा दी गई आपदाओं से निकलने का रास्ता अवश्य निकाल सकते हैं और इसलिए आवश्यकता है अधिक सचेष्ट एवं सजग रहने की।

(लेखिका दयानन्द महाविद्यालय, अजमेर के समाजशास्त्र विभाग में प्रवक्ता हैं)

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