राजसमन्द का पानी?


अब से लगभग 25 साल पहले तक भीषणतम अकाल में भी सघन वनों से आच्छादित और पानी से लबालब रहने वाला उदयपुर के समीप स्थित राजसमन्द क्षेत्र पिछले आठ साल से पानी के लिए त्राहि-त्राहि कर रहा है। इस बार राज्य में औसत से अधिक वर्षा के बावजूद यह जिला इस समय राज्य का सर्वाधिक पेयजल संकट वाला जिला है।

इसके सघन वनों का अस्तित्व मिट चुका है और हरियाली के स्थान पर जगह-जगह चट्टानी रेगिस्तान के टीले बन गए हैं। पानी की जगह मार्बल की सफेद स्लरी आपको दूर से बर्फीले प्रदेश का अहसास कराती नजर आएगी, लेकिन पास जाने पर सफेद कीचड़ के अलावा कुछ दिखाई नहीं देगा आपको। जी हां, यही हकीकत है राजसमन्द की, जो पारिस्थितिकी की दृष्टि से पश्चिमी भारत का सबसे संवेदनशील इलाका है।

मार्बल खनन में पूरे देश में अग्रणी भूमिका निभाने वाला राजसमन्द इस समय महाविनाश के कगार पर है। जिस तेजी से और जिस बेरहमी से मार्बल उद्योग ने यहां का पानी खींचा और जल-स्रोतों को बर्बाद किया है, वह अपने आप में एक मिसाल है और आज जो यहां पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई है, उसके लिए सीधे जिम्मेदार है। राजसमन्द की सांसें टिकी हुई हैं तो वह सिर्फ कुम्भलगढ़ की बदौलत, अन्यथा वह अब तक महाविनाश के गर्त में चला ही जाता।

लेकिन, अब समुद्रतल से 3,684 फीट की ऊंचाई पर स्थित ऐतिहासिक कुम्भलगढ़ के किले पर भी हर रोज सुनाई दे रही विस्फोटक धमाकों की आवाजों से लग रहा है कि यह किला कभी भी खनन की भेंट चढ़ सकता है। और, जिस दिन ऐसा हो गया वह इतिहास का सबसे काला दिन होगा, क्योंकि इसके बाद न केवल राजस्थान बल्कि दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और गुजरात में भारी तबाही तथा रेगिस्तान को फैलने से कोई नहीं रोक सकता।

कोई भी व्यक्ति जो इस तथ्य से रूबरू होना चाहता है, उसे आज राजसमन्द और केलवा से कुम्भलगढ़ के बीच हो रहे अनियंत्रित एवं अवैज्ञानिक मार्बल खनन को देख लेना चाहिए। रेगिस्तान को आगे बढ़ने से रोकने वाली अरावली पर्वत श्रृंखला की सबसे ज्यादा संवेदनशील, सबसे पहली और सबसे मोटी इस हरी-भरी जीवंत दीवार को जिस बेरहमी से, जिस विभत्स तरीके से मिटाया जा रहा है, वह अत्यंत शर्मनाक है। इस सारे इलाके में पहाड़ों को काट कर उन्हें चट्टानी रेगिस्तान में तब्दील किया जा रहा है। और कानून, सरकार, पर्यावरणविद सभी मूक दर्शक बने बैठे हैं, जबकि खनन और अकाल के रिश्ते को यहां बहुत अच्छी तरह देखा व समझा जा सकता है।

 

 

1. 20 जनवरी, 1676 को महाराणा राजसिंह द्वारा निर्मित करवाई गई चार मील लम्बी, डेढ़ मील चौड़ी और 55 फीट गहरी राजसमन्द झील जो अपने निर्माण के बाद से कभी नहीं सूखी थी, उचित रखरखाव न होने और सरकार की विनाशकारी नीतियों के चलते आठ वर्ष पूर्व पूरी तरह सूख कर तड़क गई। राजसमन्द झील का पूरा जलग्रहण क्षेत्र बर्बाद कर दिया गया है और यहां तक कि झील के पेटे तक में मार्बल प्रोसेसिंग इकाईयां स्थापित हो गई हैं, जिन्होंने झील से पानी खींचने में और झील में मलबा डालने में कोई कमी नहीं छोड़ी है।

 

 

2. राजसमंद झील अपने निर्माण के बाद भयंकर से भयंकर अकाल में भी नहीं सूखी थी, 1899 के अकाल में भी नहीं, जब मेवाड़ की आधी आबादी काल-कवलित हो गई थी। यह झील आखिर पिछले आठ साल से क्यों सूखी पड़ी है?

3. झील के जलग्रहण क्षेत्र में पड़ने वाले आगरिया और कोटड़ी के तालाब जिनसे 350 वर्षों से पूरे गांव की सिंचाई होती थी, लोग तीन-तीन फसलें लेते थे और पूरे गांव की भूख-प्यास बुझती थी, आज मार्बल खनन की भेंट चढ़ चुके हैं। यहां तालाबों में ही खनन हो रहा है। तालाबों में खनन की लीज कैसे मिली?

4. सिंचाई, जलदाय, वन एवं पर्यावरण और प्रदूषण से संबंधित विभागों ने ऐसे मामलों में किसी प्रकार की कोई कार्रवाई क्यों नहीं की?

5. खनन व पेड़ कटने से हुए मिट्टी के कटाव के कारण गाद भरने से 1978-79 में बने ढेलाणा, घाटा आदि के चेकडैम सहित जिले के 28 से ज्यादा चेकडैम नष्ट हो गए हैं।

6. यहां बहने वाली बनास नदी में मलबा फेंकने और उस पर अतिक्रमण से भी लोग चूके नहीं है। बनास नदी जो वर्ष में कम से कम 11 महीने बहती थी, अब 11 महीने सूखी पड़ी रहती है।

7. जिले में 15 हजार से ज्यादा टयूबवेल और हैण्डपम्प हैं, इनमें से 80 फीसदी सूख गए हैं। यहां की मार्बल खदानों और प्रोसेसिंग युनिट्स में एक हजार से ज्यादा बोरिंग (टयूबवेल) हैं, जो जमीन में बहुत नीचे से पानी खींच रहे हैं।

8. कुछ लोग दलील देते हैं कि झील के जलग्रहण क्षेत्र में 100 से ज्यादा चेकडैम बन गए, इसलिए झील में पानी नहीं आ रहा। यह भ्रामक है और मार्बल माफिया अपने बचाव में यह तर्क देता है, जबकि वास्तविकता यह है कि इन चेकडैम में से 85 फीसदी में गाद भर चुकी है और वहां पानी का ठहराव ही नहीं होता।

9. जिले के सैकड़ों कुंए मार्बल उद्योग के कारण सूख गए हैं।

10. पांच वर्ष पूर्व जब राजसमंद में स्व. निर्मल वाधवानी जिला कलेक्टर थे, उन्होंने हमारी अपील पर झील के जलग्रहण क्षेत्र में पड़ने वाले नदी-नालों की सफाई का सघन अभियान चलाया था और मार्बल कम्पनियों को कई-कई नोटिस दिए गए थे। तब गायत्री शक्ति-पीठ ने भी इस अभियान में बहुत सहयोग किया था, लेकिन बाद में सब कुछ ठप्प हो गया।

11. पिछले 10 वर्षों में यहां का भूमिगत जल 44 मीटर से अधिक नीचे चला गया है। इस समय कई जगह 800 फीट नीचे भी पानी नहीं है।

12. जिले में लगभग 600 वायरसॉ और 200 प्रोसेसिंग युनिट्स हैं, जिनमें प्रति दिन कम से कम 42 लाख लीटर पानी की खपत होती है। जलदाय विभाग शहरी लोगों के लिए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 135 लीटर पानी की जरूरत मानता है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह जरूरत और भी कम है। शहरी जरूरत के हिसाब से देखें तो 31,111 लोगों की जरूरत का पानी केवल मार्बल उद्योग पी जाता है और सामान्य हिसाब से देखें तो रोज जितने पानी से 40 हजार लोगों की जरूरत को पूरा किया जा सकता है, उतना पानी अकेले मार्बल उद्योग में खप जाता है। राजनगर-कांकरोली की कुल आबादी भी लगभग 40,000 ही है।

13. जिले की अधिकांश कृषि एवं चारागाह भूमि खनन में चली गई है या खनन के कारण नष्ट हो गई है, किसी-किसी गांव में तो यह 80 से 90 प्रतिशत तक नष्ट हुई है।

 

क्यों नहीं प्रतिबंध लगाते इन पर?

सरकार, प्रशासन या खान विभाग क्यों नहीं बंद करते उन खदानों को जहां किसी कानून का पालन नहीं होता? जिन खान मालिकों ने लीज स्वीकृति के बाद से आज तक हमेशा कानून का उपहास किया, क्यों नहीं उन्हें कोई सजा मिली?

1. राजसमन्द झील के जलग्रहण क्षेत्र में सैकड़ों खदानें गैर कानूनी ढंग से चल रही हैं। बिनोल, सरदारगढ़, आगरिया, कोटड़ी, बाण्डा, सियाणा, गुगली, केलवा, झांझर, घाटा, थोरिया, बड़गुल्ला, पिपलांत्री, धोली खान आदि में चल रही सैकड़ों खदानों में से कितनी खदानों पर कानून के मुताबिक नोटिस बोर्ड लगे हुए हैं? कितनी खदानों पर खान मालिकों का नाम और लीज नम्बर लिखा हुआ है? क्या एक भी खदान पर है?

2. कितनी खदानों पर कामगारों की संख्या प्रदर्शित की हुई है, उन्हें हाजिरी कार्ड दिए गए हैं, पर्याप्त सुरक्षा उपकरण दिए हुए हैं? क्या एक भी खदान पर यह सब है?

3. कितनी खदानों पर दुर्घटना की स्थिति में प्राथमिक उपचार के लिए पर्याप्त साधन या फर्स्टएड बाक्स हैं? क्या एक भी खदान पर हैं?

4. क्या एक भी खदान ऐसी है, जिसमें मजदूरों का नियमित स्वास्थ्य परीक्षण खान मालिक ने करवाया हो?

5. पिछले 10 वर्षों में लगभग 580 से ज्यादा खान दुर्घटनाएं इस क्षेत्र में हुई हैं, जिनमें 260 से ज्यादा श्रमिक मरे हैं और 480 से ज्यादा घायल हुए हैं। मरने वालों और घायलों में बाल श्रमिक भी हैं। क्या आज तक एक को भी पूरा मुआवजा दिया गया? क्या आज तक एक भी खान मालिक को सजा हुई है? जब भी विनाशक खनन गतिविधियों पर रोक लगाने की बात आती है तो खान मालिक मजदूरों की रोजी-रोटी की दुहाई देते हैं, जैसे कि वे खदानें सिर्फ मजदूरों को रोजगार देने के लिए ही चला रहे हों, किन्तु मजदूरों के प्रति वे कितने संवेदनशील हैं, यह उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है।

6. बाण्डा, सियाणा, गुगली, झांझर, मोरवड़, पिपलांत्री और धोली खान क्षेत्र से खान मालिकों के आतंक के कारण कितने गरीब परिवार अपनी जमीनों से बेदखल हुए हैं, क्या इसका कोई हिसाब है? ये विस्थापित लोग आज कहां और किस हाल में हैं?

7. राजसमन्द झील में पानी की आवक के मुख्य स्रोत गोमती नदी और कई नाले हैं, क्या इनमें से एक भी स्रोत ऐसा है, जिसे खान मालिक या मार्बल कटिंग पालिशिंग इकाई ने विकृत न किया हो?

8. मार्बल खनन के कारण इस इलाके में अब तक कितनी वन, चारागाह और कृषि भूमि नष्ट हुई है, क्या इसका कोई हिसाब है? इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे और व्यापक परिप्रेक्ष्य में लाभ-हानि की दृष्टि से क्या यह सौदा ठीक है, न्यायोचित है?

9. एक ओर रेगिस्तान वेफ विस्तार को रोकने की योजनाएं है, उसे हरा-भरा बनाने की योजनाएं है, इसवेफ लिए ‘कजरी’ (CAZRI) (Central Arid Zone Research Institute, Jodhpur) जैसी करोड़ों रुपए प्रति वर्ष के बजट वाली सरकारी संस्थाएं काम कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर-

(1) अरावली के संवेदनशील इलाकों को नष्ट कर रेगिस्तान के लिए द्वार खोले जा रहे हैं।

(2) अरावली वन विकास के लिए जापान के समुद्र पारीय आर्थिक सहयोग कोष (O.E.C.F.) से 680 करोड़ रूपए लिए गए हैं, परती भूमि विकास, सामाजिक वानिकी आदि कई सौ करोड़ की योजनाओं का क्या औचित्य है जब वन भूमि में ही धड़ल्ले से खनन कर वनों को नष्ट किया जा रहा है।

1. कतिपय तथाकथित पर्यावरणविद् और समाजसेवी होने का लेबल लगाकर घूमने वाले लोग जल, जंगल और जमीन के संरक्षण व इनसे संबंधित विकास योजनाओं की बात तो करते हैं, किन्तु जल, जंगल और जमीन के विनाश को रोकने की बात जब आती है तो इन्हें सांप सूंघ जाता है। आखिर यह दोहरा चरित्र कब तक चलेगा? क्या राजसमन्द में मार्बल खनन को रोके बिना अकाल का समाधान हो सकता है? वहां अनियंत्रित खनन को रोके बिना क्या कभी झील को भरा जा सकता है?

2. जल संरक्षण के लिए हम नए-नए चेकडैम और तालाब आदि बनाने की बात करते हैं, जरूर करें, किन्तु पुरखों ने जो हमें बनाकर दिया था, उनके संरक्षण की व्यवस्था तो कर लें।

ऐसे कई सवाल हैं, ये सभी सवाल आज प्रासंगिक हैं, क्योंकि:

1. सवाल कई गांवों और कांकरोली, राजनगर, सहित पवित्र धाम व पवित्र सरोवर की रक्षा का है।

2. सवाल इस पूरे अंचल को उजड़ने से रोकने का है।

3. सवाल यहां के लाखों वासिन्दों का है, जो यहां पीढ़ियों से रह रहे हैं, लेकिन उनकी अगली पीढ़ी कैसे यहां जीवन-बसर करेगी, यह संकट पैदा हो गया है।

4. सवाल रेगिस्तान के फैलाव और राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश तथा गुजरात के पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव व उससे संभावित विनाश का है। हालांकि हम महाविनाश के अंतिम छोर पर खड़े हैं और बहुत कुछ बर्बाद हो चुका है, फिर भी यदि विनाशक प्रक्रिया को सख्ती से रोका जाए तो बहुत कुछ बचाया जा सकता है। कुछ उपाय जो किए जा सकते हैं, वे इस प्रकार हैं:

1. पारिस्थितिकी दृष्टि से अति संवेदनशील इलाके में खनन गतिविधियां बिल्कुल बंद हों।

2. कुम्भलगढ़ किले के 25 किलोमीटर (Radial Distance) परिधि क्षेत्र में किसी भी प्रकार की खनन एवं औद्योगिक गतिविधियों पर तत्काल रोक लगाई जाए।

3. राजसमन्द झील के जलग्रहण क्षेत्र में खनन-गतिविधियों पर तुरंत रोक लगाई जाए और पानी के बहाव क्षेत्र में आ रही रुकावटों को दूर किया जाए। इन रुकावटों को पैदा करने वालों से और इसके लिए जिम्मेदार लोगों से इसका जुर्माना वसूला जाए। पानी की कमी वाले शहरों में सरकार निर्माण कार्यों पर रोक लगा देती है, टयूबवेल खोदने पर रोक लगाती है तो राजसमन्द जैसी गंभीर स्थिति में मार्बल खनन-प्रसंस्करण पर क्यों नहीं तत्काल रोक लगाती।

4. कमोबेश राजसमन्द जैसी परिस्थितियां प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल केसरियाजी (ऋषभदेव) में भी ग्रीन मार्बल के खनन से पैदा हो गई हैं, जिन पर तत्काल नियंत्रण किया जाना चाहिए।

(उपरोक्त आलेख भारतीय पक्ष के मार्च 2006 के अंक में प्रकाशित)

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