राजनैतिक तटबन्धों पर लगी स्वीकृति की मुहर

मजूमदार समिति के पास भी केन्द्रीय जल एवं विद्युत आयोग द्वारा तैयार की गई बराहक्षेत्र परियोजना पर टिप्पणी करने के लिए कुछ खास था नहीं क्योंकि यह प्रारूप उन लोगों ने तैयार किया था जो कि बांध निर्माण के क्षेत्र में अपने समय की दुनियाँ की सबसे बड़ी हस्ती माने जाते थे। इसके बावजूद अगर सरकार किसी समिति का गठन करके उससे राय मांगती है तो उसके उद्देश्य साफ थे कि सरकार न तो बराहक्षेत्र बांध बनाना चाहती थी और न ही उसकी यह आर्थिक सामर्थ्य में था कि वह बांध बना सके।

कोसी को तटबन्धों के बीच कैद करने का फैसला न सिर्फ राजनैतिक था बल्कि वह गैर-तकनीकी बुनियाद पर भावनाओं में बह कर लिया गया फैसला था। 1850 के दशक से दामोदर नदी पर बनाये गये तटबन्धों की बखिया उधड़ने के बाद और पिछले 100 वर्षों में बाढ़ नियंत्रण पर चली सारी बहस को ठेंगा दिखाते हुये यह फैसला लिया गया था। बाढ़ पीड़ितों से, जिन्हें बार-बार कहा गया था कि तटबंध बुरी चीज है और उन्हें जहाँ तक मुमकिन हो सके उससे परहेज करना चाहिये, अब उनसे उम्मीद की जा रही थी कि वह तटबन्धों पर अक्षत-सुपाड़ी छिड़कें। सबसे ज्यादा परेशान तो उस समय कोसी तटबन्धों के बीच पड़ने वाले 304 गाँवों के बाशिन्दे थे और जाहिर है कि वह तटबन्धों का विरोध करते। सरकार का रुख थोड़ा नर्म था और इस बात की कोशिशें जारी थीं कि लोगों के दिलो-दिमाग से हर तरह के डर निकल जायें और वह बिना किसी झंझट-झमेले के तटबन्धों को स्वीकार कर लें।

तत्कालीन योजना मंत्री गुलजारी लाल नन्दा को लोकसभा में 3 मई 1954 को यह बयान देना पड़ा कि यह परियोजना एक दम चुस्त-दुरुस्त है। यह बात उन्होंने वांगू हू चेंग, चीफ इंजीनियर-जल संरक्षण मंत्रालय, चीन तथा दो अमेरिकी विशेषज्ञों मैडॅाक और और टॉरपेन के हवाले से कही थी। उन्होंने यह भी कहा कि यह परियोजना एक गहन खोज-बीन, शोध और 1946 से 1953 के बीच हासिल किये गये तजुर्बों की बुनियाद पर तैयार की गई है और इसमें सारे पहलुओं को अच्छी तरह से जांच-परख लिया गया है।

सच यह था कि 1946 से लेकर 1951 तक, जब तक कि मजूमदार समिति का गठन नहीं हुआ था, जो कुछ भी खोज-बीन, शोध या तजुर्बा इकट्ठा किया गया था वह सब बराहक्षेत्र बांध के सिलसिले में किया गया था, तटबन्धों के लिए नहीं। मजूमदार समिति के गठन की जरूरत ही इसलिए पड़ी थी कि सरकार के पास बराहक्षेत्र बाँध के निर्माण के लिए आवश्यक धन (1952 की लागत पर 177 करोड़ रुपये) नहीं था और वह किसी सस्ते समाधान की तलाश में थी और मजूमदार समिति ने उसका यही प्रिय काम किया। टी.पी. सिंह लिखते हैं कि, “...परियोजना की बहुत बड़ी लागत और उसको पूरा करने में लगने वाले उतने ही समय को ध्यान में रखते हुये योजना को स्थगित करना पड़ा।”

मजूमदार समिति के पास भी केन्द्रीय जल एवं विद्युत आयोग द्वारा तैयार की गई बराहक्षेत्र परियोजना पर टिप्पणी करने के लिए कुछ खास था नहीं क्योंकि यह प्रारूप उन लोगों ने तैयार किया था जो कि बांध निर्माण के क्षेत्र में अपने समय की दुनियाँ की सबसे बड़ी हस्ती माने जाते थे। इसके बावजूद अगर सरकार किसी समिति का गठन करके उससे राय मांगती है तो उसके उद्देश्य साफ थे कि सरकार न तो बराहक्षेत्र बांध बनाना चाहती थी और न ही उसकी यह आर्थिक सामर्थ्य में था कि वह बांध बना सके। मजूमदार समिति के लिए जो विचार बिन्दु सुझाये गये थे उन से साफ जाहिर था कि सरकार की दिलचस्पी बराहक्षेत्र बांध में नहीं थी। मजूमदार समिति ने इस इशारे को बखूबी समझा और वह सब कुछ कह दिया जो सरकार खुद नहीं कहना चाहती थी। यह भी अजीब संयोग है कि मजूमदार समिति ने कोसी के पश्चिमी किनारे पर तटबन्धों की सिफारिश की थी क्योंकि समिति के अध्यक्ष एस.सी. मजूमदार खुद कभी तटबंध निर्माण से भावी ‘पीढ़ियों को बन्धक’ बनाये जाने के अंदेशे से दुबले हुये जाते थे। मगर समिति काफी समझदार थी और उसको इशारा काफी था।

उधर बेलका परियोजना भी कोई सस्ती या कम समय में पूरी कर ली जाने वाली योजना नहीं थी। कोसी परियोजना के तत्कालीन प्रशासक टी.पी. सिंह का मानना था कि, “...व्यय के अनुपात में अनुमानतः लाभ न होने के कारण बेलका में अवरोध बांध के निर्माण की दूसरी योजना भी कार्यरूप में परिणत नहीं की जा सकी। इसी बीच इस दिशा में कुछ निश्चित कदम उठाने के लिए जनता का दबाव बढ़ता गया। इस हद तक कि केन्द्रीय एवं राज्य सरकार ने केन्द्रीय जल एवं विद्युत आयोग से आग्रह किया कि वह देश के आर्थिक संसाधन को दृष्टि में रख कर शीघ्र कार्यरूप में परिणत करने के लिए कोई योजना तैयार कर दे।”

इसके अलावा कोसी पर तटबंध बनाने का फैसला पं. नेहरू की अक्टूबर 1953 की बिहार यात्रा के बाद लिया गया था और इस पर आधिकारिक स्वीकृति की मुहर दिसम्बर 1953 में लगी थी। यह फैसला कभी भी 1946 से 1953 के लम्बे शोध और अनुभव के आधार पर नहीं किया गया था। इस योजना को बनाने में ‘कितना दिमाग खर्च हुआ होगा’, यह अखौरी परमेश्वर प्रसाद की बात से ही पता लग जाता है।

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Post By: tridmin
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