ऐसा लगता है कि कुनौली और निर्मली के बीच तटबन्ध का अलाइनमेन्ट कोसी परियोजना के अधिकारियों ने ज्यादा किसी हील-हुज्जत के बिना ही बदल दिया क्योंकि इस क्षेत्र में अलाइनमेन्ट बदलवाने के लिये किसी संघर्ष की कहानी सुनने को नहीं मिलती। कुनौली के उत्तर में नेपाली क्षेत्र में जरूर तटबन्ध का अलाइनमेन्ट बेतरह बदला गया था और यह परिवर्तन उस समय एक बहस का मुद्दा बना था जब 1963 में डलवा में कोसी का पश्चिमी तटबन्ध टूट गया था। मगर असली झमेला तब शुरू हुआ जब तटबन्ध का निर्माण निर्मली के दक्षिण में शुरू हुआ। यह प्रसंग रोचक है और अध्ययन करने लायक है।
पूर्वी तटबन्ध पर भी जो कुछ परिवर्तन हुआ वह भी खास कर सुपौल के दक्षिण में हुआ। वहाँ संघर्ष भी उतना ही हुआ। बनगाँव और महिषी, दोनों ही गाँव पूर्वी तटबन्ध और कोसी के बीच पड़ने वाले थे। प्रभावशाली लोगों के गाँव होने के कारण यह दोनों गाँव तटबन्ध के बाहर आ गये। 1962-1977 के बीच सांसद तथा कई बार विधायक रहे तुल मोहन राम (76) का कहना है कि, ‘‘ ...यह तटबन्ध तो शुरू से ही राजनैतिक था। हमारी मूल समस्या है बालू को नियंत्रित करने की। बराहक्षेत्र बांध और बेलका बांध कुछ समय के लिए यह काम करते मगर जब बेलका का प्रस्ताव जवाहर लाल नेहरू के पास गया तब उन्होंने साफ कहा कि इतना पैसा सरकार के पास नहीं है।
तब योजना ही स्थगित होने वाली थी। तब यहाँ के नेताओं ने नये सिरे से कोशिश शुरू की। उनकी सीधी पहुँच तो नेहरू के पास नहीं थी मगर गुलजारी लाल नन्दा के यहाँ यह लोग दरबार लगाते थे और उनके जरिये नेहरू तक पहुँचा जा सकता था। तब यह 25 साल की अस्थाई स्कीम की शक्ल में कोसी तटबन्ध की योजना आई। शरारत यह हुई कि पूना हाइड्रोलॉजिकल लैबोरेटरी में तटबन्ध को लेकर जो रिसर्च हुई उसे मन मुताबिक करवा लिया गया। अब तटबन्धों के बीच का फासला घोघरडीहा के पास 16 किलोमीटर है और यहाँ नीचे जहाँ आप बैठे हैं, सरौनी में, 9 किलोमीटर है जबकि नीचे यह फासला ज्यादा होना चाहिये।
पश्चिमी तटबन्ध दरभंगा जिले के बिरौल के पास आसी मौजे तक जाने वाला था और इधर पूरब में पूर्वी तटबन्ध बनगाँव से होकर गुजरना था। इतना ज्यादा फैलाव था इसका और इसी अलाइनमेन्ट को लेकर जमकर राजनीति हुई। तटबन्धों के अन्दर पड़ने वाले ज्यादातर गाँव तटबन्ध के बाहर चले जाना चाहते थे वरना कोसी उनकी अच्छी गत बनाती। तब सौदा हुआ कि आप हमको वोट दीजिये, हम आप का गाँव बाहर करवा देंगे। जात-पांत भी कम नहीं हुई। आसी, कन्है और गण्डौल - यह सब ब्राह्मणों के गाँव थे, तटबन्ध के बाहर सुरक्षित क्षेत्र में चले गये। अब भले ही उनकी हालत खराब हो गई हो मगर तब तो उन्होंने अपना काम करवा ही लिया।’’
पूर्वी तटबन्ध पर भी जो कुछ परिवर्तन हुआ वह भी खास कर सुपौल के दक्षिण में हुआ। वहाँ संघर्ष भी उतना ही हुआ। बनगाँव और महिषी, दोनों ही गाँव पूर्वी तटबन्ध और कोसी के बीच पड़ने वाले थे। प्रभावशाली लोगों के गाँव होने के कारण यह दोनों गाँव तटबन्ध के बाहर आ गये। 1962-1977 के बीच सांसद तथा कई बार विधायक रहे तुल मोहन राम (76) का कहना है कि, ‘‘ ...यह तटबन्ध तो शुरू से ही राजनैतिक था। हमारी मूल समस्या है बालू को नियंत्रित करने की। बराहक्षेत्र बांध और बेलका बांध कुछ समय के लिए यह काम करते मगर जब बेलका का प्रस्ताव जवाहर लाल नेहरू के पास गया तब उन्होंने साफ कहा कि इतना पैसा सरकार के पास नहीं है।
तब योजना ही स्थगित होने वाली थी। तब यहाँ के नेताओं ने नये सिरे से कोशिश शुरू की। उनकी सीधी पहुँच तो नेहरू के पास नहीं थी मगर गुलजारी लाल नन्दा के यहाँ यह लोग दरबार लगाते थे और उनके जरिये नेहरू तक पहुँचा जा सकता था। तब यह 25 साल की अस्थाई स्कीम की शक्ल में कोसी तटबन्ध की योजना आई। शरारत यह हुई कि पूना हाइड्रोलॉजिकल लैबोरेटरी में तटबन्ध को लेकर जो रिसर्च हुई उसे मन मुताबिक करवा लिया गया। अब तटबन्धों के बीच का फासला घोघरडीहा के पास 16 किलोमीटर है और यहाँ नीचे जहाँ आप बैठे हैं, सरौनी में, 9 किलोमीटर है जबकि नीचे यह फासला ज्यादा होना चाहिये।
पश्चिमी तटबन्ध दरभंगा जिले के बिरौल के पास आसी मौजे तक जाने वाला था और इधर पूरब में पूर्वी तटबन्ध बनगाँव से होकर गुजरना था। इतना ज्यादा फैलाव था इसका और इसी अलाइनमेन्ट को लेकर जमकर राजनीति हुई। तटबन्धों के अन्दर पड़ने वाले ज्यादातर गाँव तटबन्ध के बाहर चले जाना चाहते थे वरना कोसी उनकी अच्छी गत बनाती। तब सौदा हुआ कि आप हमको वोट दीजिये, हम आप का गाँव बाहर करवा देंगे। जात-पांत भी कम नहीं हुई। आसी, कन्है और गण्डौल - यह सब ब्राह्मणों के गाँव थे, तटबन्ध के बाहर सुरक्षित क्षेत्र में चले गये। अब भले ही उनकी हालत खराब हो गई हो मगर तब तो उन्होंने अपना काम करवा ही लिया।’’
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