राजनैतिक पार्टियों का द्वन्द्व

सभी नदियों पर पानी को नियंत्रित करने की कोई व्यवस्था नहीं है। ले-दे कर कोसी और गंडक नदियों पर क्रमशः भीमनगर और वाल्मीकि नगर में बराज है जिनका नियंत्रण पूरी तरह से बिहार सरकार के जल-संसाधन विभाग के हाथ में है। अगर कोई पानी छोड़ता है तो वह बिहार सरकार के इंजीनियर यहाँ के जल-संसाधन विभाग की पूरी जानकारी और सहमति के बाद ही छोड़ते हैं। राजनीतिज्ञों और राजनीतिक पार्टियों का बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रति रुख के मसले पर कभी स्पष्टता नजर नहीं आती। आज कल तो सारी राजनैतिक पार्टियों के चेहरों पर इन कम्पनियों के प्रति कृतज्ञता का भाव है मगर कभी यह लोग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विरोध में रैली निकालते नजर आते थे। दूसरी ओर इनकी चाहत बाढ़ नियंत्रण के लिए नेपाल में हाई डैम बनाने की भी है जो अब, अगर इस तरह के बांध कभी बनते हैं तो, यह काम निश्चित रूप से यही बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ करेंगी। जहाँ तक आम जनता का सवाल है, उसे अगर कोई तकलीफ है तो वह जिला प्रशासन से निपट लेती है या ज्यादा से ज्यादा राज्य की राजधानी में अपना विरोध जता कर मन का गुबार निकाल लेती है भले ही उसे तसल्लियों के अलावा कभी भी कुछ नहीं मिलता हो।

अब अगर बांध नेपाल में बनें और उनके बनाने और नियंत्रित करने वाले लोग न्यूयॉर्क, टोक्यो या मेलबॉर्न में बैठते हों तब जनता फरियाद करने कहाँ और किसके पास जायेगी? उस हालत में नेताओं को यह कहना और भी आसान हो जायेगा कि ‘हम क्या कर सकते हैं’। यह ठीक उसी तर्ज पर होगा जिसमें आज नेता यह कहते पाये जाते हैं कि बिहार के मैदानी इलाकों में बाढ़ का कारण नेपाल द्वारा नदियों के पानी का छोड़ा जाना है। वह यह बात पूरी जानकारी के बावजूद कहते हैं जबकि नेपाल से उतरने वाली प्रायः सभी नदियों पर पानी को नियंत्रित करने की कोई व्यवस्था नहीं है। ले-दे कर कोसी और गंडक नदियों पर क्रमशः भीमनगर और वाल्मीकि नगर में बराज है जिनका नियंत्रण पूरी तरह से बिहार सरकार के जल-संसाधन विभाग के हाथ में है। अगर कोई पानी छोड़ता है तो वह बिहार सरकार के इंजीनियर यहाँ के जल-संसाधन विभाग की पूरी जानकारी और सहमति के बाद ही छोड़ते हैं।

इन इंजीनियरों का वेतन भी बिहार सरकार देती है इसलिए यह इंजीनियर बिहार सरकार के कहने पर ही कुछ करेंगे। इन दो बराजों के अतिरिक्त नेपाल में कमला नदी पर गोडार में और बागमती नदी पर करमगिया में छोटे-छोटे बराज हैं जो कि नेपाली नियंत्रण में हैं पर इनसे बाढ़ की कोई संभावना नहीं बनती क्योंकि यह संरचनाए सीमा से दूर हैं। दुःख इस बात का है कि इस अनर्गल प्रचार में अज्ञानवश अखबार, रेडियो और टी.वी. जैसे संचार माध्यम भी मदद करते हैं जिससे यह लगता है कि नेपाल शरारतवश पानी छोड़ता है और उत्तर बिहार में बाढ़ की जिम्मेवारी नेपाल की है जबकि राज्य में बाढ़ की बढ़ती विभीषिका का असली दोषी सिंचाई भवन में स्थित यहाँ का जल-संसाधन विभाग है जो नेपाल पर दोष मढ़ने से पहले बाढ़ आने और तटबन्ध टूटने का जिम्मा कभी चूहों पर या कभी असामाजिक तत्वों पर मढ़ कर अपना दामन साफ रखने की कोशिश करता था। नेपाल पानी छोड़ेगा जरूर मगर यह काम बराहक्षेत्र और उस तरह के दूसरे बांधें के निर्माण के बाद होगा।

अगर बिहार में, या यूँ कहें कि पूरी गंगा घाटी में, बाढ़ से निपटने का कोई काम किया जाना है तो वह केवल नारों से या भावनाओं में बह कर या फिर दूसरों पर जिम्मेवारी ठेल कर नहीं किया जा सकता। यह काम तो जमीनी हकीकत को स्वीकार करते हुये, भुक्त-भोगियों को विश्वास में लेकर एक राष्ट्रीय बहस के बाद ही हो सकता है।

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Post By: tridmin
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