राजनैतिक पार्टियाँ भी पीछे नहीं हैं: बकरा कसाई से राजी

इसी नदी, इसी खेत, इसी परिवेश से हमारा सारा काम चलता था। पढ़ाई-लिखाई, शादी-ब्याह, खाना-पीना और सामाजिक प्रतिष्ठा आदि सब कुछ इस जमीन से मिलती थी। एक ही खेत में हम लोगों को दाल-भात दोनों हो जाता था? मेंड़ पर अरहर और खेत में धान। सुगन्ध आती थी फसलों से। हमारे पुरखों की भी तो कोई व्यवस्था रही होगी? उससे किसी ने कुछ क्यों नहीं सीखा? बागमती का जब तटबन्ध बना तब पहली बार हमारे घर की खिड़की से होकर पानी बहा। कोई भी देश जाना जाता है उसकी नदी घाटी से और कोई भी समाज बसा है तो उसने नदी का किनारा देख कर ही अपना डेरा-डंडा डाला होगा।

यही हाल राजनैतिक पार्टियों का भी है। वे भी राहत कार्यों में अपने भविष्य की तलाश करती हैं। सीतामढ़ी के समाजकर्मी रघुपति कहते हैं, ‘‘...1967 के चुनाव में मैं एक पार्टी का छात्र कार्यकर्ता हुआ करता था। घर से पोटली में खाना बांध कर मंगनी की साइकिल से गाँवों में प्रचार करने के लिये जाया करता था। वहाँ लोगों से बातचीत शुरू ही होती थी कि गाँव का कोई न कोई आदमी निकल कर आता था कि रिलीफ तो बांटी थी फलां फलां पार्टी ने और वोट चाहिये तुमको? यह आदमी जवाब सुनने के लिए रुकता भी नहीं था और हम लोगों को चले जाने के लिए कहता था। उस समय हम लोग किशोर थे और लोगों के इस व्यवहार से मन आहत हो जाता था कि गरीबों के हक की बात करने वाले और उसके लिए संघर्ष करने वाले लोग रिलीफ के आगे क्यों नतमस्तक हो जायेंगे? उसके करीब 40 साल बाद कोसी क्षेत्र में कुसहा में एफ्लक्स बांध टूटने के एक साल बाद वहाँ लोकसभा चुनाव हुआ। हम लोग इसमें भी शामिल थे। कोसी क्षेत्र का बाढ़ पीड़ित इस बात से संतुष्ट था कि उसे रिलीफ में एक या दो क्विंटल अनाज और 2250 रुपया मिल गया था और वह व्यवस्था के इस एहसान का बदला जरूर चुकायेगा।

वह भूल चुका था कि उसकी तबाही का सबब वही व्यवस्था थी जिसने रिलीफ बंटवायी। इसलिए रिलीफ तो बंटेगी। वह 1967 में बंटती थी और 2010 में भी बंटेगी। लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की इसमें जबर्दस्त ताकत है। यह सच है कि अगर किसी आदमी की जान या सम्पत्ति पर खतरा आयेगा तो उसकी रक्षा में कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अपने आपको मदद देने से नहीं रोक सकता। वह वक्त बहस करने का नहीं होता। मगर इस घटना के ठीक बाद राजनीति शुरू होती है और उसमें हर कोई अपना अपना हिस्सा खोजता है। यह गलत है, लोग हाथ फैलाते रहेंगे तो दाता लोग देते रहेंगे। गरीब आदमी मजबूर होता है मगर एहसान फरामोश नहीं होता। वह अगर मजबूर नहीं होता तो इतनी तकलीफ बर्दाश्त करके परदेश नहीं जाता। इतने ज्यादा लोग, इतने ज्यादा समय के लिए कहीं बाहर जाते हैं क्या? एक समय था जब खाते-पीते परिवार के लोग रिलीफ लेना अपना अपमान समझते थे। अब बिरले ही कोई रिलीफ लेने से मना करता है।’’

इधर बिहार सरकार के भूतपूर्व मंत्री गणेश प्रसाद यादव का कहना है, ‘‘...बागमती का तटबन्ध अब रुन्नी सैदपुर से बढ़ता हुआ बगल में मानपुर तक आ गया है। उनके बीच भी बहुत से गाँव फंसे हैं। अब गाँव का घर और जमीन पिता जी के नाम है। वह अब नहीं रहे। दफ्तर में जाइये तो लड़कों को जवाब मिलता है कि तुम्हारा तो नाम ही नहीं है। अरे, सरकार के पास सब रिकार्ड है, खतियान में नाम दर्ज है जमाबन्दी तुम्हारे पास है ही, तो कहाँ परेशानी है? अब यह गाड़ी मेरे नाम से नहीं है, पिता जी के नाम से है तो इसे मेरे नाम करने में क्या आधे घन्टे से ज्यादा समय लगना चाहिये? यहाँ तो रिवाज है दूसरे को मुसीबत में डाल कर खुश होना और उससे कुछ न कुछ ऐंठ लेना। अब आप लड़िये तो आपकी हालत परमेश्वर कुँअर की हो जायेगी, देशद्रोह का मुकद्दमा चलेगा आप पर। निर्माण कार्यों में किसी गड़बड़ी की सूचना किसी अधिकारी को देने जाइयेगा तो आप पर रंगदारी का मुकद्दमा दायर हो जायेगा। इधर शिवहर के एक एम.पी. की 100-200 एकड़ जमीन बचाने के लिए तटबन्ध का अलाइनमेन्ट बदला गया। सुनते हैं कि चन्दौली में भी तटबन्ध की लाइन देने के बाद भू-स्वामियों की जमीन बचाने के लिए उसका अलाइनमेन्ट बदल दिया गया।

खैरा पहाड़ी और सौली में तो सबको मालुम है कि यही हुआ। इंजीनियरों से बात कीजिये तो वे उल्टा हम से पूछते हैं कि हमको कॉमन सेन्स आप से सीखना पड़ेगा? आखिर इसी नदी, इसी खेत, इसी परिवेश से हमारा सारा काम चलता था। पढ़ाई-लिखाई, शादी-ब्याह, खाना-पीना और सामाजिक प्रतिष्ठा आदि सब कुछ इस जमीन से मिलती थी। एक ही खेत में हम लोगों को दाल-भात दोनों हो जाता था? मेंड़ पर अरहर और खेत में धान। सुगन्ध आती थी फसलों से। हमारे पुरखों की भी तो कोई व्यवस्था रही होगी? उससे किसी ने कुछ क्यों नहीं सीखा? बागमती का जब तटबन्ध बना तब पहली बार हमारे घर की खिड़की से होकर पानी बहा। कोई भी देश जाना जाता है उसकी नदी घाटी से और कोई भी समाज बसा है तो उसने नदी का किनारा देख कर ही अपना डेरा-डंडा डाला होगा। यहाँ तो हालत यह है कि किसी का सब कुछ बर्बाद कर दीजिये और बर्बाद कर देने के बाद उसे एक क्विंटल अनाज और 2250 रुपया दे दीजिये तो वह सारी तकलीफ भूल जाता है। जब बकरा ही कसाई से राजी है तो हमारी आपकी भूमिका क्या बचती है।’’

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Post By: tridmin
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