सरकार का जलविद्युत परियोजनाओं को ही सबसे सस्ता व सबसे कम नुकसानदेह बताने का उसका नजरिया बदला नहीं है। इस पर सरकार समझौते की मुद्रा में कतई दिखाई नहीं देती। यही बात सबसे खतरनाक है और संघर्ष को शांत करने में बाधक भी। फिलहाल स्थितियां जो भी हों। बिना संकल्प हर उपाय अधूरा है। संकल्पित हों कि गंगा राष्ट्रीय नदी है। जिम्मेदारी पूरे राष्ट्र की है, सिर्फ सरकार या सदन की नहीं। सब अपनी-अपनी जिम्मेदारी तलाशकर उसी के क्रियान्वयन को जुटें। गंगा एक न एक दिन साफ भी हो जायेगी और अविरल भी।
जिस तरह से गंगा को लेकर वाराणसी आंदोलित है; आगे वाराणसी से दिल्ली कूच की चेतावनी आ चुकी है; सांसद गंगा पर किसी निर्णायक कदम की मांग कर रहे हैं; जल्द ही गंगा पर कोई न कोई निर्णय शीघ्र होगा ही। लेकिन वहीं यह भी सच है कि अब निर्णय लेने की बारी सरकार के साथ-साथ समाज की भी है। संत अपने आश्रमों का मल व अन्य कचरा गंगा में जाने से रोकें। समाज भी लीक तोड़े। मूर्ति विसर्जन, अधजले शवदाह, नदी भूमि पर अवैध बसावट और रासायानिक खेती से मुंह मोड़ना शुरू करें। गंगा पर लोकसभा को आंदोलित करने वाले सांसद रेवती रमण सिंह भी सोचें कि यदि बांध परियोजना गंगा के लिए घातक हैं, तो उनकी पार्टी वाली उत्तर प्रदेश सरकार की पहल पर प्राधिकरण के एजेंडे में आया गंगा एक्सप्रेसवे भी कम खतरनाक नहीं। यदि आंदोलन ही करना है, तो वह बाधों के साथ-साथ गंगा एक्सप्रेसवे को पुनः चालू कराने को आतुर प्रयासों के खिलाफ भी करें। यह होगी गंगा की राजनीति से इतर गंगा की लोकनीति। यह जागते रहने का समय है। जागें!आयोग नहीं, संकल्प से होगा राजीव गांधी का अधूरा सपना पूरा-
21 मई का संयोग कई दृष्टि से गंगा के लिए प्रबल है। 21 मई गंगा दशहरा स्नान की प्रारंभ तिथि भी है और वाराणसी से गंगा मुक्ति महासंग्राम के शंखनाद की भी। यह तिथि गंगा निर्मलीकरण का अधूरा सपना लिए काल के गाल में समा गये एक पूर्व प्रधानमंत्री की पुण्य तिथि भी है। उन्होंने वाराणसी से गंगा कार्य योजना का शुभारंभ करते हुए कहा था- “गंगा कार्ययोजना कोई सिर्फ पीडब्लयूडी की कार्ययोजना नहीं है। गंगा जहां से आती है। गंगा जहां तक जाती है। यह उन सभी लोगों की कार्ययोजना बननी चाहिए।’’ दुर्भाग्य से गंगा कार्ययोजना के कर्णधारों ने ऐसा होने नहीं दिया। लेकिन अभी भी वक्त है। इसका सबसे बड़ा प्रायश्चित यही होगा कि स्व. राजीव गांधी के परिजन और यह राष्ट्र उनकी पुण्य तिथि पर आंसू बहाने की बजाय गंगा के प्रति अपने मन को संकल्पित करे। उनके अधूरे सपने को पूरा करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हो। कितना अच्छा हो, यदि यह 21 मई गंगा पर किसी निर्णायक पहल का सबब बन पाता! एक पूर्व प्रधानमंत्री को इससे अच्छी श्रद्धांजलि और क्या हो सकती है!
पल्ला झाड़ती सरकार-
लेकिन ऐसा लगता है कि ऐसा स्व. राजीव गांधी की विरासत वाली पार्टी की अगुवाई वाली सरकार ने गंगा की गुहार को लेकर अब पूरी तरह पल्ला झाड़ने का मन बना लिया है। गंगा मसलों को लेकर केन्द्र सरकार पर लग रहे संवेदनशून्यता के आरोप से अजीज आ चुके प्रधानमंत्री संभवतः इसका निदान एक आयोग के रूप में देख रहे हैं। हिमालय और हिमालयी नदियों को लेकर ही हो हल्ला ज्यादा है। अतः बहुत संभव है कि शीघ्र ही सरकार हिमालयी नदी आयोग बनाकर अपने दायित्व की इतिश्री कर ले। पर्यावरण मंत्री ने लोकसभा बहस के दौरान दिए अपने उत्तर में यह संकेत दे दिए हैं।
गंगा नहीं, सिर्फ बदनामी बचाने को आयोग-
आपके मन में सवाल उठ सकता है कि क्या महज आयोग बना देने से गंगा बच जायेगी? आयोग बनने के बाद गंगा के लिए बने राष्ट्रीय व राज्यीय प्राधिकरणों के अधिकारों का क्या होगा? आयोग विवाद बढ़ायेगा या घटायेगा? सच्चाई यह है कि प्राधिकरण खुद नहीं मानते कि उनके पास परियोजनाओं की मंजूरी-नामंजूरी अथवा विवादों के निपटारे का कोई घोषित अधिकार है। यूं भी मुखिया की राजनैतिक नियुक्ति वाले आयोगों के अनुभव आश्वस्त नहीं करते। वह नहीं कहते कि आयोग के हवाले करने मात्र से गंगा को राष्ट्रीय नदी का उसका सम्मान हासिल हो जायेगा। हां! तब हर बुरे की गाज सरकार पर नहीं गिरेगी। तब शिकायत का पहला दरवाजा सीधे मंत्रालय या प्रधानमंत्री कार्यालय में नहीं, आयोग में खुलेगा। विवाद के निपटारे की पहली जिम्मेदारी आयोग की होगी। जो भी हो, केंद्र सरकार को उम्मीद है कि उसके इस निर्णय से गंगा बचे न बचे, उसके रवैये के खिलाफ फिलहाल चल रहा गंगा संघर्ष तो थम ही जायेगा। वह आगे और बदनामी से बच ही जायेगी। संघर्ष थामने के लिए हो सकता है कि आयोग का मुखिया तपस्यारत संतों के सुझाये किसी व्यक्ति को बना दिया जाये। राजनीति चालू आहे!
निगरानी तंत्र पर जोर स्वागत योग्य-
खैर! गंगा पर राजनीति के इस नये दौर में सकारात्मक है तो सिर्फ यह कि सदन में बहस के दौरान पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने इस बार अपना रवैया थोड़ा सकरात्मक रखा। उन्होंने पहली बार माना कि गंगा पर नीतिगत निर्णयों की जरूरत है। इस बार उन्होंने राज्यों को जिम्मेदारी का एहसास तो कराया; लेकिन हर गलत काम का ठीकरा राज्यों पर फोड़ने से वह इस बार बची। उन्होंने प्रदूषण नियंत्रण प्रयासों की निगरानी के लिए सशक्त तंत्र विकसित करने का संकल्प जरूर जोरदार तरीके से जताया। इसी के बूते उन्होंने यह भी दावा किया कि उनकी सरकार सुनिश्चित करेगी कि बिना शोधन किए कोई भी अवजल गंगा में नहीं जाये। उन्होंने सदन से कहा कि अगली बार जब वह सदन में आयेंगी, तब निगरानी योजना की पूरी रूपरेखा उनके पास होगी। हो सकता है कि इस रूपरेखा में गंगा कार्यकर्ताओं के लिए भी कोई जगह हो। यदि रूपरेखा लोक निगरानी तंत्र खड़ा करने की होगी, तो यह नुस्खा सचमुच कारगर होगा; अन्यथा निगरानी असरकारी होने की बजाय, सरकारी होकर भ्रष्टाचार ही बढ़ायेगी। जैसा कि अक्सर होता है। हर नया कानून भ्रष्टाचारियों को एक और मौका बढ़ा देता है। हो सकता है कि पर्यावरण मंत्री पूर्व अनुभवों से सबक लें; लेकिन फिलहाल जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर जयंती नटराजन का रुख वही है।
जलविद्युत परियोजनाओं पर रवैया बाधक-
उन्होंने कहा कि उत्तराखण्ड में गंगा पर बांधों की संख्या को लेकर हल्ला ज्यादा का है; वास्तव में संख्या कम है। उनकी संख्या 400-500 नहीं, मात्र 70 है। 17 कार्यरत, 14 निर्माणरत और 39 अभी मंजूरी प्रक्रिया में है। गंगा पर मात्र सिर्फ तीन परियोजनायें ही तो बड़ी हैं। ज्यादातर परियोजनायें तो महज 2-4-5 मेगावाट वाली हैं। उन्होंने रन ऑफ रिवर परियोजनाओं से गंगा को कोई नुकसान न होने की बात कही। हो सकता है कि जब तक पूर्व परियोजनाओं की समीक्षा नहीं हो जाती, तब तक उल्लिखित 70 के आगे और परियोजना प्रस्तावों पर विचार न करने की बात कहकर सरकार गंगा तपस्वियों के तप को भंग करने का प्रयास करे। लेकिन जलविद्युत परियोजनाओं को ही सबसे सस्ता व सबसे कम नुकसानदेह बताने का उसका नजरिया बदला नहीं है। इस पर सरकार समझौते की मुद्रा में कतई दिखाई नहीं देती। यही बात सबसे खतरनाक है और संघर्ष को शांत करने में बाधक भी। फिलहाल स्थितियां जो भी हों। बिना संकल्प हर उपाय अधूरा है। संकल्पित हों कि गंगा राष्ट्रीय नदी है। जिम्मेदारी पूरे राष्ट्र की है, सिर्फ सरकार या सदन की नहीं। सब अपनी-अपनी जिम्मेदारी तलाशकर उसी के क्रियान्वयन को जुटें। गंगा एक न एक दिन साफ भी हो जायेगी और अविरल भी।
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