जंगल में राजनेता क्या कर सकता है ? वह पेड़ों के तबादले नहीं करवा सकता, हवा का आयात नहीं रोक सकता, नई कोपलों को मार्गदर्शन नहीं दे सकता, हिरणों के पीछे पुलिस नहीं दौड़ा सकता, सिंहों के डेलीगेशन से नही मिल सकता, घोसलों पर बुलडोजर नही फेर सकता। कोई कौआ भी उसका आदेश नही सुनेगा।
आदमी अगर वाकई आदमी के अर्थ में आदमी हो तो कभी-कभी जंगल उसके लिए ठीक रहता है। हवा, पेड़, हिरण, पक्षी की जो एक दुनिया है, उससे कभी-कभी साबका पड़ना चाहिए। फेफड़ों में शुद्ध सांस जाती है, उससे खून शुद्ध होता है और दिमाग भी खुल जाता है। कुछ खुलेपन और स्वतंत्रता का बोध होता है। मंत्रियों को कभी-कभी ऐसा करना चाहिए। भारतीय जनता तो यह सुझाव देगी कि मंत्री लोग हमेशा जंगल में रहें, विचरण करें, लड़ें, टांगें खीचें, एक-दूसरे पर झपटें, पीछे दौड़ें, आत्मरक्षा करें और परस्पर फजीहत की जानकारी हमसे गुप्त रखें।
देखा जाए तो हमें इससे क्या मतलब है कि ये नेतागण आपस में किस शैली और अदांज से एक-दूसरे को पछाड़ते हैं ? यदि सत्ताएँ यह निर्णय ले लें कि राजधानियाँ जंगल में रहेंगी तो मनुष्य समाज के लिए इससे सुखकर समाचार दूसरा हो नहीं सकता। राजधानी को जंगल बनाने से बेहतर है कि जंगल को राजधानी बनाओ। आप शांति का अनुभव करें या न करें, हम तो कर सकते हैं। नेतागण राजधानी में रहते हैं तो राजधानी का विकास होता है, वे जंगल में रहेंगे तो जंगल का होगा। इस समय तो यह अधिक जरूरी है। इसलिए भारतीय जनता तो यह कामना करेगी कि आप वहीं रहो। दो-एक साल का वनवास हो जाए तो अच्छा ही है। कई लोग जंगल से सुधरकर लौटे हैं, हम आपसे भी आस लगाएँ तो गलत तो नहीं है।
जंगल में राजनेता क्या कर सकता है ? वह पेड़ों के तबादले नहीं करवा सकता, हवा का आयात नहीं रोक सकता, नई कोपलों को मार्गदर्शन नहीं दे सकता, हिरणों के पीछे पुलिस नहीं दौड़ा सकता, सिंहों के डेलीगेशन से नही मिल सकता, घोसलों पर बुलडोजर नहीं फेर सकता। कोई कौआ भी उसका आदेश नही सुनेगा। जंगल में राजनेता बड़ा असहाय होकर रह जाता होगा। आजकल जंगल में ऋषि-मुनि तो होते नहीं। अगर कोई होगा भी तो इन दिनों कैबिनेट के वहाँ पहुँचने से पहले भगा दिया गया होगा। उपदेश से कहा-सुनी तक जो होगा, आपस में ही होगा। चापलूसी के एकांत क्षण, विपक्ष पर विजय पाने के उल्लास की अभिव्यक्ति, भावी तिकड़मों पर गहन चिंतन, आपसी बतकही, लतीफों का आदान-प्रदान, षड्यंत्र से परियोजना तक अनेक गुत्थियाँ, परस्पर मनोबल बढ़ाना, पैर पसारना, खाना डकारना, हटकर चर्चा करना, स्कीमें बनाना, फुसफुस हंसना, ठहाके लगाना, एक दूसरे को भांपना, कमजोरियों को पकड़ना आदि कई बातें हैं। जो उन सघन वृक्षों और पुराने महलों में हो सकती हैं। पता नहीं क्या होगी ? सब अनुमान से परे हैं। सोचने से लाभ क्या ? यदि हम यही सोचते रहे तो नेताओं के जंगल में जाने का हमें लाभ क्या हुआ ? यह दो-तीन साल हमारे भी शांति से बीतेंगे।
मैं उस जंगल के हित की कामना करता हूँ। ईश्वर उन पेड़-पौधों को सलामत रखे। वहाँ के जानवरों में कोई बुराइयाँ न पनपे। जंगल की आबोहवा, राजनीति से प्रदूषित न हो जाए। हे ईश्वर, उस जंगल को सलामत रखना, वहाँ एक मंत्री नहीं, पूरा कैबिनेट जा रहा है। कहीं वह सपाट मैदान न हो जाए, पत्ते झड़ न जाएँ, पेड़ सूख न जाएँ, पंछी पोलिटिक्स करना न सीख लें।
(19 दिसम्बर, 1987 को प्रकाशित)
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