इस कुएं के पानी की यह खासियत है कि दाद, खाज, खुजली आदि के रोग इसके स्नान से दूर हो जाते है। क्षेत्रीय लोग एवं दूर-दूर से आये श्रद्वालु इस कुएं में स्नान करते हैं तथा रोगों से मुक्त होते हैं। इस गांव में अब भी अधिकांशतः घास-फूंस के छप्पर बने हुए है। ग्रामीण बताते है कि बाद में चलकर यहां बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ। जिसमें काफी संख्या में लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हो गये।
बिजनौर-कोटद्वार सड़क मार्ग पर मथुरापुरमोर गांव पड़ता है। प्राचीन काल में यह क्षेत्र अहिक्षेत्र के नाम से जाना जाता था। उस समय यह उत्तर पांचाल की राजधानी हुआ करती थी। अहिक्षेत्र का वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपनी पुस्तक में किया है। इस पुस्तक में बौद्व धर्म का वर्णन भी किया गया है। यह क्षेत्र गंगा एवं रामगंगा के बीच मे आता है। प्राचीन काल में शिवालिक की पहाड़ी इस क्षेत्र को तीन ओर से घेरे हुए थी। जिससे आक्रमणकारी नहीं आ पाते थे। इस दृष्टि से यहां राजधानी बनाई गई थी। इस गांव में महाभारत के समय का मोरध्वज का किला है। यह किला महाभारत के उस समय की याद दिलाता है जब योगीराज श्री कृष्ण महाभारत का युद्ध समाप्त होने पर अपने भक्त मोरध्वज की परीक्षा लेना चाहते हैं जिसमें कृष्ण ने अर्जुन के साथ शर्त लगायी थी कि तुम से भी बड़ा मेरा एक भक्त है और वह है मोरध्वज। उन्होंने राजा मोरध्वज के पास ऋषिवेश में पहुंचकर कहा कि महाराज मेरा शेर भूखा है और यह नरभक्षी है।राजा ने कहा कि ठीक है मै अपने मांस से इसकी भूख को शान्त कर देता हूं तो उन्होंने कहा कि नहीं यह तो किसी बच्चे का मांस खाता है तो राजा मोरध्वज ने अपने बच्चे का मांस खिलाना उचित समझा। तब कृष्ण ने कहा कि आप दोनों पति-पत्नि अपने पुत्र का सिर काटकर मांस खिलाओं अगर इस बीच तुम्हारा एक भी आंसू निकला तो यह नहीं खायेगा। इस प्रकार राजा और रानी ने अपने पुत्र का सिर काटकर शेर के आगे डाल दिया। तब कृष्ण ने राजा मोरध्वज को आर्शीवाद दिया तथा उनका पुत्र पुर्नजीवित हो गया। इस प्रकार राजा ने अपने भक्त की परीक्षा ली। उस दानी, तपस्वी भक्त राजा मोरध्वज का किला आज भी इस गांव में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है।
हाल ही में इस किले के पास ग्रामीणों के द्वारा की गई खुदाई में बहुत सारी समकालीन मूर्तियां निकली। जिसमें राजा मोरध्वज को मोर के ऊपर बैठा दिखाया गया है। जिनमें 5 फुट 8 इंच का शिवलिंग भी निकला है। जिसे ग्रामीणों ने किले के मंदिर में पुर्नस्थापित कर दिया। प्राचीन काल बौद्ध काल, शैवकाल, गुप्तकाल आदि कालों की चीजें क्षेत्र में विद्यमान है। एक बार गढ़वाल विश्वविद्यालय से एक टीम इस क्षेत्र का भ्रमण करने आयी थी। उसके बाद पुरातत्व विभाग ने आज तक इसकी कोई सुध नहीं ली है। इस गांव में एक प्राचीन कुंआ है, जो टूट-फूट चुका था गांव वालों ने इस कुएं के उपरी हिस्से की मरम्मत की है।
इस कुंए के बारे में किवदंती है कि राजा मोरध्वज सुबह यहां से 4 किलोमीटर की दूरी पर गंगा स्नान के लिए जाते थे। यह उनका नियमित दिनचर्या थी। गंगा जी ने सोचा कि यह भक्त रोज इतनी दूर से आता है क्यों न मैं एक धारा इनके किले के पास तक प्रवाहित कर दूं तो गंगा मां ने इस कुएं के माध्यम से एक धारा प्रवाहित की। इस कुएं के पानी की यह खासियत है कि दाद, खाज, खुजली आदि के रोग इसके स्नान से दूर हो जाते है। क्षेत्रीय लोग एवं दूर-दूर से आये श्रद्वालु इस कुएं में स्नान करते हैं तथा रोगों से मुक्त होते हैं।
इस गांव में अब भी अधिकांशतः घास-फूंस के छप्पर बने हुए है। ग्रामीण बताते है कि बाद में चलकर यहां बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ। जिसमें काफी संख्या में लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हो गये। ग्रामीण अतुल नेगी व सुशील ने बताया कि कई ऐतिहासिक तथ्य गांववासियों ने संजो कर रखे हैं। जिसमें भौगोलिक एवं ऐतिहासिक चीजों का वर्णन है। इन लोगों का कहना है कि इन सब मुर्तियों, साहित्य आदि का एक संग्रहालय गांव में ही बने। जिससे दूर-दूर से लोग आकर इस संस्कृति से परिचित हों।
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