अनुपम मिश्र
जमीन पर इस आदर्श के अमल की बात बाद में। अभी तो थोड़ा ऊपर उठ आसमान छूकर देखें। बादल यहाँ सबसे कम आते हैं। पर बादलों के नाम यहाँ सबसे ज्यादा मिलते हैं। खड़ी बोली, और फिर संस्कृत से बरसे बादलों के नाम तो हैं ही पर यहाँ की बोली में तो जैसे इन नामों की घटा ही छा जाती है, झड़ी ही लग जाती है। और फिर आपके सामने कोई 40 नाम बादलों के, पर्यायवाची नहीं, 40 पक्के नामों की सूची भी बन सकती है। रुकिए, बड़ी सावधानी से बनाई गई इस सूची में कहीं भी, कभी भी कोई ग्वाला, चरवाहा चाहे जब दो चार नाम और जोड़ दे यह भी हो सकता है।
भाषा की और उसके साथ-साथ इस समाज की वर्षा संबंधित अनुभव-सम्पन्नता इन चालीस, बयालीस नामों में चुक नहीं जाती। वह इन बादलों के प्रकार, आकार, चाल-ढाल, स्वभाव, ईमानदारी, बेईमानी - सभी आधारों पर और आगे के वर्गीकरण करते चलता है। इनमें छितराए हुए बादलों के झुंड में से कुछ अलग-थलग पड़ गया एक छोटा-सा बादल भी उपेक्षा का पात्र नहीं है। उसका भी एक अलग नाम आपको मिल जाएगा-चूखो! मरुभूमि में सबसे दुलर्भ और कठिन काम, वर्षा कर चुके बादल, यानी अपना कर्तव्य पूरा करने के बाद किसी छोटी-सी पहाड़ी या रेत के टीले पर थोड़ा-सा टिक कर आराम फरमा रहे बादल को भी समाज पूरी कृतज्ञता से एक अलग नाम देता है: रींछी।
हमारा हिन्दी और शायद अंग्रेजी का संसार बरसने वाले पानी की यात्रा को दो रूपों में ही देख पाता है। एक है - सतह पर पानी और दूसरा है भूजल। नदी, नालों, तालाबों छोटी-बड़ी झीलों का पानी सतह पर है और फिर इससे रिस कर नीचे जमीन में उतरा पानी भूजल है। पर मरुभूमि के समाज ने अपने आसपास से, अपने पर्यावरण से, भूगोल से जो बुनियादी तालीम पाई थी, उसने उस आधार पर पानी का एक और प्रकार खोज निकाला। उसका नाम है - रेजाणी या रेजवानी पानी।
रेजाणी पानी हम पढ़े लिखे माने गए लोगों को आसानी से नहीं दिखने वाला। हम उसका स्पर्श भी ठीक से नहीं कर पाएं शायद। पर यह वहाँ की बुनियादी तालीम ही है, जिसने उस समाज को रेजाणी पानी का न सिर्फ दर्शन करवाया, उसे एकदम कठिन इलाके में, चारों तरफ खारे पानी से घिरे इलाके में अमृत जैसा पीने योग्य बना लेने की जटिल तकनीक भी दे दी।
पर जटिल तकनीक, जटिल ज्ञान किस काम का? समाज ने उसे बहुत ही सरल बना कर गाँव-गाँव में फेंक दिया। उसकी चर्चा शायद बाद में करें। अभी तो पहले हम यह देखें कि खारे पानी से घिरे, कम पानी के बीच बसे हजारों गाँवों, कस्बों और शहरों में पानी का काम कैसे फैलाया गया।
ऐसा काम हमें आज करना हो तो हम प्राय: क्या करते हैं? एक बड़ी संस्था बनाते हैं। उसका मुख्यालय खोजते हैं। फिर शाखाएं, केन्द्र, उपकेन्द्र बनाते हैं। अध्यक्ष चुनते हैं, कार्यकारिणी, संचालक मंडल बनाते हैं। सैकड़ों कार्यकर्ताओं की भरती करते हैं। इस विशाल ढाँचे को चलाने के लिए बड़ा बजट जुटाते हैं। कुछ शासकीय स्रोत पर चलते हैं तो कुछ शासन को अछूत मान कर देशी स्रोतों से धन लाते हैं तो कुछ विदेशी अनुदान से भी परहेज नहीं करते। इतने सबके बाद काम हो जाए, इस उद्देश्य से संस्था बनाई है, संगठन खड़ा किया है, वह हो जाए तो क्या कहना। पर कई बार यही नहीं हो पाता। बाकी सब कुछ होता रहता है, हड़ताल, ताला बंदी तक होती रहती है। इतना ही नहीं कभी-कभी हमारे ये सुंदर संगठन अच्छे ही लोगों के आपसी छोटे-मोटे मतभेदों के कारण टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं।
पर मरुभूमि का समाज ऐसा खतरा मोल ले ही नहीं सकता था। उसे तो सबसे कम पानी के इलाके में सबसे चुस्त, दुरुस्त संगठन न सिर्फ खड़ा करना था, उससे सौ टका काम भी निकालना था। इसलिए उसने खूब बड़ा संगठन बनाया। लेकिन वह केन्द्रीकरण, विकेन्द्रीकरण आदि के चक्कर में नहीं पड़ा। उसने तो इस जरूरी काम का, जीवन देने वाले काम का, जीवन-टिकाए रखने वाली शिक्षा का इतना बड़ा संगठन बनाया, उसका आकार इतना बड़ा किया कि वह निराकार हो गया। निराकार एकदम दुनिया के चालू अर्थ में भी और ठीक आध्यात्मिक अर्थ में भी।
ऐसे अद्भुत निराकार संगठन को उसने न तो राज को सौंपा और न आज की नई भाषा में किसी सार्वजनिक क्षेत्र या निजी क्षेत्र को सौंपा। उसने तो इसे पुरानी भाषा के निजी हाथों में एक धरोहर की तरह प्यार, दुलार से रख दिया। घर-घर, गाँव-गाँव सब लोगों ने इस ढाँचे को बोझ की तरह नहीं, पूरी कृतज्ञता से सिर माथे पर उठाकर उसके निराकार को साकार कर दिया। पूरा समाज अपना वर्ण, वर्ग, प्रतिष्ठा, परिवार, सब कुछ भुलाकर सब कुछ मिटाकर, सब कुछ अर्पण कर पानी के इस काम में जुट गया। पानी के काम की इस विचित्र बुनियादी तालीम पर जो सुंदर इमारत खड़ी हुई है, जो ढाँचा बना है, वह निराकार है। इसलिए हमारे इस नए समाज ने उसे निर्गुण, और भी स्पष्ट कहें तो बिना किसी गुण वाला और भी साफ कहें तो अनेक दोषों वाला समाज मान कर अपने संसार से हटा ही दिया है।
लेकिन यह ढाँचा निराकार होते हुए भी बहुत ही गुनी है, सगुण है। यह जप करने लायक है। यह लोक शिक्षण की अद्भुत शाला है। लोक बुद्धि की इसमें पूरी ऊँचाई दिखेगी और लोक संग्रह की एक सतत चलने वाली महान गाथा भी।
हम सबने एक लंबे समय से लोक शक्ति ही खूब बात की है। साम्यवाद से लेकर सर्वोदय तक ने लोक शक्ति की खूब उपासना की है। लेकिन हमने लोक बुद्धि को पहचाना नहीं इस दौर में। गांधीजी के एक अनन्य साथी दादा धर्माधिकारी निरुपाधिक मानव की प्रतिष्ठा पर बहुत बल देते थै। उस निरुपाधिक मानव की प्रतिष्ठा को यहाँ के पानी के काम में दिखेगी। इस लोक बुद्धि को हम देखने, समझने लगें तो हमें शायद फिर राजस्थान या मरुप्रदेश की अलग से बात करने की जरूरत नहीं बचेगी। हम जहाँ हैं, वहाँ उसका दर्शन होने लगेगा। तब शायद आपको यह भी पता चलेगा कि इस देश की वर्तमान, परंपरागत नहीं, वर्तमान तकनीकी शिक्षा की नींव में भी अनपढ़ कहलाने वाले समाज का ही प्रमुख योगदान रहा है। इसीलिए हमारे एक छोटे से कस्बे में, “किसी बड़े शहर में नहीं” देश का पहला इंजीनियरींग कालेज खुला था और उसमें प्रवेश पाने के लिए स्कूल की पढ़ाई की भी कोई जरूरत नहीं थी, अंग्रेजी के ज्ञान की भी नहीं। यह हमारे देश का पहला नहीं, एशिया का भी पहला इंजीनियरिंग कॉलेज था। वह पूरा किस्सा बहुत सी नई बातें बताता है। पर वह अपने-आप में एक लंबा प्रसंग है। उसकी तरफ इतना संकेत कर उसे यहीं छोड़ आगे बढ़ें।
महात्मा गांधी की स्मृति में एकत्र होते हुए हम इससे बेहतर और क्या कर सकते हैं कि पिछले दौर में हमने लोग बुद्धि को समझने, उसको प्रतिष्ठित करने का जो सहज रास्ता छोड़ दिया था उस पर वापस लौटने की कोशिश करें। उन बातों को, उन तरीकों को, संगठनों को विस्मृत करना प्रारंभ हो, जो लोक बुद्धि के रास्ते जाते नहीं। हमारे बहुत से कामकाज, क्रिया-कलाप, अक्सर अच्छी नीयत से भी की गई चिंताएं, बनाई गई योजनाएं बहुत हुआ तो समाज के एक बड़े भाग को 'हितग्राही' ही मानकर, हितग्राही बताकर चलते हैं। हम उनका कुछ उद्धार करने आए हैं, उपकार करने आए हैं - इससे थोड़ा बचें।
पुस्तकः महासागर से मिलने की शिक्षा |
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