1947 के बाद से अब तक कुछ भी नहीं बदला है सिवाय इसके कि अब कोई यह कहता हुआ सुनाई नहीं पड़ता कि उसे राहत सामग्री की जरूरत नहीं है। बढ़ती आबादी, बाढ़ नियंत्रण की गलत नीतियों पर अमल, राहत बजट का आवश्यकता के अनुरूप न होने और वितरण में भ्रष्टाचार आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से राहत सामग्री के लिए चारों ओर मारा-मारी लगी रहती है। असली जरूरतमन्द लोगों तक राहत सामग्री पहुँच ही नहीं पाती है। राहत एक ऐसा शब्द है जिसके बारे में सहरसा जैसे जिले के बाढ़ प्रभावित लोग 1936 तक नहीं जानते थे। उन दिनों बाढ़ के मौसम में राज्य सरकार का डिप्टी कलक्टर स्तर का कोई अफसर दो-चार हजार रुपया लेकर बाढ़ प्रभावित गाँवों में जाया करता था और कुछ प्रभावित परिवारों को बांट कर चला आता था। पटना में 1937 में सम्पन्न बाढ़ सम्मेलन में किसी नतीजे पर तो नहीं पहुँचा जा सका था मगर उसके बाद राहत के प्रावधान में जरूर वृद्धि हुई। देश आजाद होने के बाद 1947 में सहरसा, दरभंगा और मुंगेर (उस समय खगड़िया और बेगूसराय, मुंगेर का हिस्सा हुआ करता था) में राहत कार्यों के लिए परामर्शी समितियों का गठन हुआ। इन समितियों ने सरकार के राहत कार्यों को सुचारु रूप से चलाने की सिफारिश की और जल्दी ही नावों की उपलब्धता, चरखा केन्द्रों के संचालन, कर्ज की अदायगी में सहूलियतों या माफी के प्रावधान आदि की अनुसूची तैयार की गई। अब सरकार का राहत बजट बढ़ कर पाँच लाख रुपयों के करीब तक जा पहुँचा था। ललितेश्वर मल्लिक लिखते हैं,“...मुफ्त की रिलीफ के सम्बन्ध में पूर्वी परामर्श-दातृ कमिटी, सहरसा का अनुभव कुछ कटु सा रहा। एक तो रुपये कम होने के कारण जिन लोगों को रिलीफ मिलनी चाहिये उन सभी लोगों को रिलीफ दी नहीं जा सकती थी जिससे असंतोष फैलता था। और दूसरा, जिन लोगों को रिलीफ मिलती थी वह उसे अपना कानूनी हक समझ कुछ करने को तैयार नहीं होते थे - इससे नैतिक स्तर कुछ गिरता सा जाता था, लोगों में भीख मांगने के भाव जागृत होते थे। इसके अतिरिक्त मध्यम श्रेणी के बहुत से लोग, विशेषतः विधवायें मुफ्त की रिलीफ लेना नहीं चाहती थीं परन्तु किसी तरह के सहायता के बिना उनकी दशा समाज के निम्न श्रेणी के लोगों से अच्छी नहीं थी।’’ अंग्रेजों के शासन के समय मध्यवर्गीय परिवारों की महिलाओं के लिए राहत सामग्री का विशेष प्रावधान रहता था क्योंकि वह सामाजिक कारणों से राहत सामग्री लेने आ नहीं सकती थीं। अधिकारी उनके पास खुद राहत सामग्री लेकर जाते थे।
1947 के बाद से अब तक कुछ भी नहीं बदला है सिवाय इसके कि अब कोई यह कहता हुआ सुनाई नहीं पड़ता कि उसे राहत सामग्री की जरूरत नहीं है। बढ़ती आबादी, बाढ़ नियंत्रण की गलत नीतियों पर अमल, राहत बजट का आवश्यकता के अनुरूप न होने और वितरण में भ्रष्टाचार आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से राहत सामग्री के लिए चारों ओर मारा-मारी लगी रहती है। असली जरूरतमन्द लोगों तक राहत सामग्री पहुँच ही नहीं पाती है। हालात इतने बुरे हो गये हैं कि पिछले कुछ वर्षों में राहत मांगने वालों को थोड़ी बहुत ख़ैरात के बदले गोलियों की सौगात मिली है। इधर हाल के वर्षों में इस तरह की एक घटना 18 सितम्बर 1991 को किशनगंज जिले के पोठिया प्रखण्ड में हुई जहाँ तीन आदमी मारे गये। यहाँ तीसरे व्यक्ति की लाश न मिल पाने के कारण सरकार उसे मृत नहीं मानती। 11 अगस्त 1998 को सीतामढ़ी जिला मुख्यालय पर राहत मांगने वालों पर पुलिस को ‘अपनी सुरक्षा’ के लिए गोली चलानी पड़ी। जनता की गलती सिर्फ इतनी थी कि वह समुचित मात्रा में राहत सामग्री की मांग कर रही थी और राहत कार्यों में कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार रोकने के खिलाफ आवाज बुलन्द कर रही थी। मारे गये लोगों में से दो व्यक्ति जनता दल के सदस्य थे जिसकी वजह से इस पूरी घटना को राजनैतिक रंग मिल गया। विपक्ष ने सरकार पर लोगों की कठिनाइयों के प्रति संवेदनहीन होने का आरोप लगाया तो राज्य सरकार का विपक्ष पर आरोप था कि वह इस दुर्घटना से राजनैतिक लाभ उठाना चाहता है।
पुलिस की गोलियों के धमाके सीतामढ़ी में ही शान्त नहीं हुये। इनकी गूंज 6 अगस्त 2001 को मुजफ्फरपुर जिले के औराई प्रखण्ड में फिर सुनाई पड़ी जबकि छः निर्दोष लोग मारे गये। यहाँ झंझट तब शुरू हुआ जब रिलीफ बांटने वाले मुंशी ने सरकार द्वारा निर्धारित राहत सामग्री से कम सामग्री का वितरण शुरू किया। जब राहत मांगने वालों ने, जिनमें से अधिकांश लाल कार्डधारी थे, इस मनमानी का विरोध किया तो उपद्रव शुरू हो गया और पुलिस को अपने ‘बचाव’ में गोली चलानी पड़ गई। इसी तरह की घटना की पुनरावृत्ति कटिहार जिले के बलरामपुर प्रखण्ड में किरोरा गाँव में 4 अक्टूबर 2002 को हुई जिसमें दो ग्रामीण मारे गये।
2004 में दो किस्तों में हुई गोली चालन की घटनाओं में पहले पातेपुर प्रखण्ड कार्यालय, जिला वैशाली में 4 अगस्त के दिन रिलीफ मांगने वाले लोगों की भीड़ पर गोली चलाई गई जिसमें मन्टुन पासवान नाम का 14 वर्षीय किशोर मारा गया। पातेपुर में लोग राहत सामग्री के वितरण के लिए अंचल अधिकारी को खोजने के क्रम में उग्र हो गये और पुलिस को अपने ‘बचाव’ में गोली चलानी पड़ी। ऐसा ही कुछ दरभंगा जिले के मनीगाछी प्रखण्ड में 16 अगस्त को हुआ जब रेलवे लाइन पर धरने पर बैठे रिलीफ मांगने वालों पर पुलिस ने गोली चलाई जिसकी वजह से 3 आदमी मारे गये। अनौपचारिक स्रोतों के अनुसार मरने वालों की संख्या 5 थी।
1947 के बाद से अब तक कुछ भी नहीं बदला है सिवाय इसके कि अब कोई यह कहता हुआ सुनाई नहीं पड़ता कि उसे राहत सामग्री की जरूरत नहीं है। बढ़ती आबादी, बाढ़ नियंत्रण की गलत नीतियों पर अमल, राहत बजट का आवश्यकता के अनुरूप न होने और वितरण में भ्रष्टाचार आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से राहत सामग्री के लिए चारों ओर मारा-मारी लगी रहती है। असली जरूरतमन्द लोगों तक राहत सामग्री पहुँच ही नहीं पाती है। हालात इतने बुरे हो गये हैं कि पिछले कुछ वर्षों में राहत मांगने वालों को थोड़ी बहुत ख़ैरात के बदले गोलियों की सौगात मिली है। इधर हाल के वर्षों में इस तरह की एक घटना 18 सितम्बर 1991 को किशनगंज जिले के पोठिया प्रखण्ड में हुई जहाँ तीन आदमी मारे गये। यहाँ तीसरे व्यक्ति की लाश न मिल पाने के कारण सरकार उसे मृत नहीं मानती। 11 अगस्त 1998 को सीतामढ़ी जिला मुख्यालय पर राहत मांगने वालों पर पुलिस को ‘अपनी सुरक्षा’ के लिए गोली चलानी पड़ी। जनता की गलती सिर्फ इतनी थी कि वह समुचित मात्रा में राहत सामग्री की मांग कर रही थी और राहत कार्यों में कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार रोकने के खिलाफ आवाज बुलन्द कर रही थी। मारे गये लोगों में से दो व्यक्ति जनता दल के सदस्य थे जिसकी वजह से इस पूरी घटना को राजनैतिक रंग मिल गया। विपक्ष ने सरकार पर लोगों की कठिनाइयों के प्रति संवेदनहीन होने का आरोप लगाया तो राज्य सरकार का विपक्ष पर आरोप था कि वह इस दुर्घटना से राजनैतिक लाभ उठाना चाहता है।
पुलिस की गोलियों के धमाके सीतामढ़ी में ही शान्त नहीं हुये। इनकी गूंज 6 अगस्त 2001 को मुजफ्फरपुर जिले के औराई प्रखण्ड में फिर सुनाई पड़ी जबकि छः निर्दोष लोग मारे गये। यहाँ झंझट तब शुरू हुआ जब रिलीफ बांटने वाले मुंशी ने सरकार द्वारा निर्धारित राहत सामग्री से कम सामग्री का वितरण शुरू किया। जब राहत मांगने वालों ने, जिनमें से अधिकांश लाल कार्डधारी थे, इस मनमानी का विरोध किया तो उपद्रव शुरू हो गया और पुलिस को अपने ‘बचाव’ में गोली चलानी पड़ गई। इसी तरह की घटना की पुनरावृत्ति कटिहार जिले के बलरामपुर प्रखण्ड में किरोरा गाँव में 4 अक्टूबर 2002 को हुई जिसमें दो ग्रामीण मारे गये।
2004 में दो किस्तों में हुई गोली चालन की घटनाओं में पहले पातेपुर प्रखण्ड कार्यालय, जिला वैशाली में 4 अगस्त के दिन रिलीफ मांगने वाले लोगों की भीड़ पर गोली चलाई गई जिसमें मन्टुन पासवान नाम का 14 वर्षीय किशोर मारा गया। पातेपुर में लोग राहत सामग्री के वितरण के लिए अंचल अधिकारी को खोजने के क्रम में उग्र हो गये और पुलिस को अपने ‘बचाव’ में गोली चलानी पड़ी। ऐसा ही कुछ दरभंगा जिले के मनीगाछी प्रखण्ड में 16 अगस्त को हुआ जब रेलवे लाइन पर धरने पर बैठे रिलीफ मांगने वालों पर पुलिस ने गोली चलाई जिसकी वजह से 3 आदमी मारे गये। अनौपचारिक स्रोतों के अनुसार मरने वालों की संख्या 5 थी।
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