हाल ही में जयपुर में बांधों की सुरक्षा को लेकर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। भारत सरकार के जल शक्ति मंत्रालय की और से बेहद भव्य तरीके से आयोजित इस कार्यक्रम में दुनियाभर के विशेषज्ञों ने बांधों को लेकर अपनी चिंता जाहिर करते हुए कई सुझाव भी पेश किए। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में छह हजार से अधिक बड़े-छोटे बांध हैं।
वहीं संयुक्त राष्ट्र की एक रपट में बताया गया है कि भारत में चार हजार चार सौ सात बड़े बांध हैं, जो 2050 तक पचास वर्ष की उम्र पार कर लेंगे। इनमें से चौसठ तो सौ वर्ष पुराने हैं और एक हजार से अधिक बांध पचास वर्ष या उससे पुराने हो चुके हैं। यों भारत के केंद्रीय जल आयोग के 2019 के आंकड़ों में बड़े बांधों की संख्या पांच हजार तीन सौ चौतीस बताई गई है, लेकिन इस अ ध्ययन में बड़े बांध की गिनती परिभाषा के अंतरराष्ट्रीय मानकों के लिहाज से की गई है।
भारत के लिए सन 2025 बांधों के लिहाज से अहम और ध्यान देने योग्य माना गया है, क्योंकि तब एक हजार से अधिक बांध पचास वर्ष या उससे पुराने हो चुके होंगे निर्माण और देखरेख पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है, लिहाजा ठोस ढंग से निर्मित बांध सौ वर्ष की उम्र तक काम कर लेते हैं। हालांकि विशेषज्ञ आमतौर पर पचास वर्ष को बांध की क्षमता में गिरावट का एक पैमाना मानकर चलते हैं, दुनिया के पचपन फीसद बांध सिर्फ चार एशियाई देशों भारत, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया में हैं। बड़े बांधों के लिहाज से भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर माना गया है। बेशक बांध जलापूर्ति ऊर्जा उत्पादन, बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई के अलावा प्रत्यक्ष-परोक्ष रोजगार और अर्थव्यवस्था की वृद्धि में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं, लेकिन यह भी सच है कि जलाशय वाले अधिकतर बांध पुराने पड़ रहे हैं।
भारत में चार हजार चार सौ सात बड़े बांध हैं, जो चीन और अमेरिका के बाद दुनिया में तीसरे नंबर पर हैं। बांध सुरक्षा पर एक रपट के अनुसार, भारत में 2025 तक एक हजार एक सौ पंद्रह से अधिक बड़े बांध लगभग पचास वर्ष 2050 में चार हजार दो सौ पचास छोटे और चौंसठ बड़े बांध डेढ़ सौ वर्ष से अधिक पुराने हो जाएंगे। इससे भारत के लिए अपने पुराने बांधों की लागत-लाभ विश्लेषण और समय पर सुरक्षा समीक्षा करना बहुत आवश्यक हो जाता है।
रपट के अनुसार, पचास वर्षों में एक बड़ा कंक्रीट पांच उम्र बढ़ने के संकेत देना शुरू कर देता है, इसलिए आपदा प्रबंधन और न्यूनीकरण की व्यवस्था को और सुदृढ़ बनाए जाने की जरूरत है। यह भी देखना चाहिए कि के उम्रदराज होने के साथ और भी कौन से संभावित खतरे हो सकते हैं। बांध वाले इलाकों में अनियमित विकास से बचना चाहिए। जोखिम कम से कम रखना ही श्रेयस्कर होगा।
नेशनल रजिस्टर फार लार्ज डैम के मुताबिक, भारत में करीब 1200 बांध पचास वर्ष या फिर इससे ज्यादा उम्र के हैं। इनमें अगर उन बांधों को भी जोड़ दें, जिनकी उम्र का ठीक पता नहीं तो यह आंकड़ा तेरह सौ से ज्यादा है। पुराने और कमजोर बांधों के टूटने का खतरा हमेशा बना रहता है और बाढ़ जैसे हालात में इनका टूटना आपदा को कई गुना बड़ा देता है फिर भी बांधों की उम्र, उनकी लगातार मरम्मत और समीक्षा की भारत में ज्यादा चर्चा नहीं होती। इसे लेकर पहली बार हंगामा तब हुआ था, जब 1979 में गुजरात में मच्छू बांध टूटने की वजह से हजारों लोग मारे गए थे।
यहाँ 'साउथ एशियन नेटवर्क आन डैम, रिवर्स एंड पीपुल' संख्या का कहना है कि निचले इलाकों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए बांधों की नियमित सुरक्षा समीक्षा और मरम्मत जरूरी है, लेकिन भारत में इसकी मजबूत प्रक्रिया नहीं है। हालांकि सरकारों का दावा है कि बांधों की सुरक्षा के लिए तकनीक का सहारा लिया जा रहा है और साफ्टवेयर विकसित किए गए हैं।
संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय की रपट में 'बूढ़े बांधों को एक बड़ी आबादी के लिए उभरता हुए वैश्विक खतरा बताया गया है। इससे भारत को भी सतर्क हो जाना चाहिए, क्योंकि यहां भी उम्रदराज बांध अपने आसपास रहने वाली बड़ी जनसंख्या के लिए मुसीबत बन सकते हैं। मोटे तौर पर पचास वर्ष बीतने के बाद पांच में पुरानेपन के लक्षण दिखाई देने लगते हैं और ये कमजोर हो जाते हैं। हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि भारत के बांधों की औसत आयु चालीस वर्ष है। यहां बांध सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में बनने शुरू हुए अमेरिका में पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच बांधों के निर्माण की शुरुआत हो चुकी थी। जब भारत में बांधों का निर्माण शुरू हुआ तो निर्माण की अपेक्षा आधुनिक तकनीक आ चुकी थी, इसलिए भारत के बांध अन्य की तुलना में सुरक्षित हैं।
इस मुद्दे को एक नए अध्ययन ने फिर से बहस में ला दिया है। दुनिया के बहुत सारे बड़े बांध 1930 से 1970 के बीच बनाए गए थे, जो अपनी पचास से सौ वर्ष की निर्धारित उम्र अगले कुछ वर्ष में पूरी कर लेंगे। तब से अपने ढांचे में कमजोर पड़ जाएंगे। उनके विशाल जलाशयों में जमा पानी का आकार सात हजार से आठ हजार घन किलोमीटर हो चुका है। जलाशयों में गाद और मलबा बहुत ज्यादा भरे जाएगा, उनकी मोटर, गेट, 'स्पिल्ये' और अन्य मशीनें भी कमजोर या पुरानी पड़ चुकी होंगी, इसलिए समय रहते आवश्यक कदम उठाने की ताकीद की गई है।
जलवायु परिवर्तन भी बांधों की उम्र को कम करने वाला एक प्रमुख कारक बन गया है। बारिश का बदलता स्वरूप बांधों की कार्यक्षमता को प्रभावित करता है। बड़े बांधों की क्षमता का आकलन करते हुए उन्हें हटाने का काम रोक देने के लिए चिह्नित करते रहना चाहिए। एक और बड़े बांधों का सवाल है तो दूसरी और बहुत छोटी संकरी नदी घाटियों में बांधों की अधिक संख्या भी कम चिंताजनक नहीं है। पारिस्थितिकी, जैव-विविधता, स्थानीय सांस्कृतिक सामाजिक ताने-बाने और पर्यावरण की तबाही के मंजर बहुत कम अंतराल में उत्तराखंड जैसा छोटा राज्य देख चुका है।
पर्यावरणवादी चिंतित हैं कि सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद सरकारों और निजी कंपनियों के जन-बिजली परियोजनाओं पर काम और प्रस्ताव जारी हैं। यहां मामला केवल बांध का नहीं, बल्कि बहुत सारी छोटी परियोजनाओं का भी है, हालांकि ये अगर तीव्र ढाल वाली नदी और नालों में बनने लगेगी तो स्थानीय पर्यावरण का हश्र सामने होगा।
वर्ष 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ और 2021 में धौली गंगा को सदियों समेत पर्यावरणीय क्षति की अन्य बड़ी घटनाओं को सिर्फ बर्बादी के विचलित कर देने वाले आंकड़े और दृश्यों के रूप में ही नहीं, बल्कि एक स्थायी सबक की तरह भी याद रखा जाना चाहिए।
सन 2021 की कैग की रपट में कहा गया या कि मध्य प्रदेश में चंबल नदी पर बने गांधी सागर बांध को मरम्मत की जरूरत है। गांधी सागर एक चिनाई वाला बांध है, जिसका निर्माण 1960 में राजस्थान और मध्य प्रदेश के कई क्षेत्रों को पीने का पानी उपलब्ध कराने और 115 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए किया गया था।
यह चंबल नदी पर बने चार प्रमुख बांधों और राष्ट्रीय महत्व के पांच जलाशयों में से एक है। बांध विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे पुराने बांधों को खत्म कर देना चाहिए, जिनका इस्तेमाल उनके रख-रखाव में आए खर्च के मुकाबले कम या न के बराबर है। लेकिन भारत में बांधों को खत्म करने की कोई प्रक्रिया नहीं है। ज्यादातर विशालकाय बांधों से बर्बादी की स्थिति पूरी दुनिया में कमोबेश सभी जगह आ चुकी है।
दुनिया में किसी एक जगह गंभीर पर्यावरणीय नुकसान होता है तो उसका असर दुनिया के दूसरे हिस्सों पर भी किसी न किसी रूप में पड़ता है। हम सभी को इस बात को तत्काल समझने की जरूरत है।
स्रोत - 5 अक्तूबर, 2023, जनसत्ता, नई दिल्ली
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