अप्रैल 2013 में, योजना आयोग के सदस्य भी के चतुर्वेदी की अध्यक्षता में अंतर्मंत्रालयी समूह (आईएमजी) ने प्रधानमंत्री कार्यालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में, आठ महीनों तक 25 प्रतिशत तथा चार महीनों के दौरान 30 प्रतिशत प्राकृतिक प्रवाष्ठ की संस्तुति की गई। यह प्रस्ताव वर्तमान परिस्थितियों से एक सुनिश्चित प्रगति है, जहां जल-ऊर्जा प्रॉजेक्टों के डिजाइन में प्राकृतिक प्रवाह के रूप में, 10 प्रतिशत से भी कम का प्रावधान किया गया है। लेकिन पारिस्थितिकी क्या जीवनयापन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए गंगा में पर्याप्त पानी हो, इस लिहाज से यह काफी नहीं है।
आईएमजी का प्रस्ताव, यह सुनिश्चित करने के लिहाज से भी अपर्याप्त है कि, नदी सभी मौसमों और सभी अंडों में वास्तविक रूप से प्रवाहित होती रहे। वे 24 प्रॉजेक्ट, जिनके जल-उपयोग आंकड़े उपलब्ध हैं, के विश्लेषण से यह पता चलता है कि अभाव के मौसम में जल का प्रवाह, उच्चतम मानसून प्रवाह के अनुपात में 10 प्रतिशत से भी कम हो जाता है। दूसरे शब्दों में, इन सूखे ऋतु-माठों के दौरान प्रवाड को 50 प्रतिशत से भी कम पर छोड़ने का मतलब है नदी का लगभग सूख जाना।
सीएसई द्वारा सुझाया गया एक विकल्प सुसंगत प्रतीत होता है, जो खासतौर पर ऊर्जा के उत्पादन और शुल्क-दरों को भी ज्यादा प्रभावित नहीं करता। इसके तहत, छः महीनों (नवंबर से अप्रैल) तक 60 प्रतिशत, तथा बाकी छः महीनों (मई से अक्टूबर) तक 30 प्रतिशत प्रवाह का प्रावधान है। बी के चतुर्वेदी की रिपोर्ट तथा वैकल्पिक रिपोर्ट के बीच प्रस्तावित ऊर्जा उत्पादन में आने वाला फर्क मामूली सा 8 प्रतिशत होता है, जो पूरी परियोजना के औसत के आधार पर है। इसका मतलब होगा, कि मोटे तौर पर शुल्क दरों में औसतन 7 प्रतिशत की वृद्धि होगी। स्पष्ट रूप से, सभी ऋतुओं में गंगा के अविरल प्रवाह के लिए चुकाया जाने वाला यह बहुत छोटा सा मूल्य है।
ऊर्जा उत्पादन तथा सुल्क दरों पर पड़ने वाला अत्तर इतना मामूली क्यों है, इसका कारण है कि शुष्क मौसम में जल-ऊर्जा प्रॉजेक्ट काफी अधिक ऊर्जा का उत्पादन नहीं कर पाते। छः माह की शुष्क जल-ऋतु के दौरान्, इन प्रॉजेक्टों द्वारा सालाना उत्पादित ऊर्जा के केवल 20 प्रतिशत तक का उत्पादन होता है। अधिकतम 60 प्रतिशत ऊर्जा का उत्पादन उच्चतम जल-प्रवाह के छः महीनों (नई से अक्टूबर) के दौरान ही होता है।
भविष्य में ऊर्जा उत्पादन व्यवस्थाएं केवल तभी काम कर पाएंगी जब पानी हो और इसकी संभाव्यता हो। इस तरीके से, हम अपनी ऊर्जा-आवश्यकताओं को एक स्वस्थ गंगा के अविरल प्रवाह की आवश्यकता के साथ-साथ संतुलित कर सकते हैं।
वास्तविक वार्षिक ऊर्जा का प्रतिशत
अप्रतिबंधित में उत्पन्न (10%), आईएमजी (25-30%) और वैकल्पिक /सीएसई (30-50%) प्राकृतिक प्रवाह
वास्तविक वार्षिक ऊर्जा
अप्रतिबंधित आईएमजी और वैकल्पिक /सीएसई ई -प्रवाह में अलग अलग मौसम में उत्पन्न
कानपुर-इलाहाबाद-वाराणसी
जहां गंगा कई-कई बार मरती है गंगा के लिए, निचले उत्तरप्रदेश के प्रवाह-खंड से होकर - कानपुर से उन्नाव होते हुए, फतेहपुर, रायबरेली और तब मिर्जापुर होकर इलाहाबाद और वाराणसी तक - गुजरने की यात्रा वास्तव में मृत्यु सदृश है। नदी को अपने अपशिष्टों के अपचयन का कोई मौका नहीं मिलता, जो इस प्रवाह-खंड में इसके किनारे पर स्थित शहरों और उद्योगों द्वारा नदी में लगातार उड़ेले जाते हैं। केवल इलाहाबाद में आकर ही इसमें यमुना के द्वारा कुछ "साफ" पानी डाला जाता है, जो दिल्ली में अपनी यात्रा के बाद, यहां आने तक में थोड़ा सा स्वस्थ हो पाती है। लेकिन यह जो गंगा का इलाका है, यहां भारत के सबसे गरीब लोग रहते हैं. जहां शहरी प्रशासन का लगभग कोई अस्तित्व ही नहीं है; और जहां इस वजह से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है।
कानपुर-वाराणसी खंड में, नदी में 3,000 एमएलडी अपशिष्ट जल छोड़ा जाता है- मोटे तौर पर इसके संपूर्ण (अपशिष्ट) भार का आधा। 2013 में, सीपीसीबी ने उच्च बीओडी वाले 33 नालों की पहचान की जो गंगा में प्रवाहित होते हैं (तालिका देखेंः गंगा में निःस्रावित होने वाली नालियां, तथा मानचित्रः प्रदूषण का रास्ता)। इस खंड की 33 में से 7 नालियां तो बुरी तरह प्रदूषण पैदा करती हैं- ये नालियां मिलकर कानपुर-वाराणसी खंड के कुल बीओडी भार में 94 प्रतिशत तक योगदान करती हैं।
बीओड़ी भार के संदर्भ में जो प्रदूषण का एक संकेतक है कानपुर सबसे बुरी - हालत में है। इस प्रवाह-खंड में, 10 नालियां 20 प्रतिशत अपशिष्ट जल निःस्रावित करती है, लेकिन इस खंड के कुल बीओडी भार में 86 प्रतिशत का योगदान करती हैं। इस कारण से, स्पष्ट तौर पर, यह एक ऐसा शहर है जिसे प्राथमिकता के आधार पर साफ किए जाने की
जरूरत है।तथापि, हर प्रवाह-खंड में ऐसी नालियां हैं, जिनपर प्राथमिकता के आधार पर त्वरित कार्रवाई किए जाने की आवश्यकता है। यह स्पष्ट है कि गंगा में गिरने वाला हर नाला खतरनाक है, क्योंकि यह पानी नहीं, केवल अपशिष्ट लाता है।
जहां कुछ भी सफल नहीं रहा
कानपुर शहर का, अपने मध्यभाग से होकर बहने वाली इस नदी की सफाई के लिहाज से एक लंबा और बहुत हद तक असफल इतिहास रहा है। यह सब 1985 में शुरू हुआ, जब गंगा एक्शन प्लान (जीएपी-1) के तहत, यहां की नालियां साफ की गई, ड्रेनेज प्रणाली का विस्तार किया गया, एक 130-एमएलडी के एसटीपी का निर्माण किया गया तथा चर्म-शोधकों के अपशिष्ट जल के ट्रीटमेंट के लिए एक अन्य 36-एमएलडी का संयंत्र बनाया गया। जीएपी के तहत कार्यों को पूर्ण करने में 18 वर्ष लगे; इसी बीच 1993 में जीएपी-॥ शुरू हो गया। इस दौर में शेष बचे 224 एमएलडी के ट्रीट्रमेंट पर ध्यान केंद्रित किया गया, जिसके लिए एक 200 एमएलडी संयंत्र की योजना तैयार की गई। नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी के लिए आईआईटी कंसोर्टियम की रिपोर्ट के अनुसार, जीएपी-॥ के अंतर्गत योजनाएं अब भी अपूर्ण है, जबकि योजना के खत्म हुए लगभग 15 साल बीत चुके हैं।
इसके अलावा, शहर को ड्रेनेज और सीवेज के कामों के लिए जवाहरलाल नेहरू नेशनल शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) से भी फंड प्राप्त होता है। यदि इन सभी फंडों (कोषों) को एक साथ मिलाया जाए तो शहर को निम्नलिखित की प्राप्ति हुई
- जीएपी 1: रुपये 73 करोड़
- जीएपी II: रुपये 87 करोड़
- जेएनएनयूआरएमः रुपये 370 करोड़
लेकिन अंतिम परिणाम बहुत उत्साहजनक नहीं हैं। प्रदूषण और कानपुर एक दूसरे का पर्याय बन गए है। समस्याएं इस प्रकार है
- शहर के एक बड़े हिस्से में सीवेज नहीं है और इसलिए अपशिष्ट जल को ट्रीटमेंट प्लांट तक नहीं पहुंचाया जा सकता।
- गंगा एक्शन प्लान के तहत लक्ष्य था खुले नालों के अपशिष्ट को रोककर उसे एसटीपी की ओर मोड़ना। लेकिन यह हुआ नहीं क्योंकि कानपुर के सभी 23 नालों को नहीं लिया गया और अपशिष्ट बहकर गंगा में पहुंचते रहे।
- इस अवधि में, शहर का विस्तार हुआ और ड्रेनेज और प्रदूषण नियंत्रण की व्यवस्था के बिना ही नया विकास होता रहा। इसलिए, कुछ नालों के रोके जाने के बावजूद भी अपशिष्ट की मात्रा बढ़ती रही और ट्रीटमेंट का काम पिछड़ता रहा।
- 1985 में कानपुर ने 200 एमएलडी अपशिष्ट उत्पादित किया; इसकी स्थापित क्षमता थी 171 एमएलडी। 2013 तक, इसके 10 नालों ने 600 एमएलडी अपशिष्ट गंगा में बहाए। इसकी ट्रीटमेंट क्षमता अब भी उतनी ही है जितनी 1985 में थी। जाजमऊ में 5 एमएलडी और 36 एमएलडी के दो यूएसबी तकनीक के प्लांट लगाए गए हैं। इसके अलावा 130 एमएलडी का एक अन्य प्लांट लगाया गया है जो एएसपी तकनीक पर आधारित है।
- प्लांटों को चलाने का भी व्यय नगरपालिका वहन नहीं कर सकती, शहर के पुराने सीवेज सिस्टम की मरम्मत और पुनर्सज्जा की तो बात ही क्या। शहर में लंबे समय तक लोड शेडिंग होती है और बिजली गुल रहती है जिस कारण अपशिष्टों को बिना ट्रीटमेंट प्लाटों से गुजारे सीधे नदी में बहा दिया जाता है।
परिणामस्वरूप, 217 एमएलडी की स्थापित क्षमता वाला शहर अभी केवल 100 एमएलडी का शुद्धीकरण कर पाता है क्योंकि या तो प्लांट काम नहीं करते या फिर अपशिष्ट प्लांट तक नहीं पहुंचते। सीवेज उत्पादन का आधिकारिक अनुमान 400 एमएलडी का है, जबकि मापी गई वास्तविक मात्रा 600 एमएलडी है। दूसरे शब्दों में कहें तो लगभग 300-500 एमएलडी सीवेज नदी में बहाए जा रहे हैं।
इस शहर का सबसे बड़ा और सबसे प्रदूषित नाला सिसामऊ ने योजनाकारों का ध्यान खींचा है इसके अपशिष्ट की निबटान व्यवस्था के लिए ऊपरी धारा पर ही अपशिष्ट को रोककर इसकी दिशा गंगा की बजाए पांडु नदी की ओर मोड़ देने जैसे कई सारे प्रस्ताव है। अपशिष्ट को उपचारित कर किसानों को सिंचाई के लिए उपलब्ध कराया जाएगा। लेकिन, अभी यह सब कुछ कागज पर ही है, जबकि नदी लगातार तबाह और क्षतिग्रस्त हो रही है।
वाराणसी
गंगा वाराणसी से होकर इस शहर के पश्चिमी तट को छूती हुई बहती है। यह एक शहर है जहां हिंदू पूजा करने तथा शव के दाहसंस्कार हेतु आते हैं। यह देवताओं का शहर है। किंतु जिसकी लाखों लोग पूजा करते हैं, वह नदी अब भी प्रदूषित है। लेकिन यह इस वजह से नहीं, कि इसकी सफाई के प्रयास नहीं किए गए।
इस शहर ने बहुत पहले 1954 में प्रदूषण नियंत्रण की चुपचाप शुरूआत कर दी थी, जब राज्य सरकार ने एक अपशिष्ट उपयोगिता योजना की शुरुआत की, विभिन्न घाटों पर, सीवेज-पंप स्टेशन बनाए गए, ताकि सीवेज को रोका जाए, और उसका रुख मोड़कर, शहर से बहुत अलग स्थित दीनापुर के सीवेज फार्म तक पहुंचाया जा सके। हरिशचंद्र घाट, घोड़ा घाट (जिसे डॉ राजेंद्र प्रसाद घाट का नाम दिया गया है), जलसेन घाट तथा त्रिलोचन घाटों पर पंप स्टेशनों का निर्माण किया गया। यह मूलभूत ढांचा 1970 तक पूरा हो गया और संचालन हेतु जल-संस्थान (शहर की जल-एजेंसी) को सुपुर्द कर दिया गया। लेकिन इसके बाद बहुत कम काम हुआ। बहुत जल्दी ही इन सब ने काम करना बंद कर दिया।
वाराणसी नदी और सीवर
1986 में, गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत के साथ इन प्रॉजेक्टों का भी पुनरीक्षण किया गया। नालियों को बनाने तथा मरम्मत करने और पंप-स्टेशनों के नवीकरण के लिए और ज्यादा धनराशि आवंटित तथा व्यय की गई। इसके अलावा, 101.8 एमएलडी की समेकित क्षमता के साथ तीन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों का निर्माण किया गयाः भगवानपुर में 9.8 एमएलडी, दीनापुर में 80 एमएलडी; तथा डीजल लोकोमोटिव वर्क्स में 12 एमएलडी। तब नए सीवेज मूलभूत ढांचों के निर्माण पर अधिक धन व्यय करने के मुद्दे पर गर्मागर्म बहस शुरू हो गई। मार्च 2001 में, राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय ने और अधिक शाखा सीवरों तथा संग्रहण नालियों के निर्माण के लिए अतिरिक्त 416 करोड़ रुपए स्वीकृत किए। सचमुच निविदाकरण प्रारंभ हुआ। लेकिन सितम्बर 2001 में, सुप्रीम कोर्ट ने नदी प्रदूषण पर एक लोकहित मामले की सुनवाई करते हुए, इस प्रक्रिया पर रोक लगा दी और इस योजना के पुनरीक्षण का आदेश पारित किया। तथापि, 2002 में, शीर्षस्थ न्यायालय ने अपना पूर्व-आदेश निरस्त कर दिया। योजना तैयार थी और लागू करने को हरी झंडी मिल गई। हर कोई यह भूला हुआ था कि शहर के पास वर्तमान मौजूद संयंत्रों को चलाने के लिए कोई धन नहीं है।
यह तब हुआ, जब 1997 के प्रारंभ में, एक शहर-आधारित समूह, संकट मोचन फाउंडेशन ने महंगी प्रदूषण योजनाओं के एक सस्ते और वहनीय विकल्प का सुझाव दिया। शहर में घाटों के किनारे जलबंद संग्रहिकाओं (वाटरटाइट इंटरसेप्टर्स) का निर्माण किया जा सकता था, जो गुरुत्व के सिद्धांत पर काम करते। इससे बिजली (पंप करने की) की लागत घटती। शहर के निचले प्रवाह क्षेत्र की ओर लगभग 5 किमी. पर, सोता में, जीवाणुओं तथा काई की मदद से आधुनिक समेकित ऑक्सीडेशन तालाबों में सीवेज का ट्रीटमेंट किया जाना था। इस विकल्प की पूंजी लागत 150 करोड़ रूपये अनुमानित की गई।
लेकिन वाराणसी के लोक जल-कार्य विभाग ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह व्यावहारिक नहीं है क्योंकि इससे तीर्थयात्रा बाधित होगी और खुदाई से ऐतिहासिक घाटों को क्षति पहुंचेगी।
गंगा एक्शन प्लान की पुनः शुरुआत के साथ ही, शहर को एक नया मौका मिला। नेशनल गंगा रिवर अथॉरिटी (एनजीबीआरए) तथा जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी, 524 करोड़ रूपये की वित्तीय सहायता प्रदान करने को सहमत हो गए, जिससे सीवेज के मूलभूत ढांचे के निर्माण और अस्सी घाट के सौंदर्गीकरण की परियोजना कार्यान्वित की जानी थी। जून 2013 तक, एनजीआरबीए साइट पर उपलब्ध अंतिम प्रगति रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 12 प्रतिशत कार्य पूरा हुआ था। यह कहना मुश्किल है कि क्या यह योजना अन्य योजनाओं से कुछ अलग होगी, क्योंकि यह भी उन्हीं के समान है वही सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट, मूलभूत ढांचे, नालियां तथा पंप और पाइपें। आजतक इस आर्थिक संसाधन और ऊर्जा के मामले में अभावग्रस्त शहर में यह सब काम पूरे नहीं हो सके। स्पष्ट तौर पर, जब नदी को बहिश्कृत करने के लिए घन हो, तो इसे साफ करने का कोई सवाल ही नहीं उठता।
मौजूदा स्थिति
शहर के पास समस्याओं का अंबार है। पहला, इसका मौजूदा और समुन्नत सीवेज नेटवर्क अत्यंत अपर्याप्त है। केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय द्वारा लागू सिटी सैनीटेशन प्लान के अनुसार 400 किमी लंबाई का सीवेज नेटवर्क मुख्य रूप से पुराने शहर और घाट इलाके में फैला है। हालांकि यह भी 100 साल पुराना है और बहुत ही जर्जर स्थिति में है। यूपी सरकार के अनुसार शहर का 80 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बिना सीवर का है।
दूसरा, शहर की एक तिहाई आबादी झुग्गियों में रहती है जिनके पास स्वच्छता और सीवेज सुविधा का अभाव है। सिटी सैनीटेशन प्लान ने पाया कि शहर के 15 प्रतिशत हिस्से के पास शौचालय सुविधा नहीं है और लोग खुले में मलत्याग को विवश हैं (मैप पृष्ठ 25-27 देखें)।
तीसरा, सीवरेज की कमी के कारण शहर के कई सारे हिस्से (खासकर परिधीय इलाके) सेप्टिक टैंक पर निर्भर करते हैं। लेकिन सेप्टेज प्रबंधन के लिए कोई औपचारिक व्यवस्था नहीं है और टैंक ओवरफ्लो होकर खुले नालों में बहता है और निचले इलाकों में जमाव का कारण बनता है।
चौथा, शहर में ठोस कचरा प्रबंधन की कोई व्यवस्था नहीं है और इसलिए यह कचरा भी नालों के जाम होने का कारण बनता है और बहकर अंततः नदी को ही प्रदूषित करता है। इस परिस्थिति में, केवल सीवेज नेटवर्क के समुन्नयन या और अधिक संख्या में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने भर की योजना पर्याप्त नहीं है।
मौजूदा सीवेज ट्रीटमेंट परियोजनाएँ
शहर में सीवेज उत्पादन का आधिकारिक अनुमान 233 एमएलडी है। यह इस आकलन पर आधारित है कि जल निगम द्वारा आपूर्ति किए जा रहे पानी का 80 प्रतिशत सीवेज के रूप में वापस आता है। हालांकि, यह व्यापक रूप से एक गलत आकलन है, क्योंकि इसमें भौमजल के इस्तेमाल और अन्य स्रोतों से पानी बहकर नाले में पहुंचने पर ध्यान नहीं दिया गया है। सीपीसीबी द्वारा 2013 में किए गए नालों के निस्सरण के मापन से पता चलता है कि शहर 410 एमएलडी मलजल प्रवाहित करता है जो कि आधिकारिक आकलन का दुगुना है।
सीवेज ट्रीटमेंट की मौजूदा क्षमता 101.8 एमएलडी है। दूसरे शब्दों में, निर्मित अपशिष्ट का केवल 25 प्रतिशत ही उपचारित किया जा सकता है और 75 प्रतिशत बिना किसी ट्रीटमेंट के नदी में बहा दिया जाता है। जल निगम के अनुसार दीनापुर और भगवानपुर एसटीपी का उपचारित अपशिष्ट जल सिंचाई के काम में लाया जाता है।
अब शहर ने 260 एमएलडी ट्रीटमेंट क्षमता जोड़ा है, लेकिन प्रश्न है कि क्या यह वह समाधान उपलब्ध कराता है जिसकी आज आनिवार्य आवश्यकता है? प्रश्न अब भी वही है कि क्या बिना सीवेज नेटवर्क के यह शहर अपने अपशिष्ट जल को रोककर ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुंचा पाएगा? फिर, नालों से निकले प्रवाह की मात्रा अब भी बहुत अधिक है और समय के साथ जनसंख्या बढ़ते जाने से इसमें और भी अधिक वृद्धि होगी। इसलिए, एसटीपी के क्षमता में वृद्धि अब भी पर्याप्त नहीं होगी। प्रश्न यह भी है कि उपचारित अपशिष्ट का क्या होगा और क्या यह खुले नालों में अनुपचारित जल के साथ मिलाया जाएगा, जो फिर नदी में ही प्रवाहित होगा? आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण बात, इन प्लांटों को चलाने के लिए शहर के पास बिजली और आर्थिक साधन कहां से आएंगे?
यही कारण है कि शहर को अपनी मौजूदा सीवेज ट्रीटमेंट की रणनीति की समीक्षा करनी चाहिए। सीपीसीबी (2013) के अनुसार इस शहर के तीन नाले हैं- राजघाट, नगवा, रामनगर - और दो नदियां (इनके जल की गुणवत्ता के कारण इन्हें भी नाले की संज्ञा दी जाती है) - वरुण और अस्सी हैं। प्रश्न है इन नालों के अपशिष्ट को किस प्रकार अच्छी - तरह रोककर सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्रों तक पहुंचाया जाए और फिर इसका दुबारा इस्तेमाल और रिसाइकल किया जाए। उच्च बीओडी भार के कारण दो नाले महत्वपूर्ण हैं। नगवा नाला (बीओडी लोड 4,000 किग्रा /दिन) और वरुण नाला (बीओडी लोड 3,888 किग्रा /दिन)।
यह भी महत्वपूर्ण है कि नालों को यथास्थान ट्रीटमेंट जोन के रूप में विकसित किया जाए। सिटी सैनीटेशन प्लान के अनुसार नालों का अपशिष्ट जल घरेलू सेप्टिक टैंकों से आने वाले प्रवाह के कारण तनुकृत (डाइल्यूटेड) है और इसलिए इन नालों को साफ करना तथा उन्हें खुले ट्रीटमेंट फैसिलिटीज के रूप में विकसित करना संभव है।यह बात महत्वपूर्ण है कि शहर में ठोस कचरा और स्वच्छता सेवाओं को समुन्नत बनाया जाए। इन सबके के लिए वित्तीय नीति बहुत महत्वपूर्ण होगी। वाराणसी में गंगा तभी स्वच्छ रहेगी जब शहर साफ-सुथरा रहेगा।
लेखिकाः सुनीता नारायण
स्रोत - सेंटर फॉर साइंस एन्ड एन्वायरन्मेंट
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