प्रदूषित होता पर्यावरण

प्रदूषित होता पर्यावरण
प्रदूषित होता पर्यावरण

इस अनोखे पृथ्वी ग्रह को अनेक कारक जीवनदायी बनाते हैं। पृथ्वी का पर्यावरण ऐसा ही एक महत्वपूर्ण घटक है जो इस ग्रह को जीवनदायी बनाए हुए है। पर्यावरण के अंतर्गत वह सभी कुछ शामिल है जो हमारे चारों और उपस्थित है। हमारे आस-पास उपस्थित परिवेश जिसमें वायुमंडल, जलमंडल और भूमि आदि शामिल है, पर्यावरण कहलाता है। वैसे तो अंतरिक्ष से हमारा पृथ्वी ग्रह सुंदर और चमकीला नजर आता है। लेकिन अब पृथ्वी पर घुटन महसूस होने लगी है। पर्यावरण के तीनों महत्वपूर्ण घटक - हवा, पानी और मिट्टी दिनोंदिन प्रदूषित होते जा रहे हैं। प्रदूषण से आशय पर्यावरण में ऐसे किसी भी अवयव का आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्र होना है जिसके कारण पृथ्वी के प्राकृतिक संतुलन और जीवन में अवरोध उत्पन्न हो सकता है।

इस ग्रह का विशिष्ट पर्यावरण मानवीय गतिविधियों से प्रभावित हो रहा है। मानव की गतिविधियों से अब न ध्रुवीय क्षेत्र सुरक्षित बचे हैं न अंतरिक्ष । सन् 1997 में पर्यावरण में होने वाले तीव्र बदलावों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) ने 1981 से 1990 के दशक को पर्यावरण की पराजय का दशक माना है। बढ़ते प्रदूषण से हम अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं, यह ऐसा मुद्दा है जो मानव की उत्तरजीविता को प्रभावित करता है। प्रदूषण सर्वव्यापी बनता जा रहा है और इसका प्रभाव भी जीव-जंतुओं और वनस्पति जगत यहां तक कि निर्जीवों पर भी हो रहा है।

प्रदूषित होती हवा

वायुमंडल पृथ्वी ग्रह पर जीवन के लिए आवश्यक कारकों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है । वायुमंडल ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, हीलियम, ओजोन आदि अनेक गैसों का आवरण है जो पृथ्वी के चारों और फैला हुआ है। लेकिन अब हवा में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। लाखों-कराड़ों वर्षों के दौरान धरती पर जीवन को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाने वाला पर्यावरण अब मानवीय गतिविधियों द्वारा प्रदूषित होने लगा है। उद्योगों व वाहनों से निकली जहरीली गैसों द्वारा वायुमंडल में गैसों के प्राकृतिक अनुपात में बदलाव हो रहे है। वायुमंडल में धरती को गर्माने वाली गैसों यानी ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा के कारण ग्लोबल वार्मिंग की विकट समस्या उत्पन्न हुई है। वायुमंडल में बढ़ता प्रदूषण पृथ्वी ग्रह के साथ यहां उपस्थित जीवन के लिए भी खतरे का संकेत है।

प्रदूषित होते महासागर

नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार प्रदूषण अगर धरती पर हवा को जहरीला बना रहा है तो इसने समुद्री जल के भीतर की स्थिति को भी बहुत अच्छा नहीं छोड़ा है। महासागरों में बढ़ते रासायनिक पदार्थों और प्लास्टिक की मात्रा ने महासागरों की पारिस्थतिकी में प्रतिकूल परिवर्तन किए हैं। कभी-कभार दुर्घटनावश तेलवाहक जहाजों से हुए तेल का रिसाव महासागरीय पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। तेल के फैलाव से जल में रहने वाली जीवों के अस्तित्व को गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाता है। ऐसी दुर्घटनाएं उस स्थान की पारिस्थितिकी के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करती हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष करोड़ों टन तेल की ढुलाई महासागरीय मार्ग से होती है।

 तेलों की ढुलाई का मुख्य जरिया मालवाहक जहाज ही होते हैं। अगर कोई तेलवाहक जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है तो इनमें भरा तेल कई किलोमीटर तक फैल जाता है। महासागरों में होने वाली ये दुर्घटनाएं अक्सर दो जहाजों के टकराने, उनमें आग लग जाने या किसी कारण से उनमें से रिसाव के कारण होती हैं। और फिर इनसे बहे तेल की परत पानी पर देखी जा सकती है। ऐसी ही एक दुर्घटना सन् 1967 में ग्रेट ब्रिटेन के दक्षिण-पूर्वी तट पर सतह पर घटित हुई थी जिसमें करीब साठ हजार गैलन कच्चा तेल सागर में फैल गया था। तेल के इस फैलाव के कारण लाखों मछलियां और जल पक्षी बेमौत मारे गए। महासागर पर आश्रित पक्षियों के पंखों पर जब यह तेल  मिश्रित पानी की परत जम जाता है तो वो उड़ने में असमर्थ हो जाते हैं जिससे उनके जीवन पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं ।

कभी-कभार महासागरों के तटों के समीप स्थित तेल के कुएं में होने वाली दुर्घटनाओं के कारण भी वहां प्रदूषण की स्थिति निर्मित हो जाती है। सन् 1969 में कैलीफोर्निया के पास स्थित सागर तट के समीप के तेल कुएं में होने वाली दुर्घटना के कारण तेल के फैलाव से लाखों जलीय जीव काल के मुहं में समा गए थे। तेल के फैलाव से वह क्षेत्र एक ‘पारिस्थिति मरूभूमि' में बदल गया था यानी ऐसे क्षेत्र में जहां जीवन के लिए आवश्यक महौल न के बराबर हो ।

भारत के तटों के समीप भी अनेक ऐसी दुर्घटनाएं हुई हैं जिससे वहां का पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हुआ है। सन् 1974 में ट्रांशरान नाम का एक अमरीका टैंकर लक्षद्वीप समूह के एक द्वीप में तलहटी से टकरा गया था। जिससे वहां करीब पांच हजार टन ईंधन समुद्र सतह पर फैल गया था।इसके अलावा समुद्री पर्यावरण को एक अन्य गंभीर खतरा तेलवाहक जहाजों को खाली करने के दौरान कभी-कभार होने वाले रिसाव से भी है। इसके साथ ही तेलवाहक जहाज जब लौटते हैं तब संतुलन के लिए अपने टैंकों में पानी भरकर चलते हैं जिसे गंतव्य स्थान पर जाकर बहा दिया जाता है। इस परिस्थिति में भी तेल के फैलने से महासागरीय जल प्रदूषित होता है।

अम्लीय होते महासागर

वर्तमान में मानवीय गतिविधियों का प्रभाव समुद्रों पर भी दिखाई देने लगा है। महासागरों के तटीय क्षेत्रों में दिनोंदिन प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है। जहां तटीय क्षेत्र विशेष कर नदियों के मुहानों पर सूर्य के प्रकाश की पर्याप्तता के कारण अधिक जैवविविधता वाले क्षेत्रों के रूप में पहचाने जाते थे, वहीं अब इन क्षेत्रों के समुद्री जल में भारी मात्रा में प्रदूषणकारी तत्वों के मिलने से वहाँ जीवन संकट में हैं। तेलवाहक जहाजों से तेल के रिसाव के कारण एवं समुद्री जल के मटमैला होने पर उसमें सूर्य का प्रकाश गहराई तक नहीं पहुँच पाता, जिससे वहाँ जीवन को पनपने में परेशानी होती है और उन स्थानों पर जैवविविधता भी प्रभावित होती है। यदि किसी कारणवश पृथ्वी का तापमान बढ़ता है तो महासागरों की कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने की क्षमता में कमी आएगी जिससे वायुमण्डल में गैसों की आनुपातिक मात्रा में परिवर्तन होगा और तब जीवन के लिए आवश्यक परिस्थितियों में असंतुलन होने से पृथ्वी पर जीवन संकट में पड़ सकता है। समुद्रों से तेल व खनिज के अनियंत्रित व अव्यवस्थित खनन एवं अन्य औद्योगिक कार्यों से समुद्री पारितंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। पर्यावरण सरंक्षण के लिए प्रतिबद्ध संस्था अंतर-सरकारी पैनल (इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज, आईपीसीसी) की रिपोर्ट के अनुसार मानवीय गतिविधियों से ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्री जल स्तर में वृद्धि हो रही है और जिसके परिणामस्वरूप विश्व भर के मौसम में बदलाव हो सकते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार बढ़ते प्रदूषण के कारण भविष्य में महासागर अम्लीय महासागर बन जाएंगे, जहां जलीय जीव-जंतुओं की रंग-बिरंगी दुनियां की बजाय घास, फफूंद और कागज फैले होंगे। समुद्री जल की अम्लता में वृद्धि होने से महासागरीय जीवों के सख्त खोल भी कोमल हो जाएंगे।

नदियों में घुलता जहर

भारत में ही नहीं विश्व भर में नदियों को श्रृद्धा एवं सम्मान से देखा जाता है। नदियां आदिकाल से ही वैश्विक सभ्यता की पोषक रही हैं। लेकिन आज लगभग सभी नदियों का जल प्रदूषित हो चुका है। फैक्टरियों, संयंत्रों, एवं कारखानों आदि से निकले दूषित जल एवं रसायनों से नदियां जीवनदायनी का रूप खो चुकी हैं।
नदियों में भारी धातुओं जैसे आर्सेनिक, पारा, कैडमियम आदि की मात्रा तेजी से बढ़ रही है, जिस कारण लोगों को विभिन्न रोग घेर रहे हैं। बिहार के 12 जिले आर्सेनिक की चपेट में है, झारखंड, कलकत्ता, मुंबई भी इस समस्या से अछूते नहीं हैं। आर्सेनिक से होने वाली चर्मरोग और लीवर की समस्या से करीब 2 लाख लोगों के प्रभावित होने के आसार हैं।

प्रदूषित होते जल स्रोत

जल जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। जल के बिना धरती पर जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। सदियों से जल जीवन का पोषण करता आया है लेकिन हाल के वर्षों में जल संकट की समस्या के गहराने के साथ जल की गुणवत्ता में भी कमी देखी जा रही है। दरअसल बढ़ता जल प्रदूषण औद्योगीकरण और शहरीकरण के नकारात्मक पहलू के रूप में सामने आया है।

अंधाधुंध और अनियंत्रित विकास के कारण जल स्रोतों में अत्यधिक अपशिष्ट पदार्थों के मिलने से जल स्रोतों का जल भारी मात्रा में प्रदूषित हुआ है। यह विचार करने योग्य बात है कि कभी अमृत समझा जाने वाला गंगा-यमुना का पानी भी अब प्रदूषण का शिकार हुआ है। जल की इस स्थिति के लिए समाज और व्यक्तियों द्वारा 'बिन पानी सब सून' जैसी पुरानी और सार्थक कहावतों को भूलकर, पानी को संचय करने की हजारों साल पुरानी परंपराओं को भूलना भी  शामिल है।

हम जानते हैं कि जल का मुख्य स्रोत बारिश है, चाहे वह नदी हो या नहर या जमीन के नीचे मौजूद पानी का अथाह भंडार। सभी स्रोतों में जल की आपूर्ति बारिश ही करती है। बारिश के पानी को संचय करने के पारंपरिक ज्ञान को हम भुला बैठे थे और आज फिर हमें उस ओर लौटना है। भारत में भारी बारिश लगभग 100 घंटों में हो जाती है, यानी साल के 8,760 घंटों में हमें सिर्फ 100 घंटों में बरसे पानी से ही काम चलाना है। आज औद्योगीकरण और गहन कृषि तथा शहरीकरण के चलते हमने नदियों और भू-जल का अंधाधुंध दोहन किया है। आज पानी की मात्रा और गुणवत्ता दोनों में भयानक कमी देखी जा रही है। कई इलाकों में पानी में इतने भारी तत्व और अन्य खतरनाक रसायन इतनी अधिक मात्रा में प्रवेश कर चुके हैं कि वह पानी अब किसी भी जीव के उपयोग के लिए सही नहीं है।

पानी में यह जहर या संदूषण, विभिन्न माध्यमों से औद्योगिक तरल अपशिष्ट पदार्थों या घरेलू खतरनाक अपशिष्ट को सीधे जल स्रोतों में डाल देने से फैलता है। इसके अलावा कृषि में उपयोग किए गए रसायनों जैसे रासायनिक खाद, खरपतवारनाशी, कीटनाशी आदि का मिट्टी के क्षरण या कटाव के द्वारा पानी में घुल जाने से भी पानी की गुणवत्ता प्रभावित होती है। इसके अलावा जैविक पदार्थ और मल आदि से भी जल स्रोतों का पानी दूषित होता है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में मानव और पशुओं के अपशिष्ट के प्रबंधन की कोई सही व्यवस्था नहीं है। हालांकि यह समस्या ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में समान ही है, परन्तु तेजी से बढ़ते महानगरों में अपशिष्ट के प्रबंधन की समस्या ज्यादा गंभीर है। औद्योगिक गतिविधियों जैसे लुगदी और कागज उत्पादन आदि द्वारा काफी बड़ी मात्रा में जैविक पदार्थ जल स्रोतों में मिलाए जाते हैं। इन सभी से जलीय स्रोतों का पारिस्थितिकी स्वास्थ्य बिगड़ता है। जैविक पदार्थों को जल स्रोतों में डालने से जल में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा में कमी आ जाती है।
लेकिन इन सब से ज्यादा खतरनाक है, नदी में मानव द्वारा निर्मित जैविक संदूषकों और भारी तत्वों का घुलना । इलैक्ट्रोप्लेटिंग, रंगाई के कारखाने और धातु आधारित उद्योगों आदि के कारण भारी तत्वों का काफी बड़ी मात्रा में उत्सर्जन होता है, जो नदी में घुल जाते हैं और इससे पूरे मानव समाज के साथ-साथ पशु-पक्षियों और नदी के जीवों पर भी बड़ा भयानक प्रभाव पड़ता है। पेंट, प्लास्टिक आदि उद्योगों के अलावा गाड़ी आदि के धुएं में भी सीसा, पारा आदि भारी तत्वों की काफी मात्रा होती है और यह कैंसर जैसे रोग पैदा करने के साथ-साथ सांस की भयानक बीमारियों को जन्म देते हैं और बच्चों में मस्तिष्क का विकास भी प्रभावित होता है। इस प्रकार तरह-तरह के त्वचा रोग भी इन प्रदूषकों की ही देन हैं।

भू-जल की गुणवत्ता में कमी और संदूषण के लिए मुख्यतः औद्योगिक, घरेलू, कृषि रसायनों तथा अंधाधुंध पानी के दोहन को ही जिम्मेदार माना जाता है। भारत में हुए एक अध्ययन का यह निष्कर्ष निकला है कि ज्यादातर भूजल संदूषण शहरी विकास के संदर्भ में बनाई गई गलत और अनुपयोगी नीतियों का ही नतीजा है। उद्योगों में जल को बगैर उपचारित करे बहा देना, कृषि में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग और इसके साथ-साथ भूमि में जमा जल का सिंचाई के लिए गैर-जरूरी दोहन, पानी में घुलते जहर की समस्या में भारी इजाफा करते हैं।

अस्सी के दशक में हुए एक सर्वेक्षण से यह सामने आया था कि भारत में करीब 7452 करोड़ लीटर अपशिष्ट जल प्रति दिन पैदा होता है, जो आज इससे कई गुना बढ़ गया है और अगर इस दूषित जल का उपचार ठीक से नहीं किया गया तो यह बहुमूल्य भू-जल को भी विषैला बना देगा। पश्चिम बंगाल के आठ जिलों में आर्सेनिक की मात्रा अधिक पाई गई है। पारा पश्चिम बंगाल से लेकर मुम्बई के तटों पर भी मौजूद है। भारत में तेरह राज्य लूरोसिस से ग्रसित घोषित किए गए हैं। लूरोसिस प्राकृतिक रूप से मौजूद लोराइड के खनिजों की अधिकता से होता है। भारत में करीब 5 लाख लोग लोराइड की अधिकता से पीड़ित हैं। इसी तरह, भारत के कुछ राज्यों में पानी में लौह तत्व की भी अधिकता देखी गई है, हालांकि लौह हमारे शारीरिक तंत्र को अधिक नुकसान नहीं पहुंचाता, परन्तु लम्बी अवधि तक यह ऊतकों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देता है। हाल के कुछ वर्षों के दौरान प्रदूषित होते विभिन्न जल स्रोतों के कारण पृथ्वी पर उपस्थित जीवन के सामने अनेक चुनौतियां प्रकट हो रही हैं। तालाबों, नदियों तथा झीलों जैसों जल स्रोतों के प्रदूषित होने से मछलियां और अन्य जलीय जीवों का जीवन खतरे में है।

पानी के अतिदोहन और उसके उपयोग में दक्षता के अभाव के कारण जल संसाधनों में पानी की कमी की समस्या प्रदूषण ने और अधिक बढ़ाया है। विभिन्न मानवीय गतिविधियों जैसे औद्योगिक एवं कृषि कार्यों एवं घरेलू उपयोग के दौरान निकले अपशिष्ट पदार्थों के जल स्रोतों में मिलने के कारण जल प्रदूषित हो रहा है। इसके अलावा शुद्ध पानी की कमी के साथ सूक्ष्मजीवों और रोगाणुओं द्वारा पानी के संदूषित होने पर पानी की गुणवत्ता प्रभावित होती है । प्रतिवर्ष हमारे देश में स्वच्छ पेयजल के अभाव में होने वाली बीमारियों के उपचार पर 6700 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। जल के प्रदूषित होने के कारण जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में अनेक परिवर्तन हो रहे हैं और वहां उपस्थित जीवन पर इन परिवर्तनों का विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।

हम रोज जहर पानी में घोल भी रहे हैं और उसका सेवन भी कर रहे हैं। पानी में घुला जहर हर वनस्पति में अवशोषित होता है तथा वहां से हमारे खाने में। इन संदूषणों का प्रभाव घटती प्रतिरोधक क्षमता, बढ़ती बीमारियों और खत्म होते जीवन के रूप में दिखाई देता हैं। हमने पानी और अपने जीवन में बहुत ज़हर घोल लिया। हमें अपनी पारंपरिक मान्यताओं और जल संरक्षण के परम्परागत ज्ञान की ओर लौटना होगा तभी धरती पर जीवन हर रूप में मुस्कुराता रहेगा।

मिट्टी में बढ़ता प्रदूषण

हमें जड़ दिखने वाली मिट्टी में अपार जीवन है। मिट्टी में अनगिनत सूक्ष्मजीव शरण पाते हैं। मिट्टी लाखों-करोड़ों वर्षों के भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रभावों का प्रतिफल है। जीवन के विकास में मिट्टी की अहम भूमिका है मिट्टी जीवों की असंख्य किस्मों की पालनहार है। लेकिन आज हवा और पानी के साथ-साथ मिट्टी की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है।

शहरों का कूड़ा-करकट एवं मल-मूत्र आदि अधिकतर मिट्टी में ही डाला जाता है। बढ़ते प्रदूषण के कारण मिट्टी में उपस्थित जीवन घुटन का अनुभव कर रहा है। मानवीय गतिविधियों से निकले अपशिष्ट पदार्थों जैसे विभिन्न धातुओं की वस्तुएं, ईंट, राख, कांच के टुकड़े, रद्दी कागज, चमड़े के पुराने जूते, रबर की वस्तुएं, ये सभी वस्तुएं मिट्टी पर बोझ स्वरूप पड़ी रहती है। मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्मजीवों में इतनी क्षमता नहीं होती है कि वह प्लास्टिक को विघटित कर दें। मिट्टी में प्लास्टिक के मिलने से मिट्टी में वायु एवं जल संरक्षण में रूकावट उत्पन्न होती है।

मिट्टी में मिलने वाले हानिकारक रासायनिक अपशिष्ट रासायनिक उद्योगों की देन है। रासायनिक अपशिष्ट के अंतर्गत विभिन्न ऊर्वरक, दवाइयां, कीटनाशी और धात्विक पदार्थ आते हैं। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रतिवर्ष पांच लाख टन रासायनिक अपशिष्ट निकलता है जिसमें से कुछ अंश मिट्टी में समा जाता है। रासायनिक अपशिष्टों में पारा, निकिल, आर्सेनिक, तांबा, लेड, मैंगनीज तथा कैडमियम जैसी धातुएं भी शामिल हैं जो मिट्टी से फसलों व सब्जियों में पहुंचकर अनेक रोगों का कारण बनती हैं। मिट्टी से ये धातुएं जल स्रोतों में पहुंचकर उन्हें विषाक्त बना देती हैं।

फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए खेतों में डाले गए उर्वरकों एवं फसलों को कीटों से बचाने के लिए उपयोग किए गए कीटनाशकों का बढ़ता उपयोग मिट्टी को जहरीला बना रहा है। फसल को फफूंद कीटों, कृंतकों आदि से बचाने के लिए किए जाने वाले विभिन्न रसायनों का अंधाधुंध इस्तेमाल मिट्टी की प्राकृतिक क्षमता में कमी के लिए जिम्मेदार है। ऐसे रसायनों को पीड़कनाशी कहा जाता है। आज एक हजार से भी अधिक किस्म के पीड़कनाशियों का उपयोग किया जा रहा है। हालांकि ये रसायन कुछ हद तक तो फसलों को सुरक्षा प्रदान करते हैं लेकिन इनके विपरीत प्रभाव भी हैं जिनके कारण जैव विविधता को काफी नुकसान पहुंचता है।

प्रदूषण के मुख्य कारण:

प्लास्टिक का बढ़ता उपयोग

वर्तमान युग में प्लास्टिक घरों, कार्यालयो, कारखानों तथा प्रयोगशालाओं आदि में किसी न किसी रूप में प्रयुक्त होती है। ऐसे में इस युग का प्लास्टिक का युग भी कह सकते हैं। आज हमारे जीवन में प्लास्टिक से निर्मित वस्तुओं की संख्या बढ़ती जा रही है। प्लास्टिक का सबसे प्रचलित उपयोग पॉलीथीन या पोली बैग के रूप में पृथ्वी के पर्यावरण के लिए खतरा बनता जा रहा है। पॉलीथीन का बढ़ता उपयोग आज पर्यावरण के लिए गंभीर चुनौती है। लेकिन आज विकास की आपाधापी में पॉलीथीन के नकारात्मक प्रभावों को अनदेखा किया जा रहा है। प्लास्टिक अपशिष्ट का क्षय आसानी से नहीं होता तथा यह हजारों वर्षों तक अपघटित नहीं होती। इसीलिए प्लास्टिक के ढेर पृथ्वी पर बड़ी मात्रा में एकत्र होते जा रहे हैं। प्लास्टिक का ढेर जमीन को नष्ट करने के साथ-साथ पर्यावरण को भी प्रदूषित कर रहा है। हमारे देश की राजधानी दिल्ली के कूड़े में प्लास्टिक और उनके उत्पादों का हिस्सा 10 प्रतिशत है। कमोबेश यही स्थिति सारे महानगरों की है। वैसे तो प्लास्टिक का उपयोग महानगरों की तरह गांवों में भी बहुत अधिक किया जा रहा है। जिसके कारण जमीन बंजर होने लगी है।

प्लास्टिक जीवाश्म ईंधन से तैयार किया जाता है। अमेरिका में प्लास्टिक थैलों की सालाना आपूर्ति के लिए मोटे तौर पर एक करोड़ 20 लाख बैरल तेल काम आता है। चूंकि प्लास्टिक के थैले लंबे समय तक नष्ट नहीं होते, इसलिए वे वन्य जीवन तथा पारिस्थतिकी प्रणाली पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। प्रति वर्ष 1 लाख समुद्री जीवों की मृत्यु प्लास्टिक का कचरा खाने से होती है। विश्व स्वास्थ्य संस्था ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि पॉलीथीन के पुनर्चक्रण से उठने वाला धुआं काफी जहरीला होता है और इससे अम्लीय वर्षा होने की आशंका बढ़ जाती है। अकेले दिल्ली में ही हर साल 12 लाख टन प्लास्टिक को पुनर्चक्रित किया जा रहा है।

कृषि क्षेत्र से होता प्रदूषण

विगत कुछ वर्षों के दौरान कृषि क्षेत्र से होने वाले प्रदूषण में अत्यधिक वृद्धि हुई है। कृषि अपशिष्टों का जलाया जाना वायु के प्रदूषण का मुख्य कारण बन रहा है। उत्तर भारत में धुएं की चादर भी अब दिनोंदिन मोटी होने लगी है। हवा की इस बदली तासीर और सर्दियों में होने वाले धुंध के लिए वाहनों से निकलते धुएं के साथ बायोमास यानी लकड़ी, उपले, पुआल और फसलों से निकले अपशिष्ट पदार्थ जिम्मेदार हैं। खेतों में एक साथ जलाए जाने वाला पुआल या पराली इलाके की हवा को जहरीला बना देता है। उपले, लकड़ी तथा पुआल से निकलने वाले धुएं में प्रमुख रूप से कार्बन कण, कार्बन मोनोआक्साइड, मीथेन, नाइट्स आक्साइड जैसी गैसें पाई जाती हैं, जो वायुमंडल को प्रदूषित करती हैं।

बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए खाद्यान्न की मांग में भी वृद्धि हुई है। जिसके कारण अधिक उपज की चाह में खेतों में उर्वरकों का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। उर्वरकों और हानिकारक रसायनों का बढ़ता उपयोग न केवल मिट्टी वरन जल स्रोतों को भी प्रदूषित कर रहा है। कृषि क्षेत्र में उपयोग किए गए विभिन्न रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक जल स्रोतों में पहुंच कर जल को प्रदूषित करते हैं। कृषि में प्रयोग किए गए कीटनाशी और खरपतवार नाशी जैसे रासायनिक पदार्थ मिट्टी को जहरीला बनाने के साथ उसकी उपजाऊ क्षमता में भी कमी करते हैं ।

बढ़ते वाहन

विश्व के पूरे कार्बन डाइऑक्साइड का 23 प्रतिशत हिस्सा परिवहन के क्षेत्र से आता है, इसमें से 74 प्रतिशत हिस्सा सड़क परिवहन का है। दिल्ली में ही करीब 50 लाख वाहन हैं। इसके अलावा करीब 90 हजार डीजल चालित वाहन प्रतिदिन दूसरे राज्यों से दिल्ली में आते हैं। निजी वाहन का शौक पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचा रहा है। आज यदि हर एक के पास कार हो तो प्रदूषित वातावरण में यह पृथ्वी जीने लायक नहीं रहेगी।

डीजल से चलने वाले वाहनों को वायु प्रदूषण के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार माना जाता है। डीजल सहित अन्य जीवाश्म ईंधनों के दहन से निकले विभिन्न प्रदूषक तत्वों जैसे धुएं के महीन कण एवं पालिसाइक्लिक एरौमैटिक हाइड्रोकार्बन वायुमंडल में फैल कर विभिन्न बीमारियों को जन्म देते हैं। एक ओर जहां बढ़ते प्रदूषण पर चिंता व्यक्त की जा रही है तो वहीं दूसरी ओर कारों का दिनों-दिन बढ़ता बाजार पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है। सन् 1950 में दुनिया में सिर्फ 5 करोड़ वाहन सड़क पर दौड़ते थे । यह संख्या 1997 तक 58 करोड़ हो गईं। यदि वाहनों की संख्या में इसी प्रकार वृद्धि होती रही तो आने वाले समय में सांस लेने की लिए भी शुद्ध हवा नसीब नहीं होगी।

कचरे का बढ़ता अंबार

दैनिक कामकाज में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं की संख्या में बहुत अधिक वृद्धि हुई है, जिसके कारण घरों, कार्यालयों व उद्योगों से निकलने वाले कचरे की मात्रा भी बढ़ी है। जनसंख्या बढ़ने से प्रतिदिन घरों से निकलने वाले झाड़न-बुहारन या कूड़े-करकट में भी वृद्धि हुई है। अधिक मात्रा में निकलने वाले कूड़े-करकट की सही ढंग से निपटान की व्यवस्था भी नहीं हो पाती है। अधिकतर स्थानों पर कूड़े-करकट को या तो किसी जल स्रोत में फेंक दिया जाता है या फिर इसे - मिट्टी में गड्ढा खोदकर डाल दिया जाता है और अंततः कचरा उस क्षेत्र के जल और मिट्टी को प्रदूषित करता है । निम्नांकित आंकड़ों से आपको कचरे में होने वाले दिनों-दिन वृद्धि का अंदाजा लग सकता है।

  • दुनिया में प्रति वर्ष 5 करोड़ नई कारें सड़कों पर आती है। ये सब वायु प्रदूषण बढ़ाती है।
  • चीन में प्रति वर्ष करोड़ों पेड़ों को 45 करोड़ डिस्पोजल प्लास्टिक बनाने के लिए काट दिया जाता है।
  • अमेरिका में प्रति वर्ष 1.80 करोड़ बेबी नेपकिन्स (पोतड़े) कचरे के ढेर में फेंके जाते हैं।
  • पूरी दुनिया में एक करोड़ पेड़ों को प्रति वर्ष इनके निर्माण हेतु काटा जाता है। एक पोतड़े को नष्ट होने में लगभग 500 वर्ष लगते हैं।
  • मुंबई में प्रतिदिन 2300 टन इमारती मलबा पैदा होता है।

ई-कबाड़

आज हमारे आस-पास की दुनिया का चेहरा तेजी से बदल रहा है। हमारे घर पहले से ज्यादा आधुनिक हो गए हैं। घरों में पानी की व्यवस्था से लेकर कपड़ों की धुलाई सभी के लिए नए इंतजाम हो गए हैं। और इस नवीनता में विद्युत का चमत्कार है। लेकिन यह चमत्कार वरदान के साथ अभिशाप भी बन रहा है। ई-कचरे के रूप में यह अभिशाप पृथ्वी पर संकट उत्पन्न कर रहा है।

ई-कचरे से आशय उन तमाम पुराने पड़ चुके बेकार बिजली के उपकरणों से है, जिन्हें उपयोग करने वालों ने फेंक दिया है। इनमें कंप्यूटर, टीवी, डीवीडी प्लेयर, मोबाइल फोन, एमपी-थ्री व अन्य इलेक्ट्रोनिक उपकरण शामिल है। इसके अलावा ई-कचरे में मौटे तौर पर लौह और अलौह धातुएं, प्लास्टिक, कांच, लकड़ी, कंक्रीट और सेरामिक, रबर और दूसरा पदार्थ भी शामिल हैं। ई-कचरे में कैडमियम, शीशा, पारा, पोलिक्लोरिनेटेड बाई फिनाइल, ब्रोमिनेटर लेम रिटार्डेट जैसे जहरीले पदार्थ भी हो सकते हैं। इस समय विश्व में पैदा होने वाले कुल कचरे में ई-कचरे का हिस्सा करीब 5 प्रतिशत है। जो प्लास्टिक कचरे के बराबर है। ई-कचरे में लगभग 1000 ऐसे पदार्थ होते हैं जो जहरीले होते हैं और जिनका निबटान अगर सही तरीके से न किया गया तो पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है ।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जारी एक रिपोर्ट में ई-कचरे के तहत पुराने और बेकार हो चुके कम्प्यूटर एवं लैपटाप, प्रिंटर, मोबाईल फोन, पेजर, डिजिटल कैमरे एवं म्यूजिक सिस्टम, रेफ्रिजरेटर, टेलीविजन तथा इलेक्ट्रानिक्स खिलौनों आदि को शामिल किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार विश्व में ई-कचरा प्रतिवर्ष 400 लाख टन की दर से बढ़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार चीन द्वारा वर्तमान में (2010 अनुमान) लगभग 23 लाख टन ई-कचरे का घरेलू उत्पादन होता है जो कि इस संदर्भ में अमेरिका (30 लाख टन) के बाद दूसरे स्थान पर है।

आज सूचना प्रौद्योगिकी का विकास और इंटरनेट के फैलाव सहित मोबाइल, टीवी, कम्प्यूटर, आदि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मांग बढ़ी है। इलेक्ट्रानिक उत्पादों की बढ़ती खपत के कारण इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ भी अधिक मात्रा में निकलता है, जो पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। ई-कबाड़ पैदा होने का अहम कारण यह है कि इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के निर्माता एक तो सबसे खतरनाक तत्वों और रसायनों का इस्तेमाल बंद नहीं करते और दूसरे, वे पुरानी या खराब वस्तुओं को वापस नहीं लेते हैं। इसके अलावा लोग जितनी उत्सुकता से नयी तकनीकों को अपनाते हैं, पुरानी तकनीकों से अपना पीछा छुड़ाने में उतने ही लापरवाह होते हैं।

भारत में ई-कचरे की स्थिति

सूचना क्रांति के आगाज ने इस युग में ई-कचरे की समस्या को और गंभीर बना दिया है। दुनिया में हर रोज निकलने वाले कचरे में ई-कचरे का अनुपात तेजी से बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2009 के पहले तीन महीनों में हमारे देश में 16 लाख से ज्यादा डेस्कटॉप और लैपटॉप बिके। वर्ष 2008-2009 में लगभग 68 लाख डेस्कटॉप और लैपटॉप बिके। हालांकि वर्ष 2007-08 में यह आंकड़ा 7 प्रतिशत अधिक था। डेस्कटॉप और लैपटॉप की सबसे ज्यादा बिक्री पश्चिमी भारत (37 प्रतिशत) में होती है इसके बाद दक्षिण ( 23 प्रतिशत), पूर्व (22 प्रतिशत) और उत्तर भारत (18 प्रतिशत) का नंबर आता है। वर्ष 2009-2010 में हमारे देश में 73 लाख से अधिक डेस्कटॉप और लैपटॉप बिके।

भारत में पैदा होने वाले कुल ई-कचरे का 70 प्रतिशत देश के 10 राज्यों से आता है। सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करने वाले राज्य हैं- महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, कर्नाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश और पंजाब | सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करने वाले शहर मुंबई, दिल्ली, बंगलुरु, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणे, सूरत और नागपूर हैं। ई-कचरे से संबंधित भारत सरकार के दिशानिर्देश में कहा गया है कि वर्ष 2005 में देश में 1,46, 180 टन ई-कचरा पैदा हुआ। ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2012 तक यह मात्रा आठ लाख टन तक पहुंच जाएगी।

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आकलन के अनुसार वर्ष 2005 में भारत में 1,46,800 टन इलेक्ट्रानिक कचरा उत्पत्र हुआ था जिसके वर्ष 2012 तक बढ़ कर  8,00,000 टन तक हो जाने का अनुमान है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में इलेक्ट्रानिक कचरा उत्पत्र करने वाले दस शीर्ष नगर है - मुंबई, दिल्ली, बंग्लुरू, कोलकाता, चेन्नई, अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणे, सूरत एवं नागपुर। ज्ञातव्य है कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा इलेक्ट्रानिक कचरे सहित खतरनाक कचरे के समुचित प्रबंधन हेतु खतरनाक कचरा (प्रबंधन, हैंडलिंग और सीमा पार आवाजाही) नियमावली, 2008 को अधिसूचित किया गया है।
ई-कबाड़ यानी इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट आधुनिक समय में कचरे का नया रूप है। भारत में तीन लाख 80 हजार टन ई-वेस्ट सालाना निकल रहा है, जो एक अनुमान के अनुसार अगले पांच साल में 41 लाख टन तक पहुंच सकता है।

जैव पदार्थ और प्रदूषण

हमारे देश में अब भी 22 प्रतिशत आबादी खाना बनाने के लिए बायोमास (लकड़ी, उपले आदि) का उपयोग करती है। जैव पदार्थ के दहन से वायु प्रदूषित हो रही है। जैव पदार्थों के दहन से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ने से पर्यावरण प्रदूषित होता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जैव पदार्थ (बायोमास) जलाने के लिए करीब 90 प्रतिशत मामलों में मानव जिम्मेदार है, जबकि सिर्फ दस प्रतिशत मामलों में प्राकृतिक कारण। पर्यावरण के प्रदूषित होने से पृथ्वी पर उपस्थित समस्त जीवन को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

प्रदूषण का बढ़ता दायरा

यह बात समझने की है कि पर्यावरण के प्रदूषित होने का संकट, जल-संकट, ऊर्जा संकट और विकास का संकट एक-दूसरे से अलग न होकर एक-दूसरे से संबंधित है। बढ़ती जनसंख्या बढ़ती जरूरतें और इन सबसे अधिक बढ़ता लालच इन समस्याओं का मुख्य कारण है। पिछले कुछ वर्षों में दुनिया पहले की तुलना में बहुत अधिक बदल गई है। पूरी दुनिया में पिछले दो-ढाई दशक के दौरान भूमंडलीकरण के नाम पर खुली बाजारवादी अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ है। बाजार के विस्तार के लिए अनावश्यक वस्तुओं को खपाया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप संसाधनों के बढ़ते उपभोग से अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा भी बढ़ती जा रही है। इस प्रकार अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा में वृद्धि से पर्यावरण भी उसी अनुपात में प्रदूषित हो रहा है।

पिछली सदी के बाद से विश्व भर में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में व्यापक बदलाव हुए हैं। आज विश्व की जनसंख्या बढ़कर करीब 6.7 अरब हो गई है। मानव आबादी के तीव्र (चरघातांकी) रूप से बढ़ने के कारण प्रदूषण और बदलती  उपलब्ध संसाधनों से कहीं अधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जा रहा है। आबादी की तुलना में खपत में और भी तेजी आई है। बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकता या मांग भी बढ़ गई है। हमारी बढ़ती मांग का अर्थ, कृषि कार्य का बढ़ना है जिससे रासायनिक पदार्थों (ऊर्वरकों, कीटनाशियों, पीकड़नाशियों आदि), जल एवं ऊर्जा की खपत बढ़ती जा रही है। ऐसी परिस्थिति में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के संदर्भ में आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया वाली बात सही बैठती है। आज मानवता की पर्यावरणीय मांग 21.9 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है जबकि पृथ्वी की जैविक क्षमता औसतन केवल 15.7 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है। इसका मतलब है कि हम उपलब्ध संसाधनों से कहीं अधिक बढ़कर जीवन यापन कर रहे हैं। इसके कारण विकासशील देशों में जीवनयापन कर रहे लोगों की खुशहाली खतरे में पड़ सकती है।

स्रोत:- प्रदूषण और बदलती आबोहवाः पृथ्वी पर मंडराता संकट, श्री जे.एस. कम्योत्रा, सदस्य सचिव, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, दिल्ली द्वारा प्रकाशित
मुद्रण पर्यवेक्षण और डिजाइन : श्रीमती अनामिका सागर एवं सतीश कुमार

 

 

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Post By: Shivendra
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