प्रदूषण के संदर्भ में नीतियों का सख्ती से पालन जरूरी

प्रदूषण के संदर्भ में नीतियों का सख्ती से पालन जरूरी
प्रदूषण के संदर्भ में नीतियों का सख्ती से पालन जरूरी

प्रदूषण की समस्या आज के समय में बड़ी चुनौती के रूप में उभरी है। गांव, कस्बे, छोटे शहर तथा महानगर तक इसकी जद में आ गए हैं। दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगर तो सबसे अधिक प्रभावित हैं। सच्चाई यह है कि भारत में अनेक तरह के लघु कुटीर उद्योगों से लेकर बड़ी-बड़ी औद्योगिक इकाइयां तक महानगरों के आस-पास ही लगाई गई हैं। आर्थिक इकाई, सामरिक इकाई, तकनीक से संबंधित इकाई एवं बड़े-बड़े शैक्षणिक केंद्र भी महानगरों के इर्द-गिर्द ही मुख्य रूप से स्थापित हुए। परिणाम यह हुआ कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने एवं रोजगार की तलाश में बड़े पैमाने पर महानगरों की तरफ युवाओं का पलायन हुआ। इससे इन नगरों के क्षेत्रफल में विस्तार हुआ। आबादी सघन होती चली गई। बस्तियां बसने लगीं। आसपास के गांव टूटकर शहर में तब्दील होने लगे। सड़क, पुल, भवन, सार्वजनिक संस्थान आदि का निर्माण होने लगा । निर्माण कार्यों से उठते धूल-कण तथा सड़कों पर चलने वाहनों से निकलते धुएं ने महानगरों के वातावरण को प्रदूषित किया।

विकास की इस केंद्रीकृत प्रक्रिया में मध्यम वर्ग के साथ-साथ मजदूर वर्ग का बनना भी स्वाभाविक था। ये दोनों वर्ग महानगरों के अभिन्न हिस्से बन गए। दरअसल, विकास का यह पूंजीवादी मॉडल केंद्रीकृत रहा। औद्योगिक विकास की ओर तो हम चल पड़े लेकिन उससे उभरने वाली चुनौतियों का अनुमान नहीं लगा सके। विकास की एकरैखिक अवधारणा ने एक तरफ आर्थिक समृद्धि की ओर कदम बढ़ाया तो दूसरी ओर गंदगी और प्रदूषण का अंबार भी लगाया। चुनौतियों के अनुमान और उससे निपटने की संभावनाओं को खोजने के प्रयास होते तो प्रारंभ से ही उस पर अंकुश लगाया जा सकता था।

नागरिकों में प्रबुद्धता जरूरी

जनजागरण भी प्रमुख तरीका हो सकता था। दरअसल, सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से प्रबुद्ध नागरिक तैयार करने की दिशा में कोई पहल नहीं की गई। आचरण और बर्ताव में नागरिक समाज दकियानूसी और सामंती बना रहा। फलतः कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिक समाज का निर्माण नहीं हो सकता। कहा जा सकता है कि दूरदृष्टि का सर्वथा अभाव रहा है। अब सुदूर ग्रामीण तथा पहाड़ी इलाकों में भी तरह-तरह के निर्माण कार्य शुरू हुए हैं। पेड़-पौधों की कटाई, पहाड़ों में माइनिंग की खुदाई, नदियों पर बांध आदि का निर्माण जोरों पर है। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन चरम पर है। बिचौलिए कॉन्ट्रैक्टर और ठेकेदार मुनाफे के लिहाज से अनुबंध से अधिक क्षेत्रफल में कटाई-खुदाई करते हैं। खुदाई से बने गड्ढे ज्यों के त्यों पड़े रहते हैं। दूसरे यह कि जरूरत और उपभोग के अनुपात पर बल नहीं दिया जा रहा। फलतः वहां भी संतुलित विकासदृष्टि का अभाव दिखता है। इस प्राकृतिक असंतुलन से जलवायु परिवर्तन में बदलाव आया है। ग्लोबल- वार्मिंग बढ़ी है। प्रदूषण की समस्या सभी जगह आ रही है, लेकिन महानगर इससे खासे प्रभावित हो रहे हैं

जैसा कि कहा गया है कि महानगर प्रदूषण की समस्या से विशेष रूप से जूझ रहे हैं। प्राकृतिक संतुलन में दोष आना ही प्रदूषण को जन्म देता है। हवा, पानी और भूमि, सभी प्रदूषित हो रहे हैं। औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले धुएं, रासायनिक मलबे आदि अपशिष्ट अवशेषों ने आबोहवा खराब की है। सर्दियों के मौसम में स्मॉग की समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है। स्मोक (धुआं) और फॉग (कुहासा) का मिश्रित रूप का नाम ही स्मॉग है। निजी वाहन तथा यातायात के साधनों से निकलने वाले धुएं तथा ध्वनि से भी वातावरण प्रदूषित हुआ है। दूषित आबोहवा ने तरह-तरह की जानलेवा बीमारियों को जन्म दिया है। बच्चे, युवा से लेकर बुजुर्ग तक इसकी चपेट में आ रहे हैं।

कदम कारगर नहीं

प्रदूषण की भयावहता के मद्देनजर सवाल उठता है कि समस्या से निपटा कैसे जाए? क्या - क्या उपाय किए जा सकते हैं? ऐसा नहीं है कि सरकार का ध्यान इस ओर नहीं गया है। प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण संबंधी वायु अधिनियम, 1981 जैसे अनेक प्रयास भी किए गए हैं, लेकिन अभी तक कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया है। इस प्रक्रिया में यह बहस भी जोर-शोर से सुनाई पड़ती है कि कार्यालयों यानी दफ्तरों के समय में बदलाव करके प्रदूषण की समस्या को कम किया जा सकता है। इस बहस का सीधा संबंध कार्यालयों में कार्यरत कर्मचारियों द्वारा आवागमन के लिए उपयोग में लाए जाने वाले वाहनों से जुड़ता है। यदि कार्यालय समय बदल भी दिया जाए, तब भी कार्यरत लोग अपने-अपने दफ्तर तो आएंगे ही। यह और बात है कि उनकी कार्यावधि अलग-अलग होगी। इससे क्या फर्क पड़ेगा? आवागमन के लिए यदि वे अपने निजी वाहनों का प्रयोग यथावत करते रहते हैं, तो इससे प्रदूषण को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। विगत वर्षों में दिल्ली सरकार ने प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए 'निजी वाहनों' से संबंधित कुछ प्रयोग किए हैं। निजी वाहनों के लिए इवन-ऑड फॉर्मूला दिल्ली सरकार ने लागू किया था। एक दिन 'ऑड' (विषम) एक दिन 'इवन' (सम) नम्बर प्लेट की गाड़ियां ही सड़क पर दौड़ी थीं। लेकिन ऐसे उपायों से वायु प्रदूषण में कोई खास गुणात्मक अंतर देखने को नहीं मिला।

इसलिए कार्यालयों की समयावधि बदलने या इवन ऑड फॉर्मूले से प्रदूषण नियंत्रण संबंधी स्थायी समाधान निकालने का प्रयास करना कॉस्मेटिक प्रयास ही कहलाएगा। इससे कोई ठोस नतीजे नहीं मिलने वाले। दरअसल, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूमि प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए ठोस दूरगामी व्यावहारिक नीति की जरूरत है। हालांकि प्रदूषण की चर्चा के संदर्भ में प्रायः 'वायु प्रदूषण' ही केंद्रीय धुरी होती है। हाइब्रिड और इलेक्ट्रिकल वाहनों की ओर रुख किया गया है। निजी वाहनों के निर्माण के क्षेत्र में भारत स्टेज-2 (बीएस-2) से लेकर भारत स्टेज-6 ( बीएस-6 ) तक के उदाहरण हमारे सामने हैं। इन इलेक्ट्रिक और हाइब्रिड वाहनों में ईंधन जलने के पश्चात उत्सर्जित कार्बन की मात्रा तुलनात्मक रूप से कम होती है। डीजल, पेट्रोल जैसे ज्वलनशील ईंधनों के और भी विकल्प तलाशने होंगे। ऐसे विकल्प जिनसे कार्बन डाइऑक्साइड जैसी जहरीली गैस कम से कम उत्सर्जित हों। इसलिए अब सीएनजी और इलेक्ट्रिकल वाहनों की ओर नीति-निर्माताओं का ध्यान भी तेजी से आकर्षित हुआ है।

जागरूकता अभियान भी सहायक

इस कड़ी में जागरूकता अभियान भी सहायक हो सकते हैं। लोगों के बीच कार - पुलिंग तथा पब्लिक ट्रांसपोर्ट के इस्तेमाल के लिए अभियान चला कर उन्हें प्रोत्साहित करने का प्रयास भी कारगर साबित हो सकता है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बेहतर व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए भी नीति तैयार करने पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। 'कार - पुलिंग' के फायदे प्रचारित-प्रसारित करने होंगे। मसलन- पैसे की बचत, पार्किंग की समस्या से लेकर वायु प्रदूषण की समस्या को कार पुलिंग के माध्यम से कम किया जा सकता । इसके लिए जनमानस में एक-दूसरे के प्रति विश्वास और सहयोग की भावना को बढ़ावा देना होगा। सकारात्मक सरकारी पहल से यह संभव है। हर प्रकार की नागरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है। इस तरह की पहल से नागरिक समाज में भी सकारात्मक भाव और विचार पनपने की संभावना बढ़ती है।

घने औद्योगिक इलाकों को चिन्हित कर वहां कार्यरत एवं निवास कर रहे लोगों के बीच भी जागरूकता अभियान चलाना होगा। औद्योगिक अपशिष्टों को सही तरीके से निपटाने के तरीके बताना, अनावश्यक रूप से जगह-जगह पर कूड़े-कचरे को न जलाना, कूड़े के पहाड़ों का आधुनिक तकनीक से निपटान करना, रबर या प्लास्टिक से बने उत्पादों को जलाने की बजाय अन्य तरीकों से निपटाना आदि अनेक पहल की जा सकती हैं। लेकिन यह सब दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति से ही संभव होगा। स्वयंसेवी संस्थाएं इस पहल में सहायक की भूमिका निभा सकती हैं। लेकिन नीतिगत निर्णय सरकारों को ही लेना होगा।

कोविड की भयंकर महामारी के दरम्यान हमने लॉक-डाउन की स्थिति देखी है। प्रदूषण में काफी कमी आई थी। पर्यावरण लगभग स्वच्छ हो गया था लेकिन अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। नागरिकों की आमदनी घट गई थी। उत्पादन में कमी आई थी। रोजगार के अवसर कम हो गए थे। इसलिए प्रदूषण कम करने के लिए 'लॉक-डाउन' का निर्णय नहीं लिया जा सकता। अर्थव्यवस्था को मजबूत करने तथा रोजगार के नये अवसर सृजित करना समय और समाज की जरूरत है लेकिन इस प्रक्रिया में उभरती चुनौतियों से निपटने के लिए भी तैयारी जरूरी है। सभी क्षेत्रों और इकाइयों में आनुपातिक संतुलन कायम करने की जरूरत पर भी बल दिया जाना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि कार्यालयों के समय में बदलाव कर या ऑड-इवन जैसे फॉर्मूला अपना कर प्रदूषण की समस्या से नहीं निपटा जा सकता। इसके लिए व्यावहारिक नीति बनाने और अपनाने पर जोर होना चाहिए। इसके लिए सरकारों को मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी।

लेखक डॉ देव कुमार दिल्ली यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

  स्रोत -  हस्तक्षेप, 4 नवम्बर 2023, राष्ट्रीय सहारा

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Post By: Shivendra
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