जलविज्ञान के आविष्कर्ता वैदिक ऋषि ‘सिन्धुद्वीप’
शनिदेव की आराधनामंत्र के मंत्रद्रष्टा ऋषि भी थे सिन्धुद्वीप
"जलमेव जीवनम"
12मार्च, 2014 को ‘उत्तराखंड संस्कृत अकादमी’, हरिद्वार द्वारा ‘आई आई टी’ रुडकी में आयोजित विज्ञान से जुड़े छात्रों और जलविज्ञान के अनुसंधानकर्ता विद्वानों के समक्ष मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य ‘प्राचीन भारत में जलविज्ञान‚ जलसंरक्षण और जलप्रबंधन’ से सम्बद्ध ‘भारतीय जलविज्ञान’ से सम्बद्ध लेख ‘वैदिक जलवैज्ञानिक ऋषि सिन्धुद्वीप’
विश्व की प्राचीनतम सभ्यता वैदिक सभ्यता का उद्भव व विकास सिन्धु-सरस्वती और गंगा-यमुना की नदी-घाटियों में हुआ। इसीलिए इस संस्कृति को नदीमातृक संस्कृति के रूप में जाना जाता है। ऋग्वेद के मंत्रों में यह प्रार्थना की गई है कि ये मातृतुल्य नदियां लोगों को मधु और घृत के समान पुष्टिवर्धक जल प्रदान करें-
“सरस्वती सरयुः सिन्धुरुर्मिभिर्महो
महीरवसाना यन्तु वक्षणीः।
देवीरापो मातरः सूदमित्न्वो
घृत्वत्पयो मधुमन्नो अर्चत।।”
- ऋ., 10.64.9
वैदिक कालीन भरतजनों ने ही सरस्वती नदी के तटों पर यज्ञ करते हुए इस ब्रह्म देश को सर्वप्रथम 'भारत' नाम प्रदान किया था जैसा कि ऋग्वेद के इस मन्त्र से स्पष्ट है - 'विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम्' । सरस्वती नदी के तटों पर रची बसी भरतजनों की इस सभ्यता को सारस्वत सभ्यता और वहां की नदीमातृक संस्कृति को ‘भारती’ के रूप में पहचान देने वाली भी यदि कोई नदी है तो वह सरस्वती नदी ही है जिसका ऐतिहासिक प्रमाण ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में स्वयं मिल जाता है-
“सरस्वती साधयन्ती धियं न
इलादेवी भारती विश्वतूर्तिः।” - ऋ.‚ 2-3-8
जलविज्ञान के प्राचीन इतिहास की दृष्टि से वेदों के मंत्रद्रष्टा ऋषियों में ‘सिन्धुद्वीप’ सबसे पहले जलविज्ञान के आविष्कारक ऋषि हुए हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से ‘सिन्धुद्वीप ऋषि की पहचान इक्ष्वाकुवंश के 47वीं पीढ़ी में हुए सूर्यवंशी राजा अम्बरीष के पुत्र के रूप में की जा सकती है। ऋग्वेद का एक सूक्त‚ अथर्ववेद के तीन सूक्त‚ यजुर्वेद के 15 मंत्रों और सामवेद के चार मंत्रों का ऋषित्व ‘सिन्धुद्वीप’ को प्राप्त है। सिन्धुद्वीप ऋषि के इन सभी सूक्तों और मंत्रों की विशेषता है कि इनके देवता ‘आपो देवता’ हैं।
जल विज्ञान की दृष्टि से ‘सिन्धुद्वीप’ ही सर्वप्रथम वे भारतीय चिन्तक थे जिन्होंने जल के प्रकृति वैज्ञानिक‚सृष्टि वैज्ञानिक‚ मानसून वैज्ञानिक‚कृषि वैज्ञानिक‚ दुर्ग वैज्ञानिक तथा ओषधि वैज्ञानिक महत्त्व को वैदिक संहिताओं के काल में ही रेखांकित कर दिया था। प्राकृतिक जलचक्र अर्थात् ‘नैचुरल सिस्टम ऑफ हाइड्रोलौजी’जैसे आधुनिक विज्ञान की अवधारणा का भी सर्वप्रथम आविष्कार सिन्धुद्वीप ऋषि ने ही किया था।
बहुत कम लोग जानते कि आज ज्योतिष शास्त्र में शनिदेव की आराधना का जो मंत्र प्रचलित है वस्तुतः वह सिन्धुद्वीप ऋषि का ही जलदेवता विषयक मंत्र ही है जिसमें प्रार्थना की गई है कि जिस जल को हम प्रतिदिन पीते हैं वह शुद्ध हो‚स्वास्थ्य रक्षक हो और कल्याणकारी हो-
“शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु
पीतये शं योरभि स्रवन्तु नः।” - ऋग्वेद‚10.9.4
जल चाहे सूखाग्रस्त प्रांत रेगिस्तान का हो या सिन्धु नदी का‚ समुद्रों‚ सरोवरों‚ कूपों तथा घड़ों में विद्यमान सभी प्रकार के जलों के शुद्ध होने की कामना जलवैज्ञानिक ऋषि ‘सिन्धुद्वीप’ ने अपने ‘आपो देवता’ सूक्त में की है -
“शं न आपो धन्वन्या३: शमुशन्त्वनूप्याः।
शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ
आभृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः।।”
- अथर्व.‚ 1.6.4
अर्थात् सूखाग्रस्त प्रांतों का जल हमारे लिए कल्याणकारी हो। जलमय देशों का जल हमें सुख प्रदान करे। भूमि से खोद कर निकाला गया कुएं आदि का जल हमारे लिए सुखकारी हो। पात्र में रखा हुआ जल हमें शान्ति प्रदान करे और वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख शान्ति की वृष्टि करने वाला बने।
सिन्धुद्वीप ने चन्द्रमा की रश्मियों से संशोधित जल और सूर्य की रश्मियों से वाष्पीभूत जल को ‘भेषज’ अर्थात् ओषधि तुल्य माना है। ऋग्वेद और अथर्ववेद के जल चिकित्सा से सम्बन्धित ये ‘अपांभेषज’ मंत्र भारतीय जलविज्ञान की अमूल्य धरोहर हैं-
“अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।
अग्निं च विश्वशम्भुवम्।।
आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे३ मम्।
ज्योक् च सूर्यं दृशे।।”
- अथर्व.‚1.6.2-3
गोतम ऋषि के आश्रम में सर्व प्रथम हुई थी 'वाटर हारवेस्टिंग’।
मैंने पहले बताया है कि जलविज्ञान के प्राचीन इतिहास की दृष्टि से वेदों के मंत्रद्रष्टा ऋषियों में ‘सिन्धुद्वीप’ सबसे पहले जलविज्ञान के आविष्कारक ऋषि हुए हैं जिन्होंने जल के प्रकृति वैज्ञानिक‚ सृष्टि वैज्ञानिक‚ मानसून वैज्ञानिक‚ कृषि वैज्ञानिक‚ दुर्ग वैज्ञानिक तथा ओषधि वैज्ञानिक महत्त्व को वैदिक संहिताओं के काल में ही उद्घाटित कर दिया था। प्राकृतिक जलचक्र अर्थात् ‘नैचुरल सिस्टम ऑफ हाइड्रोलौजी’ जैसे आधुनिक विज्ञान की अवधारणा का भी सर्वप्रथम आविष्कार सिन्धुद्वीप ऋषि ने ही किया था। इस लेख में हम ‘वाटर हारवेस्टिंग’ प्रणाली के वैदिक कालीन स्वरूप पर प्रकाश डालेंगे।
दरअसल,भारत में जल विज्ञान और उससे सम्बन्धित जल-संग्रहण अथवा ‘वाटर हारवेस्टिंग’ का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितनी प्राचीन भारतीय सभ्यता। वैदिक काल में बड़ी नदियों के बहते जल को नियंत्रित करके बांध बनाने की तकनीक का पूर्णतः विकास हो चुका था। ऐसे कृत्रिम बांधों से निकाली जाने वाली नहरों या नालियों को ऋग्वेद में ‘कुल्या’ की संज्ञा दी गई है-
‘इन्द्रं कुल्या इव हृदम् (ऋ.‚10.43.7)‚
‘हृदं कुल्या इवाशत’ (ऋ.‚3.45.3)
ऋग्वेद के ‘गोतम राहुगण’ नामक सूक्त में वैदिक कालीन जलविज्ञान और उससे सम्बद्ध ‘वाटर हारवेस्टिंग तकनीक का सुन्दर दृष्टान्त मिलता है। इस सूक्त के अनुसार सर्वप्रथम वर्षा के देवता इन्द्र अवर्षण रूपी वृत्र राक्षस का संहार करके भूमि पर नदियों के जल स्रोतों को प्रवाहित करते हैं। तदनन्तर मरुद्गण उस बहते हुए जल का सदुपयोग करने के उद्देश्य से सामूहिक रूप से मिलकर उन जल स्रोतों को एक ऊँचे स्थान पर खोद कर बनाए जलाशय में संचयित करते हैं और जलमार्ग को अवरुद्ध करने वाले पर्वत खण्ड को काटकर नहर का रास्ता भी साफ करते हैं। तदनन्तर ये मरुद्गण उस जलाशय के जल को टेढी-तिरछी नालियों और झरनों के माध्यम से गोतम ऋषि के आश्रम तक पहुंचाने में सफल हो जाते हैं। वैदिक कालीन कृत्रिम बांध बनाने अथवा ‘वाटर हारवेस्टिंग’ से सम्बद्ध ऋग्वेद के ये मंत्र विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं-
“धत्त इन्द्रो नर्यपांसि कर्तवेऽहन्वृत्रं निरपामौब्जदर्णवम्। - ऋ.,1.85.9
“ऊर्ध्वं नुनुदेऽवतं त ओजसा दादृहाणं
चिद्विभिदुर्वि पर्वतम्।" - ऋ.,1.85.10
“जिह्मंनुनुदेऽवतं तया दिशासिञ्चन्नुत्सं
गोतमाय तृष्णजे।"
- ऋ.‚1.85.11
इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक कालीन पर्यावरणमूलक जलसंचेतना और जलविज्ञान की उपलब्धियों को ही यह श्रेय जाता है कि जिसके कारण जलप्रबन्धन‚ जलसंवर्धन तथा वाटर हारवेस्टिंग की दृष्टि से विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्राचीन भारतीय सभ्यता का विभिन्न युगों में उत्तरोत्तर विकास हुआ जिसका वर्णन हम आगे चल कर करेंगे।
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