अनुवाद - संजय तिवारी
किसी सरकारी योजना में ऐसा पहली बार हुआ था कि दोहन की बजाय संवर्धन पर सरकारी धन खर्च किया गया था। सरकारें ट्यूबवेल बनाकर धरती का पानी खींचने में सिद्धहस्त होती हैं लेकिन यहाँ इसके उलट किसी छोटी जलधारा को जीवित किया गया ताकि धरती के पेट में पानी भर सके। छोटी जलधाराएँ न केवल स्थानीय भूजल को बनाकर रखती हैं बल्कि जिन नदियों में उनका मिलन होता है उस बड़ी नदी की सेहत के लिये भी ये छोटी नदियाँ वरदायी होती हैं।
यह देश के 250 सर्वाधिक पिछड़े हुए जिलों में से एक फतेहपुर की कहानी है जहाँ सरकारी पैसे के समुचित उपयोग और जन भागीदारी से समाज ने अपनी सूखी नदी को जिन्दा कर लिया।39 साल के राम ईश्वर फतेहपुर स्टेशन के सामने रिक्शा चलाते थे। खेती करते थे तब भी वो कोई बड़े किसान नहीं थे लेकिन रोजी रोटी चल जाती थी। छोटी जोत में मेहनत से इतना पैदा कर लेते थे कि जीवन चल जाता था। जब पानी की कमी की वजह से छोटी जोत की पैदावार भी जरूरत से छोटी हो गई तो उन्होंंने रिक्शा चलाने का विकल्प चुना। अगर उद्योग धन्धे का विकल्प मिलता तो शायद मिल फैक्टरी में काम भी करते लेकिन फतेहपुर में रोजी रोटी के बहुत सारे विकल्प नहीं हैं। ऐसे में एक सरकारी योजना राम ईश्वर के लिये वरदान बनकर आई।
महात्मा गाँधी रोजगार गारंटी योजना के तहत फतेहपुर में एक ऐसा काम हाथ में लिया गया जिससे फतेहपुर को सींचने वाली सूखी नदी हरी हो गई। ससुर खदेरी (2) का पुनर्जीवन भारत में सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन का सफल उदाहरण है जिसने छोटी जोत वाले न जाने कितने किसानों को खेती की तरफ लौटाने का काम किया है।
केवल डेढ़ महीने के प्रयास ने ससुर खदेरी का दुख दूर कर दिया। वह नदी जो कभी यमुना की संगिनी थी, इतना गाद (मिट्टी) से भर गई थी कि वियोगीनी बनी जी रही थी। 15 अप्रैल 2013 से 31 मई 2015 के बीच मनरेगा के तहत चलाई गई सफाई योजना ने नदी का कायाकल्प कर दिया। करीब चार हजार मजदूरों को रोजाना काम पर लगाकर नदी की गाद को साफ किया गया और साफ होते ही नदी ने आसपास के समाज के माथे पर उभर आये सूखे के दाग को धो दिया। ससुर खदेरी की सरकारी सफलता सरकार के लिये इतनी असरकारी थी कि राज्य के कृषि उत्पादन कमिश्नर आलोक रंजन ने राज्य के बाकी 70 जिलों को निर्देश दिया कि वो भी अपने-अपने जिलों में ऐसे ही प्रयास करें ताकि जमीन का गिरता जलस्तर ऊपर की तरफ उठ सके।
किसी सरकारी योजना में ऐसा पहली बार हुआ था कि दोहन की बजाय संवर्धन पर सरकारी धन खर्च किया गया था। सरकारें ट्यूबवेल बनाकर धरती का पानी खींचने में सिद्धहस्त होती हैं लेकिन यहाँ इसके उलट किसी छोटी जलधारा को जीवित किया गया ताकि धरती के पेट में पानी भर सके। छोटी जलधाराएँ न केवल स्थानीय भूजल को बनाकर रखती हैं बल्कि जिन नदियों में उनका मिलन होता है उस बड़ी नदी की सेहत के लिये भी ये छोटी नदियाँ वरदायी होती हैं। और फिर फतेहपुर तो दो दो बड़ी नदियों के रास्ते में पड़ता है, गंगा और यमुना दोनों ही फतेहपुर से होकर गुजरती हैं।
गंगा जमुना के इस दोआब में अकाल की आहट सचमुच चौंकाने वाली थी। जिसके एक सिरे पर गंगा और दूसरे सिरे पर यमुना बहती हों, इन नदियों को जोड़ने वाली आधा दर्जन से अधिक छोटी नदियाँ मौजूद हों, उस जिले के किसी एक हिस्से में अकाल की आहट आ जाये तो इससे ज्यादा आश्चर्य और क्या हो सकता है? लेकिन राज्य सरकार की रिमोट सेंसिंग रिपोर्ट ने 2012 में वह आहट सुना दी थी। जिले के छह ब्लाक में भूजल रसातल में चला गया है और सात ब्लाक में जाने के कगार पर है। चार ब्लाक को तो डरावने डार्क जोन में डाल दिया गया था जहाँ अब भूजल को पुनर्जीवन नहीं दिया जा सकता। इस पर भी संकट ये कि छोटी जलधाराओं के सूख जाने से बारिश के दिनों पानी आसपास के इलाकों में जमा हो जाता है और जलभराव का संकट पैदा करता है और सूखे से जूझते इलाकों में बाढ़ राहत कार्यक्रम चलाना पड़ता था।
इन समस्याओं की तरफ पहला ध्यान दिया जिलाधिकारी कंचन वर्मा ने। कंचन वर्मा ने महसूस किया कि 46 किलोमीटर लम्बी ससुर खदेरी को अगर पुनर्जीवित कर दिया जाये तो इलाके के बाढ़ सुखाड़ की समस्या से निजात पाई जा सकती है। 42 गाँवों से होकर गुजरने वाली ससुर खदेरी (2) को अवैध निर्माण, गाद का भराव ने खत्म कर दिया था। तिथौरा गाँव की एक झील से निकलने वाली ससुर खदेरी (2) फतेहपुर जिले के ही चार खण्ड से होकर गुजरती है लिहाजा अकेले एक जिले के जिलाधिकारी के लिये काम का निर्णय लेना आसान था।
लेकिन अकेले जिलाधिकारी के निर्णय लेने से समस्या का कोई समाधान नहीं होने जा रहा था। ससुर खदेरी की राह में समस्याओं के चट्टान नहीं, पहाड़ खड़े थे। सबसे बड़ी समस्या थी लोगोंं को इस काम के लिये तैयार करना और उन्हें यह भरोसा दिलाना कि ऐसा करने से उनकी पानी से जुड़ी समस्याओं का समाधान हो जाएगा लेकिन उससे भी बड़ी समस्या ये थी कि सरकारी रिकॉर्ड में नदी का कहीं कोई जिक्र ही नहीं था। 2011 में एक आरटीआई के जवाब में जिला प्रशासन ने खुद स्वीकार किया था कि ऐसी किसी नदी का कोई वजूद नहीं है। इसकी वजह से डीएम की इच्छा के बावजूद जिला प्रशासन काम शुरू करने को लेकर कोई खास उत्साहित नहीं था।
ऐसे माहौल में गंगा नदी के प्रदूषण के खिलाफ काम कर चुके विज्ञानानंद सहित कुछ और लोगों की कोशिशों ने सरकारी महकमे के हौसले बढ़ाने में मदद की। डीएम की बढ़ती अनिच्छा को देखते हुए विज्ञानानंद ने कृषि उत्पाद कमिश्नर आलोक रंजन से मुलाकात की जिन्होंंने मनरेगा कमिश्नर, डीएम और स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक सामूहिक बैठक की जिसके बाद आखिरकार ससुर खदेरी के पुनर्जीवन का काम हाथ में ले लिया गया। पहले चरण में 38 किलोमीटर लम्बी नदी को गाद से मुक्त करने का निर्णय लिया गया। इसके लिये नदी को 38 हिस्सों में बाँट दिया गया। हर किलोमीटर पर काम करने के लिये मजदूरों की टीम तैनात की गई जिसकी निगरानी 38 टेक्निकल असिस्टेंट नियुक्त किये गए। उत्तर प्रदेश पीडब्ल्यूडी के कार्यकारी इंजीनियर अरविन्द जैन बताते हैं कि कैसे हर किलोमीटर पर 20 सेंटीमीटर का ढलान रखा गया ताकि नदी का स्वाभाविक बहाव बना रहे। एक जगह नदी के भीतर एक छोटा सा टापू भी बनाया गया ताकि वहाँ पक्षियों का बसेरा हो सके।
जिलाधिकारी वर्मा बताते हैं कि कार्य बहुत मुश्किल था। एक तो योजना बहुत बड़ी थी लेकिन उससे भी बड़ी समस्या थी कि अवैध कब्जा हटाने के दौरान कानून व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है। काम को लेकर स्थानीय लोग कितने निरुत्साहित थे इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि काम के पहले दिन केवल सौ मजदूर ही काम पर आये जबकि परियोजना को पूरा करने के लिये रोजाना चार हजार कामगारों की जरूरत थी। इसके बाद जिला प्रशासन ने गाँव-गाँव लोगों को तैयार करने के लिये एक मुहिम चलाई ताकि ज्यादा-से-ज्यादा लोग इस काम में शामिल हो सकें। इसका परिणाम यह आया कि इन 42 गाँवों से करीब एक हजार स्कूली बच्चों ने परियोजना को शुरू करने के लिये स्वैच्छिक रूप से अपनी सेवाएँ दीं।
लेकिन अभी ससुर खदेरी के राह के सारे रोड़े नहीं हटे थे। अब तिथौरा गाँव के लोगों ने माँग कर दी कि झील का निर्धारण करते समय उनके खेत को उसमें शामिल न किया जाये। गाँव वालों का कहना था कि बजाय उनके खेतों को झील में शामिल किया जाये, बगल के खाली पड़े 23 हेक्टेयर जमीन को झील के लिये इस्तेमाल किया जाये जो कि सरकारी रिकॉर्ड में चारागाह की जमीन के रूप में दर्ज थी। कार्यकारी इंजीनियर जैन बताते हैं कि भौगोलिक रूप से यह जमीन भी कभी झील का हिस्सा रही थी और उसे ले भी सकते थे लेकिन सरकारी रिकॉर्ड में वह जमीन चारागाह की जमीन के रूप में दर्ज थी इसलिये हम कुछ नहीं कर सकते थे। ग्राम पंचायत के सदस्य इस बात से इतने नाराज हो गए कि उन्होंने ग्राम सरपंच प्रेमा देवी के खिलाफ ही अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया कि वो सरकार का साथ दे रही हैं। इससे घबराकर प्रेमा देवी ने डीएम से दखल देने की माँग की और डीएम ने दखल दिया भी और अविश्वास प्रस्ताव रुकवा दिया।
मनरेगा का महाप्रताप
ससुर खदेरी के पुनर्जीवन की कहानी मनरेगा के महाप्रताप की कहानी भी है। पहली बार शायद किसी सरकारी प्रोजेक्ट में ऐसा हुआ था जब कई सारे विभागोंं ने मनरेगा के तहत मिल जुलकर काम किया और सफलता हासिल की। 2006 में शुरू की गई मनरेगा योजना दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार गारंटी योजना है। 2006-11 के बीच मनरेगा के तहत 1,10,000 हजार करोड़ रुपए खर्च किये गए जिसमें 54 हजार करोड़ रुपए पानी के पुनर्जीवन के लिये खर्च किये गए। यह सरकारी विभागोंं की अच्छी पहल है क्योंकि इसका सीधा असर पर्यावरण और पारिस्थितिकीय तंत्र पर पड़ता है। पानी के परम्परागत स्रोतों की सफाई, उनका पुनर्जीवन मनरेगा के काम की मुख्यधारा में है। मनरेगा की इसी मुहिम का फायदा ससुर खदेरी को भी मिला है।
ससुर खदेरी को पुनर्जीवित करने के लिये कई विभागों का सहारा लिया गया। सिंचाई विभाग ने तकनीकी मदद की। जिले के राजस्व विभाग ने नदी के आसपास सर्वे का काम पूरा किया ताकि यह पता किया जा सके कि कहाँ-कहाँ अतिक्रमण हुआ है। वन विभाग ने झील के आसपास 3500 नए पेड़ लगाए। जिलाधिकारी वर्मा कहते हैं कि राजस्व विभाग का कम्प्यूटराइज्ड भूमि रिकॉर्ड ने बहुत मदद की। इससे हमें नदी के मूल रास्ते को समझने में मदद मिली और यह पता चला कि कहाँ-कहाँ नदी का अतिक्रमण किया गया है। परियोजना के सुपरवाइजर हरिश्चन्द्र बताते हैं कि इसी तरह सिंचाई विभाग का सहयोग न मिला होता तो हमें बहुत दिक्कत होती। तब हो सकता है यह काम पूरा करने में बहुत ज्यादा वक्त लग जाता।
खण्ड विकास अधिकारी, जिला विकास अधिकारी और ग्राम पंचायत प्रमुख सबने अपनी-अपनी भूमिका निभाई ताकि काम करने वाले मजदूरों की कमी न पड़े। हरिश्चन्द्र कहते हैं कि मनरेगा के तहत दूसरे सभी विभागोंं के समन्वय के बिना यह काम करना असम्भव था। जिले के छह खण्डों से ग्रामीणों को इस काम में लगाया गया। कई ग्रामीण लम्बी दूरी तय करके काम करने आते थे। जो दूर से आते थे उनको अतिरिक्त भुगतान किया जाता था। इस तरह ससुर खदेरी की परियोजना ने कार्य के 2,04,000 मानव दिवसोंं का निर्माण किया। इसमें 156,000 कार्य दिवस नदी के पुनर्जीवन के लिये और 48,000 कार्यदिवस झील के पुनर्जीवन पर खर्च किये गए। सरकारी आँकड़ों में यह एक सफल परियोजना साबित हुई क्योंकि पिछले साल जिले में जहाँ औसत तीस दिन का काम मिला था इस साल औसत 90 कार्य दिवस का काम दिया गया। मनरेगा के सभी मानकों का भी ध्यान रखा गया। कामगारोंं के लिये पीने के पानी की व्यवस्था, प्राथमिक चिकित्सा और आराम करने के लिये तंम्बू कनात भी लगवाये गए।
परियोजना के सुपरवाइजर हरिश्चन्द्र बताते हैं कि शुरुआत में स्थानीय ग्रामीण लोगों की तरफ से इसलिये भी विरोध किया गया क्योंंकि एक तो अतिक्रमण हटाया जा रहा था वहीं दूसरी तरफ मनरेगा में मजदूरी के दौरान भुगतान बहुत देर से किया जाता है। लेकिन इस परियोजना में बैंक आफ बड़ौदा ने भी बहुत तत्परता दिखाई। बैंक ने हर हफ्ते मजदूरोंं के अकाउंट में पैसे ट्रांसफर किये। इस परियोजना पर बैंक की तरफ से काम करने वाले अधिकारी निखिल गुप्ता कहते हैं कि जैसे ही हमने सौ मजदूरों के अकाउंट में पैसा ट्रांसफर किया यह बात जंगल में आग की तरह फैल गई। इसके बाद तो हर रोज मजदूरोंं की तादात दोगुनी होने लगी।
परियोजना का असर एक साल में ही दिखने लगा। 2014 के मानसून के बाद सरकार द्वारा कराए गए एक सर्वे से पता चला कि इस साल बीते साल के मुकाबले कम जल भराव हुआ है। भैरवां और फुलवामऊ जैसे इलाकों में जहाँ पानी की कमी के कारण कभी धान की खेती नहीं होती थी इस साल धान की खेती भी की गई। झील में पानी भरना शुरू हो गया और जुलाई में झील में 90 हजार क्यूबिक मीटर पानी जमा हो गया था। साल भर के भीतर ही स्थानीय लोग अब बाढ़ और सुखाड़ के सामने असहाय नहीं रह गए थे।
सुखदेव बताते हैं कि जल भराव की समस्या के कारण वे अपने दो हेक्टेयर खेत में केवल 0.4 हेक्टेयर खेत में ही धान उगा पाते थे लेकिन 2014 में उन्होंंने अपने पूरे खेत में धान की फसल लगाई। रावतपुर के सोमेश बहादुर कहते हैं कि अब वो अपनी जमीन पर खेती कर सकते हैं। यह सब इस परियोजना की देन है। वे बताते हैं कि इस साल पानी है और पम्प लगाकर वो अपने खेतों की सिंचाई कर सकते हैं।
तिथौरा में जहाँ झील बनाई गई वहाँ तो और भी कमाल का परिणाम आया है। तिथौरा के धर्मपाल बताते हैं कि गाँव में भूजल स्तर ऊपर आ गया है। वो ग्रामीण जो शुरू में झील का विरोध कर रहे थे अब कहते हैं कि अगर परियोजना को पूरा नहीं किया गया तो वो जिला अधिकारी के सामने प्रदर्शन करेंगे कि इस परियोजना को जल्द-से-जल्द पूरा किया जाये। हालांकि रिपोर्ट लिखे जाने तक जिले के जिलाधिकारी बदल गए थे लेकिन नए जिलाधिकारी अभय कुमार की योजना उनसे भी आगे की है। वे कहते हैं कि वो पड़ोस के इलाहाबाद और कौशाम्बी जिलों में अधिकारियों से बात करेंगे ताकि इसी तरह की योजनाएँ वहाँ भी सफलतापूर्वक चलाई जा सकें।
ससुर खदेरी का सरकार पर असर
सिर्फ सरकार ने ही ससुर खदेरी को पुनर्जीवित नहीं किया है बल्कि ससुर खदेरी की सफलता से सरकार में भी योजनाओं का पुनर्जीवन हो गया है। उत्तर प्रदेश सरकार की योजना है कि इसी तरह मनरेगा के तहत राज्य में सूख चुकी नदियोंं और नदी स्रोतोंं को पुनर्जीवित किया जाएगा। आलोक रंजन का कहना है कि इससे सम्बन्धित आदेश विभागों को जारी कर दिये गए हैं। आलोक रंजन कहते हैं कि राज्य के कई जिले हैं जहाँ सूखे की समस्या गहराती जा रही है। कई इलाके या तो डार्क जोन में चले गए हैं या फिर बिल्कुल इसकी कगार पर खड़े हैं। वे कहते हैं कि सिर्फ ससुर खदेरी के मॉडल पर ही सूखे की समस्या से निपटा जा सकता है। फतेहपुर में जो फतेह हुई है उसे राज्य के दूसरे हिस्सोंं में दोहराया जाएगा।
Path Alias
/articles/phataehapaura-maen-sauukhae-para-phataeha
Post By: Editorial Team