फसल ऋतुजैविकी की भविष्यवाणी एवं जलवायु परिवर्तन के प्रभाव


जलवायु परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है जिसका हिमालयी क्षेत्र पर भी अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। जलवायु परिवर्तन का पर्वतीय खेती पर भी भविष्य में प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा अत: इससे बचने के लिये हमें अग्रिम रूप से तैयार होना होगा और इसके अनुकूलन तथा शमन के लिये पूर्व चेतावनी प्रणालियों एवं अन्य तरीके विकसित करने होंगे। इस लेख में ऋतुजैविकी, इसके अध्ययन के कारणों तथा हाल के समय में अनुकरण प्रतिमानों का ऋतुजैविकी को सही ढंग से जानने में प्रयोग के बारे में वर्णन है जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का उचित आकलन करने में अवश्य सहायक होगा।

Fig-1जलवायु परिवर्तन के विचारों और अनुमानों (आईपीसीसी, 2007) के अनुसार ग्रीन हाउस गैसों की वैश्विक वायुमंडलीय सांद्रता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। उष्ण तथा बहुधा अधिक गर्म दिन और गर्म हवाओं की आवृत्ति में बढ़ोत्तरी से इसका पता चलता है। विगत कुछ वर्षों से भारी बारिश तथा बाढ़ में बढ़ोत्तरी की घटनाएँ दर्ज की गई हैं (चित्र 1)। बढ़ते सूखे (चित्र 2), तीव्र उष्णकटिबन्धीय चक्रवाती गतिविधियों तथा समुद्र स्तर में वृद्धि से विशाल भू-क्षेत्र प्रभावित हुए हैं।

कृषि के जैव-भौतिकी पक्ष पर जलवायु परिवर्तन का व्यापक प्रभाव पड़ा है। फसलों, चरागाहों, जंगलों तथा पशुधन पर इसके परिणात्मक तथा गुणात्मक प्रभाव पड़े हैं। भूमि, मृदा तथा पानी के स्रोतों की मात्रा तथा उनके गुणों में भी भारी बदलाव दर्ज किए गये हैं। भूमि क्षरण एवं बंजरता के फलस्वरूप मृदा लवणता में लगातार वृद्धि दर्ज की गई है। बढ़ते खरपतवार व कीटों ने भी चुनौतियाँ पेश की हैं। उपरोक्त सभी कारकों के फलस्वरूप फसल पैदावार में स्पष्ट कमी आयी है। जलचक्र में बदलाव एवं वृष्टिपात में भी भिन्नता दर्ज की गयी है। वृद्धि काल में बदलाव के कारण फसल उत्पादन व आजीविका विकल्प सीमित हुए हैं।

Fig-2ऋतुजैविकी, समय-समय पर होने वाली जैविक घटनाओं का अध्ययन है, जो पारंपरिक रूप से एक वृद्धि काल में एक बार होती है। यह वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया, वृद्धि एवं विकास को नियंत्रित करने वाली पादप प्रक्रियाओं की दर और पर्यावरण को मापने का एक तरीका है। यह पादप विकास की गतिशीलता का अध्ययन है जो आंतरिक पादप क्रियाओं के बजाय अंतर्निहित प्रक्रियाओं की घटनाओं जैसे विकास विभेदीकरण तथा अंगों के प्रस्फुटन पर ध्यान देता है। मुख्य पादप ऋतुजैविकी प्रक्रियाओं में बसंतीकरण, पत्ती, जड़, शाखा विकास पुष्पन तथा बीजों का विकास शामिल है।

फसल विकास प्रतिरूप की स्पष्ट भविष्यवाणी खेती प्रबंधकों के लिये फसल उत्पादन में सहायक होगी जिससे फसल के महत्त्वपूर्ण विकास चरण अनुकूल मौसम की अवधि के दौरान होंगे। निम्नलिखित प्रकार से हम विकास के चरणों की सही ढंग से भविष्यवाणी करने में सक्षम होंगे :

1. कीटनाशकों का प्रयोग फसल अथवा कीटों के कुछ ही विकास अवस्थाओं में करना चाहिए।

2. पुष्पन के समय होने वाले कुप्रभाव का अनाज की पैदावार पर बड़ा असर पड़ेगा जबकि वानस्पतिक विकास के समय होने वाले तनाव का विपरीत प्रभाव कम होगा।

3. वैश्विक जलवायु में CO2 तथा अन्य ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती सान्द्रता के कारण होने वाले परिवर्तन से बचने के लिये ऋतुजैविक प्रतिक्रियाओं में भी बदलाव की आवश्यकता है। स्थानीय जलवायु के सर्वोत्तम उपभोग हेतु फसलों की नई किस्मों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

मध्य हिमालय क्षेत्र में खेती का बड़ा हिस्सा वर्षा आधारित खेती का है। अत: फसल को वृद्धि के समय सूखे, गर्मी या ठंड से होकर गुजरना पड़ता है। अधिक पैदावार के लिये यह आवश्यक है कि फसल किस्मों व रोपण तारीखों का सही चयन किया जाये जिसमें आर्थिक पैदावार कम प्रभावित हो। प्रत्येक चरण के दौरान होने वाले विकास के पारस्परिक संबंधों को भी समझना चाहिए।

एक फसल वृद्धि अनुकरण प्रतिमान फसल विकास की प्रक्रिया (ऋतुजैविकी) में लगने वाले समय की भविष्यवाणी को बताता है। खेती के समय पादप क्रियाओं की प्रतिक्रियाओं की भविष्यवाणी के लिये विकास चरणों के समय की सटीक भविष्यवाणी की खास आवश्यकता है। प्रत्येक विकास चरण की परिस्थिति बाद के चरणों के दौरान बनने वाली परिस्थिति पर फसल की प्रतिक्रिया की क्षमता को प्रभावित करती है। फसल काल के दौरान तापमान, नमी, दिन की लम्बाई, प्रकाश तथा अन्य पर्यावरणीय कारकों में बदलाव होता रहता है। फिर भी प्रतिमान सटीक अनुमान लगा सके कि कब वृद्धि क्रिया शुरू हो तथा कब खत्म। यह इतना सरल होना चाहिए कि इसकी जानकारी/प्रौद्योगिकी किसी भी उपभोक्ता को दी जा सके और वह इस जानकारी को व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने और निर्णय लेने में इस्तेमाल कर सके।

शोध प्रतिमान मुख्य रूप से पादप वृद्धि की क्रियाओं तथा पर्यावरण के बीच संभावित संबंधों के अन्वेषण के लिये प्रयुक्त किये जाते है। आवेदन प्रतिमान मुख्य रूप से भविष्य या काल्पनिक घटनाओं की भविष्यवाणी के लिये अभिप्रेरित होते हैं, जैसे फसल काल के अंत में पैदावार अथवा वर्तमान या हाल की घटनाओं के रूप में, जो सीधे मापने में कठिन होते हैं, जैसे की मिट्टी की नमी में कमी। आवेदन प्रतिमानों का सफल विकास पादप वृद्धि क्रिया तथा पर्यावरण की क्रियाओं के आपसी संबंधों की समझ पर निर्भर है, जो शोध प्रतिमानों के साथ उत्पन्न अनुभव से प्राप्त की जा सकती है।

इस प्रकार कृषि प्रतिमान फसल प्रणालियों के कई घटकों जैसे विशेष फसल, कीट, मोथ, रोग तथा मृदा प्रक्रियाओं के लिये विकसित किये गये हैं। ये प्रतिमान मात्रात्मक सिद्धांतों पर आधारित हैं कि कैसे भौतिक एवं जैविक क्रियायें अपने पर्यावरण और एक-दूसरे से कैसे प्रतिक्रिया करते हैं। इन घटक प्रतिमानों में से कुछ जटिल फसल प्रणाली के बड़े प्रतिमानों से संयोजित किये गये हैं और वे व्यापक रूप से उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की भविष्यवाणी के लिये उपयोग किए जाते हैं। कुछ प्रचलित फसल प्रतिमान जो जलवायु परिवर्तन का फसलों की उत्पादकता पर प्रभाव मापने हेतु प्रयुक्त किये जाते हैं वे इस प्रकार हैं :

इन्‍फो क्रॉप


यह एक सामान्य फसल प्रतिमान है जो कृत्रिम रूप से मौसम, मृदा, मुख्य कीटों के प्रकोपों, फसल उत्पादन, मृदा कार्बन, नाइट्रोजन, जल तथा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की भविष्य में स्थिति बताता है। यह फसल वृद्धि एवं विकास मृदा जल नाइट्रोजन एवं कार्बन तथा फसल व कीटों का पारस्परिक प्रभाव का आकलन करता है। इन्फो क्रॉप अनुकरण प्रतिमान का प्रवाह आरेख चित्र 3 में प्रदर्शित है।

Fig-3

एपसीम


यह प्रतिमान कृषि प्रणालियों की जैव भौतिकी क्रियाओं के आकलन हेतु विकसित किया गया है। यह जलवायु परिवर्तन के आर्थिक एवं पारिस्थितिकी खतरों का आकलन करने में सक्षम है। यह जलवायु, मृदा, जीनोटाइप तथा प्रबंधन के अनुसार सही भविष्यवाणी कर सकता है।

क्रॉप सिस्‍ट


यह बहुफसल प्रतिमान प्रयोगकर्ता के आसान प्रयोग के लिये बनाया गया है जो जीआईएस सॉफ्टवेयर तथा मौसम जनक से जुड़ा रहता है। इसका मुख्य लक्ष्य फसल प्रणाली को प्रबंधन द्वारा फसल उत्पादन तथा वातावरण पर प्रभावों का अध्ययन करना है।

डीससैट


यह प्रतिमान मृदा के प्रभावों, फसल रचना, मौसम तथा प्रबंधन इकाईयों को जोड़ता है तथा प्रयोगकर्ता को कई सम्भावनाओं “यदि ऐसा” प्रकार के प्रश्नों के उत्तर प्रदान करता है। यह किसी क्षेत्र में बोई गयी फसल की वृद्धि, विकास एवं उपज का सामान्य रूप में अथवा मिट्टी, पानी, कार्बन या नाइट्रोजन की मात्रा में बदलाव करने पर भी फसल प्रणालियों में होने वाले प्रभावों का आकलन कर सकता है।

इस प्रकार फसल वृद्धि अनुकरण प्रतिमान भविष्य की फसल तथा मृदा की उत्पादकता का अनुमान लगाने में साहयक है। जीसीएम (सामान्य प्रसार प्रतिमान) के साथ मिलकर ये प्रतिमान भविष्य की कृषि प्रणालियों का अनुमान लगा सकते हैं जो परिवर्तित जलवायु के अनुकूल होंगी। ये अनुकरण प्रतिमान “यदि ऐसा” प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम हैं जैसे अगर जलवायु परिवर्तित होगी, यदि फसल की अलग किस्में प्रयोग की जाए इत्यादि।

फसल प्रतिमानों द्वारा अनुरूपित होने वाली मुख्य जलवायु संवेदनशील प्रक्रियाएँ इस प्रकार हैं :-

1. फसल विकास - विभिन्न वृद्धि अवस्थाएँ
2. फसल वृद्धि - प्रकाश संश्लेषण, श्वसन एवं विकास प्रकियाएँ
3. पौधे के हिस्सों का विभाजन - फली एवं बीज में वृद्धि आदि
4. नाइट्रोजन स्थिरीकरण - ग्रन्थिकाओं में वृद्धि एवं नाइट्रोजन स्थिरीकरण
5. जड़ वृद्धि - गहराई एवं प्रसार
6. मृदा प्रक्रियाएँ - उर्वरक रूपान्तरण एवं संतुलन
7. जलचक्र प्रक्रियाएँ - जल संतुलन
8. प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष प्रभाव - तापमान तथा जल तनाव
9. कीट व रोग - वृद्धि विकास एवं उपचार पद्धति

प्रतिमान वास्तविक दुनिया को गणितीय रूप में प्रस्तुत करते हैं। आजकल कृषि एवं पर्यावरण विज्ञान में प्रतिमानों का प्रयोग बहुत प्रचलित हो रहा है। फसल अनुकरण प्रतिमान वर्तमान वैज्ञानिक ज्ञान को अन्य विषयों जैसे- फसल क्रिया विज्ञान, पौधा प्रजनन, शस्य विज्ञान, फसल मौसम विज्ञान, मृदा भौतिकी, मृदा रसायन और कीट विज्ञान से जोड़ते हैं। सामान्यत: फसल अनुकरण प्रतिमान मौसम की स्थिति, फसल प्रबंधन परिदृश्यों के अनुसार फसल उपज की गणना अथवा अनुमान लगाते हैं।

फसल अनुकरण प्रतिमान के मापांकन व सत्यापन के लिये आवश्यक आँकड़े इस प्रकार हैं :-

1. प्रतिदिन मौसम के आँकड़े :- बारिश, अधिकतम और न्यूनतम तापमान, सौर विकिरण, धूप के घंटे।

2. मृदा रूपरेखा के आँकड़े :- (एक बार का कार्यकलाप जो मिट्टी की सर्वेक्षण रिपोर्ट से प्राप्त किया जाए): क्षितिज से मृदा की बनावट, थोक घनत्व, अंश पत्थर, जैविक कार्बन, मृदा पीएच (जल), क्षितिज मोटाई और गहराई, जड़ विकास वितरण, सतही विशेषताएँ जैसे- मृदा रंग, ढाल, पारगम्यता, जल निकासी वर्ग, मिट्टी की शृंखला का नाम।

3. प्रबंधन आँकड़े :- फसल, किस्म, रोपण तारीख, अंकुर दर, पादप रिक्ति, पंक्ति रिक्ति रोपण गहराई, सिंचाई (तारीख, मात्रा, प्रकार और विधि) उर्वरक (तिथि, राशि, प्रकार, प्रयोग की विधि), जुताई/माध्यमिक संचालन (दिनांक, गहराई, उपकरणों का इस्तेमाल क्रिया), जैसे उर्वरकों (तिथि, राशि, प्रकार और प्रयोग की विधि), निराई और छंटनी (तारीख और विधि)।

4. प्रारंभिक मृदा आँकड़े (फसल की बुवाई के समय एकत्र हो):-


(अ) अधिकतम गहराई (1.5 मी.) तक आरम्भिक मिट्टी के पानी की माप तथा 30 सेमी. के अन्तराल पर मिट्टी के नमूने।

(ब) 1.5 मी. की गहराई तक 30 सेमी. के अंतराल पर आरंभिक मृदा उर्वरता। मिट्टी के नमूनों में NH4,NO3, P,K, pH और जैविक कार्बन तथा नाइट्रोजन का विश्लेषण किया जाना चाहिए।

(स) मिट्टी की सतह पर अवशेष - राशि तथा रचना (N और C की मात्रा)।

5. मृदा जल माप:- ग्रवीमैट्रीक या अन्य विधियों द्वारा 10 से 15 दिन के अन्तराल पर हर 30 सेमी. के अन्तराल पर अधिकतम गहराई (1.5 मी. तक)।

6. वानस्पतिक और प्रजनन विकास (फसल अनुसार : केवल दृश्य अवलोकन) :- अवलोकन 2 या 3 दिन बाद ली जाये। उभार तारीख, वानस्पतिक तथा प्रजनन अवस्था अभिलेखित करें।

7. फसल वृद्धि विश्लेषण (फसल अनुसार, फसल के साथ बदल सकता है):- पौधों के नमूनों हर २ सप्ताह के अन्तराल में लेने चाहिए। नमूना क्षेत्र के लिये 1 मी2 क्षेत्र, नमूना पौधों की संख्या, भूमि से ऊपर का जीवभार, पत्तों, पर्णवृन्त, फली और बीज का भार, पत्ती क्षेत्र, फलीयों की संख्या, बीजों की संख्या तथा नाइट्रोजन की मात्रा (वैकल्पिक)।

8. फसल कटाई के समय पैदावार व अन्य घटक (फसल अनुसार बदल सकता है):- कटाई की तारीख, फसल घनत्व (पौधे/मी2), फसल क्षेत्र, भूमि के ऊपर का जीवभार, फली उपज (बीज आवरण), बीज उपज, 1000 फलियों का वजन।

प्रतिमान अनुप्रयोगों के लिये आवश्यक आँकड़ा समुच्चय प्रतिदिन मौसम के आँकड़े, मृदा रूपरेखा के आँकड़े, प्रारंभिक मृदा आँकड़े प्रारंभिक मृदा उर्वरकता और मृदा की नमी, प्रबंधन आँकड़े, फसल विशेष के गुणांक (आनुवंशिक गुणांक)।

इस प्रकार फसल प्रतिमान अनुकूलन रणनीतियों को बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नई फसलों और उच्च तापमान, सूखे, जल लवणता, जमाव, कीड़े और बीमारीयों, फसल अवधि आदि के निर्धारण में भी ये सहायक हैं। यह फसल विज्ञान को उत्तम बनाने जैसे- बुवाई की तारीख, पौधों की संख्या, पोषक तत्व प्रबंधन तथा मृदा व जल प्रबंधन (जैसे-जल उपयोग की दक्षता बढ़ाने) में भी सहायक हैं।

हालाँकि अनुकरण प्रतिमानों में अभी भी पूर्ण जानकारी की कमी है। फिर भी ये प्रतिमान बहुत उपयोगी हैं। अगर इसकी व्याख्या ध्यानपूर्वक तथा प्रतिमान की क्षमता के संदर्भ में की जाये तो एकल पहलुओं पर प्रतिरूपण से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर हमारे ज्ञान में बढ़ोत्तरी होती है। ये सरकारी, गैर सरकारी संगठनों या निजी निगमों के लिये पैदावार की सही भविष्यवाणी के लिये काफी उपयोगी हैं। ये जलवायु परिवर्तन का कृषि-पारिस्थितिकी पर प्रभाव को जानने तथा संभावित अनुकूलन और शमन को जानने में मददगार हैं।

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