पानी के बढ़ते समस्या के कारण अब तीसरा विश्व युद्ध होने के कगार पर है। हमारे एक टन मानवीय मल को बहाने के लिए 2000 टन शुद्ध जल बर्बाद किया जाता है। ऐसे फ्लश लैट्रींन से हमें बचना चाहिए। जिनसे हमारे पीने के शुद्ध जल बर्बाद होता हो। हमें अपने पुराने पद्धतियों के तरफ ही रुख करना होगा। तभी हमारा पानी बच सकता है। इसी फ्लश लैट्रींन के बारे जानकारी दे रहे हैं विनीत नारायण।
मशहूर लेखक जोसेफ जैनकस पूरी दुनिया के समाजों को दो श्रेणियों में बांटते हैं। वो समाज जो अपना मल (शौच) पीने के पानी में मिला कर बहा देते हैं और वो समाज जो ऐसा नहीं करते। जाहिर है कि सभी विकसित या पश्चिमी देश पहली श्रेणी में आते हैं जबकि भारत जैसे कृषि प्रधान देश दूसरी श्रेणी में आते हैं। भारत में खेत में जाकर शौच करने की जिस पारंपरिक प्रथा का आधुनिकता वादियों ने पिछले दशकों में मजाक उड़ाया था, आज उन्हें भी कुछ इसी किस्म की शौच व्यवस्था की ओर लौटने पर मजबूर होना पड़ रहा है। क्योंकि उनकी तथाकथित आधुनिक शौच व्यवस्था में साफ पानी की इतनी भारी बर्बादी हो रही है कि अब इन देशों में भी पानी का संकट पैदा होने लगा है। बदलते मौसम के कारण लंदन में बहने वाली टेम्स नदी के भूतल का जलस्तर पिछले 100 वर्षों में घटते-घटते आज न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है। जबकि इंग्लैंड में पानी की खपत पिछले 30 वर्षों में दुगुनी हो गई है।
अमरीका में भी साफ पानी की आपूर्ति से कई गुना ज्यादा पानी फ्लश की लैट्रिनों में बहाए जाने के कारण समस्या खड़ी होती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के एक अध्ययन के अनुसार एक टन मानवीय मल को बहाने के लिए 2000 टन शुद्ध जल बर्बाद किया जाता है। इसलिए जिन पारंपरिक समाजों में खेत में शौच जाने की प्रथा है वे समाज ज्यादा वैज्ञानिक व व्यवहारिक दृष्टि वाले हैं मुकाबले उनके जो रंग-बिरंगे टॉयल्स लगा कर, सोने की पोलिश वाली नल की टोटियां लगा कर अपने आधुनिक होने का स्वांग रचते हैं। इसलिए लगातार दोहन के कारण जब भूमिगत जल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है और राजधानी के आधुनिक इलाकों में भी लोगों को पानी के टैंकरों से पानी खरीद कर पीना और नहाना पड़ रहा है तो बाकी शहरों की तो दुर्दशा का मात्र अंदाजा लगाया जा सकता है।
बीबीसी के पर्यावरण संवाददाता एलक्स किरबी का कहना है कि दुनिया में अब उससे ज्यादा मात्रा में साफ पानी नहीं है जितना कि 2000 वर्ष पहले था। पर तब दुनिया की आबादी आज के मुकाबले मात्र तीन फीसदी थी। यानी 97 फीसदी बढ़ी हुई आबादी के लिए जल की मात्रा पहले जितनी ही स्थिर है। पर्यावरण विशेषज्ञ गार स्मिथ कहते हैं कि जल दुनिया का सबसे मूल्यवान संसाधन है एक औसत व्यक्ति तीन दिन से ज्यादा प्यासा नहीं रह सकता। वे चेतावनी देते हैं कि हमारे अविवेकपूर्ण दोहन के कारण भूमिगत जल का स्तर पूरी दुनिया में हर वर्ष औसतन दस फुट गिरता जा रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया का चालीस फीसदी भोजन सिंचित भूमि से मिलता है। यानी जल संकट से भोजन का संकट भी सीधा जुड़ा है। संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम प्रमुख इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हैं कि जल्दी ही दुनिया के देशों के बीच पीने के पानी के संकट को लेकर युद्ध शुरू हो जाएंगे।
यह कोरी कल्पना नहीं, हकीकत है। आज भी दुनिया के तमाम देश पीने के पानी का आयात कर रहे हैं। सउदी अरेबिया अपनी आवश्यकता का आधा पानी विदेशों से मंगाता है। इजराइल 87 फीसदी जल का आयात करता है और जॉर्डन मात्र 9 फीसदी जल ही जुटा पाता है शेष 91 फीसदी पेयजल का उसे भी आयात करना पड़ता है। इस तरह मध्य पूर्वी एशिया व अफ्रीका के 31 देश भारी जल संकट के दौर से गुजर रहे हैं। अगले 25 वर्षों में 48 देश जल संकट की चपेट में आ जाएंगे। इस तरह 25 वर्ष के भीतर दुनिया की एक तिहाई आबादी रोजमर्रा की जरूरत का पानी जुटाने के लिए त्राहि-त्राहि कर रही होगी।
जल के इस संकट को भुनाने के लिए दुनिया की कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां तैयार बैठी हैं। अकेले इंग्लैंड में पिछले 10 वर्षों में निजी कंपनियों ने पेयजल की कीमत 44 फीसदी तक बढ़ा दी है। पानी एक ऐसी वस्तु है जिसके बिना जिंदा नहीं रहा जा सकता। लोगों की इस मजबूरी का फायदा उठाने के लिए कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी भावी रणनीति बनाने में लगी हैं। अभी हाल में अमरीका की एक ऐसी ही कंपनी ने कनाडा के प्राकृतिक जल स्रोतों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। जब कनाडा की सरकार जागी और इसका विरोध किया तो यह कंपनी एनएएफटीए करार के तहत अदालत में चली गई और इसे जीतने की पूरी उम्मीद है।
इसलिए जल स्रोतों के संरक्षण के लिए समर्पित अमरीका व कनाडा के संयुक्त आयोग ने कनाडा की साफ पानी की झीलों के निजीकरण का विरोध किया है। जबकि कैलिफोर्निया की कंपनी सन बैल्ट वॉटर ने कनाडा की सरकार पर दावा ठोक दिया है। इस कंपनी को विश्वास है कि अदालत में मुकदमा जीत कर यह कंपनी कनाडा के जलस्रोतों पर कब्जा कर लेगी। कोई आश्चर्य न होगी जब आने वाले वर्षों में कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी पतित पावनी गंगा और यमफंद काटने वाली यमुना के उद्गम स्थल पर ही कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी ताला लगा कर बैठ जाएगी और लोक कल्याण के लिए समर्पित भागीरथी के जल की एक-एक बूंद की कीमत मांगेगी।
पानी के वर्तमान संकट और भविष्य की भयावह स्थिति से निपटने के लिए जीवन जीने के तरीकों में व्यापक बदलाव लाना होगा। वर्षा के जल का संग्रह मकानों की छतों पर और खाली पड़ी जमीनों में करने से धरती के नीचे के जल का स्तर बढ़ाया जा सकता है। इस दिशा में गुजरात के सूखाग्रस्त इलाके राजकोट के नागरिकों ने अच्छी पहल की और कामयाबी हासिल की। उन्होंने स्थानीय उत्साही प्रशासनिक अधिकारियों की मदद से जगह-जगह ‘चैक-डैम‘ बना कर वर्षा के पानी का समुचित मात्रा में संग्रह कर लिया। बाकी देश को भी इससे सबक सीखना चाहिए। भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय को चाहिए कि बड़ी-बड़ी योजनाओं के मकड़ जाल में न फंस कर ऐसी स्थानीय उपलब्धियों को दूरदर्शन की मदद से लोकप्रिय बनाएं। आज टोकियो से टैक्सास तक इस दिशा में पारंपरिक ज्ञान पर आधारित प्रयोग दोहराए जा रहे हैं। जबकि हम भारतवासी अंधे होकर पश्चिमी जीवन पद्धति की तरफ दौड़ रहे हैं।
यह बहुत जरूरी है कि हम संडास की व्यवस्था को इस तरह बनाएं कि वह हमारे लिए अभिशाप न होकर वरदान बन जाए। ऐसे संडास बने जिनमें पानी का इस्तेमाल कम से कम हो और मल से विद्युत ऊर्जा व जैविकी खाद बन सके। ऐसे संडास के सफल मॉडल उपलब्ध हैं और देश के कई इलाकों में लोकप्रिय भी। किंतु निहित स्वार्थों के कारण इनका व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं किया जा रहा है। इस मामले में भी पहल नागरिकों को ही करनी चाहिए। महात्मा गांधी ने इस समस्या को बहुत पहले ही भांप लिया था। इसलिए उन्होंने इसी किस्म के संडास बनाने और विकसित करने पर काफी जोर दिया। हर शहर में गांधीवाद के अवशेषों के रूप में बचे इक्के-दुक्के बुर्जुग गांधीवादी आज भी मौजूद हैं। इनकी सहायता से इस किस्म के संडास बनाने की विधि पर बेहद कम कीमत की लघु पुस्तिकाएं प्राप्त की जा सकती हैं। बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है। ज्ञानी वह नहीं जो स्वार्थवश परमार्थ को भूल जाए। परमार्थ के लिए स्वार्थ को भूलने वाले तो बिरले ही होते हैं। पर स्वार्थ के लिए परमार्थ करना पड़े तो किसे बुरा लगेगा? जल के संकट से सामुहिक रूप से निपटना ऐसा ही परमार्थ है जिसमें हम सबका स्वार्थ निहित है।
गुजरात के सूखाग्रस्त इलाके राजकोट के नागरिकों ने स्थानीय उत्साही प्रशासनिक अधिकारियों की मदद से जगह-जगह ‘चैक-डैम‘ बना कर वर्षा के पानी का समुचित मात्रा में संग्रह कर लिया। बाकी देश को भी इससे सबक सीखना चाहिए। भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय को चाहिए कि बड़ी-बड़ी योजनाओं के मकड़ जाल में न फंस कर ऐसी स्थानीय उपलब्धियों को दूरदर्शन की मदद से लोकप्रिय बनाएं। आज टोकियो से टैक्सास तक इस दिशा में पारंपरिक ज्ञान पर आधारित प्रयोग दोहराए जा रहे हैं। जबकि हम भारतवासी अंधे होकर पश्चिमी जीवन पद्धति की तरफ दौड़ रहे हैं।
बाकी देश की छोड़िए, भारत का दिल और देश की राजधानी दिल्ली दिसंबर के जाड़े में भी पानी के संकट से जूझ रही है। दिल्ली प्रदेश के अभिजात्य इलाके दक्षिणी दिल्ली के रहने वाले रोजाना पानी खरीद कर इस्तेमाल कर रहे हैं। जब जाड़े में ये हाल है तो गर्मी में क्या होगा? दरअसल पानी का संकट भारत ही नहीं पूरी दुनिया में गहराता जा रहा है। अमरीका की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी मोंसेन्टो अभी से भारत के जल संकट का फायदा उठा कर करोड़ों डॉलर कमाने की तैयारी कर रही है। इस कंपनी का एक गोपनीय दस्तावेज हाल ही में भारत की पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. वंदना शिवा के हाथ लगा तो यह चौकाने वाली बात सामने आई। संघलोक सेवा आयोग द्वारा संचालित आईएएस की परीक्षा में आज से 20 वर्ष पहले दिल्ली की एक आधुनिक महिला उम्मीदार से साक्षात्कार के दौरान कहा गया कि, ‘परमाणु बम भले ही दुनिया का विनाश न करे किंतु फ्लश की लैट्रिंन व्यवस्था जरूर विश्व का सर्वनाश कर देगी- इस पर टिप्पणी कीजिए। बेचारी आधुनिक महिला उम्मीदवार तब यह सोच भी न सकी थी कि फ्लश की लैट्रिंन विश्व का सर्वनाश कैसे कर पाएगी? पर आज यह सच हो रहा है।मशहूर लेखक जोसेफ जैनकस पूरी दुनिया के समाजों को दो श्रेणियों में बांटते हैं। वो समाज जो अपना मल (शौच) पीने के पानी में मिला कर बहा देते हैं और वो समाज जो ऐसा नहीं करते। जाहिर है कि सभी विकसित या पश्चिमी देश पहली श्रेणी में आते हैं जबकि भारत जैसे कृषि प्रधान देश दूसरी श्रेणी में आते हैं। भारत में खेत में जाकर शौच करने की जिस पारंपरिक प्रथा का आधुनिकता वादियों ने पिछले दशकों में मजाक उड़ाया था, आज उन्हें भी कुछ इसी किस्म की शौच व्यवस्था की ओर लौटने पर मजबूर होना पड़ रहा है। क्योंकि उनकी तथाकथित आधुनिक शौच व्यवस्था में साफ पानी की इतनी भारी बर्बादी हो रही है कि अब इन देशों में भी पानी का संकट पैदा होने लगा है। बदलते मौसम के कारण लंदन में बहने वाली टेम्स नदी के भूतल का जलस्तर पिछले 100 वर्षों में घटते-घटते आज न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है। जबकि इंग्लैंड में पानी की खपत पिछले 30 वर्षों में दुगुनी हो गई है।
अमरीका में भी साफ पानी की आपूर्ति से कई गुना ज्यादा पानी फ्लश की लैट्रिनों में बहाए जाने के कारण समस्या खड़ी होती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के एक अध्ययन के अनुसार एक टन मानवीय मल को बहाने के लिए 2000 टन शुद्ध जल बर्बाद किया जाता है। इसलिए जिन पारंपरिक समाजों में खेत में शौच जाने की प्रथा है वे समाज ज्यादा वैज्ञानिक व व्यवहारिक दृष्टि वाले हैं मुकाबले उनके जो रंग-बिरंगे टॉयल्स लगा कर, सोने की पोलिश वाली नल की टोटियां लगा कर अपने आधुनिक होने का स्वांग रचते हैं। इसलिए लगातार दोहन के कारण जब भूमिगत जल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है और राजधानी के आधुनिक इलाकों में भी लोगों को पानी के टैंकरों से पानी खरीद कर पीना और नहाना पड़ रहा है तो बाकी शहरों की तो दुर्दशा का मात्र अंदाजा लगाया जा सकता है।
बीबीसी के पर्यावरण संवाददाता एलक्स किरबी का कहना है कि दुनिया में अब उससे ज्यादा मात्रा में साफ पानी नहीं है जितना कि 2000 वर्ष पहले था। पर तब दुनिया की आबादी आज के मुकाबले मात्र तीन फीसदी थी। यानी 97 फीसदी बढ़ी हुई आबादी के लिए जल की मात्रा पहले जितनी ही स्थिर है। पर्यावरण विशेषज्ञ गार स्मिथ कहते हैं कि जल दुनिया का सबसे मूल्यवान संसाधन है एक औसत व्यक्ति तीन दिन से ज्यादा प्यासा नहीं रह सकता। वे चेतावनी देते हैं कि हमारे अविवेकपूर्ण दोहन के कारण भूमिगत जल का स्तर पूरी दुनिया में हर वर्ष औसतन दस फुट गिरता जा रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया का चालीस फीसदी भोजन सिंचित भूमि से मिलता है। यानी जल संकट से भोजन का संकट भी सीधा जुड़ा है। संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम प्रमुख इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हैं कि जल्दी ही दुनिया के देशों के बीच पीने के पानी के संकट को लेकर युद्ध शुरू हो जाएंगे।
यह कोरी कल्पना नहीं, हकीकत है। आज भी दुनिया के तमाम देश पीने के पानी का आयात कर रहे हैं। सउदी अरेबिया अपनी आवश्यकता का आधा पानी विदेशों से मंगाता है। इजराइल 87 फीसदी जल का आयात करता है और जॉर्डन मात्र 9 फीसदी जल ही जुटा पाता है शेष 91 फीसदी पेयजल का उसे भी आयात करना पड़ता है। इस तरह मध्य पूर्वी एशिया व अफ्रीका के 31 देश भारी जल संकट के दौर से गुजर रहे हैं। अगले 25 वर्षों में 48 देश जल संकट की चपेट में आ जाएंगे। इस तरह 25 वर्ष के भीतर दुनिया की एक तिहाई आबादी रोजमर्रा की जरूरत का पानी जुटाने के लिए त्राहि-त्राहि कर रही होगी।
जल के इस संकट को भुनाने के लिए दुनिया की कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां तैयार बैठी हैं। अकेले इंग्लैंड में पिछले 10 वर्षों में निजी कंपनियों ने पेयजल की कीमत 44 फीसदी तक बढ़ा दी है। पानी एक ऐसी वस्तु है जिसके बिना जिंदा नहीं रहा जा सकता। लोगों की इस मजबूरी का फायदा उठाने के लिए कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी भावी रणनीति बनाने में लगी हैं। अभी हाल में अमरीका की एक ऐसी ही कंपनी ने कनाडा के प्राकृतिक जल स्रोतों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। जब कनाडा की सरकार जागी और इसका विरोध किया तो यह कंपनी एनएएफटीए करार के तहत अदालत में चली गई और इसे जीतने की पूरी उम्मीद है।
इसलिए जल स्रोतों के संरक्षण के लिए समर्पित अमरीका व कनाडा के संयुक्त आयोग ने कनाडा की साफ पानी की झीलों के निजीकरण का विरोध किया है। जबकि कैलिफोर्निया की कंपनी सन बैल्ट वॉटर ने कनाडा की सरकार पर दावा ठोक दिया है। इस कंपनी को विश्वास है कि अदालत में मुकदमा जीत कर यह कंपनी कनाडा के जलस्रोतों पर कब्जा कर लेगी। कोई आश्चर्य न होगी जब आने वाले वर्षों में कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी पतित पावनी गंगा और यमफंद काटने वाली यमुना के उद्गम स्थल पर ही कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी ताला लगा कर बैठ जाएगी और लोक कल्याण के लिए समर्पित भागीरथी के जल की एक-एक बूंद की कीमत मांगेगी।
पानी के वर्तमान संकट और भविष्य की भयावह स्थिति से निपटने के लिए जीवन जीने के तरीकों में व्यापक बदलाव लाना होगा। वर्षा के जल का संग्रह मकानों की छतों पर और खाली पड़ी जमीनों में करने से धरती के नीचे के जल का स्तर बढ़ाया जा सकता है। इस दिशा में गुजरात के सूखाग्रस्त इलाके राजकोट के नागरिकों ने अच्छी पहल की और कामयाबी हासिल की। उन्होंने स्थानीय उत्साही प्रशासनिक अधिकारियों की मदद से जगह-जगह ‘चैक-डैम‘ बना कर वर्षा के पानी का समुचित मात्रा में संग्रह कर लिया। बाकी देश को भी इससे सबक सीखना चाहिए। भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय को चाहिए कि बड़ी-बड़ी योजनाओं के मकड़ जाल में न फंस कर ऐसी स्थानीय उपलब्धियों को दूरदर्शन की मदद से लोकप्रिय बनाएं। आज टोकियो से टैक्सास तक इस दिशा में पारंपरिक ज्ञान पर आधारित प्रयोग दोहराए जा रहे हैं। जबकि हम भारतवासी अंधे होकर पश्चिमी जीवन पद्धति की तरफ दौड़ रहे हैं।
यह बहुत जरूरी है कि हम संडास की व्यवस्था को इस तरह बनाएं कि वह हमारे लिए अभिशाप न होकर वरदान बन जाए। ऐसे संडास बने जिनमें पानी का इस्तेमाल कम से कम हो और मल से विद्युत ऊर्जा व जैविकी खाद बन सके। ऐसे संडास के सफल मॉडल उपलब्ध हैं और देश के कई इलाकों में लोकप्रिय भी। किंतु निहित स्वार्थों के कारण इनका व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं किया जा रहा है। इस मामले में भी पहल नागरिकों को ही करनी चाहिए। महात्मा गांधी ने इस समस्या को बहुत पहले ही भांप लिया था। इसलिए उन्होंने इसी किस्म के संडास बनाने और विकसित करने पर काफी जोर दिया। हर शहर में गांधीवाद के अवशेषों के रूप में बचे इक्के-दुक्के बुर्जुग गांधीवादी आज भी मौजूद हैं। इनकी सहायता से इस किस्म के संडास बनाने की विधि पर बेहद कम कीमत की लघु पुस्तिकाएं प्राप्त की जा सकती हैं। बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है। ज्ञानी वह नहीं जो स्वार्थवश परमार्थ को भूल जाए। परमार्थ के लिए स्वार्थ को भूलने वाले तो बिरले ही होते हैं। पर स्वार्थ के लिए परमार्थ करना पड़े तो किसे बुरा लगेगा? जल के संकट से सामुहिक रूप से निपटना ऐसा ही परमार्थ है जिसमें हम सबका स्वार्थ निहित है।
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