प्रकाशित शोध आंकड़ों के अनुसार राजस्थान के सभी जिलों का भू-जल फ्लोराइड से दूषित है। ऐसे फ्लोराइडयुक्त जल का दीर्घकालीन सेवन करना सेहत के लिये बेहद खतरनाक व हानिकारक होता है। इससे जनित फ्लोरोसिस बीमारी प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में बेखौफ पसरी पड़ी है। इससे शरीर के लगभग सभी अंग दुष्प्रभावित होते हैं लेकिन दाँत व हड्डियाँ सबसे पहले विकृत एवं क्षति ग्रस्त होती है। दाँतों पर काले-भूरे धब्बे या धारियाँ व बांकी- टेढ़ी हड्डियों का होना इस फ्लोरोसिस के आँखों से दिखाई देने वाले प्रमुख लक्षण होते हैं। इसके दुष्प्रभाव से ज्यादातर लोगों के पेरों की हड्डियाँ धनुषाकार (जेनू-वेरम) हो जाती है। परन्तु कभी-कभार फ्लोरोसिस से पीड़ित लोगों के पैरों के घुटनों की हड्डियाँ आपस में टकराती-छूती हुई व पाँव बाहर की ओर मुड़े हुए होते भी देखी गई हैं। इस दुर्लभ अस्थिय विकृति को जेनू-वेल्गम सिंड्रोम कहते हैं जो बहुत ही खतरनाक एवं तकलीफदेय होती है। इससे पीड़ित व्यक्ति को उठने-बैठने व चलने-फिरने में असहनीय पीड़ा तो होती ही है लेकिन वह अपनी सामान्य दैनिक क्रियाएँ भी बड़ी ही मुश्किल से कर पाता है। यह दुर्लभ विकृति राजस्थान में पहली बार खोजी व देखी गई है। जिसकी सम्पूर्ण एवं विस्तृत जानकारी अन्तरराष्ट्रीय जर्नल फ्लोराइड में हाल ही में प्रकाशित हुई है।
इस विकृति को आदिवासी बाहुल्य डूंगरपुर जिले के कतिसोर गाँव में फ्लोरोसिस से पीड़ित एक 54 वर्षीय आदिवासी पुरुष में देखी व खोजी गई है। यह व्यक्ति जन्म से ही इसी गाँव में रहा है। इस गाँव का पीने का पानी फ्लोराइडयुक्त है तथा इसमें फ्लोराइड की अधिकतम मात्रा 4.0 पीपीएम तक आंकी गई है जो भारतीय मानक ब्यूरो (बी.आई.एस.) व विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) द्वारा निर्धारित अधिकतम सुरक्षित मानक से तीन गुना अधिक है जो मनुष्यों की सेहत के लिये बेहद विषैला एवं खतरनाक होता है।
इस दुर्लभ विकृति को सबसे पहले 1973 में आन्ध्र प्रदेश के तेलंगाना जिले के गाँवों में फ्लोरोसिस से पीड़ित आदिवासियों में खोजी गई। बाद में यह बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व तमिलनाडु के कुछ आदिवासियों में भी देखी गई। फ्लोरोसिस से पीड़ित व्यक्ति में जेनू-वेल्गम सिंड्रोम विकृति क्यों और कैसे विकसित हो जाती है इसका अभी तक कोई ठोस वैज्ञानिक कारण ज्ञात नहीं हुआ है। पूर्व में यह माना गया कि यह विकृति फ्लोरोसिस स्थानिक क्षेत्रों में सिर्फ उन लोगों में होती है जो ज्वार-बाजरा का अधिकाधिक सेवन करते हैं। लेकिन यह अवधारणा निराधार व वास्तविकता से परे लगती है। यदि यही एक कारण होता तो प्रदेश के रेगिस्तान व मारवाड़ के लोगों में यह विकृति होनी चाहिए थी क्योंकि यहाँ ज्वार-बाजरा का सेवन सर्वाधिक होता है दूसरी ओर यहाँ के पीने के पानी में फ्लोराइड की मात्रा भी तुलनात्मक अधिक है। बावजूद एक भी केस जेनू-वेल्गम सिंड्रोम का इन क्षेत्रों से अभी तक रिपोर्ट नहीं हुआ है। इसके विकसित होने का वास्तविक कारण जानने के लिये विस्तृत व गहन अनुसन्धान की जरूरत है। पर यह सही है कि यह विकृति किसी भी औषधि से ठीक नहीं होती है।
जेनू-वेल्गम सिंड्रोम से सम्बन्धित और जानकारी निम्न प्रकाशित शोध पत्रों से भी ली जा सकती है :
1. Choubisa SL, Choubisa D. Genu-valgum (knock-knee) syndrome in fluorosis-endemic Rajasthan and its current status in India. Fluoride 2018 Dec 12, www.fluorideresearch.org/epub/files/013.pdf [Epub ahead of print].
2. Choubisa SL. A brief and critical review of endemic hydrofluorosis in Rajasthan, India. Fluoride 2018;51(1):13-33.
(प्रो. शांतिलाल चौबीसा, रीजनल एडिटर, फ्लोराइड)
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