बेहतर कल गढ़ने का दारोमदार बच्चों के कन्धों पर होता है लेकिन बचपन ही अगर विकलांगता की जद में आ जाये तो आने वाले कल की तस्वीर निश्चित तौर पर बेहद बदरंग और धुँधली होगी।
आगरा जिले के बरौली अहिर ब्लॉक के कई गाँवों में नौनिहाल फ्लोरोसिस जैसी बीमारी के चंगुल में आहिस्ता-आहिस्ता फँसे जा रहे हैं।
बरौली अहिर ब्लॉक के पचगाँय खेड़ा ग्राम पंचायत के अन्तर्गत आने वाले सभी तीन गाँवों में रहने वाले अधिकांश बच्चों में फ्लोरोसिस के संकेत देखने को मिल रहे हैं।
बच्चों में फ्लोरोसिस का प्राथमिक लक्षण दाँतों में दिखता है। दाँतों में पीले और सफेद दाग पड़ जाते हैं। इन गाँवों के बच्चों में ये दाग साफ देखे जा सकते हैं। इक्का-दुक्का बच्चों पर तो फ्लोरोसिस ने इतना असर डाल दिया है कि उनके पैरों की हडि्डयों में टेढ़ापन आ गया है।
ऐसा ही एक नौनिहाल पट्टी पचगाँय में देखने को मिला। नाम है टिंचू। उम्र महज 3 साल। सड़क पर मस्ती में खेल रहा था पैर की हड्डी टेढ़ी होने के कारण किसी तरह खुद को सम्भालकर खड़ा हो पा रहा था। इस नन्ही जान को पता नहीं है कि वह विकलांग है और इस विकलांगता की वजह पानी है जिसे वह पीता है। बगल में ही उसके पिता संजय खड़े मिले। जब उनसे बातचीत की गई तो बड़ी बेपरवाही से उन्होंने कहा, ‘माँ के पेट में ही कुछ हो गया होगा इसलिये पैर टेढ़े हैं। टिंचू को डॉक्टर से नहीं दिखाया है।’
पचगाँय खेड़ा गाँव के नौनिहालों की भी यही हालत है। पक्की सड़क और बंगलानुमा मकानों से आगे बढ़ते हुए हरियाली भरे कम्पाउंड में एक स्कूल मिला।
कम्पाउंड में दाखिल होने पर 10 वर्षीया एक किशोरी हैण्डपम्प से पानी पीती हुई दिखी। उसने अपना नाम राधिका बताया। उसकी दाँतों में फ्लोरोसिस का असर साफ देखा जा सकता है। वह चौथी कक्षा में पढ़ती है। वह भी इस बात से अनजान है कि दाँतों में दाग फ्लोरोसिस के चलते ही हुआ है। उससे जब पूछा गया कि उसके दाँतों में दाग क्यों आये तो वह लजाकर कक्षा में भाग गई। राधिका पचगाँय खेड़ा पंचायत के प्रधान राधेश्याम कुशवाहा के स्कूल में पढ़ती है।
हम स्कूल की एक कक्षा की तरफ बढ़ ही रहे थे कि हमें सफेद शर्ट और नीली पैंट पहने 6 साल का राकेश शर्मा मिल गया। वह पानी पीने जा रहा था। हमने जब उससे कहा कि दाँत दिखाओ तो वह हँसने लगा। उसके दाँत के दाग बता रहे हैं कि वह भी फ्लोरोसिस की जद में है। इस स्कूल में 350 बच्चे पढ़ते हैं जिनमें से हर तीसरे बच्चे में फ्लोरोसिस देखने को मिला।
पचगाँय खेड़ा पंचायत की कुल आबादी 20 हजार है। यहाँ के पानी में फ्लोराइड की अधिकता बहुत पुरानी बात है लेकिन सरकारी योजनाएँ इस क्षेत्र को मयस्सर नहीं। अपने दफ्तर में बैठे पंचायत प्रधान राधेश्याम कुशवाहा कहते हैं, ‘फ्लोराइड यहाँ की पुरानी समस्या है। सरकार की ओर से कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है।’
गौरतलब है कि जल निगम ने पिछले वर्ष ही कहा था कि पचगाँय खेड़ा और पट्टी पचगाँय में फ्लोराइड रिमूवल यूनिट स्थापित किये गए हैं लेकिन इन गाँवों के लोगों का कहना है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। कुशवाहा साफ शब्दों में कहते हैं, ‘पचगाँय खेड़ा में ऐसी एक भी यूनिट स्थापित नहीं हुई है। निजी कम्पनियाँ इस क्षेत्र में 10 रुपए में 20 लीटर पानी देती हैं।’
कुशवाहा बताते हैं, ‘सरकार की तरफ से इतना ही किया गया है कि जिन हैण्डपम्पों से फ्लोराइड निकलता था उन पर लाल दाग लगा दिया गया। पूरे पंचायत क्षेत्र में 35 हैण्डपम्पों पर लाल दाग लगाए गए हैं।’ विडम्बना देखिए कि कई परिवार अब भी इन्हीं हैण्डपम्पों से पानी पीता है।
इस पंचायत क्षेत्र में अमीर और गरीब दोनों तरह के परिवार रहते हैं। अमीर लोगों का खानपान अच्छा होता है इसलिये वे फ्लोरोसिस के चंगुल से बच निकलते हैं। गरीबों को दो जून की रोटी नसीब हो जाये वही काफी है। दूध और दूसरे पौष्टिक आहार की बात तो दूर रही।
स्कूलों में मध्याह्न भोजन में दूध अंडे जैसे पौष्टिक आहार देने का प्रावधान है लेकिन यहाँ के स्कूलों में शायद ही इसका पालन होता है।
राधेश्याम कुशवाहा दावा करते हैं कि सप्ताह में एक दिन बच्चों को 200 ग्राम दूध दिया जाता है। ग्रामीणों का भी कहना है कि बच्चों को मध्याह्न भोजन में दूध दिया जाता है लेकिन इसमें मिलावट होती है। पट्टी पचगाँय के एक युवक ने कहा कि सप्ताह में एक दिन दूध दिया जाता है लेकिन इसमें पानी की मात्रा ज्यादा होती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि जिन बच्चों में फ्लोरोसिस के संकेत देखने को मिल रहे हैं उन्हें ठीक किया जा सकता है बशर्ते कि उन्हें दूध, अंडे, आँवला, सहजन जैसे खाद्य पदार्थ और साफ पानी दिये जाएँ। अगर इस तरह के खाद्य पदार्थ नहीं दिये गए और इन बच्चों ने फ्लोराइड युक्त पानी पीना जारी रखा तो दिक्कतें और बढ़ेंगी।
इण्डिया नेचुरल रिसोर्स इकोनॉमिक्स एंड मैनेजमेंट (इनरेम) फाउंडेशन के डायरेक्टर डॉ. सुन्दरराजन कृष्णन कहते हैं, ‘दूध, दही, छाछ व दूध से बनी अन्य चीजों में कैल्शियम की अधिकता होती है अतः नौनिहालों को रोज ये चीजें दी जानी चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि वे फ्लोराइड युक्त पेयजल का सेवन न करें।’
विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि बच्चों को अगर जागरूक कर दिया जाये कि फ्लोराइड युक्त पानी पीने के क्या खतरे हैं और किन खाद्यों का प्रयोग कर इससे बचा जा सकता है तो बहुत फायदा होगा। ग्रामीणों का कहना है कि सरकारी बाबुओं ने अब तक इन गाँवों में जाकर यह नहीं बताया कि फ्लोराइड क्यों होता है। स्कूलों में भी इस तरह का कोई जागरुकता कार्यक्रम नहीं किया गया।
यहाँ यह भी बताते चलें कि तेलंगाना के फ्लोराइड प्रभावित नलगोंडा जिले के स्कूलों में फ्लोराइड को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। नलगोंडा जिला प्रशासन के मुताबिक आठवीं और नौवीं की कक्षा में फ्लोराइड पर आधारित पाठ है जिसमें फ्लोराइड के दुष्परिणाम और इससे बचने के प्राकृतिक उपायों के बारे में बच्चों को जानकारी दी जाती है।
गौरतलब है कि आगरा जिले के 15 ब्लॉकों के जलस्रोतों से जिओलॉजिकल सर्वे आफ इण्डिया ने पानी के नमूने लिये थे। नमूनों की जाँच करने पर 46 प्रतिशत जलस्रोतों से निकलने वाले पानी में सामान्य से अधिक फ्लोराइड पाये गए थे। बताया जाता है कि यमुना नदी के 2 किलोमीटर के दायरे में पड़ने वाले क्षेत्रों में फ्लोराइड का कहर सबसे ज्यादा दिख रहा है।
फ्लोराइड आगरा के लिये कोई नई समस्या नहीं है। बताया जाता है कि पिछले दो दशकों में दर्जनों शोध किये जा चुके हैं जिनमें फ्लोराइड का कहर सामने आया है लेकिन प्रशासनिक स्तर पर किसी तरह की ठोस कार्रवाई नहीं हुई। प्रशासन की ओर से दावे तो खूब किये जा रहे हैं मगर इन गाँवों में ये दावे औंधे मुँह गिरते दिखते हैं।
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