मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले में एक संगठन अकेले दम पर फ्लोराइड के खिलाफ जंग छेड़े हुये है और उसे इसमें खासी सफलता भी मिल रही है।
मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले का जिक्र आते ही दिमाग में एक छवि कौंधती है। तीर कमान थामे अल्पवस्त्रों में आधुनिक संस्कृति से दूर रहने वाले भील और भिलाला जनजाति के लोग। लेकिन झाबुआ जिला मुख्यालय पहुँचकर यह छवि काफी हद तक ध्वस्त हो चुकी होती है। आधुनिक संस्कृति अब इन दूरदराज गाँवों तक पहुँच चुकी है। लोगों की नैसर्गिक निश्छलता के सिवा कमोबेश सभी चीजें बदल चुकी हैं। नहीं बदली है तो स्वास्थ्य के मोर्चे पर बदहाली। सरकारी प्रयासों से संचार के साधन तो विकसित हो गये हैं लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर जागरूकता की कमी ने राह रोक रखी है। खासतौर पर पानी में फ्लोराइड की अधिकता व उससे होने वाले नुकसान जैसी अपेक्षाकृत वैज्ञानिक समस्याओं को लेकर जागरूकता पैदा करना तो अवश्य टेढ़ी खीर रही होगी।
लेकिन झाबुआ में एक क्रांति बहुत खामोशी से आकार ले रही है। पेयजल में फ्लोराइड के आधिक्य से निपटने की कोशिश में की गयी एक पहल को ऐसी सफलता मिली है कि वह देश के अन्य इलाकों में संक्रमित भूजल संकट से निपटने के मामले में एक नजीर बनकर सामने आ सकती है। झाबुआ जिले के दो बड़े गाँव जसोदा खुमजी और मियाटी। इन गाँवों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा पेयजल के लिये लम्बे समय तक हैण्डपम्पों पर निर्भर रहा और हैण्डपम्प से निकलने वाले पानी में फ्लोराइड की अधिकता ने इन गाँवों के लोगों को शारीरिक पंगुता के भंवर में धकेल दिया। यहाँ की आबादी दाँतों और हड्डियों में फ्लोरोसिस की समस्या से जूझने लगी। बड़ी संख्या में लोगों के शरीर पूरी तरह विकृत हो गये। दाँतों की परत उखड़ गयी और दाँत या तो पीले पड़ गये या टूट गये। बहुत बड़ी संख्या में लोग बिल्कुल बेकार हो गये। बेकार यानी पूरी तरह अनुत्पादक। न तो वे कुछ कर सकते और न ही अपने घर परिवार को किसी तरह का योगदान दे पाते। ऐसे में वर्ष 2010 में इनरेम फाउंडेशन नामक एक स्वयंसेवी संगठन की टीम ने एक बीड़ा उठाया। टीम ने जसोदा खुमजी और मियाटी गाँवों में 25 बच्चों को चुना। ये वे बच्चे थे जिनके शरीर पर फ्लोराइड का दुष्प्रभाव काफी हद तक नजर आने लगा था। टीम ने पूरे वैज्ञानिक तरीके से इन बच्चों की चिकित्सकीय जाँच करवायी। इनको चिकित्सकीय सलाह से दवा आदि देने का काम आरम्भ किया गया। बीते पाँच साल से कुछ अधिक वक्त में ये सभी बच्चे लगभग पूरी तरह स्वस्थ हो चुके हैं। ये बच्चे फ्लोरोसिस पर विजय की जीती जागती तस्वीर हैं। इन बच्चों में से कुछ गाँव पर ही रहकर पढ़ाई कर रहे हैं और फ्लोराइड की समस्या के प्रति जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं तो वहीं कई बच्चे युवावस्था की दहलीज पार कर अपने घर परिवार को आर्थिक मदद पहुँचाने के उद्देश्य ये रोजगार की तलाश में देश के अलग-अलग हिस्सों में जा चुके हैं।
हमने इन 25 बच्चों में से कई बच्चों से मुलाकात की। उन्होंने हमें फ्लोरोसिस से अपनी जंग और इस जीत के बारे में बारीकी से बताया। लेकिन यह पूरी प्रक्रिया आसान नहीं थी। पढने में यह चाहे जितना सहज लग रहा हो लेकिन हकीकत में यह पूरी प्रक्रिया बहुत कष्टसाध्य रही।
क्या रही अध्ययन की पृष्ठभूमि?
गुजरात के इनरेम फाउंडेशन के झाबुआ स्थित फ्लोरोसिस मिटिगेशन सेंटर ने बच्चों में डेंटल और स्केलेटल फ्लोरोसिस (यानी दाँतों और हड्डियों का फ्लोरोसिस) ने बच्चों में दाँत और हड्डियों के फ्लोरोसिस का पता लगाने के लिये विद्यालयों में सर्वेक्षण का काम आरम्भ किया। इसके अलावा गाँवों में फ्लोराइड के दुष्प्रभावों को लेकर जागरूकता फैलाने का निश्चय किया गया। इसके लिये शिक्षकों का सहयोग लिया गया।
संस्था ने सितम्बर 2010 से जनवरी 2011 तक झाबुआ के पाँच ब्लॉक के 28 गाँवों के कुल 46 स्कूलों में पढने वाले 5431 बच्चों का सर्वेक्षण किया। इनमें से 999 बच्चों में डेंटल और कुछ में स्केलेटल फ्लोरोसिस की समस्या पायी गयी। कुल प्रभावित बच्चों में 661 लड़के और 338 लड़कियाँ थीं। कुल बच्चों में से 18 प्रतिशत फ्लोरोसिस पीड़ित थे। इनमें से 66 प्रतिशत लड़के और 34 प्रतिशत लड़कियाँ थीं।
सर्वेक्षण से क्या फायदा हुआ?
विद्यालयों का सर्वेक्षण करने से फायदा यह हुआ कि बच्चों की उम्र और उनके निवास आदि का तत्काल पता चल गया। वहीं यह जानकारी भी मिल गयी कि अधिकांश विद्यालयों में पीने के पानी के रूप में हैण्डपम्प का प्रयोग किया जाता है। हालाँकि सरकार ने कुछ गाँवों के विद्यालयों में फिल्टर प्रदान किये थे लेकिन वे या तो अपर्याप्त थे या फिर खराब हो चुके थे। कई विद्यालयों में सरकारी अमले ने फ्लोराइड युक्त हैण्डपम्प को पहचान कर उसे अलग रंग में रंग दिया था लेकिन फिर भी सम्पूर्ण जागरूकता के अभाव में लोग उसका पानी धड़ल्ले से पी रहे थे। कई जगह विकल्प न होने के कारण भी लोगों को वह पानी पीना पड़ रहा था।
फ्लोराइड का स्तर
झाबुआ सन 1986 में मध्य प्रदेश का पहला ऐसा जिला बना था जिसे फ्लोराइड से प्रभावित माना गया। निदान के प्रयास भी तभी से चल रहे हैं लेकिन नतीजा कुछ खास नहीं निकला। वैज्ञानिक शोधों से यह साबित हो चुका है कि शरीर को बहुत सीमित मात्रा में फ्लोराइड की आवश्यकता होती है वह दाँतों तथा अन्य हड्डियों के लिये आवश्यक होता है। पीने के पानी में फ्लोराइड का स्तर एक पीपीएम से कम होना चाहिये। जबकि झाबुआ के कई इलाकों में इसका स्तर एक पीपीएम से बहुत अधिक पाया गया। इनरेम फाउंडेशन के झाबुआ प्रोजेक्ट के प्रोग्राम मैनेजर अरविंद प्रजापति बताते हैं कि जिले के थांदला ब्लॉक के मियाटी गाँव और रामा ब्लॉक के जसोदा खुमजी गाँवों के पानी में फ्लोराइड की मात्रा 4 से 11 पीपीएम तक पायी गयी। जो बेहद खतरनाक स्तर है। पानी में फ्लोराइड के स्तर की जाँच को डॉ एके सुशीला के दिल्ली स्थित फ्लोरोसिस रिसर्च एंड रूरल डवलपमेंट फाउंडेशन की प्रयोगशाला में अंजाम दिया गया। 4 से 11 पीपीएम तक का आँकड़ा वहीं से निकल कर आया। इसके अलावा एक समांतार जाँच आणंद स्थित राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की प्रयोगशाला में भी की गयी जो अमूल के संयंत्र में स्थित है। वहाँ से इस आँकड़े की पुष्टि हुई।
सरकारी आँकड़ों की बात करें तो केन्द्रीय पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध तीन वर्ष के आँकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि मियाटी व जसोदा खुमजी के आस-पास के पानी में फ्लोराइड की मात्रा स्वीकार्य स्तर से बहुत अधिक है।
सरकारी आँकड़े
वर्ष |
मियाटी में फ्लोराइड का स्तर |
जसोदा खुमजी में फ्लोराइड का स्तर |
2010-11 |
1.71 पीपीएम |
7.9 पीपीएम |
2011-12 |
4.37 पीपीएम |
11.50 पीपीएम |
2012-13 |
6.64 पीपीएम |
7.05 पीपीएम |
एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता नाम जाहिर न करने की शर्त पर बताते हैं कि हकीकत सरकारी आँकड़ों की तुलना में कहीं अधिक खराब है क्योंकि सरकार अक्सर सैंपल कलेक्शन उस वक्त करवाती है जिस वक्त बरसात का मौसम होता है। नतीजा, इलाके में साफ पानी की मात्रा बहुत ज्यादा होती है। अगर उस स्थिति में भी पानी में इतना फ्लोराइड नजर आ रहा है तो जरा सोचिये हकीकत में वहाँ के पानी में कितना फ्लोराइड होगा।
कैसे चुने गाँव और 25 बच्चे?
इनरेम फाउंडेशन के मौजूदा ज्वाइंट डायरेक्टर डॉ. राजनारायण इंदू और एक्जक्यूटिव डायरेक्टर डॉ. सुंदरराजन कृष्णन टाटा समूह की ओर से मिले एक अनुदान के तहत देश भर में फ्लोराइड प्रभावित इलाकों का दौरा करते हुये झाबुआ पहुँचे। यहाँ उनकी टीम ने वर्ष 2008-10 के दौरान बहुत बड़े पैमाने पर डेंटल फ्लोरोसिस का सर्वेक्षण करना शुरू किया। इसी दौरान थांदला के ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर डॉ. मार्कोस की सलाह पर टीम मियाटी पहुँची। डॉ. मार्कोस ने उनको बताया था कि मियाटी में ऐसे लोग हैं जिनके लक्षण फ्लोरोसिस से मेल खाते हैं। इसी तरह एक स्कूल में डेंटल फ्लोरोसिस के सर्वेक्षण के दौरान रंगपुर के एक स्कूल शिक्षक ने टीम को जानकारी दी कि जासोदा खुमजी इलाके में उसने बहुत सारे फ्लोरोसिस पीड़ित देखे हैं। लेकिन झाबुआ में तमाम इलाकों के फ्लोराइड पीड़ित होने के बावजूद इन्हीं इलाकों का चयन क्यों किया गया? इस सवाल के जवाब में इनरेम के झाबुआ प्रोजेक्ट के फील्ड प्रोग्राम मैनेजर सचिन वाणी कहते हैं, “हमने तमाम इलाकों का अध्ययन किया था। देश के अन्य इलाकों में फ्लोरोसिस की समस्या का अध्ययन भी हमने किया था लेकिन कहीं भी इतनी कम उम्र में स्केलेटल फ्लोरोसिस का इतना बुरा प्रभाव हमने नहीं देखा था। उक्त अध्ययन में शामिल सभी 25 बच्चे उस वक्त 10 साल से कम उम्र के थे। इतना ही नहीं उस समय हमारे सामने यही 25 मामले थे इसलिये हमने सभी को अध्ययन में शामिल कर लिया। बाद के वर्षों में इनकी संख्या बढ़कर सौ का आँकड़ा पार कर गयी। यह भी पता लगाया गया कि फ्लोराइड ने इनके शरीर को किस हद तक नुकसान पहुँचाया है और समुचित इलाज से इनके शरीर में किस हद तक सुधार आने की सम्भावना शेष है। लक्ष्य यही था कि इन बच्चों में इतना बदलाव लाया जा सके कि वे न केवल खुद स्वस्थ और स्वावलंबी जीवन जी सकें बल्कि औरों के लिये नजीर भी बन सकें। इसके बाद इनके परिवारों से यह सहमति माँगी गयी कि वे फ्लोरोसिस मिटिगेशन कार्यक्रम शामिल हों।
धार में पदस्थ व झाबुआ आलीराजपुर के प्रभारी जिला फ्लोरोसिस सलाहकार एमडी भारती के मुताबिक फ्लोराइड की समस्या का एकमात्र हल स्वच्छ पानी और बचाव ही है। उन्होंने कहा कि फ्लोरोसिस की बीमारी होने पर पूर्ण सुधार होना भी लगभग नामुमकिन है। हाँ, डेंटल फ्लोरोसिस को अगर आरम्भ में ही पहचान लिया जाय तो इस बीमारी के शुरुआती स्तर के मरीजों में सुधार हो सकता है तथा आगे और नुकसान होने से रोका जा सकता है। हालाँकि यह नान रिवर्सिबल डिजीज है लेकिन बीमारी जिस स्तर पर पकड़ में आ जाय उसे वहीं रोका जा सकता है।
जाँच से शुरू हुआ अभियान
मियाटी और जसोदा खुमजी के पीड़ित बच्चों के रक्त और मूत्र की जाँच करके उनके शरीर में फ्लोराइड का पता लगाने की प्रक्रिया शुरू की गयी। पहली बार इन बच्चों का मूत्र परीक्षण 29 मार्च 2011 को किया गया जिसमें औसतन 11.25 मिग्रा फ्लोराइड प्रति लीटर पाया गया। यह मात्रा न्यूनतम 1.41 मिग्रा और अधिकतम 32.3 मिग्रा थी। वहीं इनके रक्त में औसतन 0.171 मिग्रा प्रति लीटर फ्लोराइड पाया गया जोकि न्यूनतम 0.071 और अधिकतम 0.351 मिग्रा प्रतिलीटर था। उल्लेखनीय है कि मूत्र में प्रति लीटर 0.1 से 1.0 मिग्रा तथा रक्त में 0.02 से 0.05 मिग्रा फ्लोराइड को ही सामान्य माना जा सकता है।
बच्चों के रक्त एवं मूत्र के नमूनों की जाँच करने तथा उनका डिजिटल एक्सरे करने की सलाह इनरेम फाउंडेशन के एक्सपर्ट पैनल ने दी थी। इन रोगियों के हाथ एवं पैर का डिजिटल एक्सरे झाबुआ के शासकीय में करवाया गया और उसकी सीडी बनाकर हैदराबाद के अपोलो अस्पताल में भेजी गयी। वहाँ फ्लोरोसिस विशेषज्ञ और न्यूरोसर्जन डॉ. राजा रेड्डी और उनकी टीम ने की और पाया कि इन रोगियों में फ्लोरोसिस के साथ-साथ ऑस्टियोपोरोसिस की बीमारी भी शुरू हो चुकी है। वहीं रक्त एवं मूत्र के नमूनों की जाँच डॉ एके सुशीला के दिल्ली स्थित फ्लोरोसिस रिसर्च ऐंड रूरल डवलपमेंट फाउंडेशन की प्रयोगशाला में की गयी।
इसके बाद इन दोनों गाँवों के पानी में फ्लोराइड की मात्रा की जाँच की गयी। यह पता लगाया गया कि आस-पास साफ पानी का कोई स्रोत है या नहीं। अगर नहीं तो इन्हें स्वच्छ पेयजल कैसे मुहैया कराया जाए यह बड़ी चुनौती अब टीम के सामने थी। इसके लिये एक ओर जहाँ लोगों को पेयजल की शुद्धता के प्रति जागरूक किया गया वहीं उन्हें फ्लोराइड की समस्या से निपटने के लिये फिल्टर भी उपलब्ध कराये गये।
फ्लोरोसिस से होने वाली समस्यायें:
डेंटल फ्लोरोसिस से दाँतों में पीलापन पैदा होता है और तरह-तरह के धब्बे नजर आने लगते हैं। फ्लोरोसिस जब शरीर की हड्डियों पर असर डालता है तो हाथ और पैर टेढ़े होने लगते हैं। वे या तो अंदर की ओर या फिर बाहर की ओर झुक जाते हैं। गरदन की हड्डी का लचीलापन समाप्त हो जाता है। झुकने और बैठने में तकलीफ शुरू हो जाती है। एक प्रमुख लक्षण यह भी है कि कम उम्र में ही मनुष्य बूढ़ा नजर आने लगता है।
आसान नहीं थी राह
आदिवासी अंचल से भली-भाँति परिचित लोग यह जानते हैं कि इस पिछड़े तबके में वैज्ञानिक सोच समझ पैदा करना कतई आसान काम नहीं है। स्थानीय लोग इन बीमारियों को दैवीय आपदा मानते थे। वे इनसे निपटने के लिये टोने टोटके की शरण लेते थे। इतना ही नहीं स्थानीय मीडिया तक वजहों की पड़ताल किये बिना इन गाँवों के बारे में सनसनीखेज रपटें छापा करता था। मसलन कोई इसे लंगड़ों का गाँव बताता तो कोई कहता कि यह आनुवांशिक बीमारी है। यही वजह है कि टीम को इस मोर्चे पर कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। यहाँ तो मामला जाँच के लिये खून निकालने का था। एक भी आदिवासी स्वेच्छा से अपना खून देने के लिये राजी नहीं हो रहा था। आखिरकार बार-बार लगातार जोर देने और उनके समुदाय के एक दो वरिष्ठ लोगों का भरोसा जीतने के बाद ही टीम जाँच के लिये खून के नमूने लेने में सफल हो पायी। यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि इसने एक राह खोली थी जो बहुत दूर तक जानी थी।
बचाव की शुरुआत
हमें यह याद रखना होगा कि मियाटी और जसोदा खुमजी गाँव झाबुआ जिले के जनजातीय बहुल इलाके में आते हैं। इन क्षेत्रों में कोई भी काम करते वक्त स्थानीय संस्कृति का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक था। कोई भी ऐसी चीज जो स्थानीय लोगों को अपरिचित लगे उसके विफल होने का जोखिम बहुत अधिक था। इसके लिये टीम ने मेघनगर के सुपरिचित माटी कला जानकार रामचंद्र प्रजापति से सम्पर्क किया और मिट्टी के फिल्टर तैयार करवाये। वजह यही कि स्थानीय लोग मिट्टी के बरतनों से परिचित थे। फिल्टर में फ्लोराइड का प्रभाव समाप्त करने के लिये एक्टिवेटेड एलुमिना का प्रयोग किया गया। सबसे पहले दोनों गाँवों में एक-एक फिल्टर दिया गया और बाद में जागरूकता बढने के साथ उनकी संख्या बढ़ाई गयी। अरविंद बताते हैं कि किसी गाँववासी को एक भी फिल्टर मुफ्त में नहीं दिया गया क्योंकि अपने अनुभव से टीम यह जान चुकी थी कि मुफ्त मिलने वाली चीजों का कोई मोल नहीं है। लिहाज हर फिल्टर लगवाने वाले व्यक्ति से कुछ सांकेतिक राशि वसूल की गयी। गाँव के ही किसी न किसी व्यक्ति को फिल्टर मित्र बनाया गया। उसे फिल्टर के रख-रखाव से जुड़ी सारी जानकारी दी गयी ताकि गाँव के फिल्टरों की देख-रेख हो सके और जरूरी पड़ने पर उनको सुधारा भी जा सके। फिल्टर मित्र को भी एक सांकेतिक मेहनताना देने की व्यवस्था की गयी। इस बात का ध्यान रखा गया कि फिल्टर मित्र कोई ऐसा व्यक्ति हो जो फ्लोरोसिस से पीड़ित हो। वजह? फिल्टर मित्र बनने के बाद उसे मिलने वाली धनराशि उसे उत्पादकता का अहसास कराने लगी। उसके अंदर स्वाभिमान जागा और उसे यह भरोसा हुआ कि मैं भी पैसे कमाकर अपने घर परिवार और समाज के विकास में योगदान कर सकता हूँ।
खानपान की आदतों में बदलाव
इनरेम फाउंडेशन की फ्लोराइड निवारण टीम में काम करने वाली कल्पना बिल्वाल बताती हैं कि स्थानीय आदिवासियों के खाने-पीने की आदतों ने भी उनकी समस्या बढ़ाने में योगदान किया। प्राय: आर्थिक तंगी का सामना कर रहे ये आदिवासी पैसे बचाने के लिये या पैसे के अभाव के चलते प्राय: सस्ती सब्जियाँ ले आते हैं जो अक्सर खराब हो रही होती हैं। इन सब्जियों में समुचित मात्रा में पोषक तत्त्व नहीं होते हैं।
जैसा कि उपरोक्त अध्ययन में पाया गया एक ही स्थान पर रहने वाले, फ्लोराइड की एक समान मात्रा का सेवन करने वाले ग्रामीणों के शरीर पर फ्लोरोसिस का प्रभाव अलग-अलग देखने को मिल रहा है। इसकी वजह यह है कि इन सभी लोगों के शरीर में पोषण का स्तर अलग है। यही वजह है कि उसके दुष्प्रभावों का असर भी अलग है।
क्या खाएँ?
लोगों को लगातार इस बात के लिये मनाया गया कि वे अपने खाने-पीने की आदतों में बदलाव लाएँ। उनको अपने आस-पास मिलने वाली ऐसी चीजों के बारे में बताया गया जो फ्लोराइड के दुष्प्रभाव को कम करने में मदद करती है:
दूध |
कैल्शियम और प्रोटीन |
आंवला |
विटामिन सी |
गुड़ |
कैल्शियम और मैग्नीशियम |
सोयाबीन |
कैल्शियम, मैग्नीशियम और प्रोटीन |
दलिया |
कैल्शियम, मैग्नीशियम और प्रोटीन |
हरी सब्जी |
कैल्शियम, मैग्नीशियम और प्रोटीन |
मुनगा या सहजन |
कैल्शियम, मैग्नीशियम और विटामिन सी |
अमरूद |
कैल्शियम, मैग्नीशियम और विटामिन सी |
इसके अलावा गाँव वासियों को इस बात के लिये भी प्रोत्साहित किया गया कि वे अपने घर के आस-पास एक छोटी सी जमीन पर साग सब्जी उगायें। फाउंडेशन ने इसके लिये सलाह मशवरे से लेकर बीज मुहैया कराने तक हर मदद करना शुरू की। इसके सकारात्मक नतीजे नजर आने लगे हैं।
कौन से खनिज क्यों जरूरी ?
फ्लोरोसिस से लड़ने के लिये शरीर को कैल्शियम, मैग्नीशियम जैसे खनिजों की प्रमुख तौर पर आवश्यकता होती है क्योंकि ये फ्लोरोसिस के प्रभाव को धीमा कर देते हैं। कैल्शियम में यह क्षमता होती है कि वह हड्डियों को मजबूत बनाये और फ्लोराइड के घातक दुष्परिणामों को कम करे। वहीं मैग्नीशियम भी फ्लोराइड की तरह ही हमारी हड्डियों में जाकर जमता है लेकिन यह फ्लोराइड की तरह हड्डियों को नुकसान नहीं पहुँचाता है बल्कि यह हमारी हड्डियों को कमजोर होने से बचाता है।
दवाओं का वितरण
इन बच्चों को ऐसी दवाएँ दिलाना जरूरी था जो इनके शरीर में फ्लोरोसिस के लक्षणों को कम कर सकें, उससे निपटने में मदद कर सकें। दवा के रूप में इन बच्चों को कैल्शियम की टैबलेट, आंवले की मीठी खट्टी गोलियाँ और चकौड़े के पत्तों का पावडर दिया जाता है। इन सभी में फ्लोराइड से निपटने के गुण होते हैं और यह बात परीक्षण से साबित हो चुकी है। लेकिन एक अड़चन अब भी बाकी थी। यह तो पता चल चुका था कि बच्चों को इन दवाओं से फायदा होगा, आखिर इन बच्चों को दवायें कैसे दी जाय। तात्पर्य यह कि इसके लिये चिकित्सकीय मंजूरी आवश्यक थी। इस समस्या का हल इनरेम फाउंडेशन के एक्सपर्ट पैनल के रूप में सामने आया। इस पैनल में चिकित्सकों एवं अन्य जानकारों को शामिल किया गया है जो फ्लोराइड की समस्या से निपटने के लिये पूरी तरह समर्पित हैं।
एक्सपर्ट पैनल
डॉ. राजा रेड्डी, न्यूरो सर्जन, अपोलो अस्पताल, हैदराबाद। डॉ. ए के सुशीला वरिष्ठ चिकित्सक अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली एवं प्रमुख फ्लोरोसिस रिसर्च एंड रूरल डवलपमेंट फाउंडेशन। डॉ. लीला अयंगर, एक्टिवेटेड एलुमिना की जानकार, सुनीता सपूर, पोषण विशेषज्ञ और अध्यक्ष अक्षय फाउंडेशन तथा डॉ. पार्थ गांगुली, पीएचएफआई अहमदाबाद।
क्या कर रही है सरकार?
इसमें दो राय नहीं कि सरकार ने अपने स्तर पर समस्या निवारण की कई पहल की हैं। सरकार के पास जितने संसाधन और जितनी श्रम शक्ति है उसकी तुलना में किसी स्वयंसेवी संगठन या निजी प्रयास की कोई भी कोशिश बेमानी साबित हो सकती है लेकिन ऐसा केवल तभी होगा। जबकि काम को सही ढंग से अंजाम देने की नीयत भी हो। इस पूरे इलाके में समस्या की सबसे बड़ी वजह है कदम-कदम पर खोदे गये हैण्डपम्प। शुरुआती दिनों में सरकार की चिंता फ्लोराइड थी ही नहीं। उसे तो हर आदमी तक पेयजल पहुँचाना था। इसका सबसे आसान उपाय था हैण्डपम्प। नतीजा, जहाँ पानी की आवश्यकता महसूस हुई वहीं धरती का सीना चीर कर एक हैण्डपम्प धंसा दिया गया। यह अलग बात है कि झाबुआ के मियाटी और जसोदा खुमजी जैसे गाँवों में 99 फीसदी या कहें लगभग 100 फीसदी हैण्डपम्प पूरी तरह फ्लोराइड युक्त पानी उगल रहे हैं। इनसे लोगों को पानी तो मिल रहा है लेकिन वह किसी काम का नहीं है।
फ्लोराइड की समस्या सामने आने पर तो सरकारी अमले की और बन आयी। आनन-फानन में फ्लोराइड से निपटने के लिये संयंत्र स्थापित करने और मशीनें लगाने की बात शुरू हो गयी। कागजों पर यह सबकुछ हो भी गया लेकिन जमीनी हालात एकदम बुरे हैं। कई जगह फ्लोराइड मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिये लगायी गयी टंकियों के ढाँचे खड़े हैं जबकि शेष मशीनरी नदारद है। बड़े बड़े सरकारी दावों के तर्ज पर इन गाँवों में समस्या से निपटने के लिये सौर ऊर्जा से चलने वाले उपकरण भी लगाये गये लेकिन क्या ये काम कर रहे हैं। हमने तीन संयंत्रों को अपनी आँखों से देखा जिनमें से एक भी काम नहीं कर रहा था।
मियाटी गाँव के स्कूल फलिया में एक सौर ऊर्जा चालित फ्लोराइड रिमूवल संयंत्र लगा हुआ है लेकिन वह पूरी तरह नाकाम हो चुका है। उसकी देखरेख करने वाले दीवार भाबर कहते हैं कि यह संयंत्र महज कुछ महीने चलने के बाद ठप हो गया। मियाटी के सरपंच कालू भाबर भी घुमाफिराकर इस बात को स्वीकार करते हैं सीधे-सीधे नहीं। वहीं मियाटी में चलने वाले माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक दिनेश नलगया हमें बताते हैं कि इस स्कूल समेत तमाम स्कूलों में बहुत बड़े पैमाने पर सरकार ने आयरन फिल्टर लगवाये हैं। हकीकत में यहाँ आयरन की कोई समस्या ही नहीं है। ऐसे में सरकार द्वारा आयरन फिल्टर लगवाया जाना यह बताता है कि सरकार जमीनी हकीकतों से किस कदर दूर है।
हमें इस अध्ययन के दौरान तमाम मामले देखने को मिले जो भले ही इस अध्ययन में शामिल नहीं रहे हों लेकिन जो किसी का भी हौसला बढ़ा सकते हैं। जसोदा खुमजी से सटे घावलिया गाँव की नौ साल की वनती व पाडाधामंजर गाँव का नौ साल का ही रामचंद्र। दोनों की कहानी एक सी। देखने में जहाँ दोनों की उम्र तीन साल से अधिक नहीं लगती वहीं साल भर पहले तक घिसट-घिसट कर चलना ही इनकी नियति थी। घर वाले मान चुके थे कि ये यूँही घिसट-घिसट कर मर जायेंगे। लेकिन इन दोनों बच्चों पर दवा ने कमाल का असर दिखाया। दोनों बच्चे अब अपने पैरों पर आराम से चल सकते हैं। दोनों बच्चों के शरीर पर बीमारी ने इतना अधिक असर डाला था कि इनमें 100 प्रतिशत सुधार होना मुश्किल नजर आता है लेकिन यही क्या कम है कि दोनों बच्चे अपने पैरों पर चलने में सक्षम हैं।
स्वावलंबन की संजीवनी
इनरेम फाउंडेशन ने न केवल स्केलेटल फ्लोराइड के भीषण दुष्प्रभाव झेल रहे इन ग्रामीणों को दवा और खान-पान के जरिये बेहतरी की ओर अग्रसर किया बल्कि उसने इन्हें स्वावलंबी बनाने में भी अहम योगदान किया है। अरविंद बताते हैं कि स्वावलंबन इनकी चिकित्सा और समग्र विकास प्रक्रिया का अहम हिस्सा है। दरअसल इनके मन में यह भावना बैठना अत्यंत आवश्यक है कि ये भी अपने परिवार और समाज के लिये उपयोगी साबित हो सकते हैं। यही वजह है कि इन्हें छोटे रूप में ही सही उत्पादन प्रक्रिया से जोड़ा गया। मिसाल के तौर पर जसोदा खुमजी गाँव के कुँवर सिंह को फिल्टर मित्र बनाया गया। इनका काम है गाँव के अन्य परिवारों को फिल्टर के बारे में जागरूक करना और उनके फिल्टरों की साफ-सफाई करना। इसी तरह मियाटी गाँव की काली बाई जो बिना डंडे के सहारे चल भी नहीं पाती। वह बैठे-बैठे लिफाफे बनाने या कार्ड बोर्ड काटने जैसे काम करके कुछ आय अर्जित कर लेती हैं। सबसे रोचक उदाहरण कुँवर सिंह के भाई केवल राम का है। केवल राम की इच्छा शिक्षक बनने की थी लेकिन बीमारी ने उनकी राह रोक ली। इनरेम की मदद से वह अब अपनी आगे की पढ़ाई तो कर ही रहा है साथ ही गाँव की ही पाठशाला में शिक्षकों की मदद भी करता है। वह अपना शौक भी पूरा कर रहा है और उसकी आर्थिक मदद भी हो रही है।
हक्कू का कुँआ बना सहारा
हक्कू का कुँआ मियाटी गाँव के आमली फलिया में स्थित है। कुल 36 मीटर व्यास वाला यह कुँआ गाँव की बहुत बड़ी आबादी के लिये स्वच्छ पेयजल का स्रोत बना हुआ है। यह कुँआ इस गाँव तथा आस-पास के इलाकों के उन चुनिंदा स्रोतों में से है जहाँ पीने का साफ पानी अभी भी मिल पा रहा है। इस कुँए से आमली फलिया के अलावा पास स्थित ओहारी फलिया, स्कूल फलिया तथा कुछ अन्य इलाकों में भी पीने का पानी जाता है। इसके अलावा एक टैंकर यानी तकरीबन 5,000 लीटर पानी हर रोज कुछ दूर स्थित तीखी रुंडी फलिया में भी भेजा जाता है।
इस कुँए के मालिक हक्कू के परिवार की एक वृद्ध महिला से जब हमने पूछा कि आपके पास कुँआ है। यहाँ पानी का इतना गहरा संकट है क्या आपको नहीं लगता है कि दूसरों को पानी देने से आपका परिवार मुसीबत में आ सकता है। अगर आप इस पानी को बचाकर रखें तो यह लम्बे समय तक आपके परिवार के काम आ सकता है। उस महिला ने अत्यंत सहज भाव से कहा तो क्या अपने बाकी गाँव वालों को जहरीला पानी पीकर मर जाने दें।
यह उत्तर स्तब्ध करने वाला था। सामुदायिकता की यही भावना हमारी उम्मीद टूटने नहीं देती है। इनरेम फाउंडेशन की फ्लोराइड मिटिगेशन टीम ने जो काम झाबुआ जिले में किया है। उसमें उसकी मेहनत के अलावा गाँव वालों की सामुदायिकता की भावना का भी बहुत अहम योगदान रहा है। संसाधनों की लूट के बजाय संसाधनों को साझा करने की यही प्रवृत्ति एक व्यक्ति को दूसरे की तुलना में कहीं अधिक मनुष्य बनाती है। आदिवासियों में अभी यह भावना बरकरार है। काश हमारे उद्योगपति और सरकारें इसका कुछ अंश अपने भीतर समा पाती।
बहरहाल, झाबुआ जिले के केवल इन दो गाँवों की यात्रा ने हमें बता दिया कि नेक इरादे और पेशेवर ईमानदारी की मदद सेफ्लोराइड जैसी समस्या से निजात पाना कोई मुश्किल काम नहीं है। आवश्यकता है तो केवल दृढ़ इच्छाशक्ति की। इनरेम फाउंडेशन के सघन काम ने एक नजीर पेश की है। जिसे देश के तमाम अन्य इलाकों में अपनाया जा सकता है।
केस स्टडी
अध्ययन के दौरान हमारी मंशा सभी 25 बच्चों से मुलाकात करने की थी। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इसकी वजह यह रही कि सभी बच्चे गाँव में मौजूद नहीं थे। कुछ बच्चे जो बड़े हो चले थे वे खाने कमाने के लिये पड़ोसी राज्य गुजरात चले गये थे। गुजरात के श्रमिकों की कमी पूरी करने वाले झाबुआ के यही आदिवासी हैं। कुछ और बच्चे किसी न किसी काम से गाँव पर नहीं थे इसलिये अध्ययन के दौरान हमारी मुलाकात उनसे नहीं हो सकी। लेकिन जिन बच्चों से भी हम इस दौरान मिल सके, उनकी कहानी आँख खोल देने वाली थी। महज थोड़ी सी जागरूकता और संवेदनशीलता ने इनके जीवन में जबरदस्त सकारात्मक बदलाव लाया है। आइये एक नजर डालते हैं अध्ययन में शामिल 25 बच्चों में से उन बच्चों पर जिनसे हमारी मुलाकात हुई या जिनके बारे में हम जानकारी जुटाने में सफल रहे।
सावित्री और पिंटू (ग्राम जसोदा खुमजी)
सावित्री और पिंटू की उम्र अधिक से अधिक 8-9 साल की रही होगी लेकिन ये अपनी उम्र से काफी कम नजर आते हैं। पुरानी तस्वीरों वाली उदासी अब उनमें नजर नहीं आती। चिकित्सा की शुरुआत में इन बच्चों के हाथ पैरों में विकृति आने की शुरुआत हो चुकी थी। लेकिन लगातार पाँच साल नियमित रूप से दवा खाने और साफ पानी पीने के कारण इनकी अपंगता और विकृति काफी हद तक दूर हो चुकी है। ये बच्चे औरों के लिये मिसाल बन गये हैं। गाँव के तथा आस-पास के लोगों को यह देखकर आश्चर्य होता है कि जिन बच्चों को उन्होंने पूरी तरह विकलांग समझ लिया था वे किस तरह ठीक हो चले हैं।
बहादुर (ग्राम जसोदा खुमजी)
14 साल के बहादुर के घर वाले बताते हैं कि वे अपंगता को उसकी नियति मान चुके थे। वह खुद इतना निराश था कि दवा खाने में उसकी कोई रुचि नहीं नजर आ रही थी। तमाम प्रयासों के बाद उसने दवा लेना शुरू किया और उसमें इस कदर सुधार देखने को मिला कि आज वह कमाने के लिये परदेश जा चुका है। जी हाँ, महज 14 साल का बहादुर अपने परिवार की आय में मदद करने के लिये गुजरात चला गया है। उसने इतनी शारीरिक क्षमता हासिल कर ली है कि वह दैनिक मजदूर के रूप में काम कर रहा है। हम सभी जानते हैं कि एक मजदूर को कितने अधिक श्रम की आवश्यकता होती है।
प्रभु और नीलेश (ग्राम जसोदा खुमजी)
प्रभु और नीलेश की उम्र क्रमश: 11-13 साल है। एक के पैरों में इतना गैप हो गया था कि वह बमुश्किल चल रहा था। जबकि दूसरा चलने की कोशिश करता तो घुटने ही लड़ जाते। गाँव ने तो लंगड़ों के गाँव के रूप में चर्चा पानी शुरू ही कर दी थी। इसलिये लोग होनी का संकेत मानकर चुप बैठे थे। गनीमत है कि इन दोनों बच्चों की उम्र उस वक्त बहुत कम थी। जैसे ही दवाएँ मिलनी शुरू हुईं। बच्चों में सुधार के संकेत दिखने शुरू हो गये आज पाँच साल बाद दोनों बच्चे पूरी तरह स्वस्थ हो चुके हैं। चिकित्सकों का कहना है कि ये दोनों बच्चे 100 फीसदी स्वस्थ हो चुके हैं। नीलेश के पिता फत्तू गाँव के पूर्व उपसरपंच हैं जबकि उसकी माँ कमली मौजूदा वार्ड मेंबर। जाहिर है इस परिवार में जागरूकता का स्तर औरों की तुलना में अधिक है। फत्तू के घर में वे तमाम पेड़ पौधे लगे हुये हैं जिनसे मिलने वाला पोषण फ्लोराइड के लक्षणों से बचाव में कारगर होता है।
विकास ओहारी (ग्राम मियाटी)
मियाटी गाँव का 14 वर्षीय विकास भी उन 25 बच्चों में शामिल है जो इस प्रयोग में शामिल थे। विकास पिछले पाँच साल से लगातार दवायें ले रहा है और अब उसे देखकर यह कहना मुश्किल है कि किसी वक्त वह फ्लोरोसिस के कारण लगभग विकलांग नजर आता था। उसके दोनों पैर पूरी तरह चपटे हो चुके थे। विकास के दादा हुमा ओहारी ने पीने का पानी लाने के लिये एक बैलगाड़ी रखी है। वह आस-पास के किसी भी सेफ सोर्स से पीने का पानी बैलगाड़ी पर लाद कर लाते हैं। उन्होंने अपने घर के पास ही एक छोटा बागीचा भी लगा रखा है जहाँ अपनी जरूरत की सब्जियाँ उगाते हैं।
गन्ना और भूर सिंह (ग्राम मियाटी)
मियाटी गाँव के गन्ना और भूर सिंह उस काली बाई के बेटे हैं जो खूब खबरों में रह चुकी है। गन्ना और भूर सिंह के बारे में बात करने से पहले थोड़ा जिक्र काली बाई का। काली बाई की उम्र बमुश्किल 38-40 साल के बीच होगी। लेकिन उनके चेहरे पर आ चुकी झुर्रियाँ उन्हें 60 का बना रही हैं। काली बाई के लिये चलना तो दूर बैठे रहना भी मुश्किल हो चला था। उनके पैर इस कदर टेढ़े और कमजोर हो चले हैं कि लगता है जोर से दबाने भर से उनकी हड्डियों का चूरा बन जायेगा। हालाँकि लगातार दवाओं से अब काली बाई की हालत कुछ ठीक हो गयी है। काली बाई पर इनरेम कार्यकर्ताओं की नजर सन 2010 में ही पड़ी थी। उनका इलाज तब से ही चल रहा है।
गन्ना और भूर सिंह इन्हीं काली बाई के बच्चे हैं। इन दोनों बच्चों का इलाज भी माँ के साथ ही वर्ष 2010 में शुरू हुआ। ये बच्चे अब कमोबेश पूरी तरह स्वस्थ हो चुके हैं।
रेणू भाबर और अनीता भाबर (ग्राम मियाटी)
रेणु की उम्र 14 वर्ष जबकि अनीता की उम्र 12 साल की है। दोनों बच्चियों का पता वर्ष 2010 में चला था और ये काफी हद तक सामान्य हो चुकी हैं। रेणु तो स्थानीय शाला में कक्षा नौ की छात्रा भी है। इनकी दवा का डोज काफी कम कर दिया गया है हालाँकि ये अभी भी दवा ले रही हैं। अगर ये सेफ सोर्स का पानी इस्तेमाल करती रहें तो शायद अब आगे इन्हें दवाओं की आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी।
अध्ययन में शामिल किये गये बच्चों की सूची
ग्राम मियाटी
1. कैलाश पुत्र फुलिया
2. भूर सिंह पुत्र वालछन
3. संजू पुत्र देवचंद
4. विजय सिंगाड़िया पुत्र लालू
5. संजय भाबर पुत्र दारू
6. राहुल भाबर पुत्र सूर सिंह
7. मुन्ना ओहारी पुत्र जालिया
8. भूरसिंह भाबर पुत्र तोलिया
9. बुला सिंगाड़िया पुत्र वालछन
10. अनीता भाबर पुत्री सोहन
11. मंजू भाबर पुत्री तोल सिंह
12. सुनीता डिंडोले पुत्री तेल सिंह
13. रेनू भाबर पुत्री सोहन
14. गन्ना भाबर पुत्र तोलिया
15. राहुल भाबर पुत्र सोहन
16. विकास ओहारी पुत्र गोल चंद
ग्राम जसोदा खुमजी
1. नंदू मेडा पुत्र सगू
2. बहादुर मेडा पुत्र सागर
3. सावित्री सिंह पुत्री बहादुर
4. नीलेश पुत्र फत्तू
5. प्रभु पुत्र फत्तू
6. अनिल पुत्र अंसुल
7. रमेश पुत्र शैतान
8. पिंटू पुत्र मांगीलाल
अध्ययन में कुल 25 बच्चे शामिल थे लेकिन एक बच्चे का उल्लेख सूची में नहीं है क्योंकि अन्यान्य कारणों से उसका दस्तावेजीकरण नहीं किया जा सका।
नोट: आँकड़े झाबुआ फ्लोरोसिस मिटिगेशन सेंटर, इनरेम फाउंडेशन एवं पेयजल व स्वच्छता मंत्रालय भारत सरकार
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