फलों का पकना एक अपरिवर्तनीय क्रिया है जिसमें क्रमबद्ध तरीके से शारीरिक क्रिया, जैव रासायनिक क्रिया तथा इन्द्रिय ग्राही परिवर्तन होते हैं जिससे अन्ततः कोमल खाने योग्य पका हुआ वांछित गुण वाला फल मिलता है। फलों के पकने में कुछ दिन लग जाते हैं। संश्लेषित रसायनों का प्रयोग फलों को कृत्रिम ढंग से पकाने में किया जाता है जिससे फल ताजे लगते हैं तथा असामयिक पक जाते हैं।
फल हमारे भोजन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनका उत्पादन देश-विदेश में जलवायु के अनुकूल होता है। कुछ फल ठंडे वातावरण में तथा कुछ गर्म वातावरण में पैदा होते हैं। कुछ प्रजातियों को छोड़कर सामान्यतः अधिकतर फल वर्ष में एक बार ही पैदा होते हैं। यद्यपि आजकल कुछ ऐसे फल भी पैदा किये जा रहे हैं जो कि हर समय पैदा हो सकते हैं। इनमें से केला, अंगूर तथा कुछ हद तक अमरूद आदि होते हैं। यद्यपि फल अपने समय पर ही पकते हैं लेकिन व्यापार की दृष्टि से उनको समय से पहले ही कृत्रिम तरीके से पकाया जाता है। फलों के पकने से उनमें खाने का स्वाद, मिठास तथा मुलायमियत बढ़ जाती है जिससे स्वाद तथा पोषक गुणवत्ता बढ़ जाती है।फलों को पकाने में एथिलीन यौगिक का योगदान होता है जो कि पौधों में मेथियोनीन अमीनों अम्ल द्वारा पैदा होती है (current science, 99, 2010)। एथिलीन कुछ एन्जाइम जैसे एमाइलेज का अन्तःकोशीय स्तर बढ़ा देती है जो कि स्टार्च को शर्करा में बदल देती है। पेक्टिनेज, पेक्टिन जो कि फल को कड़ा बनाता है, का जल अपघटन कर देती है। अन्य एन्जाइम फल के हरे भाग क्लोरोफिल को नीले, पीले या लाल वर्ण में बदल देते हैं (J. of medicine, 9, 42, 2008)। पकने की प्रक्रिया स्टार्च को शर्करा में बदल देती है जिससे फल में वांछित सुगन्ध, स्वाद, रंग तथा बाहरी रूप बदल देती हैं।
संश्लेषित रसायनों का प्रयोग फलों को कृत्रिम ढंग से पकाने में किया जाता है जिससे फल ताजे लगते हैं तथा असामयिक पक जाते हैं। अपने आप पके फल पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं लेकिन कृत्रिम रूप से पकाये फल विषालु तथा स्वास्थ्य हेतु हानिकारक होते हैं। अधिक समय तक एथिलीन का प्रयोग फलों को पकाने में होता रहा है लेकिन आजकल, एथेन, कैल्शियम कार्बाइड तथा एथीफोन का प्रयोग हो रहा है जो कि पकाने की क्रिया को तेज कर देता है लेकिन स्वास्थ्य हेतु हानिकारक होता है। पकाने के तरीके को लेकर जलवायु अनुकूल अथवा प्रतिकूल फलों का वर्गीकरण किया गया है (Food & Agr. Org., 2006)। आम, केला, पपीता, अमरूद, कीवी, अंजीर, सेब, बेर व नाशपाती आदि, जलवायु अनुकूल हैं तथा सन्तरा, मुसम्मी, अंगूर, कीनो, लीची, तरबूज, चेरी, रसबेरी, ब्लैकबेरी, स्ट्रॉबेरी आदि जलवायु प्रतिकूल हैं। जलवायु अनकूल फल फसल के बाद स्वतः पकना प्रारम्भ कर देते हैं। पकने की प्रक्रिया में फलों से एथिलीन निकलती है तथा श्वसन क्रिया बढ़ जाती है। पके फल कोमल, नाजुक होते हैं तथा सामान्यतः बाहर ले जाने तथा बार-बार उठाने-रखने से खराब हो जाते हैं।
इस प्रकार के फल कड़े तथा हरे रूप में लेकिन पूर्णतः पके होते हैं और शीघ्र ही खाने योग्य होते हैं। थोड़ी-सी एथिलीन, सीमित ताप, आर्द्रता की उपस्थिति में प्रयोग की जाती है जिससे फल शीघ्र पकते हैं। आम, केला, पपीता, अमरूद, कीवी, अंजीर, सेब, बेर, नाशपाती आदि (जलवायु अनुकूलित) फल इसी श्रेणी में आते हैं। जबकि जलवायु प्रतिकूल फल तोड़ने के बाद अपने आप नहीं पकते क्योंकि इनमें बहुत कम मात्रा में एथिलीन निकलती है। इनमें श्वसन क्रिया तेज नहीं होती और न ही कार्बन डाइऑक्साइड बनती है। ऐसे फलों में सन्तरा, मुसम्मी, कीनो, अंगूर, अनार, लीची, तरबूज, चेरी, रसबेरी, ब्लैकबेरी, स्ट्रॉबेरी काजू आदि हैं।
फलों का पकना एक अपरिवर्तनीय क्रिया है जिसमें क्रमबद्ध तरीके से शारीरिक क्रिया, जैव रासायनिक क्रिया तथा इन्द्रिय ग्राही परिवर्तन होते हैं जिससे अन्ततः कोमल खाने योग्य पका हुआ वांछित गुण वाला फल मिलता है। फलों के पकने में कुछ दिन लग जाते हैं। इसी थोड़े समय में इन्हें शीघ्रता से दूसरे स्थानों पर ले जाया जाता है। फलों के व्यापार में वृद्धि होने से कृत्रिम विधि से पकाना आवश्यक हो गया है। व्यवसाय हेतु फलों को शीघ्र पकाने तथा ताजे लगने के लिये कई रासायनिक पदार्थ प्रयोग किये जाते हैं।
मौसमी फल जैसे आम, केला, पपीता आदि को पूर्णरूप में अविकसित रूप में अधपके ही तोड़ा जाता है तथा उन्हें प्राकृतिक हार्मोन (एथिलीन) जो कि फलों के अन्दर होता है, से पकाया जाता है। इसमें समय लगता है जिससे फलों का वजन कम हो जाता है, फल समान रूप से नहीं पकते तथा कुछ फल सड़ भी जाते हैं। फलों के व्यापार हेतु अप्राकृतिक रूप से पकाना आवश्यक हो जाता है। छोटे व्यापारियों द्वारा पहले धुआँ या कैल्शियम कार्बाइड का प्रयोग किया जाता था।
एथिलीन पौधों में प्राकृतिक रूप से पाई जाती है जो कि पौधों में शारीरिक परिवर्तन भी करती है तथा जब इसकी मात्रा 0.1 से 1.0 पीपीएम हो जाती है तो यह फलों के पकने की क्रिया को प्रोत्साहित करता है। बाहर से प्रयुक्त एथिलीन भी यही करती है। अधिकतर प्रयोग होने वाले रसायन हैं कैल्शियम कार्बाइड, एसीटिलीन, एथिलीन, प्रोपाइलीन, ईथर, ग्लाइकोल, एथेनॉल आदि। इन रसायनों को आवश्यकता से अधिक प्रयोग करने पर स्वास्थ्य से सम्बन्धित कई समस्याएँ पैदा होती हैं।
वैश्विक स्तर पर पकाने की क्रिया एथिलीन जेनरेटर द्वारा प्राप्त एथिलीन द्वारा की जाती है जो कि महँगी विधि है अतः सस्ते पदार्थ जैसे कैल्शियम कार्बाइड, ईथर तथा ऑक्सीटॉक्सिन का प्रयोग फलों तथा सब्जियों को पकाने तथा उनका आकार बढ़ाने हेतु किया जाता है। कैल्शियम कार्बाइड के अतिरिक्त कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट, कैल्शियम क्लोराइड, कैल्शियम सल्फेट आदि का प्रयोग फलों के पकाने की क्रिया को धीमा करने के लिये किया जाता है। कैल्शियम कार्बाइड का प्रयोग विश्वव्यापी स्तर पर कम किया जा रहा है क्योंकि इससे स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। कैल्शियम कार्बाइड में अल्प मात्रा में आर्सेनिक तथा फास्फोरस होता है जो कि पानी में घुलने पर एसीटिलीन गैस पैदा करता है। एसिटिलीन, एथिलीन की तरह काम करती है तथा पकने की क्रिया को बढ़ा देती है। आर्सेनिक, फास्फोरस तथा एसिटलीन शरीर के कई भागों को प्रभावित कर सकते हैं तथा हानि पहुँचा सकते हैं।
जैसा कि बताया गया है एथिलीन की मात्रा 0.1 से 1.00 पीपीएम तक होने पर फलों को पकाने में आसानी होती है (I.J.N.P.R., 3, 61, 2013)। इसकी मात्रा तथा समय फलों के अनुसार कम या अधिक हो सकती है। एथिलीन द्वारा फल पकाने की क्रिया उस जीन को प्रभावित करके करती है जो कि श्वसन क्रिया को बढ़ाने के लिये उत्तरदायी है। स्वतः एथिलीन उत्पादन क्लोरोफिल का विखण्डन, कैरोटीन संश्लेषण, स्टार्च को शर्करा में बदलना तथा अति कोशिकीय विखण्डन एन्जाइम की क्रियाशीलता बढ़ाना है (I.J.Ag.Sc. 1,347, 2010)। इसका उत्पादन कृत्रिम रूप से गैस बनाकर किया जा सकता है। एथिलीन बनाने के लिये एथेनॉल के उत्प्रेरक की उपस्थिति में गर्म किया जाता है जिससे एथिलीन बनती है। कभी-कभी एथिलीन उत्प्रेरक का प्रयोग भी किया जाता है।
उसमें 6 प्रतिशत एथिलीन कार्बन डाइऑक्साइड की उपस्थिति में प्रयोग की जाती है। इन दोनों प्रकार की विधियों को फलों के पकाने में प्रयोग किया जाता है। अन्य विधि कैल्शियम कार्बाइड को जल अपघटित करके एसिटिलीन पैदा की जाती है जिससे फलों को अप्राकृतिक रूप से पकाया जाता है। इसी में अति अल्प मात्रा में एथिलीन होती है जो कि फलों को पकाने के लिये पर्याप्त होती है। एथिफीन (Ethiphene) या एथरेल (2 chloro ethane phospheric acid) पानी में अम्लीय होता है तथा उदासीन या क्षारीय माध्यम में एथिलीन बनाता है। इसके कार्य करने की क्रिया भी जटिल है। पहले यह फल के अन्दर प्रवेश करता है तथा वहाँ पर एथिलीन पैदा करता है जिससे पकने की क्रिया तीव्र हो जाती है। अन्य रसायन एथिलीन ग्लाइकोल है जो कि रंगहीन, गन्धहीन तथा स्वाद में मीठा होता है। इसको जब पानी में घोला जाता है तो यह विभिन्न प्रकार के फलों को अन्य रसायनों की तुलना में अधिक शीघ्रता से पकाता है। विशेषतः ठण्डी जलवायु में इसका सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है। इसकी क्रिया फलों को पकाने में एथिलीन जैसी भी हो सकती है।
ऊपर हमने देखा कि बहुत से अप्राकृतिक तरीकों से फलों को पकाया जाता है जिसमें विभिन्न प्रकार के रसायन प्रयोग किया जाते हैं। अब आइये यह भी जान लें कि रसायनों द्वारा पकाये गये फलों से क्या हानि होती है। कैल्शियम कार्बाइड एक कैंसरकारक रसायन है तथा भारत में वर्ष 1955 से प्रतिबन्धित है (P.F.A.,1955)। यद्यपि इस रसायन का प्रयोग वर्जित है फिर भी सभी फल वाले इसका प्रयोग विशेषतः फलों को बाहर भेजने वाले धड़ल्ले से कर रहे हैं। भारत में कृषि मंत्रालय द्वारा यह पता लगाया गया है कि 99 प्रतिशत आम इसी रसायन से पकाये जाते हैं क्योंकि यह सबसे सस्ता तथा सुलभ है। इसका प्रभाव इतना हानिकारक है कि यदि इस रसायन से भीगा कागज भी 2 साल के बच्चे के मुँह में रख दिया जाय तो मृत्यु हो सकती है (J. of Chem. Tox.,3,1,2013)। आम के अलावा केला भी इसी रसायन से पकाया जाता है। इसके लिये केला को बन्द कोष्ठ में रखा जाता है तथा इसमें बृहत मात्रा में कैल्शियम कार्बाइड छिड़का जाता है तथा ऊपर से पानी छिड़का जाता है फिर कोष्ठ को बन्द कर दिया जाता है। यद्यपि इस विधि से निकलने वाली एसिटिलीन फलों को तीव्र पकाती है लेकिन यह अति प्रज्वलनशील गैस है जिससे आग लगने की सम्भावना भी रहती है।
कभी-कभी छोटे पैकेट भरकर फलों के बक्शों में रख दिया जाता है या फिर फलों के ऊपर से कैल्शियम कार्बाइड का छिड़काव किया जाता है। कैल्शियम कार्बाइड में आर्सेनिक हाइड्राइड तथा फास्फोरस हाइड्राइड अशुद्धि के रूप में रहते हैं जो कि अति कैंसरकारक है। कभी-कभी कैल्शियम कार्बाइड के ढेर फलों के बीच में पाये जा सकते हैं। यद्यपि इस प्रकार पकाये गये फलों का रंग लुभावना होता है लेकिन स्वाद में निकृष्ठ होते हैं, सुगन्ध भी अच्छी नहीं होती तथा शीघ्र ही खराब हो जाते हैं। एक अध्ययन द्वारा पाया गया कि प्राकृतिक रूप से पके आम के फलों की तुलना में अप्राकृतिक ढंग से पकाये गये फलों में शर्कराओं की मात्रा कम होती है।
उपरोक्त रसायनों के अतिरिक्त अन्य रसायन जैसे कार्बन मोनो ऑक्साइड, पोटेशियम सल्फेट, प्यूट्रीसीन (Putrescine), ऑक्सीटॉक्सिन, प्रोटोपोरफायरिनोजिन (Protoporphyrinogen) भी प्रयोग किये जा रहे हैं (Arch. of App.Sci.Res., 5,45,2013)। सामान्यतः एथिफोन एक कार्बनिक फास्फोरस यौगिक है जो कि फलों के पकने में प्रयोग हेतु वर्जित है। ऑक्सीटॉक्सिन भी स्तनधारियों का रसायन है जो कि पशुओं में औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। फल तथा सब्जियों में प्रयोग करने में वर्जित हैं (J. of hhFood. Sci.&Tech.,50,1222,2013)। प्रारम्भ में लगभग 60 प्रतिशत आम कैल्शियम कार्बाइड से पकाया जाता है लेकिन जैसे-जैसे आम स्वतः पकना प्रारम्भ होता है इसका प्रयोग कम होता जाता है (The Hindu, 2013)। एथिफोन से पकाये फलों में लैड तथा आर्सेनिक की मात्रा पाई जाती है।
भारतीय कृषि मंत्रालय ने प्रमाण दिया है कि यदि एथिलीन गैस 10-100 पीपीएम तक प्रयोग की जाये तो इससे पके फल हानिकारक नहीं होते। ताजे फल तथा सब्जियाँ जिनमें मोम की परत नहीं जमी है, खनिज तेल तथा रंग नहीं लगाया गया है, प्रयोग हेतु अधिक लाभदायक होते हैं (Min. of Ag., 2013)।
स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा कैल्शियम कार्बाइड का प्रयोग फलों को पकाने हेतु वर्जित है (NHRC, 2014)। अमेरिका में एथिलीन का प्रयोग सुरक्षित माना जाता है। इससे हानिकारक प्रभाव सीमित मात्रा में प्रयोग से नगण्य होते हैं। एथिलीन का प्रयोग ऐतिहासिक समय से निश्चेतक के रूप में 85 प्रतिशत एथिलीन तथा 15 प्रतिशत ऑक्सीजन की उपस्थिति में किया जाता रहा है। एथिलीन प्रज्वलनशील गैस है तथा 3 प्रतिशत के ऊपर विस्फोटक भी है। फलों को पकाने के लिये 0.1 से 1.00 पीपीएम तक की मात्रा पर्याप्त है। एक भाग एथिलीन 2,50,000 लीटर वायु के साथ फलों के पकाने हेतु प्रयोग की जाती है (Sci. Legi. & Soc. Echo. Asp., 2013)। कभी-कभी एथिलीन से फल पकाने के कमरे में साँस लेना कष्ट कारक माना जाता है जो कि फलों के पकाने में निकलने वाली CO2 तथा ऑक्सीजन की कमी के कारण होता है। ऐथेरल या एथिफोन व्यावसायिक रूप से मिलता है तथा पौधों की वृद्धि को प्रेरित करता है इसको भी एथिलीन की तरह फलों को पकाने में प्रयोग किया जाता है। यद्यपि इसके तनु घोल में फलों को डुबोकर पकाने हेतु संस्तुति की जाती है लेकिन यह कठिन प्रक्रिया है। इसमें अन्य रसायनों की अशुद्धियाँ होती हैं जो कि समस्या पैदा करती है।
भारतीय खाद्य सुरक्षा तथा मानक प्राधिकरण द्वारा खाद्य पदार्थों के कृत्रिम रूप से पकाने हेतु एथिलीन गैस के प्रयोग की सलाह दी गई है। एथिलीन का प्रयोग उचित है लेकिन फलों तथा सब्जियों के खराब होने का भय रहता है। अतः एथिलीन से पकने वाले फल तथा सब्जियाँ एक साथ नहीं रखनी चाहिए क्योंकि एथिलीन के सम्पर्क में ब्रोकली, बन्द गोभी आदि खराब हो जाती हैं। विकासशील देशों में सरकारी तथा व्यक्तिगत भागीदारी में नई तकनीक जैसे शीतलीकृत गाड़ी द्वारा माल पहुँचाना, कम ताप पर संग्रह तथा एथिलीन प्रेरित पकाने का प्रकोष्ठ आदि प्रयोग किये जाते हैं उदाहरणार्थ कम ताप पर फलों तथा सब्जियों के संग्रह की सुविधा प्रदान करने हेतु सरकार को कुछ स्थानों पर प्रबन्ध करना चाहिए जिससे व्यक्तिगत रूप से भी इसको प्रारम्भ किया जा सके। भारत में मानक गुणवत्ता तंत्र की कमी है। अतः राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करना चाहिए कि किस तरह कृषि उत्पादों को तथा व्यापारियों को गुणवत्ता का प्रत्यायन सिखाया जाये जिससे वे अन्तरराष्ट्रीय स्पर्धा में खरे उतर सकें। बाजार में ग्राहकों तक उच्च गुणवत्ता तथा सुरक्षित उत्पादन पहुँचाने हेतु उचित व्यवस्था होनी चाहिए। स्वास्थ्य के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ानी चाहिए।
उच्च गुणवत्ता तथा ग्राहकों तक सुरक्षित सामान पहुँचाना ही दक्ष बाजारीकरण कहलाता है। जन सामान्य में खाद्य सुरक्षा पर बड़ी चिन्ता है क्योंकि पहले से ही स्वास्थ्य हेतु हानिकारक पदार्थों का उपयोग हो रहा है।
अतः संस्तुति किये गये कीटनाशक पौधों की वृद्धिकारक तथा पकाने वाले पदार्थों का प्रयोग सुनिश्चित किया जाए। इसके लिये शोध, प्रशिक्षण उत्साहवर्धन तथा प्रचार तंत्र को सुदृढ़ किया जाना चाहिए।
लेखक परिचय
प्रो. ईश्वर चन्द्र शुक्ल एवं विरेन्द्र कुमार
रसायन विज्ञान विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) (मो. : 9935658049 एवं 8381859951, ई-मेल : prof.icshukla@rediffmail.com; virendra.au@gmail.com)
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