फैसला हो चुका है

पहले सरकार ने गंगा पर राष्ट्रीय गंगा नदी प्राधिकरण बनाया, फिर आई.आई.टी. रुड़की और डबल्यू.आई.आई. की रिपोर्टें, अंतरमंत्रालयी समिति की रिपोर्ट और उसके ऊपर देश के सात बड़े आई.आई.टी. के द्वारा गंगा पर एक और रिपोर्ट बना रही है। आपदा के बाद माननीय उच्चतम न्यायालय ने श्रीनगर बाँध कंपनी के दोषों को नज़रअंदाज़ करते हुए उत्तराखंड में जून आपदा में बांधों की भूमिका पर एक समिति का गठन करने के लिए पर्यावरण मंत्रालय को आदेश दिया। उत्तराखंड में आई आपदा जून, 2013 में जो भी नुकसान हुए उसमें बड़े बांधों की ज़िम्मेदारी से इंकार नहीं किया जा सकता। किंतु कुछ महीने बीतने के बाद ही जहाँ श्रीनगर में श्रीनगर बाँध की मक यानि बांध के मलबे के कारण 250 से ज्यादा लोगों के मकान दबे। लोगों ने बिना सरकारी या बाँध कंपनी कि सहायता से गाँव वालों ने किसी तरह अपने घर ठीक किए हैं। विष्णुप्रयाग बांध को बनाने वाली जे.पी. कंपनी ने भी बाढ़ में बाँध कि वजह से इकट्ठी मिट्टी, मक व अन्य मलबे को किसी तरह ठिकाने लगाना शुरू किया। माटू जनसंगठन ने आपदा के बाद से बांधों से इस विभीषिका में जो वृद्धि हुई उसे तरीके से सामने लाने का प्रयत्न किया। आश्चर्य का विषय है कि इस दौरान न तो बाँध कंपनियों ने कोई खेद व्यक्त किया ना ही राज्य के मुख्यमंत्री ने और ना ही विपक्ष दलों ने किसी तरह की जांच बिठाई। हाँ सभी ने एक सुर में ये रोना ज़रूर रोया कि इन्हीं बांधों के कारण ऋषिकेश, हरिद्वार व अन्य निचले क्षेत्रों में बाढ़ नहीं जो तथ्यों के परे है। देहरादून स्थित बांधों के पक्ष में बात करने वाले एक सरकारी एन.जी.ओ., जिसने लोगों की हालत को ना देखा और ना ही समझा, उसने एक बड़ी मीटिंग का आयोजन करके ‘‘टिहरी बाँध से बाढ़ रुकी” ऐसे तथ्यों का प्रचार किया। हिटलर के साथी ग्लोबेल का कहना था कि एक झूठ को सौ बार बोलने से वह बात सच हो जाता है, यहाँ भी यह सच होता दिख रहा है।

इस सरकारी एन.जी.ओ. ने और सरकार ने इस बात को क्यों छुपाया कि 2010 के मानसून में टी.एच.डी.सी. ने बांध की झील में पहले से ही केंद्रीय जल आयोग की शर्तों की अवहेलना करके पानी भर कर रखा था और जिससे कि बहुत बड़ी बाढ़ का खतरा आया था। उस समय बांध कंपनियों के अभियंताओं ने भी हाथ खड़े कर दिए थे। संयोगवश वर्षा रुकी और बाँध के ऊपर से पानी बहने से बचा। उसी वर्ष टिहरी बाँध के नीचे बन रहे कोटेश्वर बाँध की प्रत्यावर्तन सुरंग धंस गई थी जिसके कारण लगभग चालीस दिन टिहरी बाँध से एक यूनिट बिजली भी पैदा नहीं हुई और इतने दिनों पानी को झील में रोक कर रखा गया, मानसून से पहले कोटेश्वर बाँध का काम जल्दी-जल्दी खत्म किया गया जिससे बाँध के निर्माण में कई ख़ामियाँ रह गई। किंतु इन सब बातों को कभी भी देहरादून स्थित सरकारी एन.जी.ओ. ने कभी नहीं देखने का प्रयास किया।

अगस्त 2012 अस्सीगंगा में और सितम्बर में मद्महेश्वर घाटी में बादल फटा जिससे कि वहाँ निर्माणाधीन छोटे बांधों से तबाही आई। मनेरी भाली चरण 2 के कारण उत्तरकाशी के ज्ञानसू और जोशियाड़ा क्षेत्रों में जो तबाही हुई, सरकार ने या बाँध लॉबी ने इस बात पर भी कभी कोई चर्चा नही होने दी।

जून 2013 आपदा के बाद, बिना किसी गहन अध्ययन बाँधों का कीर्तन करने वालों ने बड़े-बड़े सेमिनार आदि शुरू कर दिए और बयानबाजी भी बहुत शुरू हुई। यह सब तरीके है बांधों से हुई तबाही को छुपाने और उन पर चर्चा को रोकने के तरीके थे।

बांधों के मलबा नदियों के किनारे डंप किया जा रहा है2008 के बाद जहां गंगा रक्षण का सवाल तेजी से उठा वहीं सरकार और प्रशासन ने भी अपने पुराने दांव चलाने शुरू किए। समिति पर समिति, अध्ययन पर अध्ययन कुल जमा, जोड़, गुणा, भाग बराबर ‘‘बाँध से देश का विकास होता है”। देश को बिजली कि बहुत ज़रुरत है। मानों कि पूरा देश एक वेंटीलेटर में है और यदि एक सेकंड के लिए भी बांध बंद हुए तो वेंटीलेटर बंद और देश खत्म।

पहले सरकार ने गंगा पर राष्ट्रीय गंगा नदी प्राधिकरण बनाया, फिर आई.आई.टी. रुड़की और डबल्यू.आई.आई. की रिपोर्टें, अंतरमंत्रालयी समिति की रिपोर्ट और उसके ऊपर देश के सात बड़े आई.आई.टी. के द्वारा गंगा पर एक और रिपोर्ट बना रही है। आपदा के बाद माननीय उच्चतम न्यायालय ने श्रीनगर बाँध कंपनी के दोषों को नज़रअंदाज़ करते हुए उत्तराखंड में जून आपदा में बांधों की भूमिका पर एक समिति का गठन करने के लिए पर्यावरण मंत्रालय को आदेश दिया। मंत्रालय ने कई महिनों बाद रो-धो कर समिति बनाई जिसमें सरकारी अधिकारियों की भरमार होने के बावजूद उत्तराखंड सरकार को इस बात का अफसोस है कि उसमें उत्तराखंड सरकार का कोई प्रतिनिधि नहीं है। उसकी भी कोशिश चल रही है। मुख्यमंत्री का कहना है कि आई.आई.टी. रुड़की को इसमें शामिल किया जाए। ज्ञातव्य है कि आई.आई.टी. रुड़की आज तक सरकार के संकटमोचन का काम करता रहा है। जब भी बांधों पर कोई रुकावट आती है तो आई.आई.टी. रुड़की रिपोर्ट से उसको संतुलित कर दिया जाता है और उसे क्लीन चिट दे दी जाती है। इस समिति को भी इतना कम समय दिया गया कि ना तो वो आज के संदर्भ में पूरी गंगा घाटी को देख पाई है और ना ही गहरा अध्ययन कर पाई है। इसे और समय मिलना ही चाहिए ताकि वो पूरी गंगा व यमुना घाटी को ही नही वरन पूरे उत्तराखंड में नदियों की स्थिति को भी देख समझ सके।

केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने एक समिति बनाईं जिसकी रिपोर्ट भी बांधों को कुल मिला कर अपने नतीजे में क्लीन चिट देती है। उत्तराखंड के भारतीय भू सर्वेक्षण विभाग ने भी अपनी बड़ी मोटी सी रिर्पोट बनाई है। भू-गर्भीय अध्ययन के लिए भी मशहूर वाडिया इंस्टिट्यूट ने एक रिपोर्ट बनाईं है। इन रिपोर्टों में कुछ-कुछ ज़रूर कहा गया है। किंतु मामला वही धाक के तीन पात होगा, यही आशंका है।

इतनी समितियों और रिपोर्टों के बाद भी इस बात की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित समिति की रिपोर्ट को सरकार तोड़ मरोड़ कर गंगा पर बांधों के पक्ष में खड़ा कर लेगी जो कि गंगा और गंगा घाटी में रहने वालों के लिए दुर्भाग्यशाली होगा।

बांधों के मलबा नदियों के किनारे डंप किया जा रहा हैउत्तराखंड के ‘‘मुख्यमंत्री श्री विजय बहुगुणा जी” और नए ‘‘केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री श्री विरप्पा मोइली जी” में बांधों के पक्ष में इतनी अधीरता है कि वे गंगा पर बाँध के विषय पर किसी तरह के अवरोध को स्वीकार नहीं कर पा रहे। इसका ताज़ा उदाहरण है कि यमुना पर स्थापित लखवार बाँध योजना की बाईस वर्ष पुरानी स्वीकृति को ताज़ा संदर्भ में बिना देखे व बिना अध्ययन किए देने के कोशिश में लगे हैं। दूसरी तरफ ऐसी खबर है कि टिहरी बांध बनाने वाली टी.एच.डी.सी. को विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजना के लिए राज्य सरकार वनभूमि हस्तांतरित करने कि स्वीकृती दे रही है। वैसे इसमें भ्रष्टाचार से भी इंकार नहीं किया जा सकता चूंकि इसी बाँध कंपनी के द्वारा बनाए गए टिहरी बाँध के विस्थापितों को दी गई ज़मीन के घपले जाहिर हुए हैं जिसमें आंच उत्तराखंड शासन-प्रशासन के सर्वोच्च पद तक गई है। इसी हड़बड़ी में टी.एच.डी.सी. को ये वन स्वीकृति सर्वोच्च न्यायालय का उल्लंघन करके दी गई है।

मगर याद रखिए! जून 2013 में उत्तराखंड में नदियों ने अपना फैसला सुना दिया है। आप यदि उसके अनुसार नहीं चलते तो उसकी सजा भुगतने के लिए तैयार रहिए।

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