खाद्य-वस्तुओं में जहरीले रसायनों के अलावा कई दूसरी किस्म की खतरनाक चीजें मिलाकर नागरिकों के जीवन और स्वास्थ्य से खिलवाड़ किया जा रहा है। कई नामी-गिरामी कंपनियों के उत्पाद भी विश्वसनीय नहीं रह गए हैं। कड़े कानून होने के बावजूद निगरानी तंत्र कोई कारगर कार्रवाई नहीं कर रहा है। इसका जायजा ले रहे हैं अभिषेक।
आज अनाज से लेकर दूध, दही, घी, पनीर और फल वगैरह में भी मिलावट हो रही है। शाकाहार हो या मांसाहार, ऐसा कोई भोज्य पदार्थ नहीं है, जो जहरीले कीटनाशकों और मिलावटों से मुक्त हो। बाजार में उपलब्ध पपीता, आम और केला जैसे फलों को कैल्शियम कार्बाईड की मदद से पकाया जाता है। चिकित्सकों के अनुसार यह स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक है। फलों को चमकाने के लिए पैराफीन वैक्स भी लगाया जाता है। पैराफीन वैक्स युक्त फलों को खाने से त्वचा कैंसर और डायरिया जैसी बीमारियां होती है। डेयरी और कृषि उत्पादों-विशेषकर सब्जियों में ऑक्सिटोसिन का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। भारत में हरित क्रांति का मुख्य उद्देश्य देश को खाद्यान्न मामले में आत्मनिर्भर बनाना था, लेकिन इस बात की आशंका किसी को नहीं थी कि रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल न सिर्फ खेतों में, बल्कि खेतों से बाहर मंडियों तक में होने लगेगा।
विशेषज्ञों के मुताबिक रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग खाद्यान्न की गुणवत्ता के लिए सही नहीं है। लेकिन जिस रफ्तार से देश की आबादी बढ़ रही है, उसके मद्देनजर फसलों की अधिक पैदावार जरूरी था।
समस्या सिर्फ रासायनिक खादों के प्रयोग का ही नहीं है। देश के ज्यादातर किसान परंपरागत कृषि से दूर होते जा रहे हैं। दो दशक पहले तक हर किसानों के यहां गाय, बैल और भैंस खूंटों से बंधे मिलते थे। अब इन मवेशियों की जगह ट्रैक्टर-ट्राली ने ले ली है। नतीजतन गोबर और घूरे की राख से बनी कंपोस्ट खाद खेतों में गिरनी बंद हो गई।
पहले चैत-बैसाख में गेहूं की फसल कटने के बाद किसान अपने खेतों में गोबर, राख और पत्तों से बने जैविक खाद डालते थे। इससे न सिर्फ खेतों की उर्वरा शक्ति बरकरार रहती थी, बल्कि इससे किसानों को आर्थिक लाभ के अलावा बेहतर गुणवत्ता वाली फसल मिलती थी।
एक साजिश के तहत कीटनाशक निर्माता कंपनियों के एजेंटों ने गांवों में किसानों के बीच यह दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया कि गोबर की खाद डालने से फसलों पर कीटों का प्रकोप बढ़ जाता है। दरअसल, बहुराष्ट्रीय बीज और कीटनाशक कंपनियों ने किसानों के बीच यह भ्रामक प्रचार इसलिए किया, जिससे उनके महंगे उत्पादों की बिक्री बढ़े।
आज खतरा सिर्फ रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से ही नहीं है, बल्कि खाद्य पदार्थों में जिस तरह मिलावटखोरी का धंधा फल-फूल रहा है, वह मानवीय स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा बन गया है। टमाटर, गोभी और मूली, पालक जैसी सब्जियां पहले जाड़े के मौसम में ही बिकती थीं, लेकिन अब ये तमाम सब्जियां बारहों महीने मंडियों में दिखाई देती हैं।
शहरों में इसकी मांग अधिक है, क्योंकि अब लोगों के खान-पान की शैली में भी काफी बदलाव आ चुका है। नई आर्थिक नीतियों के बाद देश शहरीकरण का काफी विस्तार हुआ है। शहरों में आमदनी बढ़ने का असर लोगों के खान-पान पर भी हुआ है। लिहाजा बेमौसम सब्जियां और फल खाने की लालसा ने अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया है। बेमौसमी सब्जियों को उगाने में उर्वरक और कीटनाशक ज्यादा लगता है।
आज अनाज से लेकर दूध, दही, घी, पनीर और फल वगैरह में भी मिलावट हो रही है। शाकाहार हो या मांसाहार, ऐसा कोई भोज्य पदार्थ नहीं है, जो जहरीले कीटनाशकों और मिलावटों से मुक्त हो। बाजार में उपलब्ध पपीता, आम और केला जैसे फलों को कैल्शियम कार्बाईड की मदद से पकाया जाता है। चिकित्सकों के अनुसार यह स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक है।
फलों को चमकाने के लिए पैराफीन वैक्स भी लगाया जाता है। पैराफीन वैक्स युक्त फलों को खाने से त्वचा कैंसर और डायरिया जैसी बीमारियां होती है। डेयरी और कृषि उत्पादों-विशेषकर सब्जियों में ऑक्सिटोसिन का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। इस दवा का गलत इस्तेमाल न हो, इस बाबत सरकार ने इसकी बिक्री सीमित करने का फैसला किया है। इसके बावजूद देश भर में ऑक्सिटोसिन का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। मिलावट रोकने के लिए देश में खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम 1954 और प्रिवेंशन ऑफ फूड एडल्टरेशन एक्ट 1955 बनाया गया है। वैसे इस कानून को और अधिक प्रभावशाली बनाने की जरूरत है।
त्योहारों के मौसम में देश के अलग-अलग हिस्सों में हर साल कई क्विंटल नकली मावा जब्त किया जाता है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने पिछले दिनों देश में कृत्रिम और मिलावटी दूध के बड़े कारोबार का भंडाफोड़ किया था। प्राधिकरण ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश में 68.5 फीसद दूध मिलावटी है।
बाजार में मिर्च पाउडर, जिसका लाल चटख रंग देखकर ग्राहक आकर्षित होते हैं, लेकिन इस सच्चाई को जाने बगैर कि इसमें रंग, धान की भूसी और ईंट के चूर्ण मिलाए जाते हैं। ऐसे मिलावटी मिर्च के नियमित सेवन से लीवर, किडनी और तिल्ली प्रभावित होती है। उसी प्रकार आटे में भी सड़े हुए गेहूं और खली की मिलावट की जाती है। चना और अरहर की दालों में बड़े पैमाने पर देसी मटर, खेसारी और बकुले की मिलावट की जाती है।
ग्राहकों को इस मिलावट का पता न लगे, इसलिए दाल मिलों में इसे पॉलिश किया जाता है। खेसारी दाल में एक खास प्रकार का रसायन होता है, जिसके सेवन से गठिया और स्नायु तंत्र से जुड़ी बीमारियां होती हैं। खाद्य पदार्थों में मिलावट की समस्या पर काबू तभी संभव है, जब मिलावटखोरों के खिलाफ दायर मुकदमें का फैसला जिला और सत्र न्यायालयों से लेकर उच्च न्यायालय तक प्राथमिकता के आधार पर एक वर्ष में तय कर दिए जाएं।
उपभोक्ता अधिकारों से जुड़ी स्वंयसेवी संस्थाओं की राय है कि मिलावट के धंधे में शामिल आरोपियों को मामले की जांच परी होने से पहले जमानत नहीं मिलनी चाहिए। आमतौर पर देखा गया है कि जमानत मिलने के बाद आरोपी साक्ष्य और सबूतों को प्रभावित करने का काम करते हैं।
भारत में होने वाली अकाल मौतों का एक बड़ा कारण नकली और जहरीली शराब भी है। देश के अलग-अलग राज्यों में हर साल सैकड़ों लोग मिलावटी शराब पीने से मरते हैं। साइंस पत्रिका ‘लांसेट’ के मुताबिक भारत में उत्पादित कुल शराब का दो तिहाई हिस्सा अवैध तरीके से बनाया जाता है। मिलावट के इस दौर में लोगों को शुद्ध मछली और मांस भी उपलब्ध नहीं है।
मिलावटी मांस और मछली सस्ता होने की वजह से ढाबों और रेस्तराओं में इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। देश के सभी छोटे और बड़े शहरों में बकरे के मांस में बूढ़ी और बीमार बकरियों के मांस की मिलावट की जाती है। नगर निगमों और नगर पालिकाओं की ओर से खाद्य निरीक्षकों द्वारा मांस की गुणवत्ता की जांच की जानी चाहिए, लेकिन अधिकांश जगहों पर खाद्य निरीक्षकों को रिश्वत देकर बीमार जानवरों को धड़ल्ले से काटा जा रहा है। हाल की कुछ रिपोर्टों में मुर्गियों को एंटीबायोटिक खिला कर तेजी से बड़ा और वजनदार बनाने की जानकारी आई है।
उपभोक्ता दूषित और मिलावटी गोश्त खरीदने पर विवश है। मछलियों का किस्सा भी कुछ इसी प्रकार है। दिल्ली समेत कई शहरों में दस-पंद्रह दिनों पुरानी मछलियों को बर्फ में रखा जाता है। मछलियों को ताजा दिखाने के लिए उन पर जहरीले रसायन की परत चढ़ाई जाती है। कई दुकानदार पानी से भरे हौदे में मांगुर, सिंघी, कवई, रोहू, गैंची वगैरह जिंदा मछलियां रखते हैं।
दरअसल, इन मछलियों को समय से पहले तैयार करने और वजनी बनाने के लिए कई प्रतिबंधित दवाओं और प्रोटीनों का इस्तेमाल किया जाता है। जानकारी के अभाव में ग्राहक अक्सर ऐसी मछलियां खरीद लेते हैं, लेकिन इसके नियमित सेवन से कैंसर समेत कई गंभीर बीमारियां हो सकती हैं।
कुछ वर्ष पहले ऑर्गेनिक फूड यानी जैविक खाद्य पदार्थों की खूबियों से लोग वाकिफ नहीं थे। अमूमन यह विदेशियों की पसंद हुआ करता था, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। अब भारतीय बाजार न सिर्फ ऑर्गेनिक उत्पादों से अटे पड़े हैंं, बल्कि देश के कई राज्यों में जैविक खेती भी की जा रही है। जैविक खेती पैदावार, बचत और स्वास्थ्य के लिहाज से भी किसानों के लिए फायदेमंद है। लिहाजा, किसान जैविक खेती की ओर तेजी से रुख कर रहे हैं। इससे न सिर्फ कृषि पैदावार बढ़ती है, बल्कि खाद्यान्नों की गुणवत्ता में भी बेतहाशा इजाफा होता है।
जैविक खेती करने वाले किसानों की फसलों को अन्य फसलों की तुलना में कीमतें भी ज्यादा मिलती हैं, जिससे किसानों की आर्थिक समृद्धि भी बढ़ती है। एक अध्ययन के मुताबिक 2012 तक भारत में 10.70 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि पर ऑर्गेनिक खेती हो रही थी, जो भारत के कुल 15.1 करोड़ हेक्टेयर कृषि क्षेत्र का महज 0.71 प्रतिशत है। वैसे यह आंकड़ा 2016 तक 25 लाख हेक्टेयर तक पहुंचने की उम्मीद है, क्योंकि भारत में ऑर्गेनिक उत्पादों का कारोबार हर साल दोगुने रफ्तार से बढ़ रहा है। 2012 में भारत से 4500 करोड़ रुपए का जैविक खाद्यान्नों का निर्यात किया गया था। 2016 तक यह कारोबार छह हजार करोड़ का हो सकता है।
भारत वैश्विक स्तर पर जैविक उत्पादों का निर्यातक बन सके, इसके लिए किसानों और उपभोक्ताओं को जागरूक करना बेहद जरूरी है। देश में खाद्य पदार्थों की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं और ऐसी सूरत में भी हर साल करीब साठ हजार करोड़ रुपए के खाद्यान्न की बर्बादी हो रही है। जैविक खेती के जरिए इस खाद्यान्न की बर्बादी को रोका जा सकता है, क्योंकि जैविक उत्पाद लंबे समय तक खराब नहीं होते। जैविक खेती के माध्यम से सूखे जैसी स्थितियों से भी निपटा जा सकता है, क्योंकि जैविक खेती में फसलों की सिंचाई के लिए पानी की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती।
पर्यावरण से जुड़े मसलों पर काम करने वाली एक गैरसरकरी संस्था ग्रीनपीस इंडिया ने अपने हाल के शोध में पाया है कि भारत में जितनी भी महत्वपूर्ण ब्रांडेड कंपनियां चाय का उत्पादन करती हैं, उनमें से अधिकांश चाय में रासायनिक कीटनाशक मिलाती हैं। इस शोध के मुताबिक आधे से अधिक चाय के मनूनों में वैसे कीटनाशक तत्व मौजूद हैं, जिसके इस्तेमाल की अनुमति चाय उत्पादकों को नहीं है।
चाय उत्पादन में भारत दूसरे स्थान पर है, जबकि यह विश्व का चौथा सबसे बड़ा चाय निर्यातक देश है। भारत हर साल तकरीबन 40.7 अरब अमेरिकी डॉलर का कारोबार करता है। देश में मौजूद दो मशहूर ब्रांड-हिंदुस्तान यूनीलीवर लिमिटेड, जो बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनीलीवर का हिस्सा है और दूसरा टाटा ग्लोबल बेवरेजेज लिमिटेड का बाजार के आधे हिस्से पर कब्जा है।
इस शोध में देश में उत्पन्न और तैयार की जाने वाली 49 ब्रांड की चाय के नमूने का इस्तेमाल किया गया। इसे पिछले साल जून 2013 से मई 2014 के बीच दिल्ली, कोलकाता, बंगलुरु और मुंबई के दुकानों से खरीदा गया और उसे एक स्वतंत्र प्रयोगशाला में जांच करने के लिए कहा गया। इन नमूनों में देश में सबसे अधिक बिकने वाली आठ ब्रांड के चाय को शामिल किया गया था।
जो महत्त्वपूर्ण ब्रांड की चाय जांच के लिए भेजी गई वे थीं- हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड, टाटा ग्लोबल बेवरेज लिमिटेड, बाघ बकरी चाय, गुडरिक चाय, ट्वाइनिंग्स, गोल्डन टिप्स, खो चाय और गिरनार। इन चायों में चौंतीस प्रकार के कीटनाशक मिले। उनसठ फीसद चाय में दस से अधिक प्रकार के कीटनाशकों के अवशेष मिले, जबकि एक में तो बीस तरह के कीटनाशक थे। इसी तरह उनसठ फीसद चाय में यूरोपियन यूनियन द्वारा निर्धारित मापदंड से एक अधिक कीटनाशक मिले, जबकि सैंतीस फीसद चाय में यह पचास फीसद से अधिक था।
कीटनाशकों के प्रयोग को लेकर आपसी हित के टकराव इतने ज्यादा हैं कि उसके लिए बनाए गए कायदे-कानूनों को लागू करना बहुत मुश्किल हो जाता है। हालांकि शोध के जितने तरह के नमूने लिए गए थे, उनमें पाया गया कि जिन चौंतीस कीटनाशकों का इस्तेमाल चाय की खेती में किया जाता है, उसमें अड़सठ फीसद कीटनाशक इस काम के लिए पंजीकृत ही नहीं है। चाय की खेती के लिए ट्रियाजोफोस का इस्तेमाल प्रतिबंधित है, लेकिन यह कीटनाशक टाटा, हिंदुस्तान यूनीलीवर और बाघ बकरी द्वारा बनाई गई चाय ब्रांडों में पाए गए।
इस कीटनाशक को भी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अत्यंत खतरनाक सूची में रखा है। टेबुफेनप्रायट नामक कीटनाशक भारत में पंजीकृत भी नहीं है, इसलिए इसका इस्तेमाल गैरकानूनी है। लेकिन यह हिंदुस्तान यूनिलीवर के चाय के एक नमूने में पाया गया। टेबुफेनप्रायट एक जहरीला कीटनाशक है, जो लीवर के लिए हानिकारक होता है।
चाय के इन नमूनों में डीडीटी भी मिला है, जिसे भारत में 1989 से खेती-बाड़ी में इस्तेमाल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था। इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी खतरनाक कीटनाशक के रूप में चिह्नित कर रखा है। इसी तरह के कीटनाशक में साइपरमेथरिन को भी रखा गया है, जिससे सांस की बीमारी होती है। इसके अलावा निओनिकोटिन और इमीडेक्लोप्रिड नामक कीटनाशक भी साठ फीसद से अधिक चाय में पाई गई। इससे पशुओं की प्रजनन क्षमता पर असर पड़ता है।
शोध से इस बात का संकेत मिलता है कि चाय उत्पादन में आज भी बहुतायत मात्रा में कीटनाशक का इस्तेमाल हो रहा है, जिससे मानवीय स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ता है। भारत इससे पहले भी कीटनाशक का इस्तेमाल किए बगैर सफलतापूर्वक कृषि आंदोलन का साक्षी रहा है, जिसकी शुरुआत संयुक्त आंध्र प्रदेश में हुई थी। अगर इस मामले में सरकार पूरी ईमानदारी और इच्छाशक्ति से काम करे, तो इसे पूरे देश में भी लागू किया जा सकता है।
ईमेल : arsinghiimc@gmail.com
आज अनाज से लेकर दूध, दही, घी, पनीर और फल वगैरह में भी मिलावट हो रही है। शाकाहार हो या मांसाहार, ऐसा कोई भोज्य पदार्थ नहीं है, जो जहरीले कीटनाशकों और मिलावटों से मुक्त हो। बाजार में उपलब्ध पपीता, आम और केला जैसे फलों को कैल्शियम कार्बाईड की मदद से पकाया जाता है। चिकित्सकों के अनुसार यह स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक है। फलों को चमकाने के लिए पैराफीन वैक्स भी लगाया जाता है। पैराफीन वैक्स युक्त फलों को खाने से त्वचा कैंसर और डायरिया जैसी बीमारियां होती है। डेयरी और कृषि उत्पादों-विशेषकर सब्जियों में ऑक्सिटोसिन का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। भारत में हरित क्रांति का मुख्य उद्देश्य देश को खाद्यान्न मामले में आत्मनिर्भर बनाना था, लेकिन इस बात की आशंका किसी को नहीं थी कि रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल न सिर्फ खेतों में, बल्कि खेतों से बाहर मंडियों तक में होने लगेगा।
विशेषज्ञों के मुताबिक रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग खाद्यान्न की गुणवत्ता के लिए सही नहीं है। लेकिन जिस रफ्तार से देश की आबादी बढ़ रही है, उसके मद्देनजर फसलों की अधिक पैदावार जरूरी था।
समस्या सिर्फ रासायनिक खादों के प्रयोग का ही नहीं है। देश के ज्यादातर किसान परंपरागत कृषि से दूर होते जा रहे हैं। दो दशक पहले तक हर किसानों के यहां गाय, बैल और भैंस खूंटों से बंधे मिलते थे। अब इन मवेशियों की जगह ट्रैक्टर-ट्राली ने ले ली है। नतीजतन गोबर और घूरे की राख से बनी कंपोस्ट खाद खेतों में गिरनी बंद हो गई।
पहले चैत-बैसाख में गेहूं की फसल कटने के बाद किसान अपने खेतों में गोबर, राख और पत्तों से बने जैविक खाद डालते थे। इससे न सिर्फ खेतों की उर्वरा शक्ति बरकरार रहती थी, बल्कि इससे किसानों को आर्थिक लाभ के अलावा बेहतर गुणवत्ता वाली फसल मिलती थी।
एक साजिश के तहत कीटनाशक निर्माता कंपनियों के एजेंटों ने गांवों में किसानों के बीच यह दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया कि गोबर की खाद डालने से फसलों पर कीटों का प्रकोप बढ़ जाता है। दरअसल, बहुराष्ट्रीय बीज और कीटनाशक कंपनियों ने किसानों के बीच यह भ्रामक प्रचार इसलिए किया, जिससे उनके महंगे उत्पादों की बिक्री बढ़े।
आज खतरा सिर्फ रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से ही नहीं है, बल्कि खाद्य पदार्थों में जिस तरह मिलावटखोरी का धंधा फल-फूल रहा है, वह मानवीय स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा बन गया है। टमाटर, गोभी और मूली, पालक जैसी सब्जियां पहले जाड़े के मौसम में ही बिकती थीं, लेकिन अब ये तमाम सब्जियां बारहों महीने मंडियों में दिखाई देती हैं।
शहरों में इसकी मांग अधिक है, क्योंकि अब लोगों के खान-पान की शैली में भी काफी बदलाव आ चुका है। नई आर्थिक नीतियों के बाद देश शहरीकरण का काफी विस्तार हुआ है। शहरों में आमदनी बढ़ने का असर लोगों के खान-पान पर भी हुआ है। लिहाजा बेमौसम सब्जियां और फल खाने की लालसा ने अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया है। बेमौसमी सब्जियों को उगाने में उर्वरक और कीटनाशक ज्यादा लगता है।
आज अनाज से लेकर दूध, दही, घी, पनीर और फल वगैरह में भी मिलावट हो रही है। शाकाहार हो या मांसाहार, ऐसा कोई भोज्य पदार्थ नहीं है, जो जहरीले कीटनाशकों और मिलावटों से मुक्त हो। बाजार में उपलब्ध पपीता, आम और केला जैसे फलों को कैल्शियम कार्बाईड की मदद से पकाया जाता है। चिकित्सकों के अनुसार यह स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक है।
फलों को चमकाने के लिए पैराफीन वैक्स भी लगाया जाता है। पैराफीन वैक्स युक्त फलों को खाने से त्वचा कैंसर और डायरिया जैसी बीमारियां होती है। डेयरी और कृषि उत्पादों-विशेषकर सब्जियों में ऑक्सिटोसिन का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। इस दवा का गलत इस्तेमाल न हो, इस बाबत सरकार ने इसकी बिक्री सीमित करने का फैसला किया है। इसके बावजूद देश भर में ऑक्सिटोसिन का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। मिलावट रोकने के लिए देश में खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम 1954 और प्रिवेंशन ऑफ फूड एडल्टरेशन एक्ट 1955 बनाया गया है। वैसे इस कानून को और अधिक प्रभावशाली बनाने की जरूरत है।
त्योहारों के मौसम में देश के अलग-अलग हिस्सों में हर साल कई क्विंटल नकली मावा जब्त किया जाता है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने पिछले दिनों देश में कृत्रिम और मिलावटी दूध के बड़े कारोबार का भंडाफोड़ किया था। प्राधिकरण ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश में 68.5 फीसद दूध मिलावटी है।
बाजार में मिर्च पाउडर, जिसका लाल चटख रंग देखकर ग्राहक आकर्षित होते हैं, लेकिन इस सच्चाई को जाने बगैर कि इसमें रंग, धान की भूसी और ईंट के चूर्ण मिलाए जाते हैं। ऐसे मिलावटी मिर्च के नियमित सेवन से लीवर, किडनी और तिल्ली प्रभावित होती है। उसी प्रकार आटे में भी सड़े हुए गेहूं और खली की मिलावट की जाती है। चना और अरहर की दालों में बड़े पैमाने पर देसी मटर, खेसारी और बकुले की मिलावट की जाती है।
ग्राहकों को इस मिलावट का पता न लगे, इसलिए दाल मिलों में इसे पॉलिश किया जाता है। खेसारी दाल में एक खास प्रकार का रसायन होता है, जिसके सेवन से गठिया और स्नायु तंत्र से जुड़ी बीमारियां होती हैं। खाद्य पदार्थों में मिलावट की समस्या पर काबू तभी संभव है, जब मिलावटखोरों के खिलाफ दायर मुकदमें का फैसला जिला और सत्र न्यायालयों से लेकर उच्च न्यायालय तक प्राथमिकता के आधार पर एक वर्ष में तय कर दिए जाएं।
उपभोक्ता अधिकारों से जुड़ी स्वंयसेवी संस्थाओं की राय है कि मिलावट के धंधे में शामिल आरोपियों को मामले की जांच परी होने से पहले जमानत नहीं मिलनी चाहिए। आमतौर पर देखा गया है कि जमानत मिलने के बाद आरोपी साक्ष्य और सबूतों को प्रभावित करने का काम करते हैं।
भारत में होने वाली अकाल मौतों का एक बड़ा कारण नकली और जहरीली शराब भी है। देश के अलग-अलग राज्यों में हर साल सैकड़ों लोग मिलावटी शराब पीने से मरते हैं। साइंस पत्रिका ‘लांसेट’ के मुताबिक भारत में उत्पादित कुल शराब का दो तिहाई हिस्सा अवैध तरीके से बनाया जाता है। मिलावट के इस दौर में लोगों को शुद्ध मछली और मांस भी उपलब्ध नहीं है।
मिलावटी मांस और मछली सस्ता होने की वजह से ढाबों और रेस्तराओं में इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। देश के सभी छोटे और बड़े शहरों में बकरे के मांस में बूढ़ी और बीमार बकरियों के मांस की मिलावट की जाती है। नगर निगमों और नगर पालिकाओं की ओर से खाद्य निरीक्षकों द्वारा मांस की गुणवत्ता की जांच की जानी चाहिए, लेकिन अधिकांश जगहों पर खाद्य निरीक्षकों को रिश्वत देकर बीमार जानवरों को धड़ल्ले से काटा जा रहा है। हाल की कुछ रिपोर्टों में मुर्गियों को एंटीबायोटिक खिला कर तेजी से बड़ा और वजनदार बनाने की जानकारी आई है।
उपभोक्ता दूषित और मिलावटी गोश्त खरीदने पर विवश है। मछलियों का किस्सा भी कुछ इसी प्रकार है। दिल्ली समेत कई शहरों में दस-पंद्रह दिनों पुरानी मछलियों को बर्फ में रखा जाता है। मछलियों को ताजा दिखाने के लिए उन पर जहरीले रसायन की परत चढ़ाई जाती है। कई दुकानदार पानी से भरे हौदे में मांगुर, सिंघी, कवई, रोहू, गैंची वगैरह जिंदा मछलियां रखते हैं।
दरअसल, इन मछलियों को समय से पहले तैयार करने और वजनी बनाने के लिए कई प्रतिबंधित दवाओं और प्रोटीनों का इस्तेमाल किया जाता है। जानकारी के अभाव में ग्राहक अक्सर ऐसी मछलियां खरीद लेते हैं, लेकिन इसके नियमित सेवन से कैंसर समेत कई गंभीर बीमारियां हो सकती हैं।
कुछ वर्ष पहले ऑर्गेनिक फूड यानी जैविक खाद्य पदार्थों की खूबियों से लोग वाकिफ नहीं थे। अमूमन यह विदेशियों की पसंद हुआ करता था, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। अब भारतीय बाजार न सिर्फ ऑर्गेनिक उत्पादों से अटे पड़े हैंं, बल्कि देश के कई राज्यों में जैविक खेती भी की जा रही है। जैविक खेती पैदावार, बचत और स्वास्थ्य के लिहाज से भी किसानों के लिए फायदेमंद है। लिहाजा, किसान जैविक खेती की ओर तेजी से रुख कर रहे हैं। इससे न सिर्फ कृषि पैदावार बढ़ती है, बल्कि खाद्यान्नों की गुणवत्ता में भी बेतहाशा इजाफा होता है।
जैविक खेती करने वाले किसानों की फसलों को अन्य फसलों की तुलना में कीमतें भी ज्यादा मिलती हैं, जिससे किसानों की आर्थिक समृद्धि भी बढ़ती है। एक अध्ययन के मुताबिक 2012 तक भारत में 10.70 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि पर ऑर्गेनिक खेती हो रही थी, जो भारत के कुल 15.1 करोड़ हेक्टेयर कृषि क्षेत्र का महज 0.71 प्रतिशत है। वैसे यह आंकड़ा 2016 तक 25 लाख हेक्टेयर तक पहुंचने की उम्मीद है, क्योंकि भारत में ऑर्गेनिक उत्पादों का कारोबार हर साल दोगुने रफ्तार से बढ़ रहा है। 2012 में भारत से 4500 करोड़ रुपए का जैविक खाद्यान्नों का निर्यात किया गया था। 2016 तक यह कारोबार छह हजार करोड़ का हो सकता है।
भारत वैश्विक स्तर पर जैविक उत्पादों का निर्यातक बन सके, इसके लिए किसानों और उपभोक्ताओं को जागरूक करना बेहद जरूरी है। देश में खाद्य पदार्थों की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं और ऐसी सूरत में भी हर साल करीब साठ हजार करोड़ रुपए के खाद्यान्न की बर्बादी हो रही है। जैविक खेती के जरिए इस खाद्यान्न की बर्बादी को रोका जा सकता है, क्योंकि जैविक उत्पाद लंबे समय तक खराब नहीं होते। जैविक खेती के माध्यम से सूखे जैसी स्थितियों से भी निपटा जा सकता है, क्योंकि जैविक खेती में फसलों की सिंचाई के लिए पानी की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती।
चाय भी चपेट में
पर्यावरण से जुड़े मसलों पर काम करने वाली एक गैरसरकरी संस्था ग्रीनपीस इंडिया ने अपने हाल के शोध में पाया है कि भारत में जितनी भी महत्वपूर्ण ब्रांडेड कंपनियां चाय का उत्पादन करती हैं, उनमें से अधिकांश चाय में रासायनिक कीटनाशक मिलाती हैं। इस शोध के मुताबिक आधे से अधिक चाय के मनूनों में वैसे कीटनाशक तत्व मौजूद हैं, जिसके इस्तेमाल की अनुमति चाय उत्पादकों को नहीं है।
चाय उत्पादन में भारत दूसरे स्थान पर है, जबकि यह विश्व का चौथा सबसे बड़ा चाय निर्यातक देश है। भारत हर साल तकरीबन 40.7 अरब अमेरिकी डॉलर का कारोबार करता है। देश में मौजूद दो मशहूर ब्रांड-हिंदुस्तान यूनीलीवर लिमिटेड, जो बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनीलीवर का हिस्सा है और दूसरा टाटा ग्लोबल बेवरेजेज लिमिटेड का बाजार के आधे हिस्से पर कब्जा है।
इस शोध में देश में उत्पन्न और तैयार की जाने वाली 49 ब्रांड की चाय के नमूने का इस्तेमाल किया गया। इसे पिछले साल जून 2013 से मई 2014 के बीच दिल्ली, कोलकाता, बंगलुरु और मुंबई के दुकानों से खरीदा गया और उसे एक स्वतंत्र प्रयोगशाला में जांच करने के लिए कहा गया। इन नमूनों में देश में सबसे अधिक बिकने वाली आठ ब्रांड के चाय को शामिल किया गया था।
जो महत्त्वपूर्ण ब्रांड की चाय जांच के लिए भेजी गई वे थीं- हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड, टाटा ग्लोबल बेवरेज लिमिटेड, बाघ बकरी चाय, गुडरिक चाय, ट्वाइनिंग्स, गोल्डन टिप्स, खो चाय और गिरनार। इन चायों में चौंतीस प्रकार के कीटनाशक मिले। उनसठ फीसद चाय में दस से अधिक प्रकार के कीटनाशकों के अवशेष मिले, जबकि एक में तो बीस तरह के कीटनाशक थे। इसी तरह उनसठ फीसद चाय में यूरोपियन यूनियन द्वारा निर्धारित मापदंड से एक अधिक कीटनाशक मिले, जबकि सैंतीस फीसद चाय में यह पचास फीसद से अधिक था।
कीटनाशकों के प्रयोग को लेकर आपसी हित के टकराव इतने ज्यादा हैं कि उसके लिए बनाए गए कायदे-कानूनों को लागू करना बहुत मुश्किल हो जाता है। हालांकि शोध के जितने तरह के नमूने लिए गए थे, उनमें पाया गया कि जिन चौंतीस कीटनाशकों का इस्तेमाल चाय की खेती में किया जाता है, उसमें अड़सठ फीसद कीटनाशक इस काम के लिए पंजीकृत ही नहीं है। चाय की खेती के लिए ट्रियाजोफोस का इस्तेमाल प्रतिबंधित है, लेकिन यह कीटनाशक टाटा, हिंदुस्तान यूनीलीवर और बाघ बकरी द्वारा बनाई गई चाय ब्रांडों में पाए गए।
इस कीटनाशक को भी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अत्यंत खतरनाक सूची में रखा है। टेबुफेनप्रायट नामक कीटनाशक भारत में पंजीकृत भी नहीं है, इसलिए इसका इस्तेमाल गैरकानूनी है। लेकिन यह हिंदुस्तान यूनिलीवर के चाय के एक नमूने में पाया गया। टेबुफेनप्रायट एक जहरीला कीटनाशक है, जो लीवर के लिए हानिकारक होता है।
चाय के इन नमूनों में डीडीटी भी मिला है, जिसे भारत में 1989 से खेती-बाड़ी में इस्तेमाल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था। इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी खतरनाक कीटनाशक के रूप में चिह्नित कर रखा है। इसी तरह के कीटनाशक में साइपरमेथरिन को भी रखा गया है, जिससे सांस की बीमारी होती है। इसके अलावा निओनिकोटिन और इमीडेक्लोप्रिड नामक कीटनाशक भी साठ फीसद से अधिक चाय में पाई गई। इससे पशुओं की प्रजनन क्षमता पर असर पड़ता है।
शोध से इस बात का संकेत मिलता है कि चाय उत्पादन में आज भी बहुतायत मात्रा में कीटनाशक का इस्तेमाल हो रहा है, जिससे मानवीय स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ता है। भारत इससे पहले भी कीटनाशक का इस्तेमाल किए बगैर सफलतापूर्वक कृषि आंदोलन का साक्षी रहा है, जिसकी शुरुआत संयुक्त आंध्र प्रदेश में हुई थी। अगर इस मामले में सरकार पूरी ईमानदारी और इच्छाशक्ति से काम करे, तो इसे पूरे देश में भी लागू किया जा सकता है।
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