पूर्वोत्तर पहाड़ी क्षेत्र


पूर्वोत्तर पहाड़ियों का विस्तार छह राज्यों में है। ये राज्य हैं- असम, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय। ये पहाड़ियाँ बांग्लादेश और उत्तरी म्यांमार तक चली जाती हैं और ब्रह्मपुत्र घाटी की दक्षिणी ढलान और बराक घाटी की उत्तरी-पूर्वी और दक्षिणी ढलान को छूती हैं। मेघालय पठार पूरे मेघालय और असम के कार्बी पहाड़ों तक फैला है।1

इस क्षेत्र की जलवायु और बरसात में काफी भिन्नताएँ हैं। पहाड़ियों और पठारों से घिरे इस क्षेत्र में तापमान से ज्यादा विविधता बरसात के मामले में है। चेरापूँजी मावसीनराम क्षेत्र में सालाना औसत वर्षा 13,390 मिमी तक हो जाती है। लेकिन मेघालय पठार जैसे वर्षा से वंचित इलाके में सिंचाई के बिना काम नहीं चलता। ब्रह्मपुत्र घाटी की उत्तरी ढलानों पर सालाना औसत वर्षा 2,500 मिमी तक होती है, वहीं घाटी के दक्षिणी इलाकों और मेघालय के उत्तरी हिस्सों में सालाना 2,000 मिमी वर्षा ही होती है।

बूंदों की संस्कृतिपूर्वोत्तर में आबादी का वितरण भी अत्यन्त असमान है। मैदानों में घनी आबादी वाले कुछ इलाके हैं- जैसे मणिपुर के मैदानी इलाके में प्रति वर्ग किलोमीटर चार सौ लोग बसते हैं और नौगाँव के मैदानी क्षेत्र में प्रति वर्ग किलोमीटर 302 लोगों की आबादी है। वहीं विस्तृत पर्वतीय इलाकों में आबादी का घनत्व बेहद कम है।जल संसाधनों के मामले में यह क्षेत्र पूरे देश में अव्वल है। भारी वर्षा के कारण भूजल भी बेशुमार है। लेकिन इस क्षेत्र में भूजल की सम्भावनाओं का पता लगाने के लिये बहुत थोड़े से इलाके में अध्ययन हुआ है। इस जल के विकास की सर्वाधिक सम्भावनाएँ असम, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश में हैं। इस क्षेत्र की जटिल भूसंरचना के कारण सतह पर उपलब्ध पानी का बहुत कम ही दोहन हो पाया है। नतीजतन, इस क्षेत्र में खेती मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर है और झूम खेती का व्यापक चलन है।2

इसके बावजूद खेती के लिये वर्षा के पानी के संग्रह की कुछ देसी प्रणालियों के बारे में थोड़ी-बहुत लिखित सामग्री उपलब्ध है। नागालैंड के कुछ इलाकों और मेघालय के चंद गाँवों में सीढ़ीदार खेतों में सिंचाई का चलन है। इन खेतों में सिंचाई करने के लिये खुदाई करके नालियाँ बनाई गई हैं। दूसरी मुख्य देसी सिंचाई प्रणाली का प्रयोग मेघालय के कुछ हिस्सों और नागालैंड के माकोकचुंग जिले के कुछ गाँवों में होता है। इसके लिये बाँसों का प्रयोग होता है।

भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद इन देसी प्रणालियों की भूमि और जल प्रबन्ध की तकनीक मानती है। लेकिन इसकी रिपोर्ट में भूमि प्रबन्ध को ज्यादा अहमियत दी गई है। परिषद की पत्रिका ‘इण्डियन फार्मिंग’ के एक लेख में बताया गया है :

“संरक्षण आधारित भूप्रबन्ध की प्रणालियों को जल संचय के लक्ष्य के लिये उपयुक्त और सुरक्षित पाया गया है। भूसंरक्षण की सरल प्रणालियाँ, जैसे सीढ़ीदार खेत, घुमावदार मेंड़ आदि को अगर सही तरीके से इस्तेमाल किया जाये तो प्रति साल प्रति हेक्टेयर दो से तीन टन मिट्टी को बह जाने से रोका जा सकता है। इतना ही नहीं, भू और जल संसाधनों के समग्र विकास के लिये मिट्टी से बने बाँधों का इस्तेमाल कर होने वाले जल संग्रह की काफी सम्भावनाएँ हैं।”3

परिषद के एक अन्य शोधपत्र में कहा गया है कि ये देसी प्रणालियाँ न सिर्फ संसाधनों के रख-रखाव के लिये असरदार हैं, बल्कि इनसे पैदावार भी अच्छी होती है।”4

सिंचाई के अलावा प्राकृतिक झरनों का इस्तेमाल पेयजल के लिये भी किया जाता है। इन झरनों के पानी को या तो बाँस की बनी नालियों के माध्यम से दूरदराज तक ले जाया जाता है या फिर स्रोत पर ही उन्हें इकट्ठा कर लिया जाता है। हाल के दिनों में शुरू किया गया जल संचय का एक अन्य प्रयोग छतों में जल संग्रह है। इसकी जड़ें औपनिवेशिक दौर में तलाशी जा सकती हैं।

1. नागालैंड


नागालैंड असम, म्यांमार, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर से घिरा है। दक्षिण पश्चिम में दीमापुर के मैदानी क्षेत्र के अलावा आमतौर पर नागालैंड पर्वतीय राज्य है। राज्य बनाए जाने से पहले नागालैंड असम के पर्वतीय जिलों का एक अंग था। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 164 मीटर से लेकर 3,048 मीटर तक है। राज्य को तीन भौगोलिक हिस्सों में बाँटा जा सकता है- निचली पश्चिमी पहाड़ियाँ, मध्यवर्ती हिस्से का पर्वतीय क्षेत्र और पूर्वी हिस्से में ऊँचे पहाड़ों वाला क्षेत्र। नागालैंड की सभी नदियाँ ब्रह्मपुत्र में मिलती हैं। टिजू नदी इसका एकमात्र अपवाद है जो म्यांमार में चली जाती है।

नागालैंड में पहाड़ियों और गहरी घाटियों की भरमार है और घने हरे-भरे जंगल हैं। 1,500 मीटर तक की ऊँचाई वाले ढलानों पर किसी-न-किसी समय जंगल काटकर खेती की जा चुकी है। राज्य के दक्षिणी पश्चिमी इलाके में लोगों ने जंगल काटकर सीढ़ीदार धनखेत बना दिये हैं। इस वजह से वहाँ काफी कम जंगल रह गए हैं।

नागालैंड की मुख्य फसल धान है। इसके अलावा मक्का, दाल और अन्य मोटे अनाज भी उगाए जाते हैं। उत्तरी जिले मोन में कयालू और शकरकंद की भी खेती की जाती है। दक्षिण में अंगामी और कोहिमी जिले के दीमापुर इलाकों को छोड़कर नागालैंड में आमतौर पर साल में एक ही फसल ली जाती है।

बूंदों की संस्कृतिनागालैंड की लगभग सारी आबादी जनजातीय है और हर उपजाति की अपनी खास भाषा और संस्कृति है। यह इस देश की सबसे विरल आबादी वाले राज्यों में है। राज्य की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से खेती पर निर्भर है और आबादी का वितरण मुख्य रूप से जमीन की उर्वरा क्षमता के अनुरूप है। राज्य के तीखी ढलानों वाले पर्वतीय इलाकों में खेती करना काफी मुश्किल है। झूम खेती का व्यापक चलन है। वैसे नागालैंड के दक्षिणी जिलों में किसान सीढ़ीदार खेतों में धान उगाते हैं। इस क्षेत्र में कुल कृषि भूमि के सिर्फ 20 फीसदी हिस्से में झूम खेती की जाती है, वहीं तुएनसांग और मोकोकचुंग जिले में 70 से 80 फीसदी जमीन पर झूम खेती होती है।

जमीन का वितरण और खेती की प्रणालियाँ आपस में जुड़ी हुई हैं। भूमि के वितरण के मुख्य रूप से चार प्रकार हैं : निजी भूमि, जो मुख्य रूप से सीढ़ीदार धनखेत हैं; निजी मालिकाने वाली वन भूमि जहाँ से जलावन के लिये लकड़ियाँ मिलती हैं; कबीला की जमीन; और खेल भूमि, जिस पर कबीले का ही स्वामित्व होता है। कुछ एक जगहों पर, जहाँ गाँव काफी छोटे हैं, सारी जमीन पर पूरे गाँव का मालिकाना होता है।

नागालैंड सरकार की एक रिपोर्ट में बताया गया है :

“भूस्वामित्व और इसके इस्तेमाल का अधिकार का निर्धारण परम्परा से होता है। ये परम्पराएँ लिखित नहीं हैं, इसके बावजूद इन पर काफी प्रभावी तरीके से अमल किया जाता है। विवाद होने की स्थिति में गाँव की परम्परागत पंचायत हस्तक्षेप करती है और इन परम्पराओं की व्याख्या करती है। हालांकि सारी जनजातीय आबादी नगा नाम का इस्तेमाल करती है, लेकिन कई ऐसी जनजातियाँ हैं जहाँ भूसम्पदा के स्वामित्व और उत्तराधिकार को लेकर अलग-अलग परम्पराएँ और रीतियाँ हैं। इन विविधताओं के बावजूद एक व्यवस्था नजर आती है।

सेमा और कोन्याक इलाके को छोड़कर भूमि पर या तो ग्राम समुदाय का या गाँव के किसी कबीले का या फिर व्यक्ति का स्वामित्व होता है। भूमि पर स्वामित्व का कोई रिकॉर्ड तो नहीं होता है लेकिन आमतौर पर यह परम्पराओं और रीति-रिवाजों से तय होता है। जिन इलाकों में सीढ़ीदार खेती होती है वहाँ व्यक्तिगत मालिकाने का चलन बढ़ रहा है। नागालैंड में बटाईदार खेती का आमतौर पर चलन नहीं है।

अंगामी और चखेसांग जनजाति में व्यक्तिगत स्वामित्व का चलन है। इन जनजातियों में हर व्यक्ति के पास भूमि होती है और उस पर उनका पूरा अधिकार होता है। यह अधिकार स्थायी होता है और इन अधिकारों का हस्तान्तरण भी होता है। कुछ मामलों में सम्पदा पर किसी कबीले का साझा अधिकार होता है। ऐसे मामलों में कबीले के बड़े बुजुर्ग यह तय करते हैं कि जमीन पर खेती कौन करेगा और जमीन आमतौर पर कबीले के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति या फिर सबसे गरीब को दे दी जाती है।

अओ और लोथा जनजातियों में जमीन के स्वामित्व की अलग तरह की प्रणाली है। इन जनजातियों में आमतौर पर जमीन पर ग्राम समुदाय का अधिकार होता है। कहीं-कहीं तो कृषि योग्य भूमि पर कबीले या व्यक्तियों का अधिकार होता है, लेकिन वन भूमि का स्वामित्व पूरे गाँव का होता है।”
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सीढ़ीदार धनखेतों पर व्यक्तिगत स्वामित्व होता है। ऐसी हालत में नगा गाँव में भूमि के सम्बन्ध में व्यक्तिगत हितों और पानी से सम्बन्धित सामुदायिक हितों के बीच तालमेल कैसे होता है? सीढ़ीदार खेतों में पानी के मुख्य स्रोत झरने, नदियाँ तथा प्राकृतिक सोते हैं। कुछेक मामलों में तालाबों से भी सिंचाई होती है, जहाँ वर्षा के पानी को इकट्ठा करके रखा जाता है। पानी का पहला स्रोत सामुदायिक सम्पत्ति है, वहीं दूसरा स्रोत कमोबेश निजी सम्पत्ति है और आखिरी स्रोत निजी या सामुदायिक दोनों ही हो सकता है।

नागालैंड के उन हिस्सों में, जहाँ सीढ़ीदार खेती होती है, झरनों या जलप्रपात के जल को पास के सीढ़ीदार खेतों तक ले जाया जाता है। कई बार तो सड़क किनारे बने नालों के पानी का भी इस तरह इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे भी मामले देखे गए हैं जब पानी को पहाड़ी के किनारे-किनारे कई-कई किलोमीटर तक ले जाया जाता है। सीढ़ीदार खेतों की मेंड़ बनाने के लिये पत्थरों का इस्तेमाल किया जाता है। मिट्टी की प्रकृति के अनुसार खेतों का आकार और मेंड़ की ऊँचाई तय होती है। मामूली ढलान पर खेत बड़े होते हैं। वहीं तीखी ढलानों पर उनका आकार छोटा होता है। पानी जमा करने के लिये 20 से 30 सेंटीमीटर चौड़े और उतनी ही ऊँचाई के चौड़े-संकरे बाँध बनाकर खेतों को कई टुकड़ों में बाँट दिया जाता है।8 नगा गाँव में मई, जून और जुलाई के महीनों के खास दिनों में गाँव का सरदार एक चट्टान के ऊपर खड़ा होता है और गाँव वालों से गेन्ना नाम का एक धार्मिक नृत्य करने को कहता है और अच्छी वर्षा के लिये पूजा करता है। ऐसी भी घटनाएँ देखने में आई हैं जब कबीले का सरदार लोगों को परम्परागत जलस्रोतों की सफाई करने का आदेश देता है।

अंगामी प्रणाली


अंगामी, चखेसांग और जेलियांग जनजातियों में पानी पर परम्परागत स्वामित्व का कड़ाई से पालन किया जाता है। यह स्वामित्व व्यक्तियों, कबीलों या खेल या गाँवों के पास हो सकता है। कोहिमा जिले के अंगामी और फेक जिले के चखेसांग आधुनिक तरीके से सिंचाई करते है। अंगामियों की धान की खेती करने की प्रणाली सात सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है।7 कोहिमा जिले के गजेटियर में कहा गया है :

“अंगामी प्रणाली में सीढ़ीदार खेत बनाने का व्यापक बन्दोबस्त है। इस प्रणाली में सीढ़ीदार खेतों के आर-पार बाँध बनाए जाते हैं। ये सीढ़ीदार खेत कभी-कभी तो 1,380 मीटर तक की ऊँचाई पर पहाड़ियों को काटकर बनाए जाते हैं। विभिन्न ऊँचाइयों पर इन खेतों में पत्थर की दीवारें खड़ी की जाती हैं, जिससे मिट्टी का कटाव रुकता है और सिंचाई के जल का नियमित बँटवारा हो पाता है। सिंचाई के मुख्य स्रोत छोटी-छोटी नदियाँ हैं जहाँ से पानी ले जाने और खेतों की सिंचाई करने के लिये काफी लम्बी नालियाँ बनाई जाती हैं। ढलान पर बने सीढ़ीदार खेतों में सिंचाई के लिये बाँस की पाइपों का इस्तेमाल भी किया जाता है। धान की खेती में मई, जून से लेकर अगस्त महीने तक रोपनी के मौसम में खेतों में पानी खड़ा होना चाहिए। इस तरह के धनखेतों में मुख्य रूप से धान की जो किस्म उगाई जाती है उसका नाम साली है। झूम खेतों में आहू धान उगाया जाता है। रोपनी के मौसम में खेतों में पानी लबालब भर दिया जाता है।”8

हाल तक सीढ़ीदार खेतों में सिंचाई के लिये एक किलोमीटर लम्बी नाली बनाने पर चार हजार रुपए खर्च आता था। एक नाली की औसत लम्बाई 0.5 किलोमीटर होती है और सबसे लम्बी नाली त्वेनशांग जिले में है। सीढ़ीदार खेतों तक पानी ले जाने वाली नालियाँ एक मीटर या उससे कम चौड़ी और 50 से 75 सेंटीमीटर गहरी होती हैं। सीढ़ीदार खेतों में सबसे अच्छी फसल अंगामी क्षेत्र के फिलोजा खेतों में ली जाती है, जहाँ साल भर खेती का इन्तजाम है।

खोनोमा गाँव : कोहिमा जिले के खोनोमा गाँव में अंगामी लोग पर्वतीय ऊँचाइयों को आच्छादित किये वनों की देखभाल करते हैं। इसकी वजह से प्राकृतिक झरनों में पानी बना रहता है। चखेसांग जनजाति के लोगों को यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। लिहाजा, उन्होंने वर्षा के पानी को इकट्ठा करने की व्यापक प्रणाली विकसित की है।7

खोनोमा में पर्वतीय ढलानों पर तीन झरने हैं। खेतों का आकार छोटा-छोटा है और सीढ़ीदार खेतों के निर्माण के लिये पत्थर की दीवारें बनाई गई हैं। कई जगहों पर झरनों को आड़ा काटकर पास के खेतों में पानी पहुँचाया जाता है। एक खेत में पानी भरने के बाद पानी बहकर नीचे के खेतों में पहुँच जाता है। खेत में खास जगह पर मेंड़ को काट दिया जाता है, ताकि वहाँ से पानी बहकर नीचे पहुँच जाये। पूरी पर्वतीय ढलान पर पानी पहुँचाने का यह उम्दा इन्तजाम है। इस प्रणाली में कोई तब्दीली नहीं लाई जा सकती और सैकड़ों साल से यह ऐसी चली आ रही है।

जिस व्यक्ति का खेत पानी के स्रोत के सबसे पास है उस पर स्रोत की देखभाल की जिम्मेदारी होती है। लेकिन नहर के अन्त में जिस व्यक्ति का खेत होता है वही इस पूरी प्रणाली का स्वामी होता है। उसे सर्वाधिक पानी मिलता है और वह पानी के बहाव को नियंत्रित करता है। नहर के साफ करने की जिम्मेदारी उसकी ही है। पानी लेने का अधिकार हर किसी को है, लेकिन उसकी मात्रा तय कर दी गई है।7 इस बारे में सामग्री कम उपलब्ध है कि पानी का बँटवारा किस तरह होता है और क्या उसे लेकर कभी कोई झगड़ा भी होता है।

क्विगवेमा गाँव : कोहिमा से इम्फाल जाने वाली सड़क पर 15 किलोमीटर की दूरी पर अंगामी गाँव क्विगवेमा स्थित है। वहाँ तीन खेल हैं और गाँव के पानी का बजट इन तीनों के बीच बँटा हुआ है। इस गाँव के सीढ़ीदार खेतों में पानी का स्रोत एक झरना और कुछ प्राकृतिक सोते हैं। इस गाँव में सीढ़ीदार खेत काफी संकरे हैं और उनकी लम्बाई भी काफी कम है। वजह यह है कि पहाड़ की ढलान काफी तीखी है। खेतों की इस प्रकृति के कारण खेती-बाड़ी में मवेशियों का इस्तेमाल सम्भव नहीं है। सारे कामकाज किसानों को ही करने होते हैं।

इस गाँव से होकर मेजी नदी बहती है और सीढ़ीदार खेतों में सिंचाई के लिये उसे सात जगहों पर बाँधा गया है। नदी से पानी निकालने पर कोई पाबन्दी नहीं है। नदी का पानी एक लम्बी नहर से नीचे तक लाया जाता है। इस नहर से कई छोटी नहरें निकाली गई हैं। और जगहों पर बाँस की पाइपों से सीढ़ीदार खेतों तक पानी ले जाया जाता है।

एक नहर का नाम चेयोओजी ही है। ओजी का मतलब पानी होता है और चेयो उस व्यक्ति का नाम है जिसकी वजह से 8-10 किलोमीटर लम्बी इस नहर का निर्माण सम्भव हो पाया। इस नहर के कारण क्विगवेमा में कई सीढ़ीदार खेतों और पास के गाँव में भी सिंचाई होती है। इस नहर के पानी पर पड़ोसी गाँव का कोई अधिकार नहीं है। अगर नहर में पानी ज्यादा हो तभी वे लोग इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। मानसून से पूर्व के मौसम में ही पानी का अभाव होता है। बुआई के समय सिंचाई के पानी का इस्तेमाल नहीं किया जाता, इसलिये इस मौसम में पानी के अभाव का कोई खास मतलब नहीं होता। सिंचाई के मौसम में अगर किसी व्यक्ति को पर्याप्त पानी नहीं मिलता है तो वह उप-नहरों को बन्द करके अपने खेतों तक पानी ले आ सकता है। नहर की सफाई अप्रैल और मई महीनों में की जाती है और यह एक सामुदायिक काम है। पड़ोसी गाँव के लोग नहर के पानी का इस्तेमाल तो करते हैं, लेकिन वे नहर की सफाई में योगदान नहीं करते।

किक्रुमा के चखेसांग


किक्रुमा गाँव में सिंचाई के लिये जाबो नाम की प्रणाली इस्तेमाल में लाई जाती है। जाबो का मतलब पानी को तालाब में इकट्ठा करना है। यहाँ इस प्रणाली को रुजा भी कहते हैं। इण्डियन जनरल ऑफ हिल फार्मिंग के जनरल के मुताबिक, यह एक देसी प्रणाली है जिसमें “वन खेती और पशुपालन का मेल है। इसमें मिट्टी की कटाई पर नियंत्रण रखा जाता है और जल संसाधनों के विकास प्रबन्ध और पर्यावरण संरक्षण का ध्यान रखा जाता है।”

बूंदों की संस्कृतिबूंदों की संस्कृतिबूंदों की संस्कृतिकिक्रुमा एक चखेसांग गाँव है। यह नागालैंड के फेक जिले में फुटसेरो शहर से 13 किलोमीटर की दूरी पर 1,270 मीटर की ऊँचाई पर बसा है। फुटसेरो गाँव में तो सालाना औसत वर्षा 1,613 मिलीमीटर होती है, लेकिन इस गाँव में काफी कम वर्षा होती है। यह गाँव पहाड़ी की ऊँचाई पर एक समतल मैदान के रूप में है। इसके दक्षिण में सेद्जु नदी और उत्तर में खुजा नदी है। ये मौसमी नदियाँ हैं और इनके पानी का इस्तेमाल सीढ़ीदार खेतों में सिंचाई के लिये किया जाता है। यहाँ सीढ़ीदार खेती का प्रतिशत काफी कम है। कुल 915 हेक्टेयर कृषि भूमि में से 20 हेक्टेयर में पानी जमाकर धान की फसल ली जाती है, 26 हेक्टेयर में वर्षा के पानी से खेती होती है और 858 हेक्टेयर भूमि में झूम खेती होती है। सीढ़ीदार खेतों में स्थानीय झरनों, प्राकृतिक सोतों और तालाबों के पानी से सिंचाई की जाती है।

इस गाँव में खेत काफी ऊँचाई पर स्थित हैं, वर्षा बेहद कम होती है। पीने के पानी की आपूर्ति सबसे बड़ी समस्या है। इसलिये गाँव के लोग सिंचाई और पशुओं के पीने के पानी के लिये तालाब में पानी इकट्ठा करते हैं। इस तरह इकट्ठा किये गए पानी का इस्तेमाल लोग पीने के लिये भी यदा-कदा करते हैं।9 ये तालाब मार्च और अप्रैल में सूख जाते हैं और इस दौरान उनकी मरम्मत की जाती है। किक्रुमा गाँव के लोग पहाड़ों के जंगलों का संरक्षण करते हैं। उसके नीचे की ढलान पर तालाबों में पानी इकट्ठा करते हैं और पहाड़ों की तलहटी पर धान के खेतों में सिंचाई करते हैं। तलहटी पर ही चारागाह भी हैं।

जाबो प्रणाली के विभिन्न अंग इस प्रकार हैं :

1. वन भूमि : तालाबों के ऊपर 1.5 हेक्टेयर या उससे ज्यादा जल संग्रह क्षेत्र में पेड़-पौधे उगाए जाते हैं। यह क्षेत्र मानसून के दौरान जल संग्रह में योगदान करता है। जल संग्रह क्षेत्र को ढलान आमतौर पर काफी तीखी होती है।

बूंदों की संस्कृति2. जल संचय प्रणाली : जल संचय क्षेत्र के नीचे पानी जमा करने के लिये तालाब खोदे जाते हैं और मिट्टी का बाँध बनाया जाता है। तालाब का आकार आमतौर पर 24 मीटर लम्बा, 10 मीटर चौड़ा और दो मीटर गहरा होता है। कई जगहों पर छोटे-छोटे तालाब बनाए जाते हैं, ताकि मिट्टी बहकर बड़े तालाब को उथला न बना दे। इस पूरी प्रणाली में आमतौर पर 0.2 हेक्टेयर जमीन लगती है। वर्षा के साथ बहने वाली मिट्टी को थामने के लिये बनाए गए गड्ढों को साल में एक बार साफ किया जाता है। तालाब बनाते समय उसके तल्ले को पुख्ता बनाया जाता है, ताकि पानी के रिसाव को कम किया जा सके।

3. बाड़े : पशुओं को रखने के लिये बाँस या टहनियों की बाड़ बनाई जाती है। तालाब के नीचे बनी इस बाड़ की निगरानी किसानों का एक समूह बारी-बारी से करता है। स्थानीय किसानों के पास आमतौर पर भैंसें होती हैं और एक बाड़ में 20 से 30 भैंसे रखी जाती हैं। इस स्थान को वर्षा के पानी से धोया जाता है और यह पानी बहकर धान के खेतों में खाद के रूप में समा जाता है। जब तालाब का पानी उफनकर बाहर आता है तो बाड़ से होता हुआ आता है और प्राकृतिक खाद नीचे खेतों तक पहुँच जाती है।

4. कृषि भूमि : तालाबों के नीचे धान के सीढ़ीदार खेत होते हैं। इन खेतों का आकार 0.2 से 0.5 हेक्टेयर तक होता है। धान के खेतों में खाद के लिये आमतौर पर भिदुर और मेखुनू के पत्तों से बनी हरी खाद, गोबर और पशुशाला से बहे पानी का इस्तेमाल होता है। मिट्टी की उर्वराशक्ति बढ़ाने के लिये जहाँ भी प्राकृतिक जलस्रोत उपलब्ध हैं वहाँ किसान अजोला का इस्तेमाल करते हैं। गीली जुताई के समय पूरे खेत को मथ दिया जाता है। इसके लिये मवेशियों के अलावा छड़ियों का भी इस्तेमाल किया जाता है, ताकि पानी का रिसाव रोका जा सके। सीढ़ीदार खेतों में ढलान के आड़े बने बाँध से पानी का रिसाव रोकने के लिये धान की भूसी का इस्तेमाल किया जाता है। जुताई के लिये मुख्य रूप से भैंसों को लगाया जाता है। यहाँ धान की सिर्फ एक ही फसल तानेकेमुगा उगाई जाती है। फसल तैयार होने में 180 दिन लगते हैं। प्रति हेक्टेयर 60 किलो बीज बोया जाता है और रोपनी जून में होती है। सीढ़ीदार खेतों में दो बार तालाब से खेती की जाती है। यहाँ धान की प्रति हेक्टेयर उपज तीन से चार टन है। ज्यादातर किसान धान की खेती के साथ-साथ मछली पालन भी करते हैं और प्रति हेक्टेयर 50 से 60 किलो मछली भी पकड़ते हैं।

सीढ़ीदार खेतों का निर्माण एक ही बार में कर लिया जाता है। नागालैंड के भूमि संरक्षण विभाग के पूर्व निदेशक जे. किरे के मुताबिक, सीढ़ीदार खेत बनाने में पूरा समुदाय जुटता है। ग्रामीणों द्वारा की जाने वाली सीढ़ीदार खेती श्रमसाध्य तो है, पर वैज्ञानिक भी है। इण्डियन जरनल ऑफ हिल फार्मिंग की एक रिपोर्ट के मुताबिक :

“सीढ़ीदार खेत बनाने के लिये जंगलों को काटकर वहाँ आग लगा दी जाती है। सीढ़ीदार खेतों की चौड़ाई ढलान की प्रकृति पर निर्भर करती है। पहले ऊपर की मिट्टी को हटाकर एक तरफ रख लिया जाता है। भूमि की ऊपरी सतह को खोदकर लकड़ियों के लट्ठों की मदद से जमाया जाता है और बाँध का निर्माण किया जाता है। किनारे पत्थर वगैरह जमा किये जाते हैं। फिर मिट्टी को ठोंक-पीट कर बैठा दिया जाता है। फिर किनारे रखी सबसे ऊपरी सतह वाली मिट्टी को सबसे ऊपर, पसार दिया जाता है। सलेटी पत्थर भी किनारे लगा दिये जाते हैं। मिट्टी में हरित खाद वाले पौधे भी लगा दिये जाते हैं। पहले साल दाल, बींस, आलू, लौकी वगैरह की ही खेती की जाती है।”

एक जाबो प्रणाली, जिसमें 14.5 मीटर लम्बा, 8 मीटर चौड़ा और 2.5 मीटर गहरा तालाब और 0.4 हेक्टेयर धनखेत हैं, के अध्ययन से पता चलता है कि इस पर कुल 750 श्रम दिवस यानी लगभग 1500 रुपए की लागत आती है।10

ऊपर किक्रुमा गाँव में जो सीढ़ीदार खेत बनाने का ब्यौरा बताया गया है, वैसा ही तरीका हर जगह अपनाया जाता है। लेकिन बारीकियों के मामले में थोड़ा-बहुत फर्क जरूर होता है। अगर पानी का स्रोत झरना या नदी है तो खेत बनाने के लिये जमीन की ऊपरी परत हटाई नहीं जाती है। खेत का निर्माण हो जाने के बाद इस मिट्टी को वापस बिखेर दिया जाता है। इसकी वजह यह है कि झरने के पानी के साथ काफी मिट्टी बहकर आती है और इस तरह खेत के ऊपर इसकी एक सतह बन जाती है। खेतों के निर्माण के समय मिट्टी की ऊपरी परत सिर्फ उन्हीं मामलों में हटाई जाती है जहाँ प्राकृतिक स्रोत झरने या वर्षा हैं।

चखेसांग के सीढ़ीदार खेत अंगामी इलाकों के मुकाबले ज्यादा लम्बे-चौड़े होते हैं। इसकी वजह यह है कि चखेसांग इलाकों में पहाड़ियाँ ऊँची होने के बावजूद इनकी ढलान अपेक्षाकृत मामूली होती है। दूसरी और, अंगामी इलाके में पहाड़ियों की ऊँचाई तो कम है, लेकिन ढलान तीखी है। इसलिये इन इलाकों में सीढ़ीदार खेत बेहद संकरे होते हैं। चखेसांग क्षेत्र में लम्बे-चौड़े खेतों की वजह से कृषि कार्यों में मवेशियों का इस्तेमाल सम्भव हो पाता है, जबकि अंगामी क्षेत्र में यह असम्भव है।

किक्रुमा गाँव में कम वर्षा होने की वजह से पानी का संकट रहता है। चूँकि पानी कम है, इसलिये सिंचाई में इसके इस्तेमाल पर सख्त नियम लागू होते हैं। गाँव के पास दो नदियाँ हैं, लेकिन सिर्फ सेद्जू नदी के पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिये होता है। चूँकि यह मौसमी नदी है, इसलिये पानी की हमेशा किल्लत रहती है। सो, पानी का वितरण पहले से तय कर लिया जाता है। किसी व्यक्ति ने अगर नदी के किसी हिस्से में अवरोध खड़ा करके पानी निकालने का इन्तजाम किया है तो नदी में उसके ठीक ऊपर कोई दूसरा व्यक्ति अवरोध खड़ा नहीं कर सकता। अगले व्यक्ति को पहले अवरोध से कम-से-कम दो फर्लांग की ऊँचाई पर अवरोध बनाने की इजाजत है। वैसे पहले अवरोध के नीचे नदी पर अवरोध बनाने के अलावा कोई पाबन्दी नहीं है। नदी पर अवरोध बनाने के अलावा नहर बनाने पर भी कुछ नियम लागू होते हैं। मिसाल के तौर पर, किसी दूसरे कबीले की जमीन से होकर नहर ले जाने की इजाजत नहीं है। किक्रुमा समुदाय ने जल संग्रह की बेहद उन्नत प्रणाली विकसित की है। इस प्रणाली के माध्यम से पानी का प्रवाही प्रबन्ध किया जाता है। इस प्रणाली में वनभूमि को जल संग्रह क्षेत्र बनाया जाता है। उसके बाद तालाब बनाए जाते हैं और जल संग्रह क्षेत्र से छोटी-छोटी नहरों के माध्यम से पानी यहाँ इकट्ठा किया जाता है और उसके नीचे सीढ़ीदार खेत बनाए जाते हैं। तालाबों का निर्माण इस तरह किया जाता है, ताकि एक तालाब का अतिरिक्त पानी बहकर नीचे के तालाब में इकट्ठा हो जाये। तालाबों पर निजी या परिवार का स्वामित्व हो सकता है।

किक्रुमा के लोग जल संरक्षण में इतने अभ्यस्त हैं कि गाँव आने वाली सड़क के किनारे के पानी को भी वे इकट्ठा कर लेते हैं। उसे तालाब तक ले जाकर सिंचाई के काम में लगा लेते हैं। गाँववालों ने सड़क पर कई गति अवरोधक खड़े किये हैं, जो हर दस मीटर की दूरी पर वर्षा के पानी को रोक लेते हैं। यह पानी सड़क किनारे लगी नाली में पहुँच जाता है और एक पत्थर लगाकर अवरोध पैदा किये जाने से इसका प्रवाह आड़ा हो जाता है। वहाँ से पानी को तालाबों तक पहुँचाया जाता है। परिवारों और कुनबों के बीच इस पानी का बँटवारा परस्पर बातचीत से तय होता है। पर्वतीय ढलानों पर कटे हुए बाँस रखकर पानी को सड़कों के नीचे से होकर सड़क की दूसरी ओर ले जाया जाता है और वहाँ से पानी खेतों तक पहुँच जाता है। अगर पानी का स्रोत झरना हो तो गाँव वाले इस पर अधिकार के लिये अलग किसी व्यवस्था का निर्माण करते हैं। अगर झरना ऐसे सीढ़ीदार जमीन में हो जिस पर अभी तक खेती नहीं की जा रही है तो उसके नीचे की जमीन पर सीढ़ीदार खेत बनाने के लिये कोई व्यक्ति उसके पानी का इस्तेमाल कर सकता है। ऊपरी खेतों के स्वामी नीचे के लोगों के वैध अधिकारों का हनन नहीं कर सकते हैं।

तमाम नालियों और तालाबों के जल प्रवाह क्षेत्र की साल में एक बार आमतौर पर मानसून आने से पहले मरम्मत की जाती है। नहर का आखिर में इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति उसकी सफाई के लिये लोगों को जुटाता है। स्थानीय तौर पर उसे नीपू, यानी स्वामी कहते हैं।

किक्रुमा गाँव की विशेषता गाँव भर में फैले छोट-छोटे तालाब हैं। नए तालाबों का निर्माण निरन्तर चलता रहता है और 1995 में उनकी संख्या 150 थी। गाँव के पास एक स्थान पर तालाब पर पाँच व्यक्तियों का स्वामित्व है। ये व्यक्ति पास के खेतों में खेती करते हैं। पहाड़ी के किनारे बने लगभग एक किलोमीटर लम्बी दो नालियों से आसपास के इलाके का पानी तालाब तक पहुँचता है। गाँव वालों ने नाली की तली को काफी पुख्ता बनाया है, ताकि पानी का रिसाव कम हो सके। धान की रोपनी के लिये जब पानी की जरूरत होती है तो गाँव वाले तालाब के निचले हिस्से को खोद देते हैं। जल वितरण और जल पर अधिकार की पद्धति खोनोमा की तरह ही है।7

सीढ़ीदार खेती में पानी जब खेतों में पहुँचता है तो किसान पैर से कीचड़ तैयार करते हैं। पानी एक खेत से दूसरे खेत में पहुँचता है। पानी निकलने का मार्ग सतह से करीब 15 सेंटीमीटर ऊँचा होता है ताकि खेत में करीब 15 सेंटीमीटर पानी जमा रह सके। आखिरी खेत में भी ऐसा ही इन्तजाम किया जाता है और उसके बाद फालतू पानी को बहा दिया जाता है। सीढ़ीदार खेती में बुआई का मौसम आमतौर पर अप्रैल से मई तक होता है और रोपनी जून-जुलाई में की जाती है। पौधों के बढ़ने की पूरी अवधि में खेत में पानी जमा रहने दिया जाता है और कई बार तो कटनी से ठीक पहले उसे बहाया जाता है। निराई की कोई जरूरत नहीं पड़ती है और अक्टूबर-नवम्बर में फसल काट ली जाती है।6

सिंचाई के लिये झरनों पर अवरोध खड़ा करने के अलावा छोटे प्राकृतिक तालाबों का भी इस्तेमाल किया जाता है। इन तालाबों में वर्षा का पानी इकट्ठा होता है और लोग उनके किनारों पर सब्जियाँ उगाते हैं। घरेलू पानी के मुख्य स्रोत झरने और सोते हैं। ऐसा माना जाता है कि केले के पेड़ों में पानी थामने की क्षमता होती है, इसलिये इन जल स्रोतों की हिफाजत का सारा इन्तजाम किया जाता है और उनके आसपास पेड़-पौधे, खासकर केले के पेड़, उगाए जाते हैं। यहाँ नहाना और कपड़े धोना सख्त मना है।7

2. मेघालय


बूंदों की संस्कृतिबादलों की भूमि मेघालय को भौगोलिक रूप से तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है- खासी पहाड़ियाँ, जयंतिया पहाड़ियाँ और गारो पहाड़ियाँ। इन पर्वतीय इलाकों में रहने वाली जनजातियों को इन्हीं नामों से जाना जाता है। लेकिन खासी और जयंतिया जनजातियों में बांग्लादेश से लगी दक्षिणी पहाड़ियों के लोगों को ‘वार’ खासी और जयंतिया कहा जाता है। मेघालय में जल संग्रह का तरीका जयंतिया पहाड़ियों में खेतों में पानी जमाकर खेती करने का है, वहीं दूसरे इलाकों में बाँस की नलियों से सिंचाई होती है।

नोंगबह गाँव : नोंगबह गाँव जयंतिया पहाड़ियों में जोवाई शहर से 15 किलोमीटर दूर स्थित है। यहाँ की लगभग 97 फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है। भूमि पर मुख्य रूप से निजी मालिकाना है। बाकी जमीन सामुदायिक है, जिस पर गाँव के पदाधिकारियों का नियंत्रण होता है। ऐसी जमीन को राज भूमि कहते हैं। राजभूमि में एक पवित्र बाग भी है, जहाँ कुछ धार्मिक कर्मकांड करने के अलावा कभी कोई नहीं जाता है।

स्थानीय लोगों के मुताबिक, इस क्षेत्र में सबसे पहले धान की खेती यहीं शुरू हुई और यह जयंतिया पहाड़ियों की अनाज की टोकरी है। धान की खेती सिंचित सीढ़ीदार खेतों में की जाती है और दूर-दूर तक पसरे सीढ़ीदार खेत सिर्फ इसी गाँव में पाये जाते हैं। सिंचाई के लिये पानी का स्रोत प्राकृतिक झरने, सोते और वर्षा है। म्यातांग, उमलारपांग, वासाखा, इयोंगशिरकियांग, म्यानत्वा और म्यानकेह नाम के छह झरनों के पानी को रोककर सिंचाई की जाती है। गाँव वालों के मुताबिक, झरनों से पानी लेने पर कोई पाबन्दी नहीं है। नालियों की मरम्मत के लिये भी कोई सामुदायिक प्रयास नहीं किया जाता है और यह सब व्यक्तिगत आधार पर होता है। खेती का मौसम अप्रैल से अक्टूबर तक चलता है। जुताई के लिये मवेशियों का इस्तेमाल होता है। यहाँ धान की 12 किस्में उगाई जाती हैं। लेकिन गाँव के बसावट वाले क्षेत्रों के पास मोबा नाम की धान की फसल उगाई जाती है, जिसके लिये बेहद उपजाऊ जमीन जरूरी है। गाँव के पास की जमीन ज्यादा उपजाऊ है, क्योंकि तमाम मानव और पशु अवशिष्ट धान के खेतों तक पहुँचा दिये जाते हैं। इस वजह से गाँव के पास के खेतों में पैदावार ज्यादा होती है।

बाँस से सिंचाई


मेघालय में झरनों के पानी को रोकने और बाँस की नलियों का इस्तेमाल कर सिंचाई करने की प्रणाली का खूब चलन है। यह प्रणाली इतनी कारगर है कि बाँस की नलियों की प्रणाली में प्रति मिनट आने वाला 18 से 20 लीटर पानी सैकड़ों मीटर दूर तक ले जाया जाता है और आखिरकार पौधे के पास पहुँचकर उसमें से प्रति मिनट 20 से 80 बूँद पानी टपकता है। खासी और जयंतिया पहाड़ियों के जनजातीय किसान दो सौ साल से इस प्रणाली का इस्तेमाल कर रहे हैं।

बूंदों की संस्कृतिबूंदों की संस्कृतिबूंदों की संस्कृतिबाँस की खेती से सिंचाई आमतौर पर पान के पत्ते या काली मिर्च उगाने के लिये किया जाता है। इनके पौधे मिलीजुली फसल वाले बगीचे में उगाए जाते हैं। पर्वतीय चोटियों पर बने बारहमासा झरनों का पानी बाँस की नलियों से होता हुआ नीचे तक पहुँचता है। नालियों की जगह पानी बाँस के बने जलमार्गों से होता हुआ विभिन्न खेतों तक पहुँचता है और पानी का रिसाव भी नहीं होता। समानान्तर नलियों में जल के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिये नलियों की स्थिति में तब्दीली की जाती है। इस प्रणाली में जल की मात्रा घटाने और उसकी दिशा बदलने के लिये भी यही तरीका अपनाया जाता है। इसका आखिरी सिरा ठीक पौधे की जड़ के पास तक जाता है और इस तरह पानी सही जगह तक पहुँच जाता है।

जलमार्ग बनाने के लिये विभिन्न व्यास के बाँसों का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रणाली को बनाने से पहले बाँस को छीलकर पतला किया जाता है। और उसके बीच में बनी गाँठों को हटा दिया जाता है। उसके बाद स्थानीय कुल्हाड़े-दाब से उन्हें चिकना बनाया जाता है। उसके बाद मुख्य मार्ग से पानी को विभिन्न जगहों पर ले जाने और वितरित करने के लिये छोटी-छोटी नलियों का प्रयोग किया जाता है। नली में पानी के प्रवेश करने से लेकर उसके पौधों के पास पहुँचने तक कुल चार या पाँच चरण होते हैं। भारतीय कृषि अनुसन्धान केन्द्र, नई दिल्ली के जल टेक्नोलॉजी केन्द्र के मुख्य विज्ञानी ए. सिंह ने अपनी किताब ‘बंबू ड्रिप एरिगेशन सिस्टम’ में लिखा है कि एक जलमार्ग से दूसरे तक पानी का पहुँचना इस प्रणाली की मुख्य विशिष्टता है। पौधों की जड़ों के पास पानी बूँद-बूँद पहुँचे उसके लिये हर स्तर पर समझबूझ के साथ पानी का प्रवाह मोड़ा जाता है। ऐसा अनुमान है कि एक हेक्टेयर भूमि में ऐसी प्रणाली बनाने के लिये दो मजदूरों को 15 दिनों तक काम करना पड़ता है। वैसे यह श्रम पानी के स्रोत की दूरी और सिंचित होने वाले पौधों की संख्या पर निर्भर करता है। एक बार यह प्रणाली लग जाये तो उसके ज्यादातर सामान लम्बे समय तक टिकते हैं।11

बूंदों की संस्कृतिमेघालय के ‘वार’ इलाकों में भी यह प्रणाली पाई जाती है, लेकिन वार खासी पहाड़ियों की तुलना में इसका ज्यादा चलन वार जयंतिया पहाड़ियों में है। बांग्लादेश से लगे मुक्तापुर इलाके में भी इसका व्यापक चलन है। इस क्षेत्र में ढलान काफी तीखी है और जमीन चट्टानी है। जमीन पर नालियाँ बनाकर पानी को खेतों तक पहुँचाना सम्भव नहीं है। खेती की जमीन पर कबीलों का स्वामित्व होता है और कबीले के वरिष्ठ लोगों को किराया देकर उस पर खेती की जा सकती है। कबीले के बुजुर्गों को जमीन का यह हक है कि किसे कितनी और कैसी जमीन दी जाये। किराया चुकाए जाने के बाद जमीन खेती के लिये लीज पर दे दी जाती है और उस पर पौधे लगे रहने तक लीज की अवधि बनी रहती है। पान के पत्ते की खेती के मामले में यह अवधि काफी लम्बी होती है, क्योंकि एक बार पत्ते चुनने के बाद भी पौधों को उखाड़ा नहीं जाता। लेकिन जिस किसी भी वजह से अगर पौधे मर गए तो जमीन कुनबे के पास वापस आ जाती है और नए सिरे से किराया चुकाकर ही उसे फिर से लीज पर लिया जाता है।

पान के पौधों के लिये बाँसों से बनी जल प्रवाह प्रणाली के माध्यम से पानी लाया जाता है। पान के पौधे मानसून से पहले मार्च में रोपे जाते हैं। सिर्फ सर्दियों में सिंचाई के पानी की जरूरत होती है और उसके लिये बाँस की नलियों की प्रणाली इस्तेमाल होती है। इस वजह से सर्दियाँ आने से पहले ही इस प्रणाली को तैयार कर लिया जाता है और मानसून के दिनों में उनका इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

बूंदों की संस्कृतिइन जलमार्गों और उनके तालाबों की देखरेख किसान खुद करते हैं। इसके लिये एक सहकारी समिति बनाई गई है। हर किसान इस प्रणाली की देखरेख के लिये अपने श्रम और कौशल का योगदान करता है। जब कभी जरूरत पड़ती है, मरम्मत का काम कर लिया जाता है। पानी का वितरण निर्धारित समय पर एक खेत से दूसरे खेत तक पानी का प्रवाह मोड़कर किया जाता है। पानी की धारा मोड़ने के लिये मुख्य जलमार्गों के आड़े एक छोटा बाँस रख दिया जाता है, जिसकी तली में छेद बना होता है। इस तरह मुख्य जलमार्ग का पानी रोक लिया जाता है। यहाँ आधुनिक पाइप की प्रणाली लगाने की कोशिशें हुई हैं, लेकिन किसान सिंचाई की देसी प्रणाली को ही पसन्द करते हैं। नई प्रणाली को शक की निगाह से देखा जाता है। स्थानीय किसान न तो नई पाइपों पर और न ही उन्हें सप्लाई करने वाले लोगों पर भरोसा होता है।12

3. मणिपुर


बूंदों की संस्कृतिमणिपुर के नगाओं में जल संग्रह की कुछ परम्पराएँ हैं। पहाड़ियों को काटकर सीढ़ीदार खेत बनाए जाते हैं और सिंचाई की नालियों के माध्यम से पर्वतीय झरनों का पानी वहाँ तक लाया जाता है। वैसे, इन प्रयासों के बारे में काफी कम लिखित सामग्री उपलब्ध है। रिपोर्टों में ऐसा दावा किया गया है कि मणिपुर के कुछ गाँवों में नल का पानी आने के बाद परम्परागत स्रोतों की अनदेखी शुरू हो गई। मिसाल के तौर पर, नागालैंड सीमा के पास बसे माओ नगाओं के गाँव पुदुनमाई में दस प्राकृतिक झरने हैं। उनमें से चार के पास जल संग्रह के तालाब बनाए गए हैं। लेकिन दो तालाब बेहद गन्दे हैं और उनमें कीचड़ भरा हुआ है। इस वजह से झरने का प्रवाह रुक गया है।7 इसके उलट पास ही बसे गाँव माओगेट में लोग पर्वतीय ढलान से आने वाले पानी की हर बूँद को एक बड़े तालाब में जमा करते हैं। इसके ऊपर टीन की छत बनाई गई है।7

4. मिजोरम


मिजोरम में काफी अधिक वर्षा होती है, जहाँ साल के आठ महीनों में औसत 2500 मिमी वर्षा होती है। लेकिन जंगल कटने और मिट्टी बहने की वजह से भूमि की जल संचयन क्षमता घट गई है। पहाड़ों के बेशुमार झरने पानी के परम्परागत स्रोत हैं। स्थानीय तौर पर तुईखुर नाम से प्रसिद्ध इन झरनों में पानी धीरे-धीरे आता है और उनमें कई सूख भी जाते हैं।

इसलिये आइजोल के अमूमन हर घर में पानी के घरेलू इस्तेमाल के लिये सतह पर या सतह के नीचे टीन या कंक्रीट की टंकियाँ बनी गई हैं। पीने के पानी के लिये छत पर जल संग्रह का चलन भी आम हो चला है। जल संग्रह की एक प्रचलित पद्धति टीन से बनी छतों पर वर्षा के पानी को रोकने के लिये गटर का निर्माण करना है। वर्षा का पानी एक पाइप से होते हुए टंकी में जमा होता है। छतों पर पानी इकट्ठा करने की प्रणाली सबसे पहले अंग्रेजों ने विकसित की थी और अब स्थानीय लोगों ने इसे अपना लिया है। राज्य सरकार पानी को इकट्ठा करने के वास्ते ड्रम खरीदने के लिये कर्ज देती है।7

राज्य में जल संचय की काफी सम्भावना है। नागालैंड में 63,000 हेक्टेयर समतल और कम ढलान वाली भूमि उपलब्ध है, जिस पर धान की खेती सम्भव है। राज्य के कृषि विभाग के मुताबिक, अब तक इसमें से सिर्फ 1,100 हेक्टेयर भूमि पर खेती होती है। राज्य में 70 हजार हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई हो सकती है जिसमें 45,000 हेक्टेयर में जल प्रवाह से और बाकी में लिफ्ट सिंचाई की जा सकती है। लेकिन छठी पंचवर्षीय योजना के अन्त तक सिर्फ 3,200 हेक्टेयर भूमि पर ही सिंचाई होती है। यह राज्य अनाज के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है और आधी जरूरत के लिये दूसरे राज्यों के अनाज पर निर्भर है। राज्य में कुल 58000 टन धान उगाया जाता है और उसमें से 43,000 टन झूम खेती से आता है।13

पूर्वोत्तर : लोक प्रबन्ध


ए. सिंह

पूर्वोत्तर में परम्परागत जल प्रणालियों के लोक प्रबन्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू सामुदायिक काम और फैसला लेना है। वर्षा के पानी को इकट्ठा करने के लिये गड्ढे या बाँध बनाए जाते हैं। जल संग्रह का मुख्य उद्देश्य पहले जलाभाव के दिनों में मनुष्यों और मवेशियों के पीने के पानी की जरूरतों को पूरा करना था। खेती के विकास के साथ-साथ जल संग्रह का उद्देश्य सिंचाई भी हो गया। हाल के वर्षों में जल संग्रह को लेकर अनुसन्धान कार्यों में तेजी आई है। लेकिन आधुनिक शोधकर्ता एक महत्त्वपूर्ण पहलू को भुला देते हैं कि परम्परागत जल संग्रह प्रणालियों का मुख्य आधार लोगों की भागीदारी थी।

पूर्वोत्तर के समुदाय कई तरह से जल संग्रह करते हैं। प्राकृतिक स्थितियों में जंगल की वजह से वर्षा का काफी पानी संचित हो जाता है। अनुसन्धानों से पता चलता है कि कुछ परम्परागत भूमि उपयोग प्रणालियों में पूर्वोत्तर की जनजातियाँ वर्षा के 80 से 100 फीसदी तक पानी को बरसने के साथ उसी तरह संग्रहित कर लेती हैं।

कई सौ साल पहले मेघालय की जनजातियों ने तीखी ढलानों पर पान के पौधों की सिंचाई के लिये पहाड़ी झरनों के पानी को बाँस की पाइपों के माध्यम से खेतों तक लाने की प्रणाली विकसित की थी। अलग-अलग व्यास, लम्बाइयों और आकार वाले बाँसों के माध्यम से मुख्य जलमार्ग से 18 से 20 लीटर पानी लाया जाता है और हर पौधे के पास प्रति मिनट 20 से 80 बूँद पानी टपकता है। इस प्रणाली की खासियत यह है कि इसमें स्थानीय संसाधनों का ही इस्तेमाल होता है और पानी बिलकुल बर्बाद नहीं होता है।

पूर्वोत्तर में सिंचाई के लिये झरनों की भी धारा मोड़ दी जाती है। किसान नालियों या पाइपों के माध्यम से एक किलोमीटर तक की ऊँचाई से झरने का पानी नीचे लाते हैं। आमतौर पर आधुनिक विशेषज्ञ या तो लिफ्ट सिंचाई करने की या बाँध बनाकर पानी का स्तर ऊँचा करने का सुझाव देते हैं, लेकिन इन प्रणालियों में कई खामियाँ हैं।

परम्परागत जल संग्रह प्रणालियों का प्रबन्ध और देखरेख गाँव वाले आम सहमति से बनाए गए नियमों के आधार पर करते हैं। पर्वतीय इलाकों में ऐसे कायदे-कानून अब भी चलते हैं। जल प्रबन्ध में आने वाली समस्याएँ किसी एक व्यक्ति की गड़बड़ का नतीजा नहीं होतीं; कई लोगों की गतिविधियों के कारण ऐसा होता है। इस वजह से ऐसी समस्या का हल किसी एक व्यक्ति के बस में नहीं है। अगर परम्परागत पद्धतियों का समग्र रूप में अध्ययन किया जाये तो उनमें हमारी आज की कई समस्याओं का जवाब मिल सकता है। -

संरक्षण की संस्कृति


आर. केविचुसा

नागालैंड में पर्यावरण विविधतापूर्ण है। चट्टानें नई हैं और मिट्टी में नमी समाहित करने की क्षमता कम है। प्राकृतिक वनों के नाम पर वर्षा पर पलने वाले वन हैं। यहाँ भिन्न-भिन्न रीति-रिवाजों और बोलियों वाली 16 नगा जनजातियाँ हैं। इनमें सिर्फ अंगामी, चखेसांग और जेलियांग जनजातियों में सीढ़ीदार खेतों में धान की खेती करने के लिये सिंचाई करने की परम्परा रही है। वैसे मक्के की खेती के लिये भी कहीं-कहीं सिंचाई की जाती है। अरुणाचल प्रदेश की अपतानी और मणिपुर की कुछ नगा जनजातियों में भी ऐसी परम्परागत प्रणालियों का चलन है। परम्परागत रूप से ऊँची पर्वतीय ढलानों पर भूजल से सिंचाई नहीं की जाती और प्राकृतिक झरने सिंचाई के बेशकीमती स्रोत हैं।

आर्द्रता संरक्षण


जल संरक्षण के लिये वनों का महत्त्व जगजाहिर है। इसलिये सीढ़ीदार खेतों में धान की खेती करने के अलावा झूम खेती का चलन तो है, इसके बावजूद पर्वतीय ढलानों के वनों को बचाकर रखा जाता है। नगा लोग इसे काफी महत्त्वपूर्ण मानते हैं।

चूँकि बड़ी नदियाँ मुख्य रूप से नीचे की घाटियों में हैं, इसलिये इनका इस्तेमाल सिंचाई के लिये नहीं हो सकता। पर्वतीय झरनों का स्रोत बर्फ नहीं है, इसलिये वे बरसात के मौसम के कुछ दिनों बाद सूख जाते हैं। अगर जल संरक्षण क्षेत्र में वन न हों तो मानसून के मौसम के भरे-पूरे झरने पानी की क्षीण धार बन जाते हैं।

सीढ़ीदार खेतों में जल संरक्षण के लिये नगा किसान कई उपाय करते हैं :

1. सीढ़ीदार खेत बनाते समय जमीन की ऊपरी सतह हटा दी जाती है और निचली सतह को काट-काटकर खेत बनाए जाते हैं। जमीन समतल करने के बाद सीढ़ीदार खेत की सतह को लकड़ी के लट्ठों से पाट दिया जाता है ताकि पानी का रिसाव कम हो। उसके बाद हटाई गई ऊपर की मिट्टी को फिर से बिछा दिया जाता है।2

2. धान की रोपनी से पहले खेत में मिट्टी से कीचड़ तैयार की जाती है ताकि पानी का रिसाव कम हो।धान की खेती में रोपनी से लेकर फसल तैयार होने तक खेतों में पाँच से दस सेंटीमीटर पानी जमा रखा जाता है। इसलिये नमी को अधिकतम संरक्षित रखना महत्त्वपूर्ण है।

झरनों और सोतों से पानी लाने के लिये बनाई गई नालियों का आकार भिन्न-भिन्न होता है। पहाड़ी ढलानों को आड़े काटकर जलमार्ग बनाए जाते हैं। ढलान तीखी होने की वजह से इन नालियों में पानी तेजी से बहता है। आमतौर पर इन नालियों के दोनों ओर मेंड़ नहीं बनाई जाती हैं, लेकिन जिन नालियों से ज्यादा खेतों में सिंचाई होती है उनमें सपाट पत्थरों को दोनों ओर लगा दिया जाता है। इन नालियों में मौसमी और यदा-कदा बारहमासा झरनों से पानी आता है। पत्थरों का अवरोध खड़ा करके इनकी धार मोड़ी जाती है। अगर इनमें बहाव काफी तेज रहा तो एक से डेढ़ मीटर लम्बी चट्टानों को खड़ा करके इनके पानी को खेतों तक पहुँचाया जाता है। कई बार लम्बी चट्टानों की कई कतारें बनाई जाती हैं। ये कतारें न सिर्फ पानी की तेज धार के सामने खड़ी रहती हैं, बल्कि पानी के साथ बहकर आने वाले पत्थरों और लकड़ी के लट्ठों का प्रहार भी झेल पाती हैं। सबसे लम्बा जलमार्ग दस किलोमीटर की दूरी से पानी को खेतों तक लाता है और इससे पाँच किलोमीटर क्षेत्र में फैले धनखेतों की सिंचाई होती है। जल प्रवाह को दो स्तरों पर नियंत्रित किया जाता है :

1. जलमार्ग में चट्टानों से धारा को अवरुद्ध करके। यह तरीका सरल होने के बावजूद असरदार है।

2. सीढ़ीदार खेतों में पानी को एक खेत से दूसरे स्तर तक पहुँचाकर। सीढ़ीदार खेतों को क्षति न पहुँचे और उपजाऊ परत न बह जाये- इसके लिये जल प्रवाह पर नजर रखी जाती है। इसके लिये बहाव के मार्ग पर कई बार चट्टानें रखी जाती हैं।

उपजाऊ मिट्टी की संरक्षण


चूँकि उर्वरा क्षमता मुख्य रूप से मिट्टी की ऊपरी परत में होती है, इसलिये सीढ़ीदार खेतों में पानी के आने-जाने को सावधानी से नियंत्रित किया जाता है। परम्परागत रूप से यह माना जाता है कि धान की रोपनी से पहले खेतों को तैयार करने का काम बेहद महत्त्वपूर्ण है। इस दौरान सीढ़ीदार खेतों से पानी के आने-जाने को रोक दिया जाता है। तैयार खेत को रात भर यूँ ही छोड़ दिया जाता है, ताकि मिट्टी की परत जम जाये। इसके बाद ही फिर से सिंचाई का काम शुरू किया जाता है।

जहाँ कहीं भी झरनों या सोतों से बारहों महीने पानी उपलब्ध है वहाँ खेतों में साल भर पानी जमा रखा जाता है। ऐसे सीढ़ीदार खेतों को यहाँ फ्रेदजू कहते हैं। ऐसे सीढ़ीदार खेतों को सबसे अच्छा माना जाता है। इन खेतों का स्वामित्व रुतबे का भी प्रतीक माना जाता है, क्योंकि वहाँ खेती आसान होती है और दूसरे, वहाँ धान की फसल ज्यादा होती है। इसकी वजह यह है कि साल भर पानी जमा होने से खेत की उर्वरा क्षमता बढ़ जाती है और यहाँ अजोला नाम का एक सेवार पाया जाता है। इन खेतों में मछलियाँ और दूसरे जलजीव भी होते हैं, जो खेतों की उर्वरा बढ़ाते हैं।

वर्षा के पानी का भी काफी संरक्षण किया जाता है। इसका इस्तेमाल मवेशी पालन और सिंचाई में होता है। मवेशियों के लिये 200 से 1,000 घन मीटर के कुंड बनाए जाते हैं। पर्वतीय ढलानों पर नालियाँ बनाकर वर्षा के पानी को इनमें इकट्ठा किया जाता है।

इनका निर्माण काफी सरल है। वैसे जब धान की खेती करनी होती है तब पानी की काफी किफायत बरती जाती है। इन तालाबों में पानी के संरक्षण और निकासी पर नजर रखी जाती है।

सीढ़ीदार खेत


चखेसांग जनजाति धान की खेती के लिये एक अद्भुत तरीके का इस्तेमाल करती है। तीखी और पर्वतीय ढलानों पर, जहाँ सीढ़ीदार खेत नहीं बनाए जा सकते और जहाँ पानी उपलब्ध हो, पाँच मीटर लम्बे और पाँच मीटर चौड़े प्लेटफार्म बनाए जाते हैं। इन प्लेटफार्मों पर मिट्टी इकट्ठा की जाती है। वहाँ सिंचाई होती है और धान की अच्छी फसल ली जाती है। इन प्लेटफार्मों का टिकाऊ होना इस बात पर निर्भर करता है कि इन्हें बनाने के लिये लकड़ी के किस तरह के लट्ठों का इस्तेमाल किया गया है। इसके साथ ही, किसान ने कितने धैर्य और श्रम से काम किया है, उस पर भी उनका टिकाऊपन निर्भर करता है।

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