सुरक्षित स्थानों की तलाश में कुछ लोग सहरसा भागे तो कुछ लोगों ने दूर जाकर मानसी-सहरसा रेल लाइन की पटरियों को अपना आश्रय बनाया। कुछ लोग जो स्वयं अपने परिवारजनों के साथ कुछ घंटों के बाद वापस आने की उम्मीद लिए चले गये थे और पीछे सारा घर और खूँटे में बँधे मवेशी छोड़ गये थे, इन लोगों को अपने गाँव वापस आने में महीनों का समय लग गया और तब तक उनके मवेशी जहाँ खूँटे से बँधे ही पानी में घिर कर मारे गये और वहाँ सम्पत्ति और घर का कुछ भी नहीं बचा।
1984 का वर्ष बाढ़ के लिहाज से बिहार में एक बुरा वर्ष था। राष्ट्रीय सन्दर्भ में जहाँ जुलाई मास में आतंकवादियों ने भाखड़ा नहरों को तोड़ दिया था वहीं बिहार में गंडक, बूढ़ी गंडक, कमला और महानन्दा के तटबन्ध बड़े पैमाने पर टूटे थे। कोसी का पूर्वी तटबन्ध यूँ तो 1979 से नवहट्टा के नीचे 81-83 किलोमीटर (बीरपुर से दूरी) के स्थान पर कोसी की मुख्य धारा के हमले झेल रहा था मगर इस वर्ष जून में नदी का पहला झटका 72-73 कि0 मी0 के बीच में लगा जिसे मरम्मत करके दुरुस्त कर दिया गया। जुलाई में नदी एक बार फिर 81-83 किलोमीटर के बीच में सक्रिय हुई मगर कटाव निरोधक कार्य करके तटबन्ध को सुरक्षित कर लिया गया। इस काम के पूरा होते न होते नदी अगस्त महीने में एक बार फिर 70-72 कि0मी0 के बीच में सक्रिय हुई। इस माह के शुरू में नदी तटबन्ध से लगभग एक कि0मी0 दूर थी मगर आखिरी सप्ताह में तटबन्ध के काफी पास आ गई और 71 कि0मी0 पर बने स्पर को पूरी तरह से काट दिया। अब हमला सीधे तटबन्ध पर था। एक ओर नदी तटबन्ध को काटने के लिए आतुर थी तो दूसरी तरफ बारिश ने मरम्मत की सारी कोशिशों पर लगाम कस रखी थी। तटबन्ध खुद तो जर्जर हालत में था ही मगर वहाँ तक पहुँचने के सारे रास्ते भी खस्ता हालत में थे। तटबन्ध के बचाव के लिए बड़ी मात्रा में बोल्डरों की जरूरत थी पर ट्रक इन्हें लेकर तटबन्ध तक पहुँच नहीं सकते थे।बची-खुची कसर पूरी हो गई तब जब 4 सितम्बर 1984 से राज्य के अराजपत्रित कर्मचारी अनिश्चित कालीन हड़ताल पर चले गये जिसकी वजह से विभाग को अपने ओवरसियरों और ड्राइवरों की भी सेवायें नहीं मिल पा रही थीं। जगदीश पाण्डेय (भूतपूर्व चीफ इंजीनियर-जल संसाधन विभाग, बिहार सरकार) जो उस समय नवहट्टा में एक्जीक्यूटिव इंजीनियर के पद पर काम कर रहे थे, का कहना था कि, ‘‘...इस हड़ताल ने हम लोगों को बेहाथ का कर दिया। और किसी जगह कोई काम हो नहीं रहा था इसलिए सारे हड़तालियों की नजर कोसी बांध पर थी और हड़ताली कर्मचारी नहीं चाहते थे कि यहाँ कोई काम हो। काम रोकने के लिए उन्होंने हर मुमकिन हथकण्डे अपनाये। हमारी तमाम कोशिशों के बावजूद 5 सितम्बर की रात को 9 बजे तटबन्ध जवाब दे गया। वास्तव में जुलाई में विभाग के उच्च-पदाधिकारी यहाँ तटबन्ध के निरीक्षण के लिए आये थे। उन्हें हम लोगों ने अपनी कठिनाई बताई थी कि तटबन्ध के कच्चा होने के कारण सामान ढुलाई में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अतः सुरक्षा की दृष्टि से तटबन्ध पर अगर पक्की सड़क नहीं बन पाती है तो कम से कम आठ इंच मोटी ईंट की सोलिंग ही कर दी जाय जिससे सामान किसी भी बिन्दु तक पहुँचाया जा सके मगर इस काम की स्वीकृति नहीं मिली। अगर आवागमन की सुविधा उपलब्ध रहती तो इस दुर्घटना को टाला जा सकता था।’’
कोसी का पूर्वी तटबन्ध खतरे में है इसकी आशंका जुलाई से व्यक्त की जा रही थी। आर्यावर्त (पटना) ने अपने 5 जुलाई 1984 के सम्पादकीय में लिखा कि, ‘‘...अभियंताओं के पदस्थापन और स्थानान्तरण में भी होने वाली तिकड़म के कारण कोसी तटबन्धों, विशेषकर पूर्वी तटबन्ध पर खतरा आसन्न रहता है। तटबन्ध के टूटने से आने वाली बाढ़ और उसके वेग से होने वाले नुकसान का इजहार अभी-अभी महानन्दा और गण्डक नदियाँ कर चुकी हैं। यदि दुर्भाग्य से कहीं कोसी नदी का तटबन्ध किसी स्थल पर टूटता है तो उसकी विनाशलीला का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस समय भी कोसी के पूर्वी तटबन्ध पर कम से कम आधे दर्जन स्थल इतने संवेदनशील हैं कि यदि पर्याप्त चौकसी नहीं बरती गई तो कोई भी अप्रिय घटना किसी भी क्षण हो सकती है।’’
तटबन्ध नाजुक हालत में है यह तो अगस्त के अन्त तक तय हो गया था। 3 सितम्बर को हेमपुर गाँव के निवासियों ने प्रशासन से बचाव के लिए गुहार लगाई और धीरे-धीरे यह गुहार आक्रोश में बदली तथा बाद में हंगामें की शक्ल में सामने आई। प्रशासन क्योंकि हंगामें और तोड़-फोड़ की भाषा अपेक्षाकृत आसानी से समझता है और तभी हरकत में आता है, इसलिये सहरसा के जिलाधिकारी और आरक्षी अधीक्षक 4 सितम्बर को स्थिति का जायजा लेने के लिए नवहट्टा गये। उसके बाद जिलाधिकारी बांध की सुरक्षा की व्यवस्था करने के बजाय पटना चले गये। प्रमंडलीय आयुक्त जिया लाल आर्य ने इस संभावित खतरे की सूचना लहटन चैधरी, तत्कालीन राजस्व मंत्री, को दी। नवहट्टा का यह इलाका उनके चुनाव क्षेत्र में पड़ता था। इन लोगों ने 5 सितम्बर को दिन में तटबन्ध का दौरा किया मगर तब तक तीन चौथाई तटबन्ध कट चुका था। जिलाधिकारी 6 सितम्बर को पटना से सहरसा लौटे और तब तक 75-78 कि0 मी0 के बीच कोसी का पूर्वी तटबन्ध साफ हो चुका था। देखें चित्रा 4.3।
तटबन्ध टूट जाने के बाद यह बात उठी कि कोसी कन्ट्रोल बोर्ड ने अपनी 13 मार्च 1984 की एक मीटिंग में यह सिफारिश की थी कि सहरसा जिले के लगभग 5 लाख लोगों की बाढ़ से रक्षा के लिए कोसी तटबन्ध की मरम्मत कर दी जाय और उसमें अपेक्षित सुधार किये जायें। इस काम के लिये बोर्ड ने 5 करोड़ रुपये की राशि आवंटित करने की सिफारिश भी की थी और चेतावनी के साथ कहा था कि इन कामों को तुरन्त पूरा कर लिया जाय। मगर 13 मार्च से 2 सितम्बर तक कुछ नहीं किया गया। इस दुर्घटना के बाद का घटनाक्रम नीचे दिया जा रहा है।
कोसी का पूर्वी तटबन्ध 5 सितम्बर 1984 को सहरसा जिले के नवहट्टा प्रखण्ड में हेमपुर गाँव के पास, बीरपुर बराज से 75 कि0मी0 की दूरी पर टूटा था। जिस जगह तटबन्ध टूटा उसके ठीक सामने पड़ने वाले गाँव, नवहट्टा प्रखण्ड के केदली पुनर्वास, पुरषोत्तमपुर, गोरपाड़ा, नौलखा पुनर्वास तथा हेमपुर प्रायः नेस्त-नाबूद हो गये। देखें बॉक्स- भगवती की कृपा हम पर नहीं रहती तो आज आप से बात करने के लिए हम यहाँ नहीं होते।
तटबन्ध के टूटने से चार धाराएँ फूट कर निकलीं जो फिर हेमपुर से 17 किलोमीटर दक्षिण महिषी प्रखण्ड के तेघरा गाँव के पास इकट्ठी हुईं और इस प्रकार तेघरा प्रायः लापता हो गया। धीरे धीरे पानी सहरसा जिले के नवहट्टा, महिषी, सिमरी बख्तियारपुर, सोनबरसा, सलखुआ तथा कहरा प्रखण्डों में फैल गया। सुपौल अनुमण्डल के भी कुछ गाँव इस बाढ़ से प्रभावित हुये थे। नदी अब केवल तटबन्धों के भीतर ही नहीं थी, तटबन्धों के बाहर भी बह रही थी और केवल तटबन्ध की ही जमीन ऐसी थी कि जो पानी के ऊपर दिखाई पड़ती थी। इस विध्वंस के कारण हुये पानी के फैलाव को चित्रा 4.3 में दिखाया गया है। गनीमत इतनी ही थी कि इलाके के बाशिन्दों को यह पूर्वानुमान था कि तटबन्ध किसी भी समय टूट सकता है अतः मानसिक रूप से लोग अपने को परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार कर चुके थे परन्तु इस प्रकार के जल-प्लावन का मुकाबला करने के अभ्यस्त न होने के कारण लोगों को काफी परेशानियाँ हुईं क्योंकि यह क्षेत्र 1959 के बाद से बाढ़ से सुरक्षित था। तटबन्धों के अन्दर बसने वाले लोगों के लिए यह स्थिति अवश्य सुखद थी क्योंकि तटबन्धों के टूट जाने से तटबन्धों के अन्दर बाढ़ का दबाव कम हो गया था।
सुरक्षित स्थानों की तलाश में कुछ लोग सहरसा भागे तो कुछ लोगों ने दूर जाकर मानसी-सहरसा रेल लाइन की पटरियों को अपना आश्रय बनाया। कुछ लोग जो स्वयं अपने परिवारजनों के साथ कुछ घंटों के बाद वापस आने की उम्मीद लिए चले गये थे और पीछे सारा घर और खूँटे में बँधे मवेशी छोड़ गये थे, इन लोगों को अपने गाँव वापस आने में महीनों का समय लग गया और तब तक उनके मवेशी जहाँ खूँटे से बँधे ही पानी में घिर कर मारे गये और वहाँ सम्पत्ति और घर का कुछ भी नहीं बचा। अधिकांश लोग आश्रय के लिए पूर्वी तटबन्ध की ओर ही भागे जहाँ गाँव के गाँव बसे और इस तटबन्ध के अन्दर वाले भाग में मुख्य नदी तथा बाहर वाले भाग में तटबन्धों को तोड़ कर बहती हुई नदी थी। इस प्रकार जहाँ तक नजर जाये पानी ही पानी था और साथ ही बरसात की मार भी कम नहीं थी। तटबन्धों के शीर्ष पर लोगों के घर बने जो कि बाँस, फूस, साड़ी, ताड़ के पत्ते, प्लास्टिक की चादर, चौकी, आलमारी और चारपाईयों जैसे नायाब सामानों से बनाये गये थे। कुछ लोग जो चैकी या चारपाई आदि उठा कर ले आ पाये थे उनके मकान दो या तीन मंजिल के भी बने क्योंकि इनके नीचे और ऊपर दोनों जगह रहा जा सकता था। तटबन्धों के ढलानों पर बचे हुये जानवर बाँधे गये। तटबन्ध के शीर्ष पर लगभग 15 फुट की चौड़ाई में बस्तियाँ बसीं और ढलानों का प्रयोग जानवरों के रहने के स्थान, बच्चों के खेलने की जगह और शौचादि के लिये हुआ। शुरू में तटबन्धों पर आश्रय लेने वाले साढ़े चार लाख लोगों में से लगभग एक लाख से अधिक लोगों ने प्रायः छः महीने इसी प्रकार का जीवन यापन किया। जिस तरह से बाढ़ का पानी फैला था उसके अनुसार मरने वालों की तादाद बहुत ज्यादा होनी चाहिये थी पर लोगों द्वारा दुर्घटना की आंशिक मुकाबले की तैयारी कर लेने के कारण सहरसा जिले में मरने वालों की कुल आधिकारिक संख्या केवल 35 थी वहीं गैर सरकारी सूत्र इसे केवल 200 से ऊपर मानते थे।
सरकार की तरफ से भोजन (गेहूँ) की व्यवस्था हुई और 2.5 कि॰ग्रा॰ प्रति वयस्क प्रति सप्ताह की दर से यह सामग्री बाँटी गई जो कि कभी भी नियमित रूप से नहीं मिली। 9 साल से कम के बच्चों के लिए गेहूँ की मात्रा वयस्क मात्रा की आधी थी। तटबन्धों के ढलानों पर पीने के पानी के लिए कहीं-कहीं चापाकल भी गाड़े गये। जो कुछ खुली जगह उपलब्ध थी वह तटबन्धों के ढलान पर थी, धीरे-धीरे यह जगह गन्दी होनी शुरू हुई और कुछ ही दिनों में नर्कप्राय हो गई। खाद्य सामग्री की व्यवस्था तो थोड़ा बहुत अवश्य हुई पर ईंधन का अभाव अपने आप में एक समस्या थी। कुछ दिनों तक, और केवल कुछ साहसी लोगों के लिए, नदी में घरों के बहते हुये पुराने छप्पर ही काम आये पर ईंधन का मुख्य स्रोत बना करमी, जो कि एक प्रकार की पानी में बढ़ने वाली लता है। इसके पत्तों का साग बना कर लोग खाते थे और इसका डंठल सुखा कर ईंधन के काम में लाते थे। साधारण वर्षों में इस जलीय घास को कोई नहीं पूछता। इसी प्रकार जानवरों के चारे का भी घोर अभाव था और जानवर जलकुम्भी खाने को बाध्य थे जिसकी तरफ साधारणतः वे देखते भी नहीं। अखाद्य खाने से मनुष्यों में बीमारी फैलने के साथ-साथ जानवर भी बीमार पड़े और अधिकांश जानवर तो चारे के अभाव में मारे गये। पीने के पानी की किल्लत और औषधियों का अभाव तो हमेशा ही बना रहा।
सबसे अधिक असुविधा महिलाओं तथा बच्चों को उठानी पड़ी। बच्चों को घूमने-फिरने, खेलने-कूदने की जगह का सर्वथा अभाव था और उनके प्रति थोड़ी सी भी लापरवाही जानलेवा हो सकती थी क्योंकि चारों ओर पानी ही पानी था। महिलाओं के लिए स्नानादि नित्य क्रियाओं के लिए कोई ऐसी जगह नहीं थी जहाँ लोगों की नशरें उन तक न पहुँचती हों। यहाँ तक कि शौच के लिए उन्हें नावों में बैठकर जाना पड़ता था और इसका निष्पादन भी पानी में ही करना पड़ता था क्योंकि तटबन्धों के अतिरिक्त खुली जमीन कहीं थी ही नहीं। बच्चे पैदा होने की स्थिति में तो कठिनाइयों का सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है। जाड़े की रातों में हालत और बदतर हो गई क्योंकि चारों ओर पानी जमा रहने से ठण्ड भी अधिक पड़ी, ओढ़ने-बिछाने की कोई व्यवस्था तो थी नहीं, तापने के लिये भी कुछ उपलब्ध नहीं था। जाड़े के मौसम में तटबन्धों पर रात में अच्छी रौनक रहा करती थी क्योंकि लोग ठण्ड के मारे सो नहीं पाते थे। कुछ खुशनसीबों को खैरात में कम्बल अवश्य मिल गये थे।
इस क्षेत्र में अधिकांश पुल लकड़ी के थे जो कि प्रायः सभी टूट या बह गये थे। तथाकथित ‘‘विकसित’’ संचार व्यवस्था पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गई। वास्तविकता यह थी कि पूर्वी तटबन्ध के 75वें किलोमीटर के बाद इस तटबन्ध का कोई मतलब ही नहीं बचा था। मानसी से सहरसा तक की रेल लाइन कोपड़िया और सिमरी बख्तियारपुर के बीच बह गई थी और मरम्मत के बाद दिसम्बर में चालू की जा सकी।
लोगों का मुख्य पेशा खेती है जो कि पूरी तरह से बर्बाद हो चुकी थी और चारों तरफ पानी भरा होने के कारण रबी की बुआई की सम्भावना भी बाकी नहीं बची थी। थोड़े से खाते-पीते और सामर्थ्यवान परिवार तो दोस्तों और रिश्तेदारों की मेहरबानी से सलामत बच गये पर अधिकांश छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों को रोटी के लाले पड़ गये क्योंकि अगली खरीफ की फ सल के पहले उनके रोजगार पाने के कोई आसार नहीं थे लिहाजा यह लोग नेपाल, दिल्ली, पंजाब, हरयाणा अथवा कोलकाता पलायन कर गये। वैसे श्रमिकों का पलायन इस क्षेत्र के लिए कोई नई बात नहीं है पर इस वर्ष यह समय से कुछ जल्दी और बड़े पैमाने पर हुआ। प्राथमिक रूप से कोसी तटबन्ध के टूटने से प्रभावित क्षेत्र और जनसंख्या का विवरण नीचे तालिका में दिया हुआ है।
तालिका 4.1
कोसी तटबंध टूटने से (1984) प्रभावित क्षेत्रों का विवरण
स्रोत : समाहरणालय-सहरसा
प्रखंड | ग्राम पंचायतें | प्रभावित क्षेत्र | ||||
पूर्ण | आंशिक | कुल | गांव | हेक्टेयर | जनसंख्या | |
नवहट्टा | 9 | 2 | 11 | 28 | 12,314.95 | 60,000 |
महिषी | 6 | 3 | 9 | 25 | 9,251.09 | 45,773 |
सिमरी बख्तियारपुर | 19 | 2 | 21 | 53 | 15,922.11 | 1,15,000 |
सलखुआ | 17 | - | 17 | 43 | 16,658.37 | 92,019 |
सोनबरसा | 7 | 2 | 9 | 22 | 1,120.00 | 42,251 |
कहरा | 15 | 6 | 21 | 15 | 11,691.82 | 83,302 |
सुपौल | 4 | 4 | 8 | 10 | अप्राप्य | 20,020 |
कुल योग | 77 | 19 | 96 | 196 | 66,958.34 | 4,58,365 |
यह संख्या अधिक होनी चाहिए।
/articles/pauuravai-kaosai-tatabanadha-kai-navahatataa-1984-daraara