1984 में एक एन्क्वायरी हुई थी। तब तक रिटायर्ड लाइन वगैरह सब बन चुकी थी। सारा काम खत्म हो चुका था। अभियोजन पक्ष का कहना था कि बोल्डरों की खरीद और ढुलाई में हेरा-फेरी हुई है। अब अगर दो देशों में युद्ध हो तो लड़ाई के बाद गोला-बारूद और कारतूसों के खर्च पर जाँच बैठे तो सेना के मनोबल का क्या होगा? ऐसे ही हालात तब बनते हैं जब एक ओर नदी तटबन्धों को तोड़ने पर आमादा होती है और दूसरी ओर जान-माल की सुरक्षा का सवाल खड़ा होता है।
कोसी का पूर्वी तटबन्ध 126 किलोमीटर लम्बा है और कोपड़िया के निकट जा कर मानसी सहरसा रेल लाइन से जुड़ जाता है। इसी तटबन्ध पर भीमनगर बराज से 121 से 123 किलोमीटर के बीच में 1979 में नदी पूर्वी तटबन्ध के काफी नजदीक आ गई थी। तटबन्ध की इस लम्बाई के बीच में सघन रूप से स्पर बने हुये थे क्योंकि इस दूरी में तटबन्धों पर नदी का जर्बदस्त खतरा बना रहता है। इन स्परों में मुख्य स्पर 121.2 किलोमीटर पर 396 मीटर लम्बा, 121.4 किलोमीटर पर 121 मीटर लम्बा, 121.5 मीटर पर 111 मीटर लम्बा, 121.6 कि0 मी0 पर 84 मीटर लम्बा, 121. 67 कि0 मी0 पर 52 मीटर लम्बा, 121.8 कि मी0 पर 224 मीटर लम्बा, 121.90 कि0 मी0 पर 39 मी0 लम्बा और 122 कि0 मी0 पर 60 मीटर लम्बा था। आखिरी स्पर 122.4 किलोमीटर पर बना हुआ था। यह सारी संरचनायें खगना स्लुइस के दक्षिण और सितुआहा स्लुइस के उत्तर में बनी हुई थीं। 122.4 किलोमीटर वाले स्पर पर एक बड़ा सा पीपल का पेड़ हुआ करता था। 1979 में नदी का पहला हमला इसी स्पर पर हुआ। इस स्पर का कटाव शुरू हुआ जो धीरे-धीरे उत्तर की ओर बढ़ने लगा और 1980 आते-आते 121.2 किलोमीटर वाले स्पर पर दबाव पड़ने लगा।जब हालात बिगड़ने लगे तब साइट पर नियुक्त एस0 डी0 ओ0 ने अपने पत्र संख्या 456 दिनांक 7 जून 1980 के माध्यम से एक्जीक्यूटिव इंजीनियर को सूचित किया कि, ‘‘... पूर्वी तटबन्ध का 121-122 कि0 मी0 वाला रीच बहुत ही नाजुक हो गया है। मुख्यतया 121.25 के बीच नदी (तटबन्ध पर) लम्बवत है। 121.70 किलोमीटर पर तटबन्ध से नदी की दूरी मात्रा 12-15 मीटर अवशेष है। उत्पन्न स्थिति को देखते हुये यह क्षेत्र काफी खतरनाक और भयानक हो गया है। अतः तटबन्धों की सुरक्षा के लिये पर्याप्त रूप से सुरक्षात्मक कार्यों को सम्पन्न कराने की आवश्यकता हो गई है।’’ अब स्परों को बचाने का काम शुरू हुआ ताकि तटबन्धों पर नदी के सीधे हमले को रोका जा सके।
राजेन्द्र उपाध्याय (68), जो कि उस समय वहाँ एक्जीक्यूटिव इंजीनियर थे और तटबन्ध के इस हिस्से की सुरक्षा की जिम्मेदारी उन्हीं की बनती थी, बताते हैं कि, ‘‘... यह 121.25 किलोमीटर वाला स्पर जिस पर नदी सीधा हमला कर रही थी, हमारी और हमारे विभाग की नाक था। स्पर कटा तो नाक कटी। तटबन्धों की आत्मा इन स्परों में बसती थी। करीब दो महीनें तक काफी जिद्दो-जहद की हम लोगों ने इसे बचाने के लिए। रेलवे तथा सेना के इंजीनियरों को भी मदद के लिये बुलाया गया मगर उनका कहना था कि राज्य सरकार के इंजीनियर जो कुछ भी कर रहे हैं, वही सही रास्ता है। ऐसा कह के वह चले गये। हमने डॉ. के0 एल0 राव की हिदायतों के मुताबिक नदी में खुदरा बोल्डर पिंफकवाये और भर-भर कर बालू के बोरे गिरवाये। मगर नदी थी कि तटबन्ध की ओर बढ़ी ही आती थी। अगस्त में तो वह 121.60 कि0 मी और 122 कि0 मी0 के बीच तटबन्ध से जा लगी और 8 अगस्त 1980 को तटबन्धों को लील गई। तटबन्ध कट जाने के बाद हम लोगों ने बहुत कोशिश की कि कटाव की लम्बाई न बढ़ने पाये मगर उसमें भी कामयाबी नहीं मिली और लगभग एक किलोमीटर लम्बाई में तटबन्ध कटा और आखिर में रिटायर्ड लाइन बनानी पड़ गई। गनीमत यही थी कि जब नदी ने तटबन्ध को काटा तो तटबन्धों के बाहर कन्ट्री-साइड में, बाढ़ और जल-जमाव के पानी का लेवल तटबन्धों के अंदर के लेवल के मुकाबले ज्यादा था। तटबन्ध कट जाने के बाद यह पानी नदी की ओर जाने लगा। इसलिए न घर गिरे, न जान-माल का कोई नुकसान हुआ और न फसल खराब हुई। अगर नदी का लेवल ज्यादा रहा होता तो जरूर नुकसान पहुँचता।
हमारी सबसे बड़ी परेशानी बोल्डर्स का तटबन्ध तक नहीं पहुँच पाना थी। यह कोपड़िया स्टेशन तक रेल से आता था जहाँ से हमारी साइट करीब 4 किलोमीटर दूर थी। तटबन्ध कच्चा था और रास्ते खराब। जैसे-तैसे ट्रैक्टर ट्रॉलियों से माल ढोया जाता था जो कि अक्सर कीचड़ में फंस जाती थीं। एक ट्रैक्टर फंसा नहीं कि उसके पीछे ट्रैक्टरों की लाइन लग जाती थी और हम लोग इंतजार करते रह जाते थे। बोल्डर अगर रेल गाड़ी से आये तो बरौनी में बड़ी लाइन से छोटी लाइन के डिब्बों में बदलना पड़ता था जिसमें समय की बहुत बर्बादी होती थी और अगर नाव से आये तो कोसी-गंगा वाला रास्ता बचता था जो कि बरसात के मौसम में बहुत खतरनाक हो जाया करता है।
जैसे काम के दौरान यह सब परेशानियाँ आती हैं वैसे ही काम खत्म हो जाने के बाद पब्लिक पिटीशन, एनक्वायरी कमीशन, जांच या फिर निलम्बन आदि का दौर चलता रहता है। यह सब भी काम का ही हिस्सा होता है और हम लोग इसके आदी हो जाते हैं। इस मामले में भी 1984 में एक एन्क्वायरी हुई थी। तब तक रिटायर्ड लाइन वगैरह सब बन चुकी थी। सारा काम खत्म हो चुका था। अभियोजन पक्ष का कहना था कि बोल्डरों की खरीद और ढुलाई में हेरा-फेरी हुई है। अब अगर दो देशों में युद्ध हो तो लड़ाई के बाद गोला-बारूद और कारतूसों के खर्च पर जाँच बैठे तो सेना के मनोबल का क्या होगा? ऐसे ही हालात तब बनते हैं जब एक ओर नदी तटबन्धों को तोड़ने पर आमादा होती है और दूसरी ओर जान-माल की सुरक्षा का सवाल खड़ा होता है। हमारे ऊपर अभियोग की जाँच अब्दुस्समद साहब, चीफ इंजीनियर ने की थी और हमें क्लीन चिट दी थी। आपत्कालीन परिस्थिति में काम करने वालों से हिसाब लेने वालों के दिमाग की बलिहारी है।’’
स्पर कटने पर एक दिलचस्प टिप्पणी पी. एन. त्रिवेदी-भूतपूर्व चीफ इंजीनियर, बिहार सरकार की है। उनका कहना है कि, ‘‘आप ने कभी सुना है कि सीमा पर सैनिक के शहीद होने पर एन्क्वायरी हुई हो। यह सभी लोग जानते हैं कि वह देश-रक्षा के लिए, हमारे-आप के लिए वहाँ मरने के लिए ही जाता है। यही हाल स्परों का है। वह तटबन्ध की रक्षा के लिए कट जाने के लिए ही बनाये जाते हैं। बरसात के मौसम में जब कोई नदी से आंख नहीं मिला सकता उस समय हम लोग जान हथेली पर रख कर बाढ़ से बचाव की कोशिश करते हैं। उस समय मदद में कोई नहीं आता। मगर बाढ़ के बाद सब आ जाते हैं अपने-अपने ढंग से घटना का विश्लेषण करने। इन सब की परवाह करने लगे तब तो हो चुका बाढ़-नियंत्रण।’’
इसके बाद की कहानी बताते हैं बहुअरवा (पो0 उटेसरा, थाना सलखुआ, जिला-सहरसा) के मुखिया उदय कुमार सिंह (54) जो 1980 में भी अपने गाँव के मुखिया थे।
‘‘...उस समय प्रवाह कम हो गया था। कटाव रोकते समय तो सभी को डर लगता था। किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता था। राजेन्द्र उपाध्याय ने बड़ी मेहनत की। दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा। मगर उनका वह बयान बड़ा मशहूर हुआ था कि ‘हम अपनी तरफ से कटाव रोकने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। देखें भगवान को क्या मंजूर है।’ यह बात अखबार में भी छपी थी। कन्ट्री साइड का पानी ऊँचा था सो नदी में जाने लगा मगर कटाव फिर भी जारी रहा। हमारा गाँव कटा 1981 में और मेरा घर तो सिर्फ दो साल पुराना था, एकाएक बैठ गया। हम लोग थोड़ा सक्रिय थे इसलिए नावों, रिलीफ और संरक्षण का फायदा मिल गया, मेरे मुखिया होने का भी थोड़ा असर पड़ा था। फिर रिटायर्ड लाइन बनी और हम लोगों के पुनर्वास के लिए 13.81 हेक्टेयर जमीन (34.12 एकड़) का अधिग्रहण किया गया। हमारा पुराना गाँव काफी बड़ा था और 120 कि0 मी0 से लेकर 124 कि0 मी0 के बीच बसा था। पुनर्वास वाली जमीन काफी नीची थी और हम लोग चाहते थे कि इसकी भराई करके जमीन हम लोगों को मिले और यहीं से हमारा संघर्ष शुरू हुआ। तीन बार तो यहाँ टेकनिकल ऐडवाइजरी कमेटी की टीम आई। तीसरी कमेटी ने गड्ढा भराई के लिये सिफारिश की और 40 लाख रुपये का एस्टीमेट बनाया जिसके विरुद्ध मात्र 10 लाख रुपये स्वीकृत हुये। जमीन प्रायः डेढ़ मीटर नीची थी और केवल एक चौथाई गड्ढा भरा जा सका। बाकी सब वैसे ही पड़ा रह गया। अब हालत यह है कि हमारा गाँव तो है बाहर और खेती की जमीन है तटबन्धों के अन्दर और वह भी बर्बाद हो चुकी है। जीविका का कोई साधन नहीं है और सिर्फ दिल्ली-पंजाब वगैरह में मजदूरी का आसरा है। उधर थोड़ा अच्छा पैसा मिल जाता है इसलिए लोग कुछ बचा भी लेते हैं। अब इसी पैसे से लोग खुद भरावट करके घर बना रहे हैं।
हम लोगों ने कोई कोशिश बाकी नहीं लगा रखी। विधान परिषद की याचिका समिति तक को लिखा। बहस हुई, फैसले हुये मगर जमीन पर कुछ नहीं हुआ। मेरे इसी घर में मुख्यमंत्री, भूतपूर्व मुख्यमंत्री, जल-संसाधन मंत्री और न जाने कितने चीफ इंजीनियर आये गये होंगे। किसी की आवभगत में कोई कमी नहीं उठा रखी थी हम लोगों ने, मगर मेहमान-नवाजी के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगा। रिटायर्ड लाइन पर जो स्पर बने उसकी जमीन का मुआवजा भी बीस वर्ष से ऊपर हो गया अभी तक नहीं मिला। कोसी बेल्ट का तो जीवन की संघर्षमय है। यहाँ जरा सी देर में आदमी राजा से रंक बनता है।’’
Path Alias
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