पूर्वी कोसी नहर से सिंचाई

नहरी पानी का एक बड़ा हिस्सा नहर से ही जमीन में रिस जाता है और खेतों तक पहुँचते-पहुँचते इसका परिमाण आधे के आस-पास रह जाता है जिससे जहाँ एक ओर खेतों को पानी समुचित मात्रा में नहीं मिल पाता वहीं नहर की पूरी लम्बाई में जल-जमाव बढ़ता है। इसके अलावा बहुत से स्थानों पर इन नहरों के निर्माण के कारण वर्षा के स्वाभाविक पानी की निकासी के रास्ते रुक गये जिससे जल-जमाव बढ़ा। कोसी के पानी के साथ आने वाली रेत भी नहरों के जरिये खेतों पर फैल कर उन्हें चौपट करने लगी।

पूर्वी कोसी मुख्य नहर का निर्माण 1957 से शुरू हुआ और इससे पहली बार सिंचाई 1964 में मिली जब 8 जुलाई 1964 को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने बीरपुर में नहर के हेड-वर्क्स से नहर में पानी छोड़ कर उसका उद्घाटन किया। राजपुर नहर का निर्माण 1962 से शुरू हुआ और इस नहर से सिंचाई पहली बार 1968 में मिली। नहर से होने वाली सिंचाई का विवरण तालिका 5.1 में दिया गया है। पूर्वी कोसी मुख्य नहर तथा राजपुर नहर द्वारा की गई सिंचाई के यह आंकड़े बहुत ज्यादा विश्वास नहीं जगाते। जहाँ 7.12 लाख हेक्टेयर में सिंचाई होनी थी वहीं सर्वाधिक सिंचाई (1983-84) 2.13 लाख हेक्टेयर पर जा कर अटक गई। इसके पहले भी एक उछाल 1972-73 में आया था जबकि 2.02 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर इस नहर से सिंचाई हुई थी। नहर की सिंचाई के लक्ष्य से इतनी दूरी और वह भी लगातार, यह सभी के लिये चिन्ता का विषय था। इसका कारण कुछ तो तकनीकी और कुछ पारम्परिक था। कोसी के निरन्तर धारा बदलते रहने के कारण इलाके की जमीन ऊँची-नीची थी। इसलिए बड़े आकार की नहरें तो आसानी से बन गईं मगर जब छोटी-छोटी नहरों से पानी को खेतों तक पहुँचाने की बात आई तब जमीन का ऊँचा-नीचा होना आड़े आया। यहाँ आकर सिंचाई विभाग फंस गया। फिर सदियों से लोग कोसी के साथ जीवन जीते आये थे और उसी के अनुरूप उन्होंने अपनी खेती और सिंचाई की जो भी व्यवस्था विकसित की रही हो उसे तुरन्त छोड़ पाना और उसके बदले में एक ऐसी व्यवस्था को रातों-रात स्वीकार कर लेना जिसके परिणामों के प्रति वह आश्वस्त न रहे हों, यह उनके लिए मुश्किल पड़ रहा था। भाखड़ा या गंगा और यमुना नहरों के किस्से सुनना और सुनाना और उन इलाकों में हुई तरक्की की मिसाल देना एक बात थी मगर उस प्रणाली को अपनी जमीन में उतारना एकदम अलग बात थी।

फिर कोसी नहरों से सिंचाई की जो योजना बनी थी उसमें केवल 5 क्यूसेक प्रवाह तक की नहरों का निर्माण कोसी परियोजना को करना था और किसानों से यह उम्मीद की गई थी इसके आगे खेतों तक पानी ले जाने का इंतजाम वह खुद कर लेंगे। अच्छा यह हुआ कि सरकार को खुद ही यह लगा कि ऐसी उम्मीद रखना गलत है और तब परियोजना की तरफ से एक क्यूसेक क्षमता तक की नहरों को बनाने का काम शुरू हुआ। समस्या लेकिन अपनी जगह बनी रही क्योंकि एक क्यूसेक के आगे भी नालियों के निर्माण के लिए संसाधन चाहिये और तकनीकी हुनर भी। किसानों के पास इन दोनों में से कुछ भी नहीं था। जमीन को समतल करना नामुमकिन था और नालियों को ही उसके अनुरूप बनाना होगा, यह बात सब की समझ में आने लगी थी मगर उस समय इसकी कोई तैयारी नहीं थी। वास्तव में एक क्यूसेक क्षमता वाली नहरों का निर्माण कर के सिंचाई विभाग यह मानने लगा था कि उसने सिंचाई समस्या का समाधान कर दिया है जबकि सच यह है कि सिंचाई की समस्या शुरू यहीं से होती है।

ठीक इसी तरह की समस्या पहले बंगाल में दामोदर घाटी निगम और मयूराक्षी बांध के कमान क्षेत्र में भी देखने को मिली थी जहाँ (1) औसत वर्षा 1140 मिलीमीटर से 1270 मिलीमीटर होती थी जबकि धान के लिए 1000 मिलीमीटर काफी होता था और इसलिए किसान नहर के पानी का उपयोग केवल सूखे के वर्षों में ही करते थे, (2) पानी के उपयोग किये जाने के अनुमान भी कुछ जरूरत से ज्यादा महत्वाकांक्षी कर लिए गये थे, (3) शुरू में वाटर कोर्सेज न बनने की वजह से पानी एक खेत से हो कर दूसरे खेत में जाता था जिसकी वजह से 20 से 30 प्रतिशत पानी जमीन में रिस कर नष्ट हो जाता था और (4) नहरों का करीबन आधा कमान क्षेत्र ऊबड़-खाबड़ था जहाँ सब जगह पानी पहुँचाना नामुमकिन था और किसान अपनी जमीन समतल करने की स्थिति में नहीं थे।

इसके अलावा नहरी सिंचाई की योजना बनाने के कुछ बुनियादी उसूल होते हैं। इलाके के तकनीकी महकमों में आमतौर पर यह माना जाता है कि एक क्यूसेक पानी से 100 एकड़ (40 हेक्टेयर) क्षेत्र पर सिंचाई हो जाती है। इसी मान्यता पर सिंचाई क्षेत्र आदि का अनुमान किया जाता है। यह मान्यता ही संदेह के दायरे में है। नहरी पानी का एक बड़ा हिस्सा नहर से ही जमीन में रिस जाता है और खेतों तक पहुँचते-पहुँचते इसका परिमाण आधे के आस-पास रह जाता है जिससे जहाँ एक ओर खेतों को पानी समुचित मात्रा में नहीं मिल पाता वहीं नहर की पूरी लम्बाई में जल-जमाव बढ़ता है। इसके अलावा बहुत से स्थानों पर इन नहरों के निर्माण के कारण वर्षा के स्वाभाविक पानी की निकासी के रास्ते रुक गये जिससे जल-जमाव बढ़ा। कोसी के पानी के साथ आने वाली रेत भी नहरों के जरिये खेतों पर फैल कर उन्हें चौपट करने लगी।

कोसी पूर्वी मुख्य नहर से जब सिंचाई शुरू हुई तो यह सारी की सारी समस्याएं एक साथ उभर कर सामने आईं और इसी के साथ खुल कर सामने आई समस्या विभागीय अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार की। जिस साल कोसी नहर से सिंचाई शुरू हुई उसी मौसम में पीताम्बर सिंह (1965), सदस्य-विधान सभा, ने सरकार को सुझाव दिया कि, ‘‘...जो पटवन की सुविधा है उसे बढ़ाने की जरूरत है। सबसे बड़ी बात है कि जो विलेज चैनेल है और जो खेती के लिए जरूरी है उसे ठीक करना है। हालाँकि मंत्री महोदय ने आश्वासन दिया कि वे इसके लिए एक बिल ला रहे हैं। इस चीज को उनको बहुत पहले करना चाहिये था। ...जिस जमीन में सिंचाई नहीं होती है उसके लिए भी जोर जबर्दस्ती से रेन्ट वसूल किया जाता है।’’ ... वायदों के अनुसार अपेक्षित सिंचाई न मिलने की शिकायत की जगदम्बी प्रसाद यादव (1965) ने जब उन्होंने कहा कि, “... आपने आंकड़े देकर बता दिया कि इतनी अधिक जमीन की सिंचाई व्यवस्था आप ने कर दी, मगर आप देखेंगे तो पता चलेगा कि पुरानी जो व्यवस्था सिंचाई की थी और उससे जितनी जमीन को फायदा होता था उससे अधिक जमीन को नई व्यवस्था से फायदा नहीं मिल रहा है ...मतलब यह है कि आपको इस तरह का मूल्यांकन समय-समय पर करना चाहिये ... कि जितना पैसा एक योजना पर खर्च होता है उसके हिसाब से फायदा कितना होता है।’’

दीप नारायण सिंह ने जब सरकार की तरफ से एक क्यूसेक बनाम 100 एकड़ के इस फार्मूले से बिहार विधान सभा को अवगत करवाया (1968) तब वह काफी हर्षित थे। उन्होंने कहा कि, “...एक क्यूसेक का अर्थ होता है कम से कम 100 एकड़ जमीन का पटवन उससे होगा। उसके बाद किसान लोग अपने से मोरियाँ बनायें, यह जवाबदेही उन पर छोड़ दी गई है। मुझे यह कहने में हर्ष हो रहा है कि किसानों ने अपनी जवाबदेही सही-सही तरीके से निभाई है।’’ जाहिर है कि एक क्यूसेक नहरी पानी से 100 एकड़ जमीन की सिंचाई हो जाती है, यह बात नेताओं को इंजीनियरों ने ही सिखाई होगी। मगर इन्हीं नेताओं द्वारा सिंचाई का पूर्वानुमान लगाने वाले फार्मूले, एक क्यूसेक से 100 एकड़ की सिंचाई की खूब खिंचाई हुई। अनूप लाल यादव ने सरकार की तरफ से दिये गये इस बयान की अच्छी गत बनाई। उन्होंने कहा कि, ‘‘...हमारे एरिया में विलेज चैनेल बने हुये हैं लेकिन इसी हिसाब के चलते कि एक क्यूसेक पानी में 100 एकड़ की सिंचाई होगी, सिंचाई नहीं हो पा रही है। यह बात बिलकुल गलत है। ज्यादा से ज्यादा एक क्यूसेक में 50 एकड़ की सिंचाई हो सकती है, इससे ज्यादा सिंचाई नहीं होती है ... हमने अपने एरिया में डेवलपमेन्ट कमिश्नर के साथ दौरा किया और ... उन्होंने कबूल किया कि सिंचाई विभाग का यह हिसाब गलत है। ...मैं गाँवों में घूमता हूँ तो किसान कहते हैं कि ...हमारे खेतों में पानी नहीं जा रहा है। मैंने पूछा कि क्यों नहीं जा रहा है तो उन्होंने कहा कि एक क्यूसेक पानी में 100 एकड़ की सिंचाई होगी, इसी हिसाब के चलते।’’

भीम नगर के पास पूर्वी कोसी मुख्य नहर का हेड-वर्क्सभीम नगर के पास पूर्वी कोसी मुख्य नहर का हेड-वर्क्सउधर अररिया नहर वाले इलाके से, जहाँ सिंचाई के लिए पानी देना काफी पहले शुरू हुआ था, शिकायतें आनें लगीं कि नहरों का अलाइनमेन्ट ठीक नहीं है और उनमें पानी नहीं चढ़ता। उस इलाके में लोगों को लगने लगा था कि सिंचाई के लिहाज से इस नहर की कोई उपयोगिता नहीं है। इन नहरों की वजह से वर्षा के समय पानी की निकासी में बाधा पड़ी। नहर से रिसाव का पानी गाँवों में घुसने लगा था और खड़ी फसल बर्बाद हुई। कई जगहों पर गाँव वालों को विभागीय अधिकारियों से कह कर पानी की निकासी के लिए नहरों को कटवाना पड़ा तब जा कर पानी से थोड़ी बहुत रिहाई मिली।

सरकार की तरफ से सफाई दी गई कि, ‘‘...गत वर्ष पानी के जमाव के जोर को कम करने के लिये अररिया उप-शाखा नहर के कुछ हिस्सों में छः जगह कटाव करना पड़ा। गत वर्ष बाढ़ बहुत भीषण थी। अररिया उप-शाखा नहर के दबाव के कारण कुछ साइफन बनाने का विचार किया गया, लेकिन गर्मी के दिनों की सिंचाई व्यवस्था को मद्दे नजर रखते हुये इन निर्माण कार्यों को रोकना पड़ा। इस वर्ष भी दाहिने किनारे पर 4 से 7 किलोमीटर और 18 से 22 किलोमीटर तक काफी बाढ़ आई। मानिकपुर और ठीला मोहन गाँवों को क्षति पहुँची है। 6 जगहों पर इनलेट बनाने की तैयारी है ...अभी दो दिन के अन्दर की खबर है कि कुछ हिस्सों में पानी जम गया है। आर.डी. 95 के पास किसानों ने मुख्य नहर को काट दिया है। एक जगह पर अररिया नहर भी काट दी गई है ...राज्य सरकार जागरूक है।’’

सरकार जरूर जागरूक थी क्यांकि वर्ष 1969-70 में कोसी नहरों से 7.12 लाख हेक्टेयर के सिंचाई के लक्ष्य के विरुद्ध केवल 1.29 लाख हेक्टेयर क्षेत्र (मात्रा 18 प्रतिशत) पर सिंचाई हुई थी और वह इस लक्ष्यहीनता से बचाव के बहाने खोज रही थी। लहटन चौधरी ने विधान सभा में बयान दिया कि, “...इससे 7.41 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई की व्यवस्था हो सकेगी लेकिन अभी लगभग 6.48 लाख हेक्टेयर की सिंचाई की जाने को है। यह क्षमता उत्पन्न हो गई है किन्तु पूरी जगहों में हम पानी नहीं दे पा रहे हैं। ...एक समस्या यह है कि बालू जम जाता है जिससे कि पानी का बहाव अवरु( हो जाता है। दूसरी बात है कि किसानों ने अभी तक फील्ड चैनेल नहीं बनाया है। ...तीसरी बात है कि ऊपर में कुछ अव्यवस्था के कारण जितनी जरूरत है उससे ज्यादा पानी बहाने की कोशिश करते हैं, लोग इस पर नियंत्रण नहीं होने देना चाहते। चौथी बात है बालू का जमना, लेकिन इसकी यह स्थिति ज्यादा दिनों तक नहीं रहेगी। हम ऐसी व्यवस्था कर रहे हैं जिससे हर जगह पानी पहुँचेगा ...हम एक नई योजना शुरू कर रहे हैं वह है सिल्ट इजेक्टर का निर्माण। इससे बालू रोकने की व्यवस्था होगी और बालू नदी में वापस चला जायेगा।’’

मुरली गंज शाखा नहरमुरली गंज शाखा नहरनहरों में जमा होने वाली रेत अपने आप में बहुत बड़ी समस्या थी। नहर के तल में रेत बैठ जाने से उसकी सतह ऊपर उठने लगी थी जिससे नहर की प्रवाह क्षमता घटती थी, खेतों को पानी कम मिलता था और उन पर बालू फैलता था। नहरों में बैठती हुई इसी रेत और उसकी सफाई ने कोसी परियोजना में भ्रष्टाचार और लूट-पाट की कितनी कहानियाँ लिखीं जिसे आज भी कुछ लोग जल-भुन कर सुनते हैं तो कुछ जला-भुना कर सुनाते हैं। कोसी नहरों से बालू हटाने की एक घटना का जिक्र बैद्यनाथ प्रसाद मेहता (1970), विधायक ने बिहार विधान सभा में किया था। एक बार वह बीरपुर होते हुये नेपाल की यात्रा पर थे। पूर्वी कोसी मुख्य नहर के पास उनकी गाड़ी रेत में फंस गई। तब उन्हें नहर में बालू सफाई का काम देखने का मौका मिल गया। उन्होंने बताया कि, ‘‘यहाँ की मिट्टी काट कर वहाँ देता है और वहाँ की मिट्टी काट कर यहाँ देता है। थोड़ी सी ऊँची-नीची जमीन को बराबर करता है यानी ड्रेसिंग का काम होता है। मुझे लोग पहचानते नहीं थे इसलिए काम लोग अपने तरीके से कर रहे थे और हम देख रहे थे। यह सब सिल्टेशन के काम में होता है और रुपया पेमेन्ट होता है। मैं आप से कहना चाहता हूँ कि नदी घाटी योजना का काम देखने लायक है।’’ मेहता को 1963 में बने बराज पर 1970 में सिल्ट इजेक्टर बैठाने की तुक भी समझ में नहीं आती थी और वैसे भी उनका मानना था कि इस इजेक्टर के निर्माण में नेताओं के अपने लोगों को खाने-खिलाने की व्यवस्था हो रही है और उसी के हिसाब से इस काम के लिए इंजीनियरों और ओवरसियरों का तबादला और नियुक्ति की जा रही है।

कोसी परियोजना में भ्रष्टाचार का आरोप लगना रेत की सफाई से ही नहीं शुरू हुआ, इसकी शुरुआत उसी दिन हो गई थी जिस दिन भुतहा में डॉ. श्रीकृष्ण सिंह ने कोसी परियोजना का शिलान्यास किया था। यहाँ हम केवल पूर्वी नहर की बात कर रहे हैं। ऐसा ही एक आरोप जय कुमार सिंह ने भी विधान सभा में लगाया। उन्होंने कहा कि, ‘‘जो काम हुआ है और जो राष्ट्रीय सम्पत्ति व्यय हुई है उससे यही अन्दाजा होता है कि आधा खर्च हुआ है। खास करके जो ड्रेसिंग वगैरह का काम होता है उस पर जो पैसे खर्च हुये वह गोया खर्च हुये ही नहीं। इस विभाग में जो ओवरसियर, एस. डी.ओ., एक्जीक्यूटिव इंजीनियर हैं उन सभी लोगों का परसेन्टेज मुकर्रर है। वे काम पर बहुत कम जाते हैं या देखते हैं, उन्हें अपने परसेन्टेज से मतलब है ...कुमार खंड प्रखण्ड की गंगापुर शाखा नहर के 48 आर. डी. पर अभी एक साइफन बन रहा है। मैं परसनली लोगों की शिकायत पर एक रोज उसे देखने के लिए गया। वहाँ क्या देखा कि बिना ईंट भिंगाये हुये जुड़ाई हो रही थी। सीमेन्ट और बालू की जो तायदाद थी उसमें सीमेन्ट नहीं के बराबर था जबकि साइफन के लिए 1 और 4 की जुड़ाई निश्चित है। सीमेन्ट को यहाँ पर बचाया जाता है। इस पर कारीगर ने हम से पूछा कि आप कौन हैं? हम ने कहा कि हम एक पब्लिक हैं। इसी बीच में किसी ने कह दिया कि आप इस क्षेत्र के एम.एल.ए. हैं। इस पर कारीगर ने मुझ से कहा कि हुजूर बिना प्रोग्राम के ही यहाँ चले आये। हम लोग तो ऐसे ही काम करते हैं।’’

1972 आते-आते तक परियोजना में समस्याओं का अंबार लग गया और हर तरफ से सिंचाई का न हो पाना, जल-जमाव में बढ़ोतरी और बालू के विस्तार को लेकर जाँच बैठाने की मांग उठने लगी। इसके अलावा किसानों पर कैनाल रेट कमाण्ड एरिया के आधार पर लगता था यानी किसान खेती करे या उसे परती छोड़ दे, उसमें जल-जमाव हो या बालू की परत बैठी हो, इससे विभाग को कोई मतलब नहीं था। अगर किसान का खेत नहर के कमान क्षेत्र के नक्शे की सीमाओं में पड़ता है तो विभाग का काम किसानों को नोटिस भेजना था और पैसे की अदायगी न होने पर किसान की कुर्की, जब्ती करना और बैल खोल कर ले जाना था।

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Post By: tridmin
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