कोसी परियोजना में नहरों से बालू की निकासी एक उद्योग की शक्ल में सामने आई। जहाँ एक ओर किसान अपने खेतों पर बालू पड़ जाने से और नहर के सुचारु रूप से न चल पाने के कारण परेशान थे वहीं कुछ स्वार्थी तत्वों ने नहरों की सफाई में अपना फायदा खोज लिया। ऐसे लोग चाहते थे कि नहरों में बालू जमा हो जिसकी सफाई करके वह अपने जखीरे बढ़ा सकें।
सन 2004 तक पूर्वी कोसी मुख्य नहर में बालू पटा पड़ा था। बीरपुर डिवीजन में जहाँ से यह नहर बराज के उत्तर से निकलती है, मुख्य नहर अपनी पूरी गहराई में बालू से भर गई थी। इस बालू को निकालने की कोशिशें भी बेकार हो रही थीं और सबसे बड़ी समस्या थी कि बालू को लेकर भी कहाँ जाया जायेगा? इस नहर की प्रवाह क्षमता 15,000 घनसेक (लगभग 425 घनमेक) है और यह नहर अपनी चौथाई क्षमता 100 से 115 घनमेक के प्रवाह पर ही लबालब भर जाती थी। बीरपुर डिवीजन के इंजीनियरों का कहना है कि नहर तो अब उनके डिवीजन में फुल सप्लाई लेवेल तक बालू से पट चुकी थी अतः अब उसमें ज्यादा पानी देना ही मुमकिन नहीं था। जब तक नहर से बालू को नहीं हटाया जायेगा तब तक नहर का उद्धार नहीं हो सकता था और बालू हटाने की सम्भावनाएँ नजर नहीं आती थीं।2004 के अन्त में पूर्वी कोसी मुख्य नहर के बालू की सफाई के लिए 54 करोड़ रुपयों की लागत से एक बहुत ही महत्वाकांक्षी योजना राज्य के जल-संसाधन विभाग द्वारा हाथ में ली गई। इस सफाई का काम 4,000 ट्रैक्टरों के माध्यम से मई-जून 2005 तक पूरा कर लिया गया था। इस तरह से कई वर्षों के बाद अब इस नहर से पूरी गहराई और पूरी क्षमता के साथ पानी दिया जा सकेगा। नहर की इस सफाई और पानी की पूरी आपूर्ति का भविष्य में क्या प्रभाव पड़ेगा यह तो समय ही बतायेगा पर एक बात जो साफ दिखाई पड़ती है वह यह कि मुख्य नहर के दोनों किनारों पर रेत के पहाड़ दिखाई पड़ते हैं। ऐसा लगता है कि नहर के दोनों किनारों पर पर्याप्त मात्रा में जमीन उपलब्ध थी जिस पर इस रेत को रखा जा सका। स्थानीय किसान बताते हैं कि यह रेत अभी तो उनकी जमीन पर नहीं पड़ी है मगर भविष्य में अगर नहर की फिर कभी खुदाई करनी पड़ी तो उनकी जमीनें रेत की चपेट में आयेंगी।
कोसी नहर की बालू की समस्या को समझने के लिये हमें थोड़ा पीछे की ओर जाना पड़ेगा। हम पहले पढ़ आये हैं कि कोसी के प्रवाह में हर साल इतना बालू आता है कि उससे यदि एक मीटर चौड़ी और एक मीटर ऊँची मेड़ बनाई जाय तो वह भूमध्य रेखा के करीब ढाई चक्कर काटेगी। इतना बालू अपने साथ लेकर कोसी जब बीरपुर पहुँचती है तो उसके सामने 56 फाटकों वाला एक किलोमीटर से श्यादा लम्बा बराज खड़ा मिलता है। इस पानी में से बालू का कुछ हिस्सा बराज के उत्तर में जमा होने लगता है, कुछ हिस्सा जो फाटकों से होते हुये तटबन्धों के बीच में पहुँच जाता है उसका कुछ भाग गंगा होते हुये समुद्र की राह पकड़ता है और बाकी नदी की पेटी में जमा होने की कोशिश करता है। नदी के पानी का वह हिस्सा जिसे नहरों में प्रवाहित कर दिया जाता है, नहर की तलहटी में बालू का जमाव पैदा करता है। कुछ बालू पानी के साथ खेतों तक भी पहुँच जाता है। नहरें ठीक-ठाक ढंग से काम कर सकें, इसलिए उनकी तलहटी से समय-समय पर बालू निकालना पड़ता है।
कोसी परियोजना में नहरों से बालू की निकासी एक उद्योग की शक्ल में सामने आई। जहाँ एक ओर किसान अपने खेतों पर बालू पड़ जाने से और नहर के सुचारु रूप से न चल पाने के कारण परेशान थे वहीं कुछ स्वार्थी तत्वों ने नहरों की सफाई में अपना फायदा खोज लिया। ऐसे लोग चाहते थे कि नहरों में बालू जमा हो जिसकी सफाई करके वह अपने जखीरे बढ़ा सकें। इस तरह जहाँ ए.के. मित्रा और एस.के. जैन जैसे इंजीनियर नहरों के संचालन को दुरुस्त करके नहर में बालू की मात्रा को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे थे और उनका सुझाव था कि जब नहर के पानी में बालू की मात्रा अधिक हो जाय तब उसे बन्द कर दिया जाय वहीं निहित स्वार्थ चाहते थे कि नहरों में बालू जमा होता रहे। बाद में नहरी पानी से मोटे बालू को अलग करने के लिये एक सिल्ट इजेक्टर नहर में लगाया गया मगर उसे भी इन लोगों ने अपनी मौत मरने दिया। सिल्ट इजेक्टर अगर ठीक से काम करता तो इनके हितों को चोट पहुँचती।
कोसी नहर और बालू काण्ड पर बिहार विधान सभा की 50वीं और 53वीं प्राक्कलन समिति की रिपोर्ट (1972-73) में विशेष रूप से चर्चा हुई है। इन दोनों रिपोर्टों के प्रकाशन के बाद बिहार में एक राजनैतिक बवण्डर चल पड़ा था क्योंकि सरकारी धन के दुरुपयोग की बहुत सी घटनाओं को नाम सहित और राशि सहित इन रिपोर्टो में जगह मिली थी इस रिपोर्ट में ठेकेदारों के राजनैतिक सम्पर्क सूत्रों का भी जिक्र था। सारी घटनाओं को समेटते हुये 53वीं रिपोर्ट कहती है, ‘‘...इस तरह मुख्य पूर्वी कोसी नहर के बीरपुर डिवीजन में तलछट निकासी में राजकीय कोष के अपव्यय और अपहरण के कतिपय मामलों का ही उल्लेख किया गया है, यों विशेष छानबीन पर ऐसे हजारों उदाहरण इस प्रमण्डल में और मिलेंगे पर समयाभाव के कारण उनकी छानबीन और उनका उल्लेख सम्भव नहीं हो सका है। यहाँ पर यह उल्लेख कर देना भी आवश्यक है कि ये कुछ अपहरण तो सिर्फ मुख्य नहर की तलछट निकासी से सम्बन्धित हैं पर इससे भी ज्यादा लूट के कारनामें तो बाढ़ नियंत्रण तथा सुरक्षात्मक कामों एवम् राजपुर नहर में राघोपुर प्रमण्डल में किये गये हैं, ऐसी सूचनायें समिति को बीरपुर में यहाँ के जन-प्रतिनिधियों के द्वारा प्राप्त हुई है। पर चूँकि लाख प्रयत्न करने के बावजूद विभाग द्वारा राघोपुर प्रमण्डल में की गई डिसिल्टिंग अथवा मरम्मत से संबन्धित कागजात समिति को उपलब्ध नहीं कराये जा सके फलतः उनकी छानबीन नहीं हो सकी और न ही वहाँ राजकीय कोष के दुरुपयोग का पता ही लगाना सम्भव हो सका है।’’
इस तरह बालू निकासी में काफी अनियमिततायें बरती गईं। जो सिल्ट इजेक्टर लगाया गया वह भी जमीन में दफन हो गया। इसका व्यावहारिक नुकसान जो हुआ वह यह था कि सिल्ट इजेक्टर का उपयोग करने से नहर की प्रवाह क्षमता 2,000 घनसेक (57 घनमेक) घट गई और अब इसकी निर्धारित क्षमता 13,000 घनसेक (369 घनमेक) हो गई यानी अनुमान के मुताबिक 2 लाख एकड़ सिंचाई वाला क्षेत्र (लगभग 81,000 हेक्टेयर) अकेले सिल्ट इजेक्टर खा गया। वैसे भी बिजली घर के नहर के बीच अवस्थित होने के कारण कभी भी नहर में 10,000 घनसेक (283 घनमेक) से ज्यादा पानी दिया नहीं जा सका था।
एक लंबे समय से जल-संसाधन विभाग संसाधनों के अभाव से जूझ रहा था और उसके लिए मुख्य नहर को अपने मूल रूप में सुरक्षित रख पाना नामुमकिन था। जब मुख्य नहर से ही पानी नहीं दिया जा सके तो शाखा नहरों या छोटी नहरों और वितरणियों में पानी कहाँ से दिया जाता? आशा की जाती है कि नहर की खुदाई के बाद, थोड़े ही समय के लिए ही सही, मगर परिस्थिति में कुछ सुधार जरूर होगा। हम थोड़े ही समय की बात इसलिए कर रहे हैं क्योकि नहर तो जल्दी ही फिर बालू से पट जायेगी।
नहर में पानी लग जाने से मिर्जापुर में तो नहर अपने आप बाएं किनारे पर टूट गई मगर इसके बावजूद इससे नहर के उत्तर की समस्या का समाधान नहीं होता था तो वह लोग काटने आ गये। नहर के दक्षिण में नरपत गंज के गढ़िया, खैरा, चन्दा और धनकाही आदि गाँव पड़ते हैं। नहर कटने की स्थिति में यह गाँव पानी के चपेट में आते। अब नहर बीच में और उत्तर और दक्षिण के दोनों तरफ के ‘युयुत्सु’ लोग अपने-अपने हथियारों, लाठी-डण्डा और बन्दूकों के साथ आमने-सामने। मगर नहर काट दी गई।
यह नहर पानी के प्राकृतिक बहाव को सीधे-सीधे काटती है क्योंकि यह लगभग पश्चिम से पूरब की ओर जाती है और जमीन का ढलान उत्तर से दक्षिण की ओर है। उत्तर दिशा से आने वाला सारा पानी, चाहे वह विभिन्न धारों से आता हो या सीधा वर्षा का पानी हो, नहर के उत्तरी भाग में अटक जाता है। धारों का भी पानी उत्तर दिशा में फैलता है और नहर पर ही खतरा पहुँचाता है। कभी-कभी नहर टूट भी जाती है और कभी-कभी उत्तर वाले गाँवों के लोग, जिन्हें इस अटके हुये पानी से नुकसान पहुँचता है, नहर को काट देते हैं। पूर्वी नहर के इस अटके और नहर तोड़ कर निकलते हुये पानी से सुपौल जिले के बसन्तपुर, छातापुर और अररिया जिले के नरपत गंज प्रखण्डों के कितने ही गाँव बरसात के मौसम में डूबते उतराते रहते हैं। यह पानी पश्चिम में बिशुनपुर से लेकर बलुआ (पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र का गाँव), चैनपुर, ठुट्ठी, मधुरा से लेकर पूरब में बथनाहा तक चोट करता है और जल-जमाव की शक्ल में लम्बे समय तक बना रहता है जिससे बरसात के मौसम में डेढ़ दो महीने तक भारी तबाही रहती है। 2002 में ठुट्ठी के पास धानुक टोली गाँव वालों ने नहर को काट दिया था। यहाँ लोग जानते हैं कि सोमवार के दिन कटैया बिजली घर को फ्ऱलश करने के लिए नहर बन्द रहती है और उसके पानी का कोई खतरा नहीं रहता। इसलिए नहर काटने के लिये सोमवार का दिन ही सबसे उपयुक्त होता है।होता यह है कि फुलकाहा थाने (नरपत गंज प्रखण्ड) के लक्ष्मीपुर, मिर्जापुर, मौधरा, रघू टोला, मिलकी डुमरिया, नवटोलिया, मंगही और संथाली टोला आदि गाँवों के पानी की निकासी कजरा धार पर बने साइफन से होती है। इस साइफन की पेंदी ऊँची है इसलिए यह सारे पानी की निकासी नहीं कर पाता है और वैसे भी इसकी क्षमता कम है। नहर में पानी लग जाने से मिर्जापुर में तो नहर अपने आप बाएं किनारे पर टूट गई मगर इसके बावजूद इससे नहर के उत्तर की समस्या का समाधान नहीं होता था तो वह लोग काटने आ गये। नहर के दक्षिण में नरपत गंज के गढ़िया, खैरा, चन्दा और धनकाही आदि गाँव पड़ते हैं। नहर कटने की स्थिति में यह गाँव पानी के चपेट में आते। अब नहर बीच में और उत्तर और दक्षिण के दोनों तरफ के ‘युयुत्सु’ लोग अपने-अपने हथियारों, लाठी-डण्डा और बन्दूकों के साथ आमने-सामने। मगर नहर काट दी गई। मामला मुकदमा हुआ, पंचायत बैठी, अफसरान आये तब जा कर कहीं तय हुआ कि केस वापस ले लीजिये, आगे से नहीं काटेंगे।
चन्दा गाँव में कोसी प्रोजेक्ट की एक कॉलोनी है जहाँ उनका स्टाफ रहता है। नहर कटने के बाद नहर का ओवरसियर घटना स्थल पर पहुँचा तो दक्षिण के गाँव वालों ने उसे पकड़ लिया, गाली-गलौज की और एक घर में ले जा कर बन्द कर दिया। बाद में उसे कोसी प्रोजेक्ट वाले छुड़ा कर ले गये। इन गाँवों के लोग कई साल से नहर में एक स्लुइस गेट लगाने की मांग कर रहे हैं ताकि उन्हें नहर काटना न पड़े मगर इस पर अभी कोई सुनवाई नहीं हो रही है। सुरसर धार का पानी भी निकलने में इसी प्रकार की कठिनाइयाँ आती हैं। जहाँ यह धार मुख्य नहर को पार करती है वहीं पास के मंगटी गांव के लोग बरसात में रहने के लिये कोसी प्रोजेक्ट की बथनाहा कॉलोनी में चले जाते है और बाकी लोग माल-मवेशी के साथ नहर पर। पूर्वी कोसी मुख्य नहर का कमोबेश पूरी लम्बाई में यही किस्सा है। नहर एक जगह टूटी या कटी तो उसके आगे की सिंचाई तो अपने आप बन्द हो जायेगी। वैसे भी खरीफ के मौसम में पानी की बहुत कम जरूरत पड़ती है।
नहर के उत्तरी किनारे पर अब (2006) जो रेत के टीले बने हैं वह आज के मुकाबले उत्तर की ओर से आने वाले वर्षा के पानी को ज्यादा मात्रा में और ज्यादा गहराई में अटका कर रखेंगे जिससे नहर के उत्तर वाले इलाकों में जल-जमाव की समस्या ज्यादा गंभीर होगी। नहर की खुदाई हो जाने पर भी इस तरह की झगड़े-झंझट की घटनाओं में कोई कमी नहीं आयेगी क्योंकि अब तो नहर के बांध पहले से भी ज्यादा ऊँचे हो गये हैं। यह भी बड़ी अजीब बात है कि पूर्वी कोसी मुख्य नहर की खुदाई में 54 करोड़ रुपये का केवल मिट्टी का काम हुआ और स्थानीय मजदूरों को मजदूरी के नाम पर एक भी पैसा नहीं मिला।
कटैया पन-बिजली घर के पुनरुद्धार के लिए जापान के इंजीनियरों की एक टीम ने दिसम्बर 2003 में इस बिजली घर का एक दौरा किया था। इस समय तक इस बिजली घर की क्षमता घट कर 1 मेगावाट के निचले स्तर पर पहुँच गई थी। जापानी इंजीनियरों ने आश्वासन दिया कि बिजली घर की उत्पादन क्षमता को 20 मेगावाट तक वापस पहुँचा दिया जायेगा। इस यात्रा से यह उम्मीद बंधी थी कि सरकार इस बिजली घर की बदहाली के प्रति सचेष्ट है मगर इस यात्रा के बाद फिर कुछ सुनने में नहीं आया।
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